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शव काटने वाला आदमी

पुस्तक - "शव काटने वाला आदमी" (उपन्यास)
लेखक - येसे दरजे थोंगछी
अनुवादक - दिनकर कुमार
प्रथम प्रकाशन - 2014
प्रकाशक - वाणी प्रकाशन, 4695, 21- ए , दरियागंज
नई दिली - 110002
पृष्ठ : 272, मूल्य : 395/-

भारत के उत्तर -पूर्व में स्थित अरुणाचल प्रदेश में मुख्यत: बाईस जनजातियाँ निवास करती हैं। इन सभी जनजातियों की संस्कृति, वेषभूषा, रीतिरिवाz, खान-पान, आचार-विचार और व्यवहार परस्पर भिन्न हैं। इन सभी जनजातियों की अपनी स्वतंत्र भाषाएँ हैं। प्रत्येक जनजाति के लोग अपने समुदाय में अपनी जनजातीय भाषा का प्रयोग बोलचाल और वैचारिक आदान-प्रदान के लिए करते हैं। ग़ौरतलब है कि अंतर-सामुदायिक व्यवहार के लिए वे सभी हिंदी का ही प्रयोग करते हैं। इन लोगों में आनुषंगिक रूप से जनजातीय श्रेष्ठता का क्रम निर्धारित है। विवाह आदि जनजातीय दायरे में ही स्वीकार्य होते हैं। किन्तु इसके बावजूद इनमें स्नेह, सौमनस्य और सौहार्द्र का भाव पाया जाता है। आदी, निशी, आपातानी आदि जनजातियाँ अपने मौलिक जीवन विधान के लिए मशहूर हैं। इन सभी जनजातियों में शिक्षा का प्रसार तेज़ी से हो रहा है। इन लोगों की जीवन शैली में आधुनिकता का प्रवेश हो चुका है। ये सभी जनजातियाँ आधुनिक जीवन शैली को अपना रहीं हैं किन्तु अपनी सांस्कृतिक और सामाजिक परंपराओं का ये कट्टरता से पालन करते हैं। जन्म, विवाह और मृत्यु के संस्कार सभी जनजातियों में भिन्न भिन्न विधियों से सम्पन्न किए जाते हैं। इस संस्कारों की अपनी विशेषताएँ हैं और इन्हें सभी लोग बहुत ही आदर और भक्ति भाव से संपन्न करते हैं।इनके संस्कारों में अंधविश्वास और प्राचीन रूढ़िवादिता की मौजूदगी आश्चर्य पैदा करती है। अनेक जनजातियों में धार्मिक अनुष्ठानों में पशुबलि की प्रथा मौजूद है।

इन्हीं जनजातियों में से एक जनजाति है - मनपा। यह एक बौद्ध धर्मावलम्बी जनजाति है। इस जनजाति के लोग मृतकों के शव को एक सौ आठ टुकड़ों में काटकर नदी में बहा देते हैं। इसी संस्कार की समाजशास्त्रीय व्याख्या करने वाला उपन्यास है "शव काटने वाला आदमी"। इस उपन्यास का मूल चरित्र "दारगे नरबू" पेशे से एक शव काटने वाला आदमी है जिसे "मनपा" (जनजाति ) लोग "थांपा" कहकर बुलाते हैं। दारगे नरबू अपनी घर गृहस्थी संभालता है और पत्नी "गुईसेंगमु तथा बेटी रिजोम्बी" के साथ नदी के किनारे समाज से दूर सुनसान जगह पर रहता है। वह तवांग में छोड़ आए अपने परिजनों और दोस्तों की याद में खोया रहता है। यह उपन्यास दारगे नरबू नामक एक शव काटने वाले आदमी की जीवन कथा है। इसके लेखक येसे दरजे थोंगछी असमिया के महत्त्वपूर्ण कहानीकार और उपन्यासकार हैं। शव काटने वाला आदमी मूलत: असमिया भाषा की रचना है जिसे दिनकर कुमार ने हिंदी में अनुवाद किया है। लेखक येसे दरजे थोंगछी ने मनपा जनजाति के शव काटने वाले आदमियों के जीवन को निकट से देखकर इस उपन्यास की रचना की है।

