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हिंदी सिनेमा के विकास में फ़िल्म निर्माण संस्थाओं की भूमिका-1

भाग - 1

मनुष्य समाज में कथा कहने और सुनने की परंपरा बहुत पुरानी है। क़िस्सा, कहानी, आँखों देखी, आपबीती आदि को मनुष्य भाषा के उदय काल से परस्पर एक दूसरे को सुनाता रहा है। धार्मिक कथाएँ, काल्पनिक कथाएँ, विभिन्न समाजों में विकसित ऐतिहासिक एवं दन्तकथाओं की सुदीर्घ परंपरा विश्व में रही है। कहानी पहले मौखिक माध्यम से ही प्रसारित होती थी। कहानी श्रोता को प्रभावित करती है। यह प्रभाव कथा की प्रस्तुति पर आधारित होता है। प्रस्तुति जितनी प्रभावशाली, आकर्षक और रोचक होगी प्रभाव उतना ही तीव्र होता है। इस दृष्टि से रंगमंच और नाटक विधा दृश्य और श्रव्य माध्यम का प्रथम प्रारूप है, जिसके द्वारा पौराणिक, धार्मिक एवं ऐतिहासिक कथाएँ प्रचलित हुईं। इसके बाद का युग सिनेमा नामक एक तकनीकी माध्यम का युग आया जिसने आधुनिक युग में क़िस्सागोई के स्वरूप को आमूलचूल बदलकर जनमानस को तीव्र रूप में उद्वेलित किया। भारत में सिनेमा के आगमन से पूर्व से ही शृंखलाबद्ध चित्रों के माध्यम से कथाएँ कहने का चलन रहा है।

28 दिसंबर 1895 विश्व इतिहास का एक अत्यंत महत्वपूर्ण दिन के रूप में हमेशा याद किया जाएगा। यह दिन विशेष रूप से सिनेमा प्रेमियों के लिए पूरे विश्व में महत्वपूर्ण है। इसी दिन पेरिस के ग्रैंड कैफ़े हाउस में, आमंत्रित मेहमानों के बीच, ल्यूमर ब्रदर्स ने पहली बार "सिनेमाटोग्राफ़" का प्रदर्शन किया था। वह उस कैफ़े में बैठे सभी लोगों के लिए एक अत्यंत रोमांचकारी और आश्चर्य से भरा हुआ ऐतिहासिक दिन था। थोड़ी देर के लिए तो लोगों को अपनी आँखों पर विश्वास ही नहीं हुआ की वे आख़िर क्या देख रहे हैं? इस तरह चलती- फिरते मूक चित्रों से विश्व में सिनेमा का प्रारम्भ हुआ।

समूचे विश्व में इस अनोखी घटना की चर्चा हो रही थी कि 7 जुलाई 1896 के दिन मुंबई के वॉटसन होटल में आमंत्रित मेहमानों के समक्ष, ल्यूमर ब्रदर्स के प्रतिनिधियोंद्वारा पहली बार एक साथ छह मूक लघु फ़िल्मों का प्रदर्शन किया गया। सिनेमा के आविष्कार के केवल छह महीनों के अंदर ही मुंबई को यह गौरव प्राप्त हुआ। उस दिन वॉटसन होटल में सबसे पहले "एंट्री ऑफ़ सिनेमाटोग्राफ़" का प्रदर्शन किया गया और इसके बाद "एराइवल ऑफ़ ट्रेन, द सी बाथ, ए डिमालिशन, वर्कर्स लीविंग द फ़ैक्ट्री और लेडीज़ एंड सोल्जर्स ऑन व्हील्स" का प्रदर्शन किया गया। उस दिन "एराइवल ऑफ़ ट्रेन" के प्रदर्शन के दौरान दर्शकों को अजीब रोमांचकारी अनुभव हुआ। एक पल को तो उन्हें लगा कि जैसे ट्रेन होटल के अंदर घुस आई हो। कुछ लोग तो अपनी जगह से उठकर बाहर की ओर भागने लगे। उन सब लोगों के लिए भी यह रोमांचकारी अनुभव सर्वथा नया और अनोखा था। इस तरह 7 जुलाई 1896 को भारत में कला के एक महान माध्यम का आगमन हुआ जिसे सिनेमा कहा जाता है। वॉटसन होटल में प्रदर्शन के एक सप्ताह बाद 14 जुलाई 1896 को मुंबई के नावेल्टी थियेटर में, ल्यूमेर ब्रदर्स के प्रतिनिधियों द्वारा आम लोगों के लिए उन मूक फ़िल्मों का प्रदर्शन किया गया।

भारत में सिनेमा के आगमन से न सिर्फ़ बंबई में बल्कि कलकत्ता और मद्रास में भी तहलका मच गया था। इन शहरों में रहने वाले अमीर छायाकार इस नवीन तकनीक के प्रति आकर्षित होते चले गए। फिर देखते-देखते कई छायाकार (फोटोग्राफ़र) ल्यूमेर सिनेमेटोग्राफ़ तकनीक के माध्यम से अपने आसपास की छोटी-बड़ी घटनाओं और समारोहों का छायांकन कर लोगों के बीच उसका प्रदर्शन कर नाम और धन कमाने लगे। धीरे-धीरे इन शहरों में फ़िल्म निर्माण और प्रदर्शन का व्यापार पनपने लगा और व्यापार के नए आयाम खुलने लगे। भारतीय फ़िल्म निर्माताओं के साथ-साथ उन दिनों कई विदेशी भी भारत आकर फ़िल्मों का निर्माण करने लगे और यहाँ के नैसर्गिक सौंदर्य को अपने कैमरे में क़ैद करके मूक लघु फ़िल्मों का निर्माण करने लगे। सन् 1897 से 1912 तक फ़िल्मांकन किए गए चलचित्रों के विश्लेषण से यह कहा जा सकता है कि ये फ़िल्म मात्र घटनाओं और छोटे-बड़े समारोहों की रिकार्डिंग के अतिरिक्त कुछ और नहीं थे। इस अवधि में निर्मित और प्रदर्शित लगभग सभी फ़िल्म सामयिक विषयों के इर्दगिर्द तक ही सिमटा हुआ था। इन्हें आज की भाषा में "मूक वृत्तचित्र" की श्रेणी में रखा जा सकता है।

