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भारतीय सिनेमा और रवीन्द्रनाथ टैगोर

आधुनिक युग के अनेक वैज्ञानिक आविष्कारों में सिनेमा एक नवीन क्रांतिकारी आविष्कार है, जिसने समूचे मानव समाज की मध्य युगीन सांस्कृतिक चेतना को परिवर्तित कर नई वैज्ञानिक एवं तकनीकी कला संस्कृति को जन्म दिया। मध्ययुगीन नाट्य-कला संस्कृति के स्थान पर सिनेमा के रूप में एक नई कलात्मक संस्कृति प्रकट हुई। मध्यकाल में "नाट्य विधा" को ही कला के रसास्वादन का प्रमुख माध्यम माना जाता था। किन्तु उन्नीसवीं सदी में आविष्करित सिनेमा ने कला-संस्कृति के क्षेत्र में भूचाल पैदा कर दिया। यह विधा परदे पर गतिशील छाया-चित्रों के माध्यम से दर्शकों को अचंभित कर प्रभावित करने में सफल हुई। दर्शकों के लिए यह एक विलक्षण और कल्पनातीत अनुभव था। इसी कल्पनातीत रोमांचक अनुभव ने "सिनेमा" को साकार किया जो प्रकारांतर से मनोरंजन के साथ साथ ज्ञान-विज्ञान के विकास के लिए भी मानव जीवन का अभिन्न अंग बन गया। सिनेमा, कला का आधुनिकतम संप्रेष्य माध्यम है, यह कला का ऐसा सशक्त माध्यम है जो दर्शकों को किसी विशेष विषय-वस्तु पर आधारित कथा को दिखाता है, बताता है और मनोरंजन करते हुए उनके हृदयों में गहरे उतर जाने की क्षमता रखता है। सिनेमा, कहानी कहने का तकनीकी दृश्य-श्रव्य माध्यम है। अन्य कलाओं की तरह सिनेमा भी समाज और व्यक्ति की आशा और आकांक्षाओं को व्यक्त करता है। सिनेमा, साहित्य, चित्रकला, संगीत, नृत्य आदि का सम्मिश्रित रूप है, अर्थात सिनेमा समग्रता का ही दूसरा नाम है। सिनेमा और फ़िल्म परस्पर पर्यायवाची शब्द हैं। सिनेमा की प्रयोजनीयता केवल मनोरंजन तक ही सीमित नहीं है अपितु यह सामाजिक चेतना, राष्ट्रीय-अस्मिता, आध्यात्मिक ज्ञान तथा सांस्कृतिक भाव बोध को विकसित करने का एक प्रभावी उपकरण है।

भारतीय सिनेमा का उदय सन् 1913 में दादा साहब फाल्के द्वारा निर्मित मूक फ़िल्म "राजा हरिश्चंद्र" से स्वीकार किया गया। हालाँकि "राजा हरिश्चंद्र" से पूर्व सन् 1912 में मुंबई के रामचंद्र गोपाल टोर्ने ने "पुंडलीक" नामक फ़िल्म का निर्माण किया। यह फ़िल्म महाराष्ट्र के ख्याति प्राप्त हिंदू संत के जीवन पर आधारित रामाराव कीर्तिकर द्वारा लिखित नाटक पर आधारित थी। इसमें नासिक के नाट्य मंडली के उन कलाकारों ने अभिनय किया जो इस नाटक का मंचन किया करते थे। भारत की यह पहली कथा फ़िल्म है जिसमें नाटक के कलाकारों ने इस फ़िल्म के लिए विशेष रूप से अभिनय किया। इसका छायांकन विदेशी छायाकार द्वारा किए जाने के कारण शायद इसे भारत की प्रथम पूर्ण स्वदेशी कथा-फ़िल्म के रूप में पहचान नहीं मिली। इसलिए यह पहचान, इस फ़िल्म के निर्माण के लगभग एक वर्ष बाद फाल्के द्वारा निर्मित मूक फ़िल्म, "राजा-हरिश्चंद्र" को प्राप्त हुई। यह फ़िल्म बंबई के कॉरोनेशन थियेटर में 18 मई 1912 को प्रदर्शित हुई। राजा-हरिश्चंद्र, भारतीय सिनेमा के इतिहास में एक नए युग का सूत्रपात करने में सफल हुई। तकनीकी कारणों से विवाद चाहे जो भी हो किन्तु "पुंडलिक" का नाम भारतीय सिनेमा के इतिहास में हमेशा दर्ज रहेगा। यदि "पुंडलिक" को प्रथम पूर्ण स्वदेशी भारतीय फ़िल्म का सम्मान मिला होता, तो निश्चित तौर पर भारत, पूरे विश्व में प्रथम कथा-फ़िल्म निर्माता के रूप में सिनेमा के इतिहास में अपना स्थान बना लेता। क्योंकि विश्व की प्रथम कथा-फ़िल्म "क्वीन एलिज़ाबेथ" का निर्माण फ्रांस में हुआ, जिसका प्रदर्शन पुंडलिक के प्रदर्शन के दो महीने बाद 12 जुलाई 1912 को हुआ।

सन् 1931 में भारत में सवाक फ़िल्मों का आरंभ, अर्देशिर ईरानी द्वारा निर्मित "आलम आरा" से हो गया। इसके साथ ही भारतीय सिनेमा का स्वरूप तेज़ी से बदलने लगा। स्वतन्त्रता-पूर्व भारत के विभिन्न प्रदेशों में हिंदी के अतिरिक्त क्षेत्रीय भाषाओं में भी सिनेमा उद्योग का विकास तेज़ी से हुआ, इस तरह हिंदी एवं क्षेत्रीय भाषाओं में निर्मित फ़िल्म-समुदाय को ही भारतीय सिनेमा की संज्ञा प्राप्त हुई। वैसे तो भारतीय सिनेमा के केंद्र में मूलत: हिंदी सिनेमा ही सन् 1931 से सशक्त रूप से विद्यमान है किन्तु भारतीय सिनेमा की पहचान क्षेत्रीय भाषाओं में निर्मित फ़िल्मों से ही बनी है। पचास और साठ के दशक में भारत की विभिन्न भाषाओं में सामाजिक, धार्मिक, ऐतिहासिक कथा-वस्तुओं पर निर्मित फ़िल्में, भारतीय सिनेमा के स्वर्ण युग की याद दिलाती हैं। भारतीय सिनेमा का प्रारम्भिक युग फ़िल्म कंपनियों का युग रहा है। बंबई, कलकत्ता और मद्रास भारतीय सिनेमा उद्योग के प्रधान केंद्र थे। इस दौर में चंदूलाल शाह, जे.बी.एच. वाडिया, अर्देशिर ईरानी, जे.एफ़. मोदी, सोहराब मोदी आदि वे लोग थे जिनकी मेहनत, लगन, सूझबूझ और संपन्न आर्थिक स्थिति ने भारतीय सिनेमा को एक सुस्थिर भूमि प्रदान की। दक्षिण भारत में बी.एन. रेड्डी, नागारेड्डी-चक्रपाणि, रघुपति वेंकय्या, ए.वी. मय्यप्पन (ए.वी.एम.), के.वी. रेड्डी (निर्देशक), एस.एस. वासन (तमिल) आदि ने मद्रास में वाहिनी, भरणी, जेमिनी, ए.वी.एम. जैसी बड़ी फ़िल्म कंपनियों (स्टुडियो) को स्थापित किया। भारतीय सिनेमा के निर्माताओं में बंगाल के हिमांशु रॉय, बी.एन. सरकार, पी.सी. बरुआ, नितिन बोस, विमल राय, देवकी बोस, महाराष्ट्र के बाबुराव पेंटर, बाबुराव पेंढारकर, वी. शांताराम, आदि प्रमुख हैं।

सिनेमा को साहित्य के समकक्ष कला का विकसित रूप मानने वाले फ़िल्मकार भी हैं और साथ ही ऐसे भी फ़िल्मकार हैं, जिनके लिए यह महज धनोपार्जन का जरिया है। साहित्य की तरह सिनेमा भी अपनी प्राण-शक्ति समाज से ही प्राप्त करता है इसलिए सिनेमा पर विचार करते हुए समाज के साथ उसके संबंधों पर विचार करना आवश्यक है। सिनेमा चाहे मनोरंजन, व्यवसाय अथवा कला के उत्कर्ष की अभिव्यक्ति के लिए हो, उसमें अपने दौर का समाज किसी न किसी रूप में व्यक्त होता ही है।

भारतीय सिनेमा ने अपने अस्तित्व के सौ वर्ष पूरे कर लिए हैं (1913–2013)। भारतीय सिनेमा का विस्तार मूक युग से सवाक और श्वेत-श्याम प्रारूप से रंगीन प्रारूप को धारण कर आज कंप्यूटर-साधित डिजिटल प्रणाली में परिवर्तित हो चुका है। ध्वनि और प्रकाश के अतिरंजित संयोजन कला के विकास और कंप्यूटर ग्राफ़िक से लैस सिनेमाटोग्राफ़ी की तकनीक ने फ़िल्मी पर्दे पर अद्भुत कल्पनाओं को अविश्वसनीय ढंग से चित्रित करने में सफलता हासिल कर ली है। इस कारण यह अनुभव किया जा रहा है कि फ़िल्म निर्माण के अत्याधुनिक तकनीकी कौशल ने सिनेमा की कथात्मक संवेदना को नष्ट कर दिया और उसके स्थान पर कला के एक कृत्रिम मायालोक को सृजित कर दिया।