येसे दरजे थोंगछी मूलत: अरुणाचल प्रदेश के कामेंग जिला में स्थिति जीगांव नामक पहाड़ी गाँव के निवासी हैं। उन्होंने बचपन से ही असमिया भाषा में कविता, नाटक आदि लिखना शुरू कर दिया था और बाद में कहानी और उपन्यास भी वे लिखने लगे। उनके कहानी, उपन्यास और नाटक अरुणाचल की विभिन्न जनजातियों की अनोखी जीवन शैली पर आधारित हैं। असमिया में उनकी रचनाओं के लिए उनकी तुलना नाईजीरियन उपन्यासकार "चिनुवा आछिवे" के साथ की जाती है। भारतीय प्रशासनिक सेवा से निवृत्त होने के बाद, वर्तमान में वे "सूचना अधिकार कानून विभाग" के अधीन अरुणाचल प्रदेश के मुख्य सूचना एवं कानून आयुक्त के पद पर कार्यरत हैं।

लेखक येसे दरजे थोंगछी का जन्म "सेरादुकपेन" जनजाति में हुआ। मनपा और सेरदुकपेन जन-जातियों में काफ़ी समानता होने के कारण लेखक ने उपन्यास लेखन के लिए मनपा जनजाति का अध्ययन किया। लगभग तीन वर्षों तक लेखक तवांग ज़िले के उपायुक्त के पद पर कार्य करते हुआ इनको इस जनजाति के समाज और लोगों को काफ़ी क़रीब से देखने का मौका मिला। इस उपन्यास की पृष्ठभूमि तवांग ज़िले की भौगोलिक और प्राकृतिक सुंदरता से निर्मित है। मनपा लोगों की शव काटकर नदी में बहा देने की प्रथा पर उपन्यास लिखने के लिए लेखक को सामाजिक और मानसिक तौर से काफ़ी साहस जुटाना पड़ा। उपन्यास के केंद्र में मनपा जनजाति की सामाजिक और सांस्कृतिक स्थितियों के साथ उनका जन जीवन विस्तार से विभिन्न कल्पित पात्रों के माध्यम से व्यक्त हुआ है। उपन्यास में कथारस का अभाव नहीं है लेकिन दारगे नरबू की जीवन शैली पाठकों में रोमांच पैदा करती है। उपन्यास में परम पावन दलाई लामा, तवांग के तत्कालीन एडिशनल पॉलिटिकल ऑफ़ीसर श्री टी के मूर्ति और आर्मी कमांडर लेफ्टिनेंट जनरल निरंजन प्रसाद को छोड़कर सारे पात्र काल्पनिक हैं। लेखक के अनुसार उपन्यास का कथानक पूरी तरह काल्पनिक है फिर भी कुछ घटनाएँ तवांग में घटी सच्ची घटनाओं से प्रेरित हैं। उदाहरण के तौर पर 1950 में भूकंप से बड़ी संख्या में मनपा जनजाति के लोगों की मृत्यु, 1952 में तवांग का प्रशासन तिब्बत सरकार से भारत सरकार को हस्तांतरित किया जाना, तिब्बत पर चीन का कब्ज़ा और दलाई लामा का तवांग ज़िले के बीच से भारत में प्रवेश, चीन का हमला और हमले के दौरान सीमा तक बोझ लादकर ले जाने वाले मनपा लोगों की मौत, दिरांग में दलाई लामा द्वारा कालचक्र पूजा आदि ऐतिहासिक घटनाओं से भरपूर यह मार्मिक असमिया उपन्यास हिंदी में अनूदित होकर पाठकों और समालोचकों द्वारा सराहा गया है और इसका नाट्य रूप राष्ट्रीय तथा अंतर्राष्ट्रीय मंच पर सराहा गया।