सन् 1912 में मुंबई के "रामचन्द्र गोपाल टोर्ने" द्वारा निर्मित फ़िल्म "पुंडलीक" को अपार सफलता मिली। यह फ़िल्म महाराष्ट्र के ख्यातिप्राप्त हिंदू संत के जीवन पर आधारित "रामाराव किर्तीकर" द्वारा लिखित नाटक पर आधारित थी। इसका फिल्मांकन मुंबई के ग्रांट रोड के क्षेत्र में किया गया था। इसमें नासिक के नाट्य मंडली के उन कलाकारों ने अभिनय किया था जो इस नाटक का मंचन किया करते थे। इसका छायांकन विदेशी छायाकार द्वारा किए जाने के शायद इसे भारत की पूर्ण स्वदेशी कथा फ़िल्म का सम्मान नहीं मिल पाया और यह सम्मान, इस फ़िल्म के निर्माण के लगभग एक वर्ष बाद फाल्के द्वारा निर्मित फ़िल्म "राजा हरिश्चंद्र" को मिला। फ़िल्म "पुंडलिक" मुंबई के "कोरोनेशन थियेटर" में 18 मई 1912 को प्रदर्शित की गई। यह फ़िल्म भारतीय सिनेमा के इतिहास में परिवर्तन के प्रथम स्वर के रूप में ली जाती है। इस फ़िल्म से संबंधित शोध यह बताते हैं कि दरअसल यह फ़िल्म "टोर्ने" ने नहीं बल्कि दो लोग- "एन.जी. चित्रे और पी.आर. टिपनीस" ने मिलकर बनाई थी। इस तरह "पुंडलिक" का नाम, भारतीय सिनेमा के इतिहास में हमेशा दर्ज रहेगा। यदि "पुंडलिक" को पूर्ण स्वदेशी प्रथम भारतीय कथा फ़िल्म का सम्मान मिला होता तो निश्चित तौर पर भारत, पूरे विश्व में प्रथम कथा फ़िल्म निर्माता के रूप में विश्व सिनेमा के इतिहास में अपना स्थान प्राप्त कर लेता। क्योंकि प्रथम कथा फ़िल्म का निर्माण फ्रांस में हुआ था और उस फ़िल्म का नाम था - "क्वीन एलिज़ाबेथ" जिसका प्रदर्शन 12 जुलाई 1912 को "पुंडलिक" से लगभग दो महीने बाद फ्रांस में हुआ।

दादा साहब फाल्के का पदार्पण :

महाराष्ट्र के नासिक के पास एक गाँव, त्रिंबकेश्वर के ब्राह्मण परिवार में "ढूंदीराज गोविंद फाल्के" का जन्म, सन् 1870 में हुआ। यह वही महापुरुष हैं जिन्हें भारतीय सिनेमा का, विशेष रूप से भारतीय कथा फ़िल्मों के जन्मदाता के रूप में माना जाता है। ढूंदीराज गोविंद फाल्के बाद के वर्षों में "दादा साहब फाल्के" के रूप में प्रसिद्ध हुए। फाल्के ने 1885 में जे जे स्कूल ऑफ़ आर्ट और कलाभवन, बड़ौदा से चित्रकला और फिर वास्तुकला की पढ़ाई पूरी की। इसके बाद फाल्के एक चित्रकार बन गए और विशेष रूप से प्राकृतिक दृश्यों को कैनवास पर उतारने के प्रति इनका अधिक रुझान था। फाल्के की रुचि फोटोग्राफी की ओर धीरे-धीरे बढ़ने लगी। उन्होंने "कलर ब्लॉक मेकिंग", फोटोग्राफी और सेरामिक कला की विशेष पढ़ाई की। चित्रकार और छायाकार के साथ-साथ एक नाटक मंडली में मेकअप मैन के रूप में नौकरी करने लगे। यहाँ वे एक जर्मन जादूगर के संपर्क में आए और उससे उन्होंने जादूगरी के कई हुनर सीखे और स्वयं एक जादूगर बन गए। उनका जीवन एक प्रयोगशाला बन गया था। उन्हें हर वक़्त कुछ नया करने की ललक बनी रहती थी और वे हर पल कुछ नए की तलाश करते रहते। उनकी यही तलाश उन्हें धीरे-धीरे अपने गंतव्य की ओर लेकर जा रही थी। सन् 1911 में उन्होंने एक विदेशी फ़िल्म "द लाईफ़ ऑफ़ क्राइस्ट" देखी। इस फ़िल्म को देखने के बाद वे फ़िल्म निर्माण के प्रति प्रेरित हुए। उन्होंने पहले-पहल भगवान श्रीकृष्ण पर फ़िल्म बनाने का निश्चय कर लिया। फ़िल्म निर्माण की तकनीकी जानकारी हासिल करने के लिए वे इंग्लैंड चले गए। अपने लंदन प्रवास के दौरान उन्होंने वहाँ के वोल्टन स्टुडियो में विधिवत शिक्षा ग्रहण की। लंदन से लौटकर उन्होंने कुछ लघु फ़िल्में बनाईं जिन्हें काफ़ी सराहा गया। इसके बाद फाल्के ने कथाफ़िल्म बनाने की तैयारी शुरू की। "द लाइफ़ ऑफ़ क्राइस्ट" देखने के बाद। भगवान श्रीकृष्ण की जीवन-कथा पर फ़िल्म बनाने का इरादा छोड़, उन्होंने अपनी पहली कथाफ़िल्म के लिए जिस कहानी और चरित्र को चुना वह भी एक धार्मिक कथा थी और उसका चरित्र भी काफ़ी सशक्त था, जिसका नाम था - "राजा हरिश्चंद्र" भारतीय सिनेमा की पूर्ण स्वदेशी फ़िल्म के रूप में, फाल्के द्वारा निर्मित फ़िल्म, "राजा हरिश्चंद्र" का नाम भारतीय सिनेमा की पहली मूककथा फ़िल्म के रूप में अवश्य अंकित हो गया। 21 अप्रैल 1913 को यह फ़िल्म आमंत्रित मेहमानों और पत्रकारों के बीच प्रदर्शित हुई और अंतत: मई 1913 कोई मुंबई के "कोरोनेशन थियेटर" में यह सार्वजनिक रूप से प्रदर्शित की गई। कुछ लोग इसके प्रथम प्रदर्शन की तारीख़ के रूप में 3 मई 1913 को भी मानते हैं। इस तरह भारतीय सिनेमा के इतिहास में एक सुनहरा पन्ना जुड़ गया। इसकी सफलता से ढूंदीराज गोविंद फाल्के उत्साह से बीएचआर गए और सन् 1914 में अपनी इस फ़िल्म को प्रदर्शित करने के लिए वे इंग्लैंड चले गए। लोगों ने वहाँ भी इस फ़िल्म को ख़ूब सराहा। फाल्के को यूरोप में में बस जाने के प्रस्ताव भी मिलने लगे जिन्हें उन्होंने सहर्ष ठुकरा दिया। राजा हरिश्चंद्र सिर्फ़ चार रील की फ़िल्म थी जिसकी कुल लंबाई 3700 फ़ीट थी। फ़िल्म की लोकप्रियता का एक कारण फ़िल्म के "सब टाइटिल्स" थे, जो हिंदी और अंग्रेज़ी दोनों भाषाओं बनाए गए थे। इसकी सफलता से फाल्के ने फ़िल्म निर्माण को अपना पारिवारिक व्यवसाय बना लिया और उन्होंने "फाल्के फिल्म्स कंपनी" के नाम से कारोबार आरंभ कर दिया। मुंबई में समुचित लोकेशन के अभाव के कारणों से वे अपनी फ़िल्म कंपनी को मुंबई से नासिक ले गए, जहाँ उन्हें धार्मिक स्थल जैसे लोकेशन स्वाभाविक रूप में मिले। अपनी इस कंपनी में फ़िल्म निर्माण से जुड़े समस्त कार्य वे स्वयं करते या अपनी सख़्त निगरानी में करवाते थे। फाल्के ने अपनी छोटी-बड़ी सभी फ़िल्मों को मिलाकर लगभग सौ फ़िल्मों का निर्माण किया था जिनकी दुर्भाग्य से कुछ की प्रतियाँ ही आज तक बची हुई हैं।