भारतीय सिनेमा का वर्गीकरण, लोकप्रिय सिनेमा और समांतर सिनेमा, नामक दो वर्गों में किया गया है। समांतर सिनेमा का उदय हिंदी के साथ सभी क्षेत्रीय भाषाओं में विकसित हुआ। समांतर सिनेमा आंदोलन के प्रणेताओं में सत्यजित रे, ऋत्विक घटक, ऋतुपर्णों घोष, मृणाल सेन, श्याम बेनेगल, गोविंद निहलानी हैं। इन फ़िल्मकारों ने अत्यंत कम बजट में सार्थक एवं यथार्थवादी लघु-फ़िल्मों का निर्माण कर सिनेमा को सामान्य जन जीवन से जोड़ दिया। ये फ़िल्में लोकप्रिय सिनेमा की श्रेणी में नहीं आतीं किन्तु सामाजिक सरोकार की दृष्टि से ये यथार्थवादी और उद्देश्यमूलक हैं। सत्यजित रे द्वारा निर्मित- पाथेर पांचाली, अपराजितों, अप्पू, (बांग्ला) शतरंज के खिलाड़ी, (हिंदी), श्याम बेनेगल द्वारा निर्मित मंडी, निशांत, अंकुर, मृगया, भुवन-शोम, मृगया, बाज़ार, जुनून, मा-भूमि (तेलुगु) आदि ऐसी ही फ़िल्में हैं जो भारत के ग्रामीण और आंचलिक जीवन को उसके वास्तविक रूप में प्रस्तुत करती हैं। लोकप्रिय सिनेमा का मूल उद्देश्य मनोरंजन और आर्थिक लाभ होता है। किन्तु लोकप्रिय सिनेमा भी सुधारवाद, सांस्कृतिक एवं राष्ट्रीय नवजागरण के कथ्य को आम जनता तक पहुँचाने में अपूर्व सफलता प्राप्त की है।

भारतीय सिनेमा का आरंभिक दौर पारसी रंगमंच से प्रभावित था। वस्तुत: हिंदी सिनेमा का प्रारम्भ पारसी थियेटर से ही हुआ। अर्देशिर ईरानी, होमी वाडिया और सोहराब मोदी आदि पारसी समुदाय के सम्पन्न कला पोषकों ने हिंदी सिनेमा की नींव डाली। सोहराब मोदी स्वयं एक महान अभिनेता और कुशल निर्माता-निर्देशक थे जिनका सिनेमा के क्षेत्र में पदार्पण पारसी थियेटर से हुआ था। इन्होंने मिनर्वा मूवीटोन नामक फ़िल्म संस्था को स्थापित कर "सिकंदर, पुकार, पृथ्वी-वल्लभ और झांसी की रानी" जैसी महान ऐतिहासिक फ़िल्मों का निर्माण किया। वे अभिनेता के रूप में बहुत ही सशक्त और प्रभावशाली थे। इसी परंपरा में पृथ्वीराज कपूर ने पृथ्वी थियेटर नामक नाट्य संस्था की स्थापना की जिसके साथ वे देशाटन कर अपने नाटकों द्वारा राष्ट्रीयता का प्रचार किया करते थे। इन्हीं की प्रेरणा से राजकपूर ने आर के स्टुडियो की स्थापना की। आर के स्टुडियो में राजकपूर ने सामाजिक सरोकार की अनेकों यादगार फ़िल्में बनाईं। "बरसात, आग, आह, आवारा, श्री 420, बूट पालिश, जिस देश में गंगा बहती है, मेरा नाम जोकर, राम तेरी गंगा मैली" आदि फ़िल्मों के केंद्र में निम्न मध्य वर्ग की समस्याओं के साथ प्रेम की संवेदनात्मक अभिव्यक्ति कलात्मक ढंग से मधुर संगीत के साथ प्रस्तुत की गई। भारतीय सिनेमा के स्वर्ण युग में कलात्मक लोकप्रिय फ़िल्मों के निर्माण में महाराष्ट्र के वी. शांताराम का योगदान महत्वपूर्ण है। वी. शांताराम एक महान निर्माता, निर्देशक और अभिनेता थे। वे एक दृष्टा और स्रष्टा थे जो अपने समय से काफी आगे थे। उनके फ़िल्मों में सामाजिक सरोकार के साथ-साथ प्रेम और दाम्पत्य, राष्ट्रीय और सांस्कृतिक चेतना कूट-कूटकर भरी थी। उनके फ़िल्म समस्यामूलक और संवेदनाप्रधान हुआ करते थे। रंगों का अद्भुत सम्मिश्रण उनके फ़िल्मों के सौंदर्य को द्विगुणित कर देते थे।" झनक-झनक पायल बाजे, नवरंग, गीत गाया पत्थरों ने और स्त्री" उनके रंगीन फ़िल्मों के नायाब नमूने हैं। "दो आंखें बारह हाथ" उनके द्वारा निर्मित एक महत्वपूर्ण प्रयोगात्मक फ़िल्म है।

भारतीय सिनेमा विश्व का सबसे बड़ा सिनेमा जगत है। विश्व के किसी भी देश में इतनी भाषाओं में इतनी बड़ी संख्या में फ़िल्में नहीं निर्मित होतीं। इसका कारण, भारत की बहुभाषिकता और संस्कृति-बहुलता है। संसार के अधिकांश देशों की अपनी केवल एक ही भाषा है जब कि भारत में संविधान द्वारा मान्यता प्राप्त भाषाओं की संख्या बाईस है। इनमें से अधिकांश बड़ी भाषाओं में फ़िल्मों का निर्माण होता है। भारतीय सिनेमा भी भारतीय साहित्य की भाँति ही बहुभाषी और बहुतआयामी है इसीलिए भारतीय सिनेमा अनेक क्षेत्रीय भाषाओं में निर्मित एक समुच्चय है जिसकी समानता किसी अन्य देश का सिनेमा नहीं कर सकता। भाषिक विविधता के साथ देश की सांस्कृतिक विविधता को भी भारतीय सिनेमा स्वदेश और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रसारित करने में सफल हुआ है।

भारत में लोकप्रिय सिनेमा ने जहाँ एक ओर भाग्यवाद, सामंती आदर्शवाद, प्रतिशोध पर आधारित बर्बरता, भोगवाद, और विलासिता को प्रोत्साहित किया है वहीं दूसरी तरफ ऐसी फ़िल्में भी बनती रहीं हैं जिनमें धार्मिक सद्भाव एवं सहिष्णुता, मानवीय भाईचारा, अहिंसा, सामुदायिक एकता, ग़रीबों और उत्पीड़ितों के प्रति गहरी सहानुभूति आदि भावनाएँ व्यक्त हुई हैं। अलग-अलग दौर में सिनेमा पर अलग-अलग तरह के प्रभावों को देखा जा सकता है। जैसे, देश के आज़ाद होने के बाद जब राष्ट्र का नवनिर्माण सबसे बड़ा प्रश्न था तब ज़्यादातर फ़िल्में इस तरह की बन रहीं थीं जिनका संदेश शांति, सद्भाव, भाईचारा और पारस्परिक सहयोग द्वारा देश का निर्माण था। इस निर्माण के मार्ग में आने वाली बाधाओं और समस्याओं को फ़िल्मों का विषय बनाया गया। इस दृष्टि से "आवारा" (1951) जागृति (1954), मदर इंडिया (1957) और दो आँखें बारह हाथ आदि फ़िल्मों का नाम लिया जा सकता है। भारतीय सिनेमा की मूलभूत विशेषताएँ, संगीत-प्रधानता, संवेदनशीलता, मेलोड्रामा, अभिनय-कौशल, अतिशयोक्तिपूर्ण चित्रण, सौंदर्यबोध, प्राकृतिक आलंबन आदि रही हैं जो हॉलीवुड सिनेमा से भिन्न हैं।

सिनेमा के अस्तित्व में साहित्य का महत्वपूर्ण योगदान है। साहित्य के बिना सिनेमा की कल्पना नहीं की जा सकती। जैसे साहित्य समाज का आईना है वैसे ही सिनेमा भी समाज का आईना होता है। किसी भी देश की कला और साहित्य, उस देश की संस्कृति को प्रतिबिंबित करता है। कला और साहित्य, अभिव्यक्ति के दो सशक्त माध्यम हैं। सिनेमा, साहित्य और समाज परस्पर पूरक तत्व हैं जिन्हें संस्कृति जोड़ती है। सिनेमा संस्कृति को भी प्रभावशाली ढंग से चित्रित करता है। सिनेमा अपने विस्तृत और व्यापक कलेवर में देश की सभ्यता, संस्कृति और सामाजिक संस्कारों की विरासत को संरक्षित करने की क्षमता रखता है। अंत: सिनेमा भी, भाषा और साहित्य की ही तरह, संस्कृति का वाहक होता है। सिनेमा के आधारभूत तत्व कथा और पटकथा होते हैं। किसी भी कथ्य को सिनेमाई रूप देने के लिए उसे पटकथा (स्क्रीन प्ले) अर्थात "फ़िल्मी दृश्यों के अनुकूल कथा लेखन" नामक एक भिन्न विधा में ढाला जाता है तभी वह कथ्य फ़िल्म के योग्य बनती है। पटकथा लेखन साहित्यिक कथा लेखन से भिन्न प्रक्रिया है। किसी भी कहानी को फ़िल्मी माध्यम में ढालने के लिए उस कहानी का पटकथा में रूपान्तरण अनिवार्य होता है। फ़िल्मों के लिए "विषय एवं कथ्य" का प्रमुख स्रोत साहित्य है। फ़िल्म निर्माण की परिकल्पना के लिए "साहित्य" अनिवार्य है। फ़िल्म के लिए साहित्य के दो रूपों का इस्तेमाल किया जाता है। एक स्रोत विशुद्ध साहित्यिक रचनाएँ होती हैं जिन्हें पटकथा में परिवर्तित कर फिल्मांकन किया जाता है, दूसरे प्रकार का साहित्य वह होता है जिसे फ़िल्म के लिए लेखकों से लिखवाया जाता है। फ़िल्म के लिए कथा-लेखन और विशुद्ध साहित्यिक कृतियों पर आधारित पटकथाएँ, ये दोनों फ़िल्म के लिए दो अलग स्रोत हैं।

सिनेमा का प्रारम्भिक दौर साहित्यिक कृतियों की कथावस्तुओं पर ही केन्द्रित रहा है। हॉलीवुड और भारतीय सिनेमा, दोनों क्षेत्रों में फ़िल्म निर्माण के लिए प्रख्यात साहित्यिक कृतियों का ही प्रयोग किया गया। हॉलीवुड की फ़िल्मों में विश्व साहित्य की अनमोल धरोहर को ही सर्वप्रथम फ़िल्मों के लिए चुना गया। इसमें होमर के ईलीयड और ओडिसी, डांते की डिवाइन कॉमेडी से लेकर ग्रीक पौराणिक गाथाएँ, रोमन इतिहास पर रचे काव्य एवं ऐतिहासिक औपन्यासिक कृतियों पर ही सर्वाधिक फ़िल्में निर्मित हुईं जो सिनेमा के इतिहास में अमर हो गईं। इन फ़िल्मों ने सर्वकालिक और सर्वदेशीय लोकप्रियता हासिल की। हॉलीवुड ने रूसी, फ्रांसीसी और अंग्रेज़ी साहित्य का सर्वाधिक दोहन किया और एक से एक महान फ़िल्में निर्मित कीं। दास्तोव्स्की, टाल्स्टाय, गोर्की, विक्टर ह्यूगो, शेक्सपीयर, गोल्डस्मिथ, चार्ल्स डिकिन्स, थॉमस हार्डी, एमिली ब्रोन्टे, शॉर्लेट ब्रांटे, जेन ऑस्टिन, ऑस्कर वाइल्ड, स्टेनबेक, पर्ल्स बक आदि की क्लासिक रचनाओं पर हॉलीवुड ने लोकप्रिय, सार्थक और गंभीर फ़िल्में बनाकर विश्व सिनेमा को एक नई दिशा प्रदान की। साहित्य और सिनेमा के अध्ययन यह दर्शाते हैं कि साहित्यिक कृतियों पर निर्मित फ़िल्मों को जो सफलता हॉलीवुड सिनेमा जगत को प्राप्त हुई, वैसी सफलता भारतीय सिनेमा को उपलब्ध नहीं हुई। साहित्यिक कृतियों पर फ़िल्म-निर्माण की परंपरा हॉलीवुड की तुलना में भारत में अत्यंत क्षीण और नगण्य है। भारत में साहित्यिक कृतियों पर निर्मित फ़िल्मों की सफलता और लोकप्रियता अत्यल्प है। प्राय: फ़िल्मों में मूल रचना को ध्वस्त कर उसमें अनावश्यक फेर-बादल कर दिया जाता है। इसके परिणामस्वरूप फ़िल्म साहित्यिक रचना में निहित कथ्य एवं उद्देश्य को साकार करने में विफल हो जाती है। इसके लिए त्रुटिपूर्ण पटकथा लेखन, मूल कथानक में भारी फेर-बदल, परिवेश चित्रण में त्रुटियाँ, और दोषपूर्ण निर्देशन प्रमुख कारक होते हैं। इसके बावजूद कतिपय भारतीय फ़िल्म निर्माताओं ने सिनेमा के व्यावसायिक लाभ को नज़र अंदाज़ करके सामाजिक एवं साहित्यिक मूल्यों के विस्तार के लिए महत्वपूर्ण फ़िल्में बनाईं। वास्तव में साहित्य की भाँति फ़िल्म भी स्वप्न और रचनात्मकता का संगम है। साहित्य में यह संगम शब्दों के माध्यम से होता है तो फ़िल्म में तस्वीरों के माध्यम से।

कलाओं के मेल का अनुभव फ़िल्म है। अधिकतर प्रतिभावान फ़िल्मकारों ने अपने विशिष्ट कला संसार से संगति बनाकर ही फ़िल्म को समृद्ध किया। कुछ फ़िल्मकारों ने फ़िल्म में सौंदर्यबोध को पिरोया तो कुछ लोगों ने वैचारिकता को। जो लोग वैचारिकता को फ़िल्म में प्रयोग की भूमि के रूप में देखते हैं, वे निरंतर प्रयोग करते रहते हैं। वे ही साहित्य का माध्यमांतरण फ़िल्म में हैं। फणीशवरनाथ रेणु कृत "मारे गए गुलफाम" कहानी को शैलेंद्र ने "तीसरी क़सम" नामक फ़िल्म में परिवर्तित किया जो व्यावसायिक धरातल पर बुरी तरह विफल हो गई किन्तु साहित्य और फ़िल्म समीक्षकों की दृष्टि में वह एक कालजयी फ़िल्म बन गई। ऐसे अनेक उदाहरण दृष्टव्य हैं। फ़िल्म हर दौर के सर्जकों और दर्शकों के लिए नया अनुभव बनकर उपस्थित होती हैं। फ़िल्म एक ऐसा प्रतिबिंब बनकर प्रस्तुत होती है, जिसमें साहित्य की भाँति सृजन संदर्भ और सामाजिक संदर्भ, दोनों मौजूद रहते हैं। साहित्य की भाँति फ़िल्म अपने में वैयक्तिक और सामाजिक संबंधों और अंतरद्वंद्वों को प्रकट करती हुई निरंतर अग्रगामी होती है। जिस प्रकार साहित्य अपने समय और समाज से गहरे अर्थों में प्रभावित होता है उसी प्रकार फ़िल्म भी समय और समाज के प्रभाव से वंचित नहीं रह सकती। इस तरह साहित्य और सिनेमा परस्पर एक दूसरे में अंतर्गुंफित रहते हैं। यह खेदजनक है कि सिनेमा को कला रूप में देखने की प्रवृत्ति भारतीय दर्शकों में विकसित नहीं हुई है इसीलिए सिनेमा साहित्य की भाँति सामाजिक प्रश्नों को सार्थक परिवर्तनकारी चेतना के रूप में बदल पाने में असमर्थ रहा है।

हिंदी सिनेमा के प्रारम्भिक दौर में कई हिंदी और बांग्ला की साहित्यिक कृतियों पर सफल और सार्थक फ़िल्में निर्मित हुईं। सन् 1941 में भगवतीचरण वर्मा के उपन्यास "चित्रलेखा" पर फ़िल्म बनी। रवीन्द्रनाथ टैगोर की प्रसिद्ध कहानी "नौका डूबि" को फ़िल्मी पटकथा में रूपांतरित करके सन् 1946 में हिंदी में "मिलन" और साठ के दशक में दुबारा "घूँघट" और तेलुगु में "चरणदासी" फ़िल्मों का निर्माण हुआ जो साधारण दर्शकों और फ़िल्म समीक्षकों द्वारा सराहा गया। ख़्वाजा अहमद अब्बास की कहानी "एंड वन डिड नॉट कम बैक" पर वी शांताराम ने 1946 में "डॉ. कोटनिस की अमर कहानी" नामक यादगार फ़िल्म बनाई।

हिंदी सिनेमा के आरंभिक दौर में साहित्यिक कृतियों पर जो फ़िल्में बनीं, उनमें और फ़िल्मों की साहित्यिकता के बीच अंतर देखा गया। उस दौर के फ़िल्मकार साहित्यिक कृतियों से प्रभावित तो होते थे, लेकिन साहित्यिक कृति पर फ़िल्म बनाते समय साहित्यिकता को अपनी फ़िल्मों में महत्व नहीं देते थे।

भारतीय सिनेमा अपने उदय काल में साहित्यिक कृतियों के फ़िल्मी रूपान्तरण से जगत को देखने की नवीन दृष्टि दे रहा था। उस दौर के फ़िल्मकारों ने साहित्यिक कृतियों को फ़िल्मों के द्वारा जन-सामान्य से रूबरू कराया और जनमानस को सिनेमा की असली ताक़त और क्षमता से परिचित कराया। इसी युग में शरतचंद्र के उपन्यास देवदास, बिराजबहू, बड़ी-दीदी, परिणीता आदि उपन्यास हिंदी में अनूदित हुए और इन्हीं नामों से इनका फिल्मांकन हुआ। वस्तुत: हिंदी सिनेमा के शैशव काल में सिनेमा के निर्माण में सृजनात्मक साहित्य का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा। विश्व सिनेमा में यदि ज्यां रेनों, फैलिनी, गोडार्ड, विसकौंटी, बर्गमेन, कुरासोवा और तारकोव्स्की ने साहित्य और सिनेमा में उत्तरोत्तर विकसित हो रही अंतरंगता को पुष्ट किया तो विमल रॉय, मृणाल सेन, ख़्वाजा अहमद अब्बास, ऋत्विक घटक, श्याम बेनेयल, गोविंद निहलानी, बासु चटर्जी आदि ने भारतीय सिनेमा की साहित्यिक परंपरा को आंदोलन के रूप में खड़ा किया।

भारतीय साहित्य और सिनेमा :

सन् 1931 में हिंदी की पहली बोलती फ़िल्म "आलमआरा" प्रदर्शित हुई। तीन साल बाद ही 1934 में साहित्यिक कृति पर आधारित प्रथम फ़िल्म प्रेमचंद द्वारा उर्दू में रचित उपन्यास "बाज़ारे हुस्न" का निर्माण हुआ। इस फ़िल्म के निर्माता-निर्देशक नानूभाई वकील थे। 1964 में प्रख्यात निर्माता-निर्देशक केदार शर्मा ने "चित्रलेखा" का निर्माण नए कलेवर में किया जिसे दर्शकों ने पसंद किया। 1941 से 1964 के बीच कुछ अन्य साहित्यिक कृतियों का फ़िल्मी रूपान्तरण किया गया। जैसे – प्रेमचंद की कहानी "दो बैलों की कथा" (फ़िल्म- हीरा मोती 1959), चंद्रधर शर्मा गुलेरी की कहानी "उसने कहा था" (1960) आदि। इसी काल में सिनेमा का साहित्यिक रूप आकार लेने लगा था। शरतचंद्र की सुंदरतम रचनाओं को देश भर में जन-जन तक पहुँचाने का श्रेय सिनेमा को ही है। 1960 से पूर्व हिंदी सिनेमा में हिंदी साहित्यकारों की छवि को गंभीरता से प्रस्तुत नहीं किया गया, जब कि बांग्ला साहित्यिक कृतियों के साथ पूरा न्याय हो पाया है, इसका श्रेय बांग्ला फ़िल्मकारों को प्राप्त है।

रवीन्द्रनाथ टैगोर (1861-1941), जन्म के डेढ़ सौ वर्ष और मृत्यु के सात दशक बाद भी आज तेज़ी से बदलते समाज और इस राष्ट्र की सामूहिक चेतना में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से विद्यमान हैं। रवीन्द्रनाथ अकेले ऐसे कालजयी विचारक, चिंतक और संस्कृतिकर्मी हैं जिसने भारतीय उपमहाद्वीप के सामासिक जीवन का प्रतिनिधित्व, सुविशाल और सुविस्तृत फ़लक पर किया है। उनकी तेजोमय विविधोन्मुखी प्रतिभा लोगों को आश्चर्य में डाल देती है। वे एक उत्कृष्ट कवि, उत्तम कोटि के कथाकार, नाटककार, एक अभिनव संगीतकार, अप्रतिम चित्रकार और विलक्षण शैलीकार थे। इतना ही नहीं वे एक महान शिक्षाविद, चिंतक और सुयोग्य समाजचेता भी थे। अपनी रचनात्मक क्षमता और मानसिक ऊर्जा के द्वारा उन्होंने अपने वैश्विक जीवन दर्शन को समूचे विश्व में व्याप्त किया। रवीन्द्रनाथ बीसवीं सदी की सार्वदेशिक महान विभूतियों में से एक हैं। उन्होंने अपने सार्वभौम व्यक्तित्व की विकसित अवधारणा में प्राचीन सभ्यताओं एवं परंपरागत मूल्य सरंचना को समाविष्ट किया। रवीन्द्रनाथ का चिंतन, पूर्व-पश्चिम के द्वंद्व का निराकरण करते हुए एक ऐसी विश्वदृष्टि से संपन्न है जो एक साथ भारतीय, सार्वभौम एवं सार्वदेशिक थी। रवीन्द्रनाथ ठाकुर केवल बांग्ला साहित्य के ही नहीं वरन समस्त भारतीय साहित्य का प्रतिनिधित्व करने वाले बहुविज्ञ साहित्यचेता हैं।

"गोरा" रवीन्द्रनाथ ठाकुर की कालजयी रचना है जो केवल बांग्ला संस्कृति की ही नहीं अपितु समस्त भारतीय संस्कृति की वैचारिकता का समाहार है। इस कृति में रवीन्द्रनाथ ने भारत की प्राचीन और आधुनिक चिंतन परंपराओं का विश्लेषण प्रस्तुत किया है। धर्म और कर्म के द्वंद्व को आधुनिक दृष्टि से मानवता के संदर्भ में स्पष्ट किया है। नवजागरण आंदोलन की सबसे बड़ी समस्या धार्मिक कर्मकांड और कट्टर ब्राह्मणत्व के आचार-विचारों से आक्रांत भारतीय समाज की अंतश्चेतना थी। रवीन्द्रनाथ ने "गोरा" उपन्यास के माध्यम से हिंदुत्व के विभिन्न व्यवहारिक स्वरूपों की आलोचनात्मक प्रोक्ति प्रस्तुत की है। दूरदर्शन ने इस कालजयी उपन्यास पर इसी नाम से धारावाहिक टीवी फ़िल्म का निर्माण कर लिया है जो प्रसारण की प्रक्रिया में है। इस टीवी फ़िल्म की निर्माता गार्गी सेन और निर्देशक सोमनाथ सेन हैं। गोरा के पात्र में गौरव द्विवेदी और उनके साथ विभिन्न भूमिकाओं में प्रभात रघुनंदन, स्वाति सेन, चंद्रहास तिवारी, अनुया भागवत और जॉय श्री अरोड़ा जैसे फ़िल्म एंड टेलीविज़न इंस्टीट्यूट के उदीयमान प्रतिभाशाली कलाकार दिखाई देंगे। रवीन्द्रनाथ ने इस उपन्यास में 1857 के विद्रोह के बाद के दशकों की सामाजिक और राजनीतिक स्थितियों का सजीव चित्रण किया है। उन्होंने इस उपन्यास में राष्ट्रवाद, कट्टरवाद और रूढ़िवादिता पर चोट की है, साथ ही उपन्यास के नायक "गोरा" के माध्यम से राष्ट्रीयता, हिन्दुत्व और ब्रह्म समाज की मान्यताओं के मध्य तत्कालीन समाज में व्याप्त संघर्ष को प्रभावशाली ढंग से चित्रित किया है। इससे पूर्व सत्तर के दशक में दूरदर्शन के प्रारम्भिक दौर में "गोरा" टीवी धारावाहिक के रूप में दर्शकों के सम्मुख आ चुका है, जिसने दर्शकों को विशेष रूप से आकर्षित किया। टीवी फ़िल्मों का फ़लक संकीर्ण और सिमटा होता है उसमें विस्तार का अभाव होता है फिर भी "गोरा" में वर्णित परिवेश और घटनाओं को टीवी के छोटे पर्दे पर भी बहुत ही असरदार ढंग से प्रस्तुत किया गया।

1961 में भारत में अंतर्राष्ट्रीय फ़िल्म महोत्सव आयोजित क्या गया। यह वर्ष रवीन्द्रनाथ टैगोर का जन्म शताब्दी वर्ष था। इसलिए उनकी कृतियों पर कई फ़िल्मों का निर्माण हुआ। विमल रॉय ने टैगोर की विश्वविख्यात कहानी "काबुलीवाला" इसी शीर्षक से फ़िल्म बनाई। भारतीय सिनेमा में टैगोर की तुलना में शरतचंद्र अधिक लोकप्रिय हुए और उन्हीं की ज़्यादातर कृतियाँ फ़िल्मों के लिए चुनी गईं और वे सभी अत्यंत लोकप्रिय हुईं। केवल शरतचंद्र कृत देवदास (1917) उपन्यास पर हिंदी में पाँच, बांग्ला में एक, तेलुगु में दो, और तमिल में एक बार फ़िल्में बनीं। रवीन्द्र साहित्य पर आधारित फ़िल्मों में "नष्ट नीड़" उपन्यास पर "चारुलता"(1964), चार-अध्याय (1977), "घरे-बाहिरे" उपन्यास पर उसी नाम से सत्यजीत रे द्वारा 1964 में निर्मित "घरे बाइरे", स्त्रीर पत्र उपन्यास पर 1972 में पुरनेन्दु पत्री के निर्देशन में "स्त्रीर पत्र" और "चोखेर बाली" उपन्यास (हिंदी में आँख की किरकरी) पर आधारित फ़िल्म "चोखेर बाली" (हिंदी एवं बांग्ला में) फ़िल्में निर्मित हुईं। ये सभी फ़िल्में स्त्री समस्याओं पर केन्द्रित बांग्ला उपन्यासों पर आधारित हैं। बांग्ला साहित्य में नवजागरण काल से ही स्त्री समस्याओं की प्रधानता रही है इसी कारण बांग्ला फ़िल्में मूलत: भारतीय नारी जीवन में व्याप्त सामाजिक शोषण, उत्पीड़न और अन्य विसंगतियों को यथार्थ रूप में चित्रित करती हैं। इसी काल में बंकिमचंदर के उपन्यास "आनंदमठ" का फ़िल्मी रूपान्तरण भी महत्वपूर्ण सिद्ध हुआ। इस फ़िल्म से बंकिम द्वारा रचित वंदे मातरम गीत सारे देशवासियों में स्वतन्त्रता गीत के रूप में व्याप्त हो गया। बंकिमचंद्र, शरतचंद्र और रवीन्द्रनाथ टैगोर का कथा साहित्य भारतीय सिनेमा के लिए अत्यंत प्रभावशाली और लोकप्रिय सिद्ध हुआ। सिनेमा के माध्यम से ही ये कालजयी लेखक भारत के जन-जन में लोकप्रिय हुए।

रवीन्द्रनाथ एक युगप्रवर्तक कथाकार के रूप में बंकिमचन्द्र के ऐतिहासिक रोमांस के समानांतर, युगीन यथार्थ को अपने आख्यानों में चित्रित कराते हैं। उनका कथा साहित्य पारिवारिक समस्याओं से लेकर राष्ट्रीय प्रश्नों तक के गहन विमर्श को प्रस्तुत करने में सफल हुआ। व्यक्तिगत और सामाजिक प्रश्नों से जुड़े परस्पर विपरीत ध्रुवान्तों को निकट लाते हुए रवीन्द्रनाथ ने कथा साहित्य की आस्वाद-परकता को बदला और इसे तत्कालीन मानवीय समस्याओं से संपृक्त किया। कथा साहित्य को जीवन-व्यवहार की जीवंत मानव-संहिता बनाया।

1902 मे प्रकाशित "नष्टनीड़" लघु-उपन्यास की रचना से रवीन्द्रनाथ की अतिविशिष्ट कथा-यात्रा के साथ-साथ बांग्ला भाषा की एक नई कथा-यात्रा आरंभ हुई। बीसवीं शताब्दी के प्रथम वर्ष में बांग्ला के यशस्वी कथाकार बंकिमचंद्र चटर्जी द्वारा प्रवर्तित एवं संपादित "बंगदर्शन" पत्रिका को एक बार फिर नए रूपाकार के साथ प्रकाशित किया गया, रवीन्द्रनाथ इसके तीसरे संपादक बने। "नष्टनीड़" रवीन्द्रनाथ का पहला आधुनिक एवं चर्चित उपन्यास है जो पहले "भारती पत्रिका" के लिए धारावाहिक तौर पर लिखा गया। इसके साथ साथ वे बंगदर्शन पत्रिका के लिए "चोखेर बालि" (हिंदी अनुवाद - आँख की किरकिरी) उपन्यास भी धारावाहिक रूप में लिख रहे थे। चोखेर बाली के समानान्तर लिखित और धारावाहिक रूप में प्रकाशित टैगोर का दूसरा उपन्यास नष्टनीड़ पूरी तरह उपन्यास तो नहीं कहा जा सकता – हालाँकि इसका ढाँचा कुछ वैसा ही था; लेकिन इसकी अंतर्वस्तु एक कहानी बल्कि लंबी कहानी जैसी थी। बांग्ला में इसे गल्पोन्यास भी कहा गया। इस उपन्यासिका से कथा लेखन में एक नए युग का प्रारम्भ हुआ जो बांग्ला कथा लेखन के क्षेत्र में प्रतिमान बना। रवीन्द्रनाथ ने नष्टनीड़ उपन्यास के द्वारा बंगाली समाज के उच्च-मध्य वर्ग की स्त्रियों की मनोदशा का प्रामाणिक और विश्वसनीय चित्र प्रस्तुत किया। इस उपन्यास की कहानी एक दैनिक समाचार-पत्र के अत्यंत व्यस्त संपादक से जुड़ी है। अपने कार्य दायित्व के प्रति अत्यधिक समर्पित और सक्रिय पति भूल जाता है कि उसकी युवा और सुंदर पत्नी घर पर उसकी प्रतीक्षा कर रही है। पत्नी के एकांत क्षणों और प्रतीक्षा के पलों में संपादक का प्रतिभावान भतीजा उसकी पत्नी का साथ देता है। एकांत पलों के इस साथी में साहित्य के प्रति गहरी रुचि है। साहित्य लेखन के लिए वे दोनों परस्पर एक दूसरे को प्रेरित करते हैं। परिणामस्वरूप कुछ समय बाद वे दोनो सफल नवोदित रचनाकार के रूप में उभरते हैं। उपन्यास में पारिवारिक तनाव और परस्पर अधिकार एवं अहंभाव के टकराव से उत्पन्न समस्या का दूसरा अध्याय यहीं से आरंभ होता है। उधर संपादक पति को भी यह प्रतीत होता है कि जिस पत्नी की वह अब तक उपेक्षा करता रहा था - वह अब काफी बादल चुकी है। इससे उसके पुरुष-सत्तात्मक अहं को चोट तो लगती है लेकिन अब वह गुजरे वक्त को लौटाने में सर्वथा असमर्थ है।

नष्टनीड़ में औपन्यासिक विस्तार का अभाव है परंतु कथानक के तीनों प्रमुख पात्रों की त्रिकोणात्मक मानसिकता को समझने से यह स्पष्ट हो जाता है कि रवीन्द्रनाथ ने आधुनिक समय और समाज के विरोधाभास और मनुष्य की स्थिति एवं नियति को रचनाकार की सूक्ष्म समाजशास्त्रीय दृष्टि से परखा था। रवीन्द्रनाथ की सोच अपने समय से काफी आगे थी। स्त्री-पुरुष संबंधों की जटिलता को सामाजिक परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत करने में उन्होंने यथार्थ को ही प्रस्तुत किया। उनका यह प्रयास परंपरागत रोमांटिक प्रेम प्रसंगों के वर्णन से भिन्न एक यथार्थवादी धरातल से जूझने और टकराने का अभिनव उपक्रम था। रवीन्द्रनाथ के इस उपन्यास से कथा-लेखन की एक नई परिपाटी का शुभारंभ हुआ।

चोखेर बालि (आँख की किरकिरी) उपन्यास का प्रकाशन 1902 में हुआ। इसका आरंभ माँ राजलक्ष्मी और डॉक्टरी की पढ़ाई कर रहे उसके बेटे महेंद्र के बीच विवाह के प्रसंग से होती है। राजलक्ष्मी अपनी बचपन की सहेली हरिमती की बेटी विनोदिनी से उसका विवाह करना चाहती थी लेकिन महेंद्र स्वीकार नहीं करता। विनोदिनी का विवाह विपिन नामक युवक से हो जाता है जो कुछ ही दिनों में गुज़र जाता है। इधर महेंद्र का विवाह आशालता नाम की लड़की से हो जाता है। आशालता भोलीभाली और थोड़ी सी नासमझ सी लड़की है जिसमें व्यवहार-कुशलता का पूर्णत: अभाव है। रवीन्द्रनाथ ने स्त्री-पुरुष संबंधों का मूल आधार परस्पर प्रेम के आदान-प्रदान को बताया है। पुरुष को स्त्री से और स्त्री को पुरुष से जब वांछित प्रेम नहीं मिलता तो जीवन दूभर हो जाता है। ऐसे में जीवन टूटकर बिखरने लगता है जिससे व्यक्ति और समाज के मध्य टकराव की स्थिति का उत्पन्न होना स्वाभाविक है, जिसका समाधान कठिन हैं। रवीन्द्रनाथ ने इन्हीं स्थितियों के मध्य कथानक का तानाबाना बुना है। महेंद्र और आशा के दांपत्य जीवन में विनोदिनी का प्रवेश एक संकट को जन्म देता है। यह स्थिति विवाह की संस्था को चुनौती देती है। विनोदिनी अपने अनुरागमय व्यवहार और सेवा भाव से राजलक्ष्मी को मोहित कर अपने वश में कर लेती है। विनोदिनी का सौन्दर्य और उसका समर्पित आचरण महेंद्र और उसकी पत्नी आशालता दोनों को बाँध लेता है। आशालता और विनोदिनी परस्पर प्रिय सहेलियाँ "चोखेर बालि" बन जाती हैं। विनोदिनी, महेंद्र और आशालता दोनों की अंतरंगता हासिल कर लेती है। वह महेंद्र से प्रेम करने लग जाती है। वह महेंद्र को अपने प्रेम के मोहपाश में बाँधकर अपने वैधव्य जीवन की रिक्तता को भर लेना चाहती है। कथानक के एक बिन्दु पर महेंद्र और विनोदिनी दोनों सामाजिक बंधनों और नियमों का अतिक्रमण कर शाश्वत मिलन की कामना करने लगते हैं। महेंद्र विनोदिनी से शाश्वत मिलन के लिए तड़प उठता है। एक ओर विनोदिनी, आशालता और महेंद्र के संबंधों में बिखराव नहीं चाहती किन्तु वह महेंद्र से अपने प्रेम को नकार भी नहीं सकती। उसका यह द्वंद्व निरंतर उसे भटकाता रहता है। विवाहित महेंद्र विनोदिनी के इतने निकट आ जाता है कि वह आशा से दूर छिटकता चला जाता है। वह घर-परिवार और समाज की मर्यादा त्यागकर विनोदिनी के साथ कहीं दूर जाकर जीवन बिताने का फ़ैसला कर लेता है। विनोदिनी, उसे कभी विलासी युवती तो कभी प्रेम तपस्विनी के रूप में दिखाई देती थी। वह विनोदिनी के अन्तर्मन को सही रूप से भाँप नहीं सकता है। विनोदिनी एक अबूझ पहेली बनकर उपन्यास में छाई रहती है। वस्तुत: विनोदिनी के चरित्र में रवीन्द्रनाथ ने ऐसे कई गुण भर दिए थे जिसे न तो महेंद्र समझ सका और न उसका पूर्व प्रेमी बिहारी।

विनोदिनी वास्तव में अपने लिए एक पहेली थी जिसे स्वयं रवीन्द्रनाथ ने रहस्यमय बनाए रखने का यत्न किया है। वह सोचा करती थी – "जिस महेंद्र ने मेरे जीवन की सार्थकता को नष्ट कर दिया, उसने मुझ जैसी स्त्री की उपेक्षा कर आशा जैसी मंदबुद्धि बालिका को कैसे अपना लिया? अब उसी महेंद्र को वह चाहती है या उससे चिढ़ती है – वह यह तय नहीं कर पाती। क्या वह उसे इसकी सज़ा देगी या अपना हृदय सौंप देगी?" लेकिन वह किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँच पाती। महेंद्र ने सचमुच उसके हृदय में आग लहकाई थी – यह आग ईर्ष्या की थी या प्रेम की – या फिर इस आग में भी दोनों की मिलावट थी – वह काफी सोच-विचार कर भी यह समझ नहीं पाती थी। लेकिन जब तक वह कोई फ़ैसला कर पाती तब तक बिहारी भी उसके हृदय के एक कोने में स्थान बना चुका था। महेंद्र और विनोदिनी के बीच पनपने वाले प्रेम को, उन दोनों के भीतर सुलगने वाले प्रेम की आग को महेंद्र की माँ राजल्क्ष्मी की भी मौन स्वीकृति मिली हुई है – जिसे विनोदिनी अच्छी तरह समझ रही थी। वरना वह आशा की अनुपस्थिति में महेंद्र के निकट आने का साहस जुटा नहीं पाती। महेंद्र भी उसके प्रति इतना आग्रही नहीं हो पाता। स्थिति जब हद से आगे बढ़ने लगती है तो राजलक्ष्मी विनोदिनी पर ताना कसते हुए कहती है – "मुझे यह पता नहीं था कि तू कैसी मायाविनी है?" इस पर विनोदिनी भी पलटकर कहती है – "तुमने ठीक ही कहा बुआ! कोई किसी के बारे में नहीं जानता। अपना मन भी क्या कोई जान पाता है? क्या तुमने अपनी बहू से ईर्ष्या करते हुए इस मायाविनी के द्वारा अपने बेटे का मन लुभाना नहीं चाहा था? एक बार ठीक से सोचकर तो देखो!"

रवीन्द्रनाथ ने महेंद्र, विनोदिनी, आशालता और बिहारी – इन चार प्रमुख चरित्रों के इर्द-गिर्द उन प्रसंगों को बहुविध विस्तार दिया है जिनसे न केवल बाहरी क्रिया-कलाप द्वारा उनकी पात्रता सुनिश्चित हो बल्कि आंतरिक द्वंद्व भी अभिव्यक्त हो। बिहारी के प्रति आशा का खिंचाव और विनोदिनी का बिहारी के प्रति आदर भाव जताने वाले प्रसंग इसके उदाहरण हैं। यही नहीं, महेंद्र का विनोदिनी के प्रति कातर प्रेम निवेदन वाले प्रसंग और सम्बद्ध संवाद अत्यंत सटीक हैं। अंत में महेंद्र का प्रायश्चित्त इन वाक्यों में फूट पड़ता है – "जब तक तुम मरती नहीं, तब तक मेरी प्रत्याशा भी नहीं मरेगी – मुझे छुटकारा नहीं मिलने वाला। मैं आज से, अपने अन्तर्मन से तुम्हारी मृत्यु की कामना करूँगा। तुम चली जाओ और मुझे मुक्त करो! न तो तुम मेरी बनो और न बिहारी की। मेरी माँ रो रही है, मेरी पत्नी बिलख रही है – दूर रहकर भी मुझे उनके आँसू जला रहे हैं। जब तक तुम मर नहीं जाती तब तक मैं उनकी आँखों के आँसू नहीं पोंछ सकूँगा।"

दूसरी तरफ कथानक का एक और अत्यंत रोचक और जटिल संदर्भ उभरकर आता है। बिहारी के प्रेम निवेदन पर विनोदिनी कहती है – "अगले जन्म में मैं तुम्हें पाने के लिए तप करूँगी। इस जनम में अब और कोई चाह नहीं और कामना भी नहीं। मैंने बहुत दुःख दिया है और बहुत दुःख पाया है। मुझे काफी सीख भी मिली है। अगर मैं उस सीख को भूल जाती तो मैं तुम्हें नीचा दिखाकर और भी हीन बन जाती। लेकिन तुम ऊँचे बने रहे, इसीलिए मैं आज अपना सिर फिर एक बार उठा पाई – मैं यह आश्रय धूल में नहीं मिला सकती।"

उपन्यास के अंत में एक बार फिर आशा के मन में विनोदिनी के प्रति एक तरह की विषण्णता या कटुता का संकेत रवीन्द्रनाथ ने दिया है, जो उसकी चारित्रिक परिपक्वता की सूचक है। अब वह समझ गई थी कि विनोदिनी और महेंद्र आपस में क्यों प्रेम करने लगे थे क्योंकि वह उसे वांछित प्रेम देने में सक्षम नहीं थी। महेंद्र के लिए उसी प्रेम की दुहाई देती हुई विनोदिनी आशा से ही नहीं, सबसे दूर चली जाती है।

इस उपन्यास में रवीन्द्रनाथ ने एक जाना-पहचाना परिवेश और सुविस्तृत घर-परिवार निर्मित किया था, जो मध्यवर्गीय मूल्यों का पक्षधर था। यहाँ एक रूढ़िवादी लेकिन आत्मसम्मानी काकी थी, जो पुरातन मूल्य मर्यादा की कट्टर पक्षधर थी। एक ममतामयी माँ थी, लेकिन घर का बेटा बिगड़ता चला जा रहा था। पत्नी लगातार प्रताड़ित होती रहती थी और इन तमाम उलझनों से सबसे ज़्यादा उद्विग्न रहती थी – युवा विधवा विनोदिनी, जिसका पति विवाह के कुछ ही दिनों में गुज़र गया था। उसके मन का अंतर्द्वंद्व और तन की अतृप्ति का अत्यंत प्रभावी एवं विश्वसनीय चित्रण ही उपन्यास की विशिष्टता बनी। एकाकी विनोदिनी की ख़ामोशी ने और अवसरानुकूल टिप्पणी के साथ उसकी रचनात्मक ऊर्जा ने इस अंतरंग आख्यान को रोचक, उत्तेजक और आधुनिक बना दिया।

बाहरी तौर पर सामान्य प्रतीत होने वाली इस परिवार की दुनिया बड़ी शांत और संयत दिखाई देती है लेकिन समय पाकर यही सामान्य और साधारण परिस्थिति असामान्य और उद्धत हो जाती है, बल्कि उग्र उन्माद में बदल जाती है। स्पष्ट है कि इसका प्रशांत परिवेश अंदर ही अंदर सुलगता रहता है और अंत में उसी अंतर्दाह में सब कुछ जलकर राख़ हो जाता है। जब कि बाहर के लोगों को इसकी भनक तक नहीं पड़ती, क्योंकि उन्हें दूर से न तो कोई आग दिखाई देती पड़ती है और न धुआँ। विनोदिनी और महेंद्र की प्रेम कथा की अकल्पनीय परिणति होती है। अंत में महेंद्र विनोदिनी के पाँव छूता है। विनोदिनी भी इतना ही कह पाती है – "मुझे माफ़ कर देना, ईश्वर तुम्हारा भला करे।" तभी अपनी मृत्यु से पहले राजलक्ष्मी अपने लाड़ले बेटे महेंद्र से कहती है – "मेरे बक्से में दो हज़ार के नोट पड़े हैं, वे रुपये मैं विनोदिनी को दे रही हूँ। वह विधवा है, अकेली है, इन रुपयों से उसके दिन मजे में कट जाएँगे। लेकिन उसे अपने यहाँ मत रखना।"

इस उपन्यास के अंत को लेकर तत्कालीन आलोचकों और पाठकों द्वारा कई तरह की आपत्तियाँ दर्ज की गई थीं, विशेषकर बिनोदिनी के प्रेम प्रसंग को लेकर। इसका संकेत डॉ. सुकुमार सेन ने अपने "बाङ्ला साहित्य का इतिहास" ग्रंथ में किया है। वे लिखते हैं – "विनोदिनी की जीवनचर्या का कोई भी दूसरा अंत तत्कालीन समय के आधुनिक से आधुनिक पाठक को भी अकारण आघात पहुँचाता जब कि रवीन्द्रनाथ की इस प्रकार के आकस्मिक आघात पहुँचाने में कोई आस्था नहीं थी और उन्होंने कभी अमर्यादित तौर पर मौलिक होने का प्रयत्न भी नहीं किया।"

रवीन्द्रनाथ तत्कालीन समाज में स्त्री-पुरुष और पति-पत्नी संबंधों की भावात्मक स्थितियों और भूमिकाओं को उकेर रहे थे। पति-पत्नी और प्रेमी-प्रेमिका अपने व्यक्तिगत, सामाजिक और भावगत जीवन में एक दूसरे के प्रति कितने सहिष्णु और संवेदनशील होते हैं, इसका आकलन रवीन्द्रनाथ ने सूक्ष्मता और गहराई से किया है। वे केवल रोचक घटनाओं का घटाटोप नहीं खड़ा करते हैं बल्कि वे उस रहस्य को भी भेदना चाहते हैं जो परस्पर संबंधों को विच्छिन्न कर देता है और एक दूसरे के प्रति उन्हें निष्ठुर बना देता है।

"चोखेर बालि" ने जहाँ रवीन्द्रनाथ के पाठकों और प्रशंसकों को उद्वेलित किया, वहाँ उन्हें स्तब्ध और विचलित भी किया है क्योंकि वे एक युवा विधवा के बहाने प्रेम की एक नई परिभाषा के साथ इसे सामाजिक संदर्भ से भी जोड़ते हैं। चोखेर बालि की रचना से रवीन्द्रनाथ "बाउ-ठाकुरानीर हाट, राजर्षि और करुणा" जैसे आख्यानधर्मा उपन्यासों से सर्वथा अलग एक नई कथाभूमि का निर्माण कर रहे थे । रवीन्द्रनाथ ने स्पष्ट कर दिया कि अपने देशकाल की आकांक्षा और पात्रगत वैशिष्ट्य को पूरी प्रामाणिकता से उकेरे बिना कोई भी कृति अपने पाठक समाज को प्रभावित नहीं कर सकती। विनोदिनी की बेबसी और ख़ामोशी का चित्रण रवीन्द्रनाथ ने मनोविज्ञान के स्तर पर किया था। तर्कसंगत कार्य-व्यवहार और संवाद से इसका वांछित प्रभाव इसके पूरे कथ्य पर पड़ा, जिसने इस उपन्यास को सर्वथा अलग पहचान दी।

नाटकों के रूप में रवीन्द्रनाथ टैगोर की कहानियाँ और उनके उपन्यासों के कथानकों का बांग्ला में सर्वाधिक मंचन हुआ है। टैगोर की कहानियाँ टीवी फ़िल्मों के रूप में बहुत लोकप्रिय हुईं। रवीन्द्रनाथ की उपर्युक्त कृति "चोखेर बाली" (आँख की किरकिरी) का फ़िल्मी रूपान्तरण बांग्ला और हिंदी में 2003 में बांग्ला के सुप्रसिद्ध निर्देशक ऋतुपर्णों घोष के निर्देशन में किया गया। इस फ़िल्म के निर्माता श्रीकांत मोहता और महेंद्र सोनी थे। श्रीकांत वेंकटेश नामक फ़िल्म निर्माण संस्था ने इसका निर्माण किया था। इस फ़िल्म का संगीत निर्देशन देबोज्योति मिश्रा ने किया। दो करोड़ रुपए की लागत से निर्मित यह फ़िल्म बहुत ही प्रभावशाली फ़िल्म है जिसमें टैगोर की औपन्यासिक कला को पूरी तरह उभारा गया है। फ़िल्म में कथा नायिका विनोदिनी की भूमिका को ऐश्वर्य राय, सहनायिका आशालता की भूमिका को रीमा सेन, नायक महेंद्र की भूमिका को प्रसेनजीत और बिहारी की भूमिका को तोटा रॉय चौधरी जैसे सिनेमा और रंगमंच के कलाकारों ने निभाया है। महेंद्र की माता राजलक्ष्मी के पात्र को लिली चक्रवर्ती ने परदे पर जीवंत कर दिया। इस फ़िल्म की विशेषता इसका परिवेश है जो कि उपन्यास के परिवेश को हूबहू जीवित चित्रित कर देता है। विनोदिनी को ही आशालता "चोखेरबाली" के नाम से पुकारा करती है। चोखेर बाली की जटिल, अंतर्द्वंद्व से ग्रस्त, दांपत्य प्रेम से वंचित, विधि द्वारा छली गई आकर्षक नव-यौवना, परकीया प्रेम और कामेच्छा से त्रस्त, सामाजिक रूढ़ियों में जकड़ी हुई "विनोदिनी" को ऐश्वर्य राय ने रवीन्द्रनाथ टैगोर की विनोदिनी उर्फ चोखेर बाली के माध्यम से दांपत्य प्रेम और सहवास से वंचित स्त्रियों की मनोदशा को साकार कर दिया। "चोखेर बाली" फ़िल्म ने टैगोर के उपन्यास को लोकप्रियता प्रदान की। यह फ़िल्म टैगोर के उपन्यास का उत्कृष्ट रूपान्तरण है। राजलक्ष्मी द्वारा विनोदिनी को अपने विवाहित पुत्र महेंद्र की सेवा के लिए प्रोत्साहित करने की भावना के पीछे एक विचित्र और प्रतिहिंसात्मक सुख का अनुभव राजलक्ष्मी करती है जिसे फ़िल्म में बहुत ही कलात्मक ढंग से प्रस्तुत किया गया है। आशालता का विनोदिनी के साहचर्य पर अगाध विश्वास, जिसका परिणाम उसे ही भोगना पड़ता है, इन सभी प्रसंगों का फिल्मांकन यथार्थपूर्ण शैली में किया गया है जो फ़िल्म को रोचक और आकर्षक बनाता है। टैगोर द्वारा चित्रित दांपत्य जीवन की जटिलताओं और पति के विनोदिनी से विवाहेतर संबंधों का चित्रण फ़िल्म को नई ऊँचाई प्रदान करता है। फ़िल्म का अंत करुण बन पड़ा है जहाँ विनोदिनी, प्रायश्चित्त करने के लिए, आशालता और महेंद्र के जीवन से दूर चली जाती है। ऋतुपर्णों घोष का निर्देशन अपनी कलात्मक छाप फ़िल्म पर छोड़ता है।

टैगोर की अत्यंत लोकप्रिय कहानी "काबुलीवाला" का फ़िल्मी रूपान्तरण हेमेन गुप्ता के निर्देशन में सुप्रसिद्ध फ़िल्मकार विमल रॉय ने 1961 में निर्मित किया। इस फ़िल्म में बलराज साहनी (अब्दुल रहमान खान), उषा किरण (मिनी की माँ- रमा), सोनू (मिनी) आदि ने कहानी के "अब्दुल रहमान खान" (काबुलीवाला) की संवेदनाओं को जिस भावुकता से प्रस्तुत किया वह हमेशा-हमेशा के लिए एक क्लासिक फ़िल्म के रूप में लोकप्रिय हो गया। अब्दुल रहमान खान जो एक सूखे मेवे बेचने वाला अफगान काबुलीवाला है जिसके प्रति नन्ही मिनी आकर्षित होती है। मिनी उसे उसकी बेटी अमीना (बेबी फ़रीदा) की याद दिलाती है। मिनी में ही वह अमीना की छवि देखता है और मिनी ही उसकी बेटी के रूप में साकार हो जाती है। मातृभूमि की याद में उसका गाया हुआ गीत – "ऐ मेरे प्यारे वतन, ऐ मेरे बिछड़े चमन, तुझपे दिल क़ुरबान! तू ही मेरी आरजू, तू ही मेरी जान!" मातृभूमि से दूर होने की उसकी तड़प, दर्शकों में देशभक्ति का सहज संचार करती है। फ़िल्म के अन्य गीत -"गंगा आए कहाँ से, काबुलीवाला आया काबुलीवाला आया काबुलकंधार से, ओ या कुर्बान" भी सार्वकालिक लोकप्रिय हैं। फ़िल्म में सलिल चौधरी का मधुर संगीत प्रशंसनीय है। मिनी के रूप में उसे अपनी बेटी की मधुर याद, मिनी के प्रति उसका वात्सल्य, मानवीय संवेदनाओं के सार्वभौम स्वरूप को चित्रित करता है। अभिनेता बलराज साहनी को काबुलीवाला फ़िल्म के लिए आज भी याद किया जाता है।

काबुलीवाला कहानी बांग्ला में टैगोर द्वारा 1890 में संपादित एक बांग्ला साहित्यिक पत्रिका "साधना" में प्रकाशित हुई थी जिसका अंग्रेज़ी में अनुवाद आइरिश महिला मार्गरेट एलिज़ाबेथ नोबल (सिस्टर निवेदिता) ने किया और इसका प्रकाशन अंग्रेज़ी में "मॉडर्न रिव्यू" में प्रकाशित हुआ था, जिससे इस कहानी को अंतर्राष्ट्रीय लोकप्रियता हासिल हुई।

टैगोर के कथा साहित्य पर आधारित फ़िल्मों में मिलन (1946) और कशमकश (2011) जो कि नौका डूबि (हिंदी में अनूदित - नौका डूबी, अंग्रेज़ी में The Wreck) भी बंगाली समाज में व्याप्त स्त्रियों की विवाह की दयनीय एवं अन्यायपूर्ण कुरीतियों तथा परंपराओं पर प्रहार करती है। इस उपन्यास विचित्र अनहोनी परिस्थितियों में घिरी एक नव-विवाहिता वधू के जीवन की विडंबनाओं को नियति के क्रूर खेल के रूप में प्रस्तुत करता है। इस उपन्यास/फ़िल्म की कहानी एक नाव दुर्घटना से जुड़ी है। रमेश नामक एक नवयुवक जो कानून की पढ़ाई कर रहा था, उसे पिता की मर्ज़ी से, दूर किसी गाँव की लड़की से विवाह करना पड़ता है। विदाई के बाद दैवयोग से वह नाव जिसमें पति-पत्नी और बाराती सवार थे वह नाव तूफ़ान में फँसकर डूब जाती है। होश आने पर रमेश जिस ब्याहता युवती को अपने निकट पाता है, वह उसकी नहीं बल्कि किसी और की नवविवाहिता पत्नी (कमला) थी जो इसी दुर्घटना का शिकार होकर पति से बिछुड़ गई थी। वधू वेश में कमला को भी यह पता नहीं कि रमेश उसका पति नहीं क्योंकि उसका विवाह जल्दबाज़ी में हो जाता है इसलिए वह यह भी नहीं जानती थी कि उसके पति का क्या नाम है। उन दिनों ऐसा अक्सर होता था। कन्याओं का विवाह उन्हें वर का नाम बताए बिना ही कर दिया जाता था। इस घोर अन्यायपूर्ण परंपरा की ओर टैगोर ने संकेत किया है। ख़ुद रमेश पर यह सच्चाई काफ़ी दिनों बाद प्रकट होती है और तब वह कमला से सायास दूर रहने लगता है। जब उसे पता चलता है कि यह सुशीला उसकी परिणीता स्त्री नहीं है तो वह उसके संबंध में खोज शुरू कर देता है। उसे पता चलता है कि जिसे वह सुशीला समझा रहा है वह वास्तव में कमला है जिसके पिता का नाम तारिणीचरण चट्टोपाध्याय और गाँव धोबापुकुर है। वह उसके पति के बारे में भी खोज करने लगता है। अनेक विडंबनाओं के मध्य रमेश अपने स्वार्थ को त्यागकर कमला के पति को तलाशकर उसे उसके ससुराल पहुँचाने के प्रयत्न में जुट जाता है। इस उपन्यास में इस कहानी के समानान्तर एक और कहानी अन्नदा बाबू की लड़की हेमनलिनी और डॉक्टर नलीनाक्ष के विवाह के प्रस्ताव को लेकर चलती है। हेमनलिनी की नियति यह है कि वह रमेश और नलिनाक्ष के द्वंद्व में फँसकर रह जाती है। कालांतर में रमेश के प्रयासों से यह पता चलता है कि नलिनाक्ष ही कमला का पति है। कमला के विवाह की पहेली नलिनाक्ष की पहचान से सुलझ जाती है। हेमनलिनी का जीवन बिना किसी निर्दिष्ट अंत के शेष रह जाता है। कमला जो कभी रमेश के पास रह चुकी थी, वह अंतत: विधि के विधान से नलिनाक्ष को ही अपने बिछुड़े जीवन साथी के रूप में पा जाती है। कमला और नलिनाक्ष के संयोग को साकार करने में रमेश का जीवन समर्पित हो जाता है।

स्पष्ट है कि इस कहानी में कई संयोग और दुर्योग एक साथ चलते हैं लेकिन उसकी विश्वसनीयता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। इस कहानी का भौगोलिक परिवेश अति विस्तृत है। सुदूर पद्मा नदी के तट पर बसे गाँवों से लेकर कलकत्ता, फिर गाजीपुर और इलाहाबाद जैसे स्थानों में घटित कहानी के अंश पाठक को स्थानीयता का आभास कराते हैं। कमला और रमेश के अंतर्द्वंद्व का चित्रण रवीन्द्रनाथ ने बहुत ही सूक्ष्म धरातल पर किया है जो कि इस उपन्यास को चिंतनप्रधान बनाता है।

फ़िल्म के रूप में भी यह उपन्यास उतना ही प्रभावशाली और मार्मिक बन पड़ा है। यह उपन्यास 1946-47 में नितिन बोस के निर्देशन में बांग्ला और हिंदी दोनों भाषाओं में निर्मित हुई और यह आज तक इसकी गणना बहुप्रशंसित फ़िल्मों में होती है। इस उपन्यास पर थोड़े बहुत परिवर्तन के साथ अन्य भारतीय भाषाओं में भी फ़िल्में निर्मित हुईं जिसे अपार लोकप्रियता प्राप्त हुई। हिंदी में रमेश की संजीदा भूमिका को ट्रेजिडी किंग दिलीप कुमार ने निभाया। अन्य अभिनेताओं में मीरा मिश्रा (कमला), रंजना (हेमनिलिनी), अन्नदा (मोनी चटर्जी), नलीनाक्ष (एस नज़ीर), अक्षय (पहाड़ी सनयाल), ब्रज मोहन (के पी मुखर्जी) प्रमुख हैं।

रवीन्द्रनाथ टैगोर के कथा साहित्य का फ़िल्मी रूपान्तरण :

 

बांग्ला फ़िल्में :

 

     

 

उपन्यास

सिनेमा

निर्माण वर्ष

निर्माता/निर्देशक

1.

नातिर पूजा

नातिर पूजा

1932

रवीन्द्रनाथ टैगोर
 (टैगोर द्वारा निर्देशित एक मात्र फ़िल्म)

2.

नौका डूबि

नौकाडूबि

 1947

 नितिन बोस

3.

काबुलीवाला

काबुलीवाला

1957

तपन सिन्हा

4.

क्षुधिता पाषाण

क्षुधिता पाषाण

1960

तपन सिन्हा

5.

तीन कन्या

तीन कन्या

1961

सत्यजित रे

6.

नष्ट नीड़

चारुलता

1964

सत्यजित रे

7.

घरे बाइरे

घरे बाइरे

1985

सत्यजित रे

8.

चोखेर बालि

चोखेर बालि

2003

ऋतुपर्णों घोष

9.

षष्टि

षष्टि

2004

चाशि नज़रुल इस्लाम

10.

शुवा

शुवाशिनी

2006

चाशी नज़रुल इस्लाम

11.

चतुरंगा

चतुरंगा

2008

सुमन मुखोपाध्याय

12.

एलार चार अध्याय

चार अध्याय

2012

बाप्पादित्या बंद्योपाध्याय

हिंदी में निर्मित फ़िल्में :

 

उपन्यास/कहानी

सिनेमा

निर्माण वर्ष

निर्माता/निर्देशक

1.

बलिदान

सेक्रिफ़ाइस

1927

ननन्द भोजाई और नवल गांधी

2.

नौका डूबि

मिलन

1947

नितिन बोस

3.

काबुलीवाला

काबुलीवाला

1961

विमल रॉय/हेमेन गुप्ता

4.

डाक घर

डाक घर

1965

जुल वेल्लनी

5.

समाप्ति

उपहार

1971

सुधेंदु रॉय

6.

क्षुधित पाषाण

लेकिन

1991

गुलज़ार

8.

चार अध्याय

चार अध्याय

1997

कुमार शाहनी

9.

चोखेरबालि

चोखेरबालि

2003

ऋतुपर्णों घोष

10.

नौका डूबि

कशमकश

2011

ऋतुपर्णों घोष

साहित्य का फ़िल्मों में माध्यमांतरण जब बिना किसी फेर बदल अथवा तोड़ मरोड़ के किया जाता है तभी उस कृति की मूल संवेदना तथा लेखक का आशय समाज को प्राप्त होता है। साहित्यिक कृतियों की मूल कथा वस्तु को अपने व्यापारिक एवं व्यासायिक हितों के लिए जब इस्तेमाल किया जाता है तब साहित्यिक मूल्यों की क्षति होती है। साठ के दशक और उससे पूर्व फ़िल्म निर्माता और निर्देशक फ़िल्म निर्माण के लिए साहित्यिक कृतियों के चयन में बहुत सतर्क रहा करते थे। फ़िल्मकारों के लिए सामाजिक एवं सांस्कृतिक मूल्यों के प्रति लोगों में विशेष चेतना प्रसारित करने का लक्ष्य सर्वोपरि हुआ करता था। वर्तमान दौर की फ़िल्मों ने व्यावसायिक हितों को साधने के लिए साहित्यिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक मूल्यों को दरकिनार कर दिया। कुछ अपवादों को छोड़कर, बाज़ार के दबाव ने साहित्य के शिल्प सौन्दर्य को नष्टभ्रष्ट कर दिया और फ़िल्मकार इन मूल्यों से विमुख होते चले गए। भूमंडलीकरण के दौर में व्यावसायिक सिनेमा का साहित्य से जैसे कोई सरोकार ही नहीं रहा।

और अंत में ........

रवीन्द्रनाथ टैगोर समर्पित भाव से अहर्निश, आजीवन रचनारत रहे। अपने समय और समाज को संबोधित करते हुए और आने वाले समय की पदचाप से सबको परिचित कराने वाले इस महामनीषी को यह अहसास था कि वह जो कुछ और जितना कुछ दे पाए, उससे कहीं अधिक देना तो शेष रह गया। जिसे अपनी अपूर्णता का निरंतर बोध हो वही अहंकारशून्य कवि साधक यह लिख सकता है –

"गावार मतन हय नि कोनो गान
देवार मतन हय नि किछु दान।"

अर्थात –

 "गाने लायक रचा न कोई गान
देने लायक बचा न कोई दान।"

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ऑडियो

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