उपन्यास का नायक दारगे नरबू है जो अपने गाँव दिरांगजंग में आउ थांपा, आपा थांपा या आजांग थांपा के नाम से ही जाना जाता है। मनपा भाषा में आउ का अर्थ बड़ा भाई, आपा का अर्थ पिता, दादा या बुजुर्ग होता है। आजांग का अर्थ मामा और थांपा का अर्थ शव काटने वाला आदमी होता है। यानी गाँव में किसी के लिए वह बड़ा भाई, किसी के लिए दादाजी और किसी के लिए मामा है। मगर मूल रूप से वह एक शव काटने वाला आदमी, थांपा है। उसका घर दिरांगजंग गाँव से कुछ दूरी पर थांमपानांग यानी शव काटने वाली निर्जन जगह पर स्थित है। इस निर्जन स्थल पर स्थित उसके घर के पास ही दिरांग नदी जाकर दिगिन नदी में मिल जाती है। उसके घर में तीन सदस्य रहते हैं। वह, उसकी पत्नी गुईसेंगमू और उसकी विकलांग बेटी। लेखक ने दारगे नरबू के माध्यम से मनपा जनजाति की इस लोमहर्षक प्रथा को दुनिया के सामने उद्घाटित किया है। दारगे नरबू का हुलिया जिस तरह जुगुप्सा पैदा करता है वह स्वयं अपने आप में एक विशेष सामाजिक संस्कार का बोध कराता है। लोगों के शव काटते समय खून, पीव, सड़ा हुआ मांस, चर्बी, पेशाब, मल आदि के छींटों की वजह से उसके कपड़ों पर एक मोटी परत जम जाती है और उसके ऊपर अनगिनत जुएं अपना प्रजनन क्षेत्र और विचरण भूमि तैयार कर लेते हैं। लोग ऐसी हुलिया वाले को अपने आसपास भी नहीं फटकने देते लेकिन किसी भी मनपा के घर में जब मृत्यु होती है तो लोग उसे ढूँढकर आवभगत कर शव कटवाने का काम करवाते हैं और फिर उन टुकड़ों को नदी में बहा देते हैं। मनपा जनजाति में यह धारणा है कि इस प्रथा के पालन न करने पर मरने वाले को स्वर्ग में जगह नहीं मिलेगी।

दारेगा के पास महीने या साल के ज़्यादातर हिस्से में शव काटने का काम नहीं रहता। जिस दिन शव काटने का काम करना पड़ता है, उस दिन शाम के वक़्त दारेगा नरबू ( आउ थांपा ) गाँव की सड़कों पर लड़खड़ाते हुए नहीं भटकता फिरता है, मगर जिस दिन लाश लेकर कोई भी उसके पास नहीं आता, उस दिन शाम के वक़्त आउ थांपा ( दरेगा नरबू ) शराब पीकर मौज मस्ती करता है।

यह उपन्यास मुख्यत: दरेगा नरबू के चरित्र पर आधारित तो है ही लेकिन उसके साथ ही अरुणाचल प्रदेश की 1950 के दशक की राजनीतिक स्थितियों का ऐतिहासिक ब्योरा भी प्रस्तुत करता है। दारेगा नरबू का कार्य जितना भयावह और घृणास्पद दिखाई देता है उसके साथ जुड़ी हुई मान्यता या अंधविश्वास उतना ही जटिल और कट्टर है जिसका अन्य कोई समाधान नहीं है। जीवन भर लोगों के शव काटते रहने के कारण लोगों के बाहर-भीतर के अंगों की बनावट, रोग के लक्षण, मृत्यु आदि के कारण आदि के बारे में दारेगा जानकार हो चुका है - इस बात पर गाँव वालों को संदेह नहीं होता। इस कारण वह कई बीमारियों का इलाज भी करने की क्षमता रखता है। कई मामले में वह किसी भी मनुष्य की होने वाली मौत की पूर्व सूचना भी दे सकता है। ऐसा अनोखा किन्तु घृणास्पद पात्र है दारेगा नरबू।

यह उपन्यास दारेगा नरबू के शव काटने के अनुभवों का विस्तृत चित्रण करता है जो कि अत्यंत रोमांचक और भयावह है। तरह-तरह के लोगों के शव उसके पास आते हैं, सभी आयु के शव, सुंदर स्त्रियों से लेकर वृद्ध स्त्री पुरुषों के शव, इन सबको काटते हुए दारेगा नरबू के मन-मस्तिष्क में पैदा होने वाली संवेदनाएँ पाठक को झकझोरकर रख देती हैं। शव को काटने की विधिवत पद्धति होती है जिसे उपन्यासकार ने बहुत बारीक़ी से समूची प्रक्रिया को देखकर ही उपन्यास में वर्णित किया है। "दारगे के दाव (शव काटने वाला धारदार छुरा) पहले जुड़ा होता है बाएँ पैर के टखने का नीचे वाला हिस्सा, उसके बाद घुटने तक का हिस्सा, उसके बाद दायें पैर के टखने का नीचे वाला हिस्सा, उँगली इत्यादि वाला हिस्सा, उसके बाद घुटने तक का हिस्सा आदि नदी की तेज़ धारा में टुकड़ों में बँटकर बह जाते हैं। इसके बाद बायाँ घुटना, दायाँ घुटना ख़त्म होने पर हाथों की बारी आ जाती है। पहले नाज़ुक उँगलियों वाली बाईं अटेली कलाई के पास से, फिर केहुनी के पास से, फिर कंधे के पास से, उसके बाद दायीं हथेली कलाई के पास से, फिर केहुनी के पास से, फिर कंधे के पास से कट जाने के बाद सुंदर स्त्रियों के शरीर विहीन, हाथ विहीन, पैर विहीन, हाथ-पाँव-सिर छिपाकर रखने वाले कछुए की तरह अजीव बेडौल हो जाते हैं। इस तरह क्रम से शरीर के विभिन्न हिस्सों को दारगे काटता जाता है। बीच-बीच में उसे मृत के परिजन उसे शराब पिलाते जाते हैं। दारेगा के ही अनुसार शव काटने की पूरी प्रक्रिया का सबसे गंदा और घृणित काम नारी देह के भीतरी हिस्से को चीरने-काटने का काम। पहले गर्भाशय, फिर गुर्दा, माल, पचे-अधपचे खाद्य के साथ पेट की अंतड़ियाँ, हृदय, फेफड़ा, स्टैन, सीना, आदि एक सौ आठ टुकड़ों में विभाजित होकर एक सुंदर शरीर वाली स्त्री पृथ्वी से लुप्त हो जाती है।" (पृ : 19)

मनपा जनजाति की सुंदर स्त्रियाँ लाश बनकर निर्लिप्त भाव से अपने शरीर को उसके हवाले कर देती हैं, काटे जाने के लिए। थोड़ा-थोड़ा कर एक सौ आठ टुकड़ों में बँटकर इस पृथ्वी से लुप्त हो जाने के लिए। पहले वे सुंदर स्त्रियाँ नग्न होती हैं उसके हाथों से। उसके हाथ उनके शरीर को ढके वस्त्र उतार देती हैं, उसके बाद कोई प्रतिवाद किए बगैर सुंदर स्त्रियाँ अपने शरीर को इस तरह छोड़ देती हैं नग्न होने के लिए। बेशर्म की तरह उन्मुक्त हो जाती हैं, सुंदर स्त्रियाँ। खुले आसमान के नीचे वे आखरी बार अपनी खूबसूरती को प्रदर्शित कर जाती हैं। अस्थाई, भंगुर जीवन का मज़ाक उड़ाकर चली जाती हैं, मनुष्य और पृथ्वी का अपमान कर चली जाती हैं। मगर दारेगा नारबू को अपना फर्ज पूरा करना ही होगा। इसीलिए उसके दाव के साथ चित्त होकर पड़ी हुई सुंदर स्त्रियों का सुंदर शरीर उनके सुंदर धड़ से अलग हो जाता है। गरदन से, शरीर से कटा हुआ सुंदर स्त्रियों का सिर एक ऊँची चट्टान के ऊपर रखा जाता है, जहाँ कुत्ते-गीदड़ पहुँच नहीं सकते। इस तरह दरेगा नरबू अपनी मानवीय संवेदनाओं दफ़नाकर अपना कर्म करता जाता है। उपन्यास का अधिकांश दारगे नरबू के जीवन पर आधारित है। प्रकारांतर से तत्कालीन राजनीतिक परिवेश और भूकंप जैसी प्राकृतिक आपदा से उत्पन्न स्थितियों में दारेगा नरबू और उनके साथी मनपा जनजाति के लोगों की विपत्तियों की कहानी मार्मिक रूप से उपन्यास में चित्रित हुई है। चीनी आक्रमण के दौरान अरुणाचली जनजातियों द्वारा भारतीय सैनिकों की सहायता का विस्तृत ब्योरा उपन्यास का महत्त्वपूर्ण अंश है। चीनी सेनाओं द्वारा तिब्बत पर आक्रमण का प्रसंग इस उपन्यास को इतिहास की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण बनाता है। तवांग का क्षेत्र जो भारत-चीन की सीमा पर बसा हुआ राजनयिक महत्त्व का क्षेत्र है, इसी के इर्द-गिर्द उपन्यास