प्रथम विश्व युद्ध का व्यापक असर, फाल्के की कई महत्वाकांक्षी फ़िल्म निर्माण योजनाओं पर पड़ा। सन् 1917 तक आते-आते फाल्के की कंपनी की वित्तीय स्थिति संकटग्रस्त हो गई। इस वित्तीय संकट से उबरने के ईईए तथा अन्य लोगों को फ़िल्म निर्माण के लिए प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से फाल्के ने एक वृत्तचित्र का भी निर्माण किया था जिसका नाम था "फ़िल्में कैसे बनती हैं? (How films are made?)" इसका परिणाम उत्साहवर्धक न निकलने के कारण अपनी निजी फ़िल्म निर्मांकंपनी को बंद कर, गोकुलदास दामोदर, श्रीधर आपटे, लक्ष्मण फाटक, मायाशंकर भट्ट, और माधवजी जेसिंग के साथ मिलकर "हिंदुस्तान फ़िल्म कंपनी" के नाम से साझेदारी में सन् 1917 के मध्य, एक अलग कंपनी की स्थापना की। आगे चलकर वे इस कंपनी के मुख्य निर्माता, तकनीकी सलाहकार और कला सर्जक भी बने। "हिंदुस्तान फ़िल्म कंपनी" के अंतर्गत कई मशहूर फ़िल्में बनीं जिनमें चालीस फ़िल्मों के निर्माण में फाल्के मुख्य रूप से शामिल थे। कृश्ञ्जंम, कालिया मर्दन, संत तुकाराम, संत नामदेव, भक्त प्रह्लाद आदि फ़िल्में बहुचर्चित हुईं। सन् 1932 में फाल्के ने इस कंपनी के लिए "सेतु बंधन" नाम की एक फ़िल्म बनायी थी जो इस कंपनी की अंतिम फ़िल्म साबित हुई। अंतत: सन् 1933 में यह कंपनी बंद हो गई। इसके बंद होने से फाल्के बहुत दुःखी हुए। इस कंपनी के साथ फाल्के का भावात्मक लगाव था।

सन् 1931 में भारत में सवाक् फ़िल्मों का आरंभ "आर्देशिर ईरानी" द्वारा निर्मित फ़िल्म "आलम आरा" से हो गया था। भारतीय सिनेमा का स्वरूप बहुत तेज़ी से बदलने लगा था। दर्शक अधिक से अधिक सवाक् फ़िल्मों की प्रतीक्षा करने लगे। "हिंदुस्तान फ़िल्म कंपनी" के बंद हो जाने के पाँच वर्ष बाद, फाल्के ने सन् 1937 में, "कोल्हापुर सीनेटोन कंपनी" के बैनर में अपने जीवन की एकमात्र सवाक् फ़िल्म का निर्माण किया था जिसका नाम था - "गंगावतरण"।

आगामी वर्षों में फाल्के फ़िल्म उद्योग की बढ़ती रफ़्तार में पीछे छूटते गए और धीरे-धीरे हाशिये पर चले गए। इनकी शारीरिक हालत कमज़ोर होती गई और फ़िल्म निर्माण समाप्त हो गया। नए सिनेमा के साथ नए-नए विषयों को लेकर फ़िल्म निर्माण के कारोबार के लोगों की भीड़ और स्पर्धा बढ़ने लगी थी, लोग धीरे-धीरे भारतीय फ़िल्म पितामह को विस्मृत करने लगे। सन् 1944 में फाल्के ने इस दुनिया को अलविदा कह दिया। फाल्के इतिहास बनकर रह गए। आज इस इतिहास पुरुष के सम्मान में भारत सरकार द्वारा हर वर्ष, सिनेमा में विशेष योगदान के लिए "दादा साहब पुरस्कार" के नाम से शीर्ष सम्मान दिया जाता है।

फ़िल्म कंपनियों का युग

भारतीय सिनेमा के आरंभिक काल में चंदूलाल शाह, जे बी एच वाडिया, आर्देशिर ईरानी, जे एफ मदन आदि वे लोग थे जिनकी मेहनत, लगा, सूझ-बूझ और वित्तीय क्षमता की शक्ति ने भारतीय सिनेमा को एक अलग पहचान दी। इन व्यवसायियों के अलावा ऐसे भी महत्वपूर्ण व्यक्ति हैं जिन्होंने अपनी क्षमता के अनुसार भारतीय सिनेमा के विकास में सक्रिय और सृजनात्मक सहयोग दिया। बंगाल के हिमांशु राय, बी एन सरकार, पी सी बरुआ, नितिन बॉस, और देवकी बॉस, महाराष्ट्र के बाबूराव पेंटर, पेंढारकर, वी शांताराम, आदि ऐसे ही महत्वपूर्ण व्यक्ति हैं। इनके अमूल्य योगदान को भारतीय सिनेमा कभी नहीं भूल पाएगा।

सन् 1918 से 1920 के बीच भारतीय सिनेमा एक उद्योग के रूप में विकसित होने लगा और वह धीरे-धीरे यह व्यापार एक संगठित कारोबार का शक्तिशाली क्षेत्र बन गया। फ़िल्म निर्माण का लक्ष्य बड़े पैमाने पर निवेश कर इससे भारी लाभ अर्जित करना बन गया। इसी दौर में फ़िल्म कंपनियों के साथ फ़िल्म निर्माण के लिए स्टूडियो का जन्म हुआ। स्टूडियो के ढाँचे में फ़िल्में निर्मित होने लगीं तो फ़िल्मों की संख्या में वृद्धि हुई। सन् 1918 में सिर्फ़ सात-आठ फ़िल्में ही बनीं थीं वहीं 1920 में यह संख्या बढ़कर 18, 1921 में 40 और 1925 तक 80 फ़िल्मों तक पहुँच गई। भारतीय राष्ट्रीय फ़िल्म अभिलेखागार के सूत्रों के अनुसार 1918 से लेकर सवाक् फ़िल्मों के निर्माण के शुरू होने तक कुल छोटी-बड़ी फ़िल्मों को मिलाकर 1268 मूक फ़िल्मों का निर्माण भारत में हुआ था। आज इस अभिलेखागार में उस समय की केवल दस या बारह मूक फ़िल्में ही सुरक्षित रह गई हैं।

