समय
काव्य साहित्य | कविता शकुन्तला बहादुर15 Dec 2019 (अंक: 146, द्वितीय, 2019 में प्रकाशित)
ये समय का क़ाफ़िला बढ़ता गया,
और हम भी साथ में चलते गये।
एक पल को भी नहीं थकता समय,
एक पल को भी नहीं रुकता समय।
हो सुखी चाहे दु:खी कोई कहीं,
समय पर कुछ भी असर होता नहीं।
बात अचरज की मुझे लगती सदा,
एक ही गति से समय चलता सदा।
फिर ख़ुशी में क्यों समय
लगता है जैसे भागता।
और संकट की घड़ी में
समय जैसे रुक गया।
क्यों परीक्षा में समय की ये घड़ी
तीव्र गति से भागती है सर्वदा,
और प्रतीक्षा की घड़ी लम्बी लगे
ये समय थककर है जैसे सो गया।
जन्म से ले मृत्यु तक का फ़ासला,
बालपन तरुणाई और वार्द्धक्य बन,
कब, कहाँ, कैसे फिसलता ये रहा,
और हमें प्रतिपल ये छलता सा रहा।
ज़िन्दगी ये बीत जाएगी मगर,
समय को इसकी कहाँ होगी ख़बर,
सिन्धु क्या ये जान पाता है कभी,
कौन सी उसकी लहर खोई किधर।
समय का हर एक पल बहुमूल्य है,
यदि इसे मोती समझ हम पिरो लें,
ज़िन्दगी में फिर न पछताएँ कभी,
सफल होकर चैन की सब साँस लें॥
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