पैसों के लिए
काव्य साहित्य | कविता वैद्यनाथ उपाध्याय1 Sep 2019
कई टुकड़ों में बँटकर
जीने के आदी हो गए
हम
काँच की तरह
टूट जाते हैं
हमारे संकल्प
हमारी आशाएँ
जीते हैं
लक्ष्यहीन, उद्देश्यहीन
बेसुरा होकर
ईमान को दबाकर
झूठ की बैसाखी पर खड़े होकर
अपने को ऊँचा दिखाने के
ढोंग सीख लिए हैं
हमने
जीवन को ढाल लिया
एक मशीन की तर्ज़ पर
इस दौर में
हम जीना भूल गए
बस मर रहे हैं
पैसों के लिए।
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