कोहिनूर फ़िल्म कंपनी

सन् 1918 में भारत की सबसे बड़ी और प्रभावशाली मूक फ़िल्मों के निर्माण के लिए डी एन संपत और माणिकलाल पटेल ने एक साथ मिलकर एक कंपनी की स्थापना की जिसे "कोहिनूर फ़िल्म कंपनी" के नाम से जाना गया। इस कंपनी ने अपने स्टूडियो को फ़िल्म निर्माण से संबंधित लगभग सारी सुविधाओं से सुसज्जित किया था क्योंकि इनका मुख्य उद्देश्य था, हॉलीवुड की तरह, भारत में भी फ़िल्मों के निर्माण के लिए निर्माताओं को एक छत के नीचे लगभग सारी सुविधाएँ उपलब्ध कराना। इस कंपनी के डी एन संपत उन दिनों गाँधी आंदोलन के प्रति काफ़ी आकर्षित हो चुके थे इसलिए गाँधीजी के आदर्शों का उन पर गहरा प्रभाव पड़ा। सन् 1919 में उन्होंने गाँधीजी के आंदोलन और विचारों पर आधारित एक वृत्तचित्र का निर्माण किया था जो इस कंपनी की पहली फ़िल्म थी। सन् 1921 में इस कंपनी के लिए डी एन संपत ने एक कथा फ़िल्म का निर्माण किया, जिसका नाम था "भक्त विदुर", इसके बाद क्रमश: "गुलेबकावली", "काला नाग" कथा फ़िल्मों का निर्माण किया गया जो उस दौर में लोकप्रिय हुईं। इन फ़िल्मों की लोकप्रियता से इस कंपनी और स्टुडियो की ख्याति बढ़ गई। इसकी मासिक आमदनी पचास हज़ार रुपए तक पहुँच गई। यह कंपनी फ़िल्म निर्माण की सुविधाओं के अतिरिक्त नए कलाकारों को फ़िल्मों में काम करने का अवसर भी दिया करती थी। उस दौर के मशहूर फ़िल्म निर्माता होमी मास्टर, भावनानी, चंदूलाल, आर एस चौधरी, नंदलाल जसवंतलाल, आदि ने कई सफल मूक फ़िल्मों का निर्माण इसी स्टुडियो में किया था। उस दौर के कुछ प्रमुख कलाकार थे मोती, जमुना, तारा, खलील, जुबेदा आदि कई मशहूर और सफल कलाकारों इसी कंपनी ने पहचान दिलाई थी। उस समय की अति सुंदर अभिनेत्री "सुलोचना" सन् 1925 में निर्मित फ़िल्म "वीर बाला" से ही सुर्खियों में आयी। यह मशहूर फ़िल्म कंपनी सन् 1932 में बंद हो गई।

कृष्णा फ़िल्म कंपनी

मुंबई के "कृष्णा फ़िल्म लेबॉरेटरी" को सन् 1924 में बदलकर माणिकलाल पटेल ने "कृष्णा फ़िल्म कंपनी" की स्थापना की। माणिकलाल पटेल एक साहित्यकार थे और कृष्ण कुमार के नाम से फ़िल्में लिखा करते थे। ये फ़िल्म निर्माता भी थे और इन्होंने छोटी-बड़ी कई फ़िल्मों का निर्माण भी किया था। इस फ़िल्म कंपनी के लिए उस समय के कई मशहूर फ़िल्म निर्माताओं फ़िल्मों का निर्माण किया जिनमें हरश्राय मेहता, कांजीभाई राठोर, मोहनलाल शाह, प्रफुल्ल घोष और ए पीआईआई कपूर के नाम मुख्य थे।

इस कंपनी के लिए सन् 1927 में प्रफुल्ल घोष की चार भागों में बनाई गई धारावाहिक फ़िल्म "हातिमताई" और जंजीर झंकारें" ऐसी फ़िल्में थीं जिससे यह कंपनी काफ़ी प्रसिद्ध हुई। सन् 1931 में सवाक् फ़िल्मों के आते ही इस कंपनी ने भी पाँच सवाक् फ़िल्में बनाईं। "कृष्णाटोन" नाम से इस कंपनी ने एक साउंड स्टुडियो भी विकसित कर लिया। इस कंपनी ने फ़िल्म निर्माण के लिए उस समय के कई बड़े गुजराती साहित्यकारों को फ़िल्में लिखने के लिए प्रेरित किया। इनमें कुछ नाम हैं - कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी, नारायण वस्सानजी ठक्कर, गोपालजी और रमणलाल देसाई। 44 सफल फ़िल्मों के निर्माण के बाद यह कंपनी बंद हो गई।

इंपीरियल फ़िल्म कंपनी

फ़िल्म कंपनियों के इस दौर में सन् 1926 में युसुफ अली और दाऊद जी रंगवाला के साथ मिलकर आर्देशिर ईरानी द्वारा स्थापित, "इंपीरियल फिल्म्स कंपनी" का विशेष महत्व है। इस कंपनी ने "कोहिनूर फ़िल्म कंपनी" में काम कर रहे कई मशहूर कलाकारों को अपने यहाँ काम करने का अवसर दिया था। उनमें मुख्य हैं सुलोचना, जुबेदा और जिल्लू। इस कंपनी में कुछ समय के लिए युवा पृथ्वीराज कपूर ने भी काम किया था। यह दौर मुख्यत: धार्मिक फ़िल्मों का था, धार्मिक कथाओं पर आधारित फ़िल्में ही ज्यादा निर्मित होती थीं। कुछ ऐसी भी कंपनियाँ और फ़िल्म निर्माता उभर रहे थे जो सामाजिक फ़िल्मों के निर्माण की ओर ध्यान दे रहे थे। इस बदलते दौर में "इंपीरियल फ़िल्म कंपनी" ने कुछ अलग और बेहतर कर दिखाने के ध्येय से ऐतिहासिक फ़िल्मों के निर्माण की दिशा में सोचना शुरू कर दिया।

ऐतिहासिक प्रेम कथा के रूप में अनारकाली और सलीम की प्रेमकथा मुग़ल कालीन इतिहास की पृष्ठभूमि में सदा से लोगों में लोकप्रिय रहा है। सन् 1928 में इस कंपनी ने इसी कथा पर आर एस चौधरी के निर्देशन में "अनारकाली" फ़िल्म का निर्माण किया और इसी वर्ष इसी प्रेमकथा पर चारू रॉय द्वारा निर्देशित "द लव ऑफ़ ए मुग़ल प्रिंस" का भी निर्माण किया। ये दोनों फ़िल्में ऐतिहासिक कथा पर आधारित होने के कारण काफ़ी महंगी भी थीं। इन दोनों में से "अनारकाली" अधिक लोकप्रिय और सफल सिद्ध हुई और चारू रॉय को काफ़ी नुकसान उठाना पड़ा। इसी कथा पर बाद में दो और फ़िल्में काफ़ी अंतराल के बाद बनी थीं जिसमें सन् 1935 में बनी अनारकाली और फिर 1960 में बनी फ़िल्म थी के आसिफ की "मुग़ले आज़म"। ऐतिहासिक फ़िल्मों के निर्माण में शुरू से ही इंपीरियल फ़िल्म कंपनी का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। 1931 में बनी पहली सवाक् फ़िल्म "आलमआरा" भी इसी ने बनाई थी। "आलमआरा" कलकत्ता के मदन थियेटर द्वारा निर्मित प्रथम अवाक् फ़िल्म "शीरीं फरहाद" से पहले रिलीज़ हुई जिस कारण वह प्थम सवाक् फ़िल्म का इतिहास रचने में पिछड़ गई। "आलमआरा" 14 मार्च 1931 को मुंबई के मेजेस्टिक थियेटर में रिलीज़ हुई थी। "आलमारा" से आर्देशिर ईरानी भारत की पहली सवाक् फ़िल्म के निर्माता बन गए और मास्टर विट्ठल तथा जुबेदा बने भारत की पहली सवाक् फ़िल्म के नायक और नायिका। इस फ़िल्म में युवा पृथ्वीराज कपूर और दक्षिण (मद्रास) के मशहूर फ़िल्म लेबोरेटरी के मालिक एल वी प्रसाद ने भी अभिनय किया था। "आलमारा" ने भारत की प्रथम सवाक् फ़िल्म के साथ-साथ गीत, नृत्य और संगीत के लिए भी भारत की पहली फ़िल्म होने का गौरव प्राप्त किया है। यह फ़िल्म फारसी थियेटर के लिए लिखी गई एक जादुई नाटक पर आधारित थी और इस फ़िल्म का मुख्य आकर्षण इसके सात गाने थे। "इंपीरियल फिल्म्स कंपनी" ने 1931 में ही तमिल भाषा में भी एक फ़िल्म बनाई थी जिसका नाम था "कालीदास" और इसके निर्देशक थे एच एम रेड्डी। इस फ़िल्म कंपनी ने अपनी ही कई मूक फ़िल्मों का सवाक् फ़िल्मों में पुनर्निमाण किया। ऐसी फ़िल्मों में 1928 में निर्मित मूक फ़िल्म "अनारकाली" थी जिसे पुन: सवाक् फ़िल्म के रूप में इसी नाम से पुन: 1935 में बनाया गया। हिंदी के अतिरिक्त इस फ़िल्म कंपनी ने अन्य भारतीय भाषाओं में भी फ़िल्में बनाईं। गुजराती, मराठी, तमिल, तेलुगु, बर्मी, पश्तो, और उर्दू आदि में भी इस कंपनी ने कई फ़िल्में बनाईं। इसी कंपनी के अंतर्गत "गिडवानी" ने "किसान कन्या" सन् 1937 में बनी जो भारत की प्रथम स्वदेशी रंगीन फ़िल्म थी। सन् 1938 "इंपीरियल फ़िल्म कंपनी" बंद हो गई और सागर मूवीटोन द्वारा इसका अधिग्रहण कर लिया गया।

प्रभात फ़िल्म कंपनी

भारतीय सिनेमा को उद्देश्यमूलक कथावस्तुओं के साथ सामाजिक सरोकार को जोड़ने वाले अप्रतिम फ़िल्मकार वी शांताराम का नाम सदैव अमर रहेगा। मूक फ़िल्मों में अपना अभिनय सफ़र शुरू करके फ़िल्मों के निर्माण तक के सफ़र में जो अमिट छाप वी शांताराम ने भारतीय सिनेमा के इतिहास में दर्ज की है वह अभूतपूर्व है। इन्होंने अपनी हर फ़िल्म, समाज की रूढ़ियों को तोड़कर एक नए समाज के निर्माण के लिए बनाई। भारतीय समाज में व्याप्त कुरीतियों और अंधविश्वासों के अँधेरे को दूर कर एक नए प्रभात की आशा उन्होंने लोगों में जगाई। भारतीय सिनेमा में वे एक नए युग के आंदोलनकर्ता थे।

सन् 1929 में कोल्हापुर के राजा के सहायोग से स्थापित "महाराष्ट्र फ़िल्म कंपनी" के चार स्तम्भ वी शांताराम, विष्णुकांत दामले, बाबुराव पेंढारकर और फत्तेलाल ने इस कंपनी से अलग होकर "प्रभात फ़िल्म कंपनी" नामक एक नई फ़िल्म कंपनी का आरंभ कोल्हापुर में किया। यह फ़िल्म कंपनी 1933 में कोल्हापुर से पुणे स्थानांतरित की गई। कुछ ही समय में यह कंपनी अन्य फ़िल्म निर्माण संस्थाओं से होड़ लेने लगी। पश्चिम भारत में यह एक प्रतिष्ठित फ़िल्म कंपनी से रूप में स्थिर हो गई। प्रभात फ़िल्म कंपनी के फ्लोर (मंच) अन्य स्टुडियो के मंचों से आकार में विशाल थे। इस कंपनी के अपने तकनीकी संसाधन थे जैसे संपादन, ध्वनि संयोजन और फ़िल्म प्रोसेसिंग आदि की सुविधाएँ इस कंपनी में अतिरिक्त आकर्षण थे। ऐसी आधुनिक सुविधाओं के लिए उन दिनों सिर्फ़ कलकत्ता स्थित "न्यू थियेटर" ही एकमात्र स्टुडियो था। प्रभात फ़िल्म कंपनी भी उन दिनों प्रचलित परंपरा के अनुसार मशहूर फ़िल्म निर्माताओं, कलाकारों और में तकनीशियनों को मासिक वेतन पर नियुक्त करती थी। इस कंपनी का कला विभाग फत्तेलाल की देखरेख में अपनी अलग पहचान रखता था। इस कंपनी की सबसे महत्वपूर्ण फ़िल्म "अमृत मंथन" (1934) थी। धीरे-धीरे प्रभात फ़िल्म कंपनी ने निर्माण के साथ-साथ फ़िल्म वितरण और थियेटर निर्माण के क्षेत्र में भी प्रवेश किया। इसके अलावा रंगमंच के क्षेत्र में भी इस संस्था ने अपनी विशेष उपस्थिति दर्ज कराई। सुरुचिपूर्ण मराठी नाटकों के मंचन के लिए यह संस्था प्रसिद्ध हुई। प्रारम्भ में प्रभात फ़िल्म कंपनी में दामले और फत्तेलाल के नेतृत्व में धार्मिक फ़िल्मों का निर्माण अधिक हुआ। कालांतर में शांताराम के निर्देशन में और गजानन जागीरदार, विश्राम बेडेकर, नारायण काले और केशवराव उल्लेखनीय हैं। मराठी फ़िल्मों के सुप्रसिद्ध निर्माता अनंत माने और दत्ता धर्माधिकारी भी इसी कंपनी में सहायक के पदों पर काम कर चुके थे इस कंपनी ने अपनी फ़िल्मों के उत्तम स्तर और मार्मिक कथा वस्तु के कारण न सिर्फ़ देश में बल्कि विदेशों में आयोजित फ़िल्म समारोहों में प्रतिष्ठा पाई। 1934 में निर्मित "अमृत मंथन" और 1936 में निर्मित "अमृत ज्योति" फ़िल्मों का प्रदर्शन उस वर्ष के वेनिस फ़िल्म समारोहों में हुआ था।

