चक्रव्यूह
काव्य साहित्य | कविता वैद्यनाथ उपाध्याय1 Nov 2020 (अंक: 168, प्रथम, 2020 में प्रकाशित)
काल की निगाह को
छलकर
सपनों के अंगुली थामे
भागा भागा सा
निकला था
मैं घर से . . .
बीच राह में आकर
फँसा हुआ हूँ
इच्छाओं का जाम
लगा है आगे
बेक़ाबू होकर निकल पड़ी
इच्छाएँ
भिड़ गई हैं
एक दूसरे से।
सूरज ठठाकर
हँसा है मुझ पर
मैं निरीह, असहाय सा
खड़ा हूँ
बीच राह में
क्या करूँ
कुछ सूझता नहीं
फिर भी
मैं पराजित नहीं हूँ
चक्रव्यूह में फँसा
अभिमन्यु की तरह!
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