बंजारन
कथा साहित्य | कहानी संगीता राजपूत ‘श्यामा’1 Feb 2023 (अंक: 222, प्रथम, 2023 में प्रकाशित)
पिछले बीस सालों हो गये थे मुझे वन विभाग में नौकरी करते हुए कई बार मेरा तबादला हुआ। इस बार मेरा तबादला देहरादून से कुछ दूर राजाजी इंटरनेशनल पार्क में हुआ। पहुँचते-पहुँचते रात हो गयी थी मुझे एक सरकारी बँगला मिला था। गार्ड ने बँगले की चाभी दी मैंने चाबी लेकर, अपने लिए एक कप चाय भी मँगवा ली। यात्रा की थकान से खाना खाने का मन नहीं कर रहा था गार्ड चाय लेकर आया और मैं चाय पीकर लेट गया। बहुत रात हो गयी थी मैं बार-बार करवटें बदल रहा था शायद जगह बदलने की वजह से नींद नहीं आ रही थी। थोड़ी सी भूख भी लगने लगी थी। पर इतनी रात को खाना कहाँ मिलेगा यह सोचकर मैं उठा और कमरे में ही चहल क़दमी करने लगा। अचानक मौसम मैं कुछ बदलाव आने लगा। बादल गरजने लगे आँधी चलना शुरू हो गयी दो थोड़ी देर में ही मूसलाधार बारिश होने लगी। पूरी रात बारिश होती रही; मुझे पूरी रात नींद नहीं आई। सवेरे के साढ़े आठ बज रहे थे पर बाहर अँधेरा ही था। तेज़ बारिश उग्र रूप ले चुकी थी चारों पानी भरा हुआ था। मैं खिड़की से बाहर इस आशा मैं झाँक रहा था कि शायद कोई दिख जाये तो कुछ खाने को मँगवा लूँ, मैंने पिछली रात भी कुछ नहीं खाया था।
कुछ घंटों बाद मुझे बुख़ार चढ़ने लगा हाथ पैर कँपकँपाने लगे मैं बिस्तर पर लेटा लेटा सोच रहा था कि किस अशुभ घङी में मैं घर से रवाना हुआ था।
तभी किसी ने दरवाज़ा खटखटाया मुझे तसल्ली हुई चलो कोई तो आया वैसे भी मेरी तबियत बिगड़ रही थी। जैसे-तैसे मैंने बिस्तर से उठकर दरवाज़ा खोला, तो देखा सामने एक बहुत ही सुंदर औरत खड़ी थी। उसने मुझसे कहा, “मैं नाम बंजारन है मैं यही कुछ दूर पर रहती हूँ। आँधी और तेज़ बारिश होने के कारण पेड़ गिर गये हैं और रास्ते भी बन्द हो गये हैं। आपके गार्ड ने जाते समय मुझसे कहा था कि मैं आपके खाने-पीने का ध्यान रखूँ।”
“तो अब आई हो। पता है मैं बीमार हूँ और मुझे भूख भी लगी है,” मैंने झल्लाकर बंजारन से कहा।
“हाँ मैं आपके लिए खाना लाई हूँ,” यह कहकर बंजारन ने थैले में से खाना निकाल कर मेरे सामने रख दिया। खाना खाकर मेरे शरीर मैं कुछ जान आई बंजारन वहीं बैठी थी।
मैंने उससे कहा, “अब तुम जाओ शाम को मेरे लिए एक कप चाय और खाना ले आना।” उसके बाद मैंने दवाई खाई और खाकर सो गया।
शाम के सात बज चुके थे मेरा बुख़ार बढ़ता ही जा रहा था तभी पीछे से आवाज़ आयी, “लो बाबू जी ये काढ़ा पी लो, आपका बुख़ार उतर जायेगा।” वह स्वर बंजारन का था। अब मुझे याद आया मैं दरवाज़ा बन्द किये बिना ही सो गया था।
“मैं एक घंटे पहले आयी थी आपके लिए चाय और खाना लेकर, लेकिन आप बुख़ार मैं कराह रहे थे इसलिए वापस चली गयी थी यह काढ़ा बनाने के लिए,” बंजारन ने कहते हुए काढ़े का ग्लास मेरी तरफ़ बढ़ा दिया। मैंने बिना किसी विरोध के काढ़ा पी लिया और बिस्तर पर लेट गया। बंजारन पूरी रात मेरे पास बैठकर कभी पैरों की मालिश करती, कभी सर दबाती।
सवेरा हो चुका था और मेरा बुख़ार भी उतर चुका था अब मैं अच्छा अनुभव कर रहा था।
मैं उठा और बँगले के बाहर आकर मौसम का निरीक्षण करने लगा। बारिश बन्द हो चुकी थी सामने से गार्ड भागता हुआ मेरी तरफ़ आ रहा था।
“साहब मुझे माफ़ कर देना ग़लती हो गयी। तेज़ बारिश की वजह से पेड़ गिर गये थे। सभी रास्ते बन्द हो गये इसलिए मैं आ नहीं सका, आप ठीक तो हैं? गार्ड हाँफता हुआ बोला।
मैंने हैरत से गार्ड की ओर देखा और उससे कहा, “तुमने ही तो उस बंजारन को मेरी देखभाल के लिए भेजा था।”
“कौन बंजारन साहब यहाँ कोई दूर-दूर तक नहीं रहता। एक बंजारन नाम की सुन्दर औरत थी, पर वह तो कई साल पहले आकाशीय बिजली की चपेट मैं आकर मर चुकी है।”
मेरा मुँह खुला का खुला रह गया।
कुछ क़िस्से जीवन में अनबूझ पहली बन कर रह जाते हैं और पीछे छोड़ जाते हैं कई सवाल!
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पाण्डेय सरिता 2023/01/16 08:36 AM
बेहद संवेदनशील और भावुक करनेवाली कहानी आपकी