इसी कंपनी की सन् 1937 में दामले और फत्तेलाल द्वारा निर्मित "संत तुकाराम" भारत की ऐसी पहली फ़िल्म थी जिसे उस वर्ष वेनिस फ़िल्म समारोह में पुरस्कृत किया गया। इस कंपनी की अन्य चर्चित और सफल फ़िल्मों में अयोध्या का राजा, जलती निशानी और माया मछिंदर (1932 ), सिंहगढ और सैरंध्री (1933), चंद्रसेना और धर्मात्मा (1935) और सन् 1940 मे निर्मित "संत ज्ञानेश्वर " उल्लेखनीय हैं।

प्रभात फ़िल्म कंपनी ने अधिकतर फ़िल्में मराठी और हिंदी दोनों मे एक साथ अलग-अलग शीर्षकों में भी बनाई है। इनमें से कुछ चर्चित फ़िल्में हैं, माजा मुलगा – मेरा लड़का (1938), मानूस – आदमी (1939, निर्देशक – वी शांताराम) इन्हीं फ़िल्मों में से एक अतिविशिष्ट फ़िल्म भी थी जो देश-विदेश में काफ़ी लोकप्रिय हुई थी और कई समारोहों में प्रदर्शित की गई थी। वह फ़िल्म थी "सुनिया न माने" जो हिंदी में थी और यही फ़िल्म "कंकु" नाम से मराठी भाषा मे एक साथ बनाई गई। यह फ़िल्म भारतीय रूढ़िवादी समाज में नारी की स्थिति और समाज सुधार पर एक सशक्त अभिव्यक्ति थी जिसे सभी ने सराहा। सन् 1942 में आपसी मतभेदों के कारण वी शांताराम ने "प्रभात फ़िल्म कंपनी" को छोड़ दिया और मुंबई आ गए। यहाँ इन्होंने "राजकमल कला मंदिर" के नाम से अपनी स्वयं की एक फ़िल्म निर्माण संस्था खोल ली।

राजकमल कला मंदिर

वी शांताराम के प्रभात फ़िल्म कंपनी से दूर हो जाने से इस कंपनी की फ़िल्म निर्माण की गति काफ़ी धीमी पड़ गई। फिर भी दामले और फत्तेलाल अन्य सहयोगियों के साथ मिलकर फ़िल्मों का निर्माण करते रहे। सन् 1944 में राजा नेने के निर्देशन में बनी मराठी फ़िल्म "दहा बजे" हिंदी में "दस बजे" जो एक प्रेमकथा पर आधारित थी, बहुत चर्चित हुई। सन् 1946 में पीआईआई एल संतोषी ने इस कंपनी के लिए "हम एक हैं" नामक फ़िल्म बनाई जो "देवानंद" की पहली फ़िल्म थी। सन् 1953 प्रभात फ़िल्म कंपनी अंतत: बंद हो गई।

"राजकमल कला मंदिर" के अंतर्गत वी शांताराम ने अपनी कलात्मक प्रतिभा का पूर्ण परिचय दिया। शांताराम एक सुलझे निर्माता के साथ-साथ सशक्त निर्देशक और अभिनेता भी थी। उनकी फ़िल्में अपनी कलात्मक सौन्दर्य के लिए विशेष से पहचानी जाती थीं और पसंद की जातीं थीं। उनके फ़िल्मों का संगीत और कला पक्ष बहुत सशक्त होता था। प्राकृतिक दृश्यों का फिल्मांकन अद्भुत रंगों से भारी सुंदरता के साथ एक सम्मोहन पैदा करता था। उनकी फ़िल्में सुधारवादी, संदेशात्मक और देशभक्ति प्रधान होती थीं। भारतीयता का भाव उसमें पूरी तरह से समाया हुआ होता था। भारतीय सांस्कृतिक वैभव से समृद्ध उनकी फ़िल्में देश–विदेश में सराही जाती थीं। उनकी फ़िल्मों में सबसे अधिक प्रतिष्ठित और चर्चित फ़िल्म "डॉ कोटनिस की अमर कहानी" (1945) थी। इस फ़िल्म में मुख्य भूमिका वी शांताराम ने स्वयं निभाई थी। यह फ़िल्म द्वितीय विश्वयुद्ध के परिदृश्य में एक कर्तव्यपरायण भारतीय डॉक्टर की चीन की युद्ध भूमि में अपनी सेवा प्रदान कर वहीं बस जाने की मर्मस्पर्शी कथा पर आधारित है। भारतीय स्वाधीनता आंदोलन में भाग लेने वाले भारतीयों के लिए यह फ़िल्म बहुत ही प्रेरणादायक सिद्ध हुई। इस फ़िल्म को अमेरिका औरवेनिस (1947 ) में आयोजित अंतर्राष्ट्रीय फ़िल्म समारोह में प्रदर्शित किया गया। सन् 1946 में "मास्टर विनायक" के निर्देशन में इस कंपनी के लिए "जीवन यात्रा" नामक फ़िल्म बनी जिसमें गायिका "लता मंगेशकर" ने एक ग्रामीण लड़की का अभिनय किया था। इस फ़िल्म का एक गीत "आओ आज़ादी के गीत गाते चलें", उन दिनों बहुत प्रसिद्ध हुआ। सन् 1947 में बाबूराव पेंटर के साथ मिलकर शांताराम ने मराठी में "लोक शाहीर राम जोशी" और हिंदी में "मतवाला शायर राम जोशी" का निर्माण किया। इसके बाद शांताराम ने अपनी कलात्मकता सामाजिक समस्याओं और भारतीय शास्त्रीय संगीत और नृत्यकला पर आधारित कथा वस्तुओं पर फ़िल्म निर्माण शुरू कर दिया। ये सारी फ़िल्में एक से बढ़कर एक सफल और लोकप्रिय हुईं। इन फ़िल्मों के गीत आज भी सुनाई देते हैं। "तूफान और दिया, दो आँखें बारह हाथ, झनक झनक पायल बाजे, स्त्री, नवरंग, जल बिन बिजली नृत्य बिन बिजली, गीत गाया पत्थरों ने, पिंजरा" आदि फ़िल्में शांताराम की चिरस्मरणीय फ़िल्में हैं।

रणजीत मूवीटोन

रणजीत मूवीटोन या रणजीत फ़िल्म कंपनी की स्थापना सन् 1929 में चंडूलाल शाह और उस समय की विख्यात नायिका "गौहर" ने की थी। "विट्ठलदास मास्टर" इस कंपनी के आर्थिक सहायक थे। इस फ़िल्म कंपनी ने 1929 से 1960 तक फ़िल्म जगत में अपनी विशेष पहचान बनाई। आरंभिक दौर के फ़िल्म सफल निर्देशकों में चंडूलाल शाह, जयंत देसाई, नंदलाल जसवंतलाल, ए आर कारदार, और केदार शर्मा इस कंपनी से जुड़े थे। इस फ़िल्म कंपनी ने निरुपमा रॉय, पृथ्वीराज कपूर, मोतीलाल और के एल सहगल जैसे दिग्गज कलाकारों को अपनी अभिनय कला को प्रदर्शित करने का अवसर दिया। सन् 1931 में नंदलाल जसवंतलाल ने इस कंपनी के लिए "प्रेम जोगन" नाम से चर्चित फ़िल्म बनाई थी। उसी वर्ष चंडूलाल शाह ने "देवी-देवयानी" का निर्माण किया जिसमें "गौहर" का अभिनय सराहा गया। "गौहर" को नायिका के रूप में लेकर चंडूलाल शाह ने "सती सावित्री" बनाई। जो महिला दर्शकों की पहली पसंद बन गई। पतिव्रता सावित्री जो यमराज से अपने मृत पति को वापस ले आती है, इस कहानी ने भारतीय स्त्रियों को आकर्षित किया। इसके अलावा "बैरिस्टर्स वाईफ़, मिस 1933 और सितमगर फ़िल्में इस कंपनी की लोकप्रिय फ़िल्में थीं। सन् 1943 में ऐतिहासिक फ़िल्म "तानसेन" बनाई गई जिसमें मुख्य भूमिका "के एल सहगल" ने निभाई थी।

सागर फ़िल्म कंपनी

सन् 1930 में चिमानलाल देसाई और अंबालाल पटेल ने मुंबई में "सागर फ़िल्म कंपनी" की स्थापना की। इस फ़िल्म कंपनी से भी कई मशहूर कलाकार जुड़े गए। महबूब खान, जिया सरहदी और रामचन्द्र ठाकुर के नाम मुख्य रूप से इसमें शामिल हैं। साहित्यकार के एम मुंशी भी इनमें से एक थे। इस कंपनी ने नहरू और सुभाषचंद्र बोस के जीवन पर कई वृत्त चित्रों का निर्माण किया था। के एक मुंशी की कहानी पर आधारित फ़िल्म "डॉ. मधुरिका" बहुत चर्चित है। मधुरिका एक लेडी डॉक्टर जो अपने पेशे के प्रति समर्पित है और जो अपने जीवन में पारिवारिक दायित्वों से विमुख होकर समाज का आक्रोश सहते हुए अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ती है। यह कहानी स्त्रीवादी दृष्टि से बहुत चर्चित हुई। इसी कंपनी के लिए महबूब खान ने अपनी पहली फ़िल्म "अल हिलाल" (1935) में बनाई जिसमें मुख्य भूमिका उस समय की प्रसिद्ध कथक नृत्यांगना सितारा देवी ने किया था। सागर फ़िल्म कंपनी ने 1935 में भारत की पहली स्टंट फ़िल्म को पर्दे पर उतारा। सन् 1935 में निर्मित "सिल्वर किंग" सफल तो नहीं हुई लेकिन स्टंट फ़िल्मों का आरंभ अवश्य हुआ। 1936 में महबूब खान ने इसी कंपनी के लिए मशहूर स्टंट फ़िल्म "डेक्कन क्वीन" बनी जो कि उनके फिल्मी जीवन की एक मात्र स्टंट फ़िल्म थी। महबूब खान को उनकी अगली फ़िल्म के लिए नायक "सुरेन्द्र" इसी फ़िल्म में मिले। महबूब खान ने यहीं पर अपनी संगीतप्रधान फ़िल्म "अनमोल घड़ी" का निर्माण किया जिसमें नूरजहाँ और सुरेन्द्र ने मुख्य भूमिकाएँ निभाई थीं के गीत बहुत लोकप्रिय हुए। महबूब खान की एक और फ़िल्म "जागीरदार" का निर्माण भी यहीं हुआ था। सन् 1939 में यह कंपनी मुसीबतों में घिर गई और इसे बंद करके "नेशनल पिक्चर्स" के नाम से एक नए रूप में इसे शुरू किया गया। महबूब खान की क्लासिक फ़िल्म "औरत" सागर फ़िल्म कंपनी की अंतिम फ़िल्म थी जो सन् 1939 में बनी इसे नेशनल पिक्चर्स ने सन् 1940 में रिलीज़ किया। महबूब खान की "औरत" वही फ़िल्म है जिसे उन्होंने दुबारा सत्रह वर्षों बाद सन् 1957 में अपने बैनर तले "मदर इंडिया" के नाम से बनाया जिसमें "नरगिस" ने अपनी अभिनय कला से सारे विश्व का दिल जीत लिया। "मदर इंडिया" को ऑस्कर एवार्ड के लिए भी नामांकित किया गया था।

न्यू थियेटर

भारतीय सिनेमा निर्माण के इतिहास में कलकत्ता की "न्यू थियेटर" का अप्रतिम योगदान है। बी एन सरकार ने 10 फरवरी 1931 में कलकत्ता के टोलीगंज में "न्यू थियेटर" के नाम से एक फ़िल्म निर्माण संस्था की स्थापना की। बी एन सरकार पेशे से इंजीनियर थे। इंग्लैंड से सिविल इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरीकर लौटने के बाद अपने कारोबार में जब उन्हें कोई भविष्य नहीं दिखाई दिया तो वे सिनेमा की ओर मुड़ गए।

सर्वप्रथम उन्होंने एक साऊण्ड स्टुडियो खोला, फिर उन्होंने इंपीरियल फ़िल्म कंपनी के आर्देशिर ईरानी से हॉलीवुड से आयातित मशीनों और अन्य आधुनिक उपकरणों को खरीदकर अपने न्यू थियेटर में लगाया। कई युवा फ़िल्म निर्माता न्यू थियेटर की ओर आकर्षित होने लगे। धीरे-धीरे उस समय के मशहूर फ़िल्म निर्माता और दिग्गज कैमरा मैन और निर्देशक नितिन बोस, चारु रॉय, प्रफुल्ल रॉय, जैसे लोग जुडने लगे। दुर्गादास बनर्जी, अमर मल्लिक, जीवन गांगुली, पी सी बरुआ, और धीरेन गांगुली आदि जैसे भी कलाकार भी अपनी रुचि न्यू थियेटर में दिखने लगे। इनमें पी सी बरुआ अभिनय के साथ निर्देशन भी करने लगे थे। उस समय के कला सम्राट कुन्दन लाल सहगल ने भी न्यू थियेटर के लिए कई फ़िल्मों में अभिनय किया और गीत गाये थे। "न्यू थिएटर" एक ऐसा स्टुडियो था जिसने बंगला और हिंदी में एक साथ कई सफल और लोकप्रिय फ़िल्मों का निर्माण किया। बी एन सरकार ने हमेशा बंग्ला की फ़िल्मों के लिए बंगाल के कलाकार और हिंदी फ़िल्मों के लिए हिंदी भाषी मशहूर कलाकारों को लेकर एक साथ फ़िल्मों का निर्माण कर प्रतिष्ठा अर्जित की।

न्यू थियेटर की पहली फ़िल्म "नातिर पूजा" बंगला भाषा में सन् 1932 में बनी थी। इस फ़िल्म की सबसे महत्वपूर्ण बात यह थी कि इसका निर्देशन रवीन्द्रनाथ टैगोर ने किया था। सन् 1933 में देवकी बोस ने बंगला में "मरा बाई" और हिंदी में "राजरानी मीरा" फ़िल्मों का निर्माण किया। अपने समय के दो महान गायक कुन्दन लाल सहगल और के सी डे को साथ लेकर देवकी बोस ने सन् 1933 में हिंदी में "पुराण भक्त" नाम से फ़िल्म बनाई। के एल सहगल के लिए यह न्यू थियेटर के लिए दूसरी फ़िल्म थी। इससे पहले वे "राजरानी मीरा" में अभिनय कर चुके थे। इस फ़िल्म में उनके साथ पृथ्वीराज कपूर ने भी अभिनय किया था। इसके बाद सन् 1933 में बनी "यहूदी की लड़की" में भी एक एल सहगल ने अभिनय किया।

न्यू थियेटर की सफलतम पहली फ़िल्म सन् 1932 में बंगला में बनी "चंडीदास" थी जिसका निर्देशन देवकी बोस ने किया था। इस फ़िल्म ने लोकप्रियता के सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए थे। यह फ़िल्म कलकत्ता में बी एन सरकार के थियेटर "चित्रा" में एक वर्ष से भी अधिक समय तक चली। इसके अतिरिक्त "चंडीदास" वह पहली फ़िल्म थी जिसमें दृश्यों के प्रभाव को उभारने के लिए पार्श्व संगीत का उपयोग किया गया था। यह फ़िल्म सामाजिक रूढ़िवादी परम्पराओं पर सीधा प्रहार करती है जिसमें जात-पांत, छूत–अछूत, अनमेल विवाह जैसी कुरीतियाँ शामिल हैं। बंगला में "चंडीदास" की अपार सफलता से उत्साहित होकर बी एन सरकार ने इसे हिंदी में इसी नाम से नितिन बोस के निर्देशन में पुन: निर्माण किया। हिंदी में भी यह फ़िल्म बहुत लोकप्रिय हुई। इसमें भी मुख्य भूमिका में के एल सहगल ही थे। चंडीदास के बाद न्यू थियेटर की दूसरी सबसे बड़ी लोकप्रिय फ़िल्म थी सन् 1935 में पी सी बरुआ के निर्देशन में हिंदी और बंग्ला में एक साथ बनी फ़िल्म "देवदास"। महान उपन्यासकार शरतचंद्र के लोकप्रिय उपन्यास पर बनी इस फ़िल्म के बंगला संस्करण में देवदास की मुख्य भूमिका स्वयम पी सी बरुआ ने निभाई थी और हिंदी में बनी इस फ़िल्म में मुख्य भूमिका के एल सहगल ने निभाई थी। एक साथ दोनों फिल सुपरहिट हुईं। इस तरह सामाजिक फ़िल्मों के निर्माण में "न्यू थियेटर" ने भारतीय सिनेमा में अपना एक विशिष्ट स्थान बना लिया। बी एन सरकार एक प्रतिष्ठित फ़िल्म निर्माता के रूप में भारत में लोकप्रिय हो गए।

इसके बाद नितिन बोस ने सन् 1937 में बंगला भाषा में "दीदी" और हिंदी में "प्रेसिडेंट" नाम की फ़िल्में एक साथ एक ही कथ्य पर बनाईं। "प्रेसिडेंट" में फिर पृथ्वीराज कपूर के साथ मुख्य भूमिका के एल सहगल ने निभाई थी। इस फ़िल्म के कई गीत आज भी सुनाई देते हैं जैसे सहगल का गाया यह गीत - "एक बंगला बने न्यारा ...."। सन् 1938 में फणी मजुमदार की बंगला में "साथी" और हिंदी में "स्ट्रीट सिंगर" 1939 में बनी। बंगला में "बड़ी दीदी", हिंदी में भी "बड़ी दीदी", हेमचन्द्र चुंद की बंगला में "पराजय" - हिंदी में "जीवन की रात", देवकी बोस की बंगला में "सुपरे" और हिंदी में "सपेरा" फ़िल्में चर्चित और लोकप्रिय रहीं हैं। न्यू थियेटर फ़िल्म निर्माण के क्षेत्र में सफलता की नई ऊँचाइयों को छूता रहा। अचानक 1940 में न्यू थियेटर में भीषण आग लग गई। बी एन सरकार इस दुर्घटना से स्तब्ध रह गए। आग लगने के कारणों का पता नहीं चल सका। इस दुर्घटना से सरकार आहत हुए किन्तु उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। स्टुडियो के बचे-खुचे संसाधनों को इकट्ठा करके 1941 में सुबोध मित्र की "डॉक्टर" और नितिन बोस की बंगला में "परिचय" और हिंदी में "लगन" फ़िल्मों का निर्माण किया जो उनके दृढ़ आत्मविश्वास का परिचायक है। इसके बाद 1941 में किन्हीं कारणों से कंपनी के अति महत्वपूर्ण सदस्य, कैमरामैन और निर्देशक नितिन बोस ने कंपनी छोड़ दी। इनके साथ कुछ अन्य लोगों ने भी न्यू थियेटर का साथ छोड दिया। फिर भी बी एन सरकार फ़िल्में बनाते रहे। 1944 में बनी बंगला फ़िल्म "उदयेर पाथे" और हिंदी में एक साथ बनी फ़िल्म "हमराही" का निर्देशन बिमल रॉय ने किया था। बिमल रॉय की निर्देशक के रूप में यह पहली फ़िल्म है। इसी वर्ष हेमचन्द्र चुंद ने के एल सहगल को लेकर लोकप्रिय फ़िल्म "मेरी बहन" बनाई। इस फ़िल्म की कथा द्वितीय विश्वयुद्ध में एक गाँव के स्कूल शिक्षक और ज़मींदार की बहन की प्रेम कथा पर आधारित है। इस फ़िल्म के गीतों में से "दो नैना मतवाले तुम्हारे ...." और "ऐ क़ातिबे तकदीर मुझे इतना बता दे ....." आज भी सुने जाते हैं। समय के साथ-साथ न्यू थियेटर भी पीछे छूटने लगा और अंतत: यह मशहूर कंपनी सन् 1945 में बंद हो गई। बी एन सरकार को कई राष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित किया गया जिसमें 1972 का "दादा साहब फाल्के" पुरस्कार प्रमुख है।

- क्रमशः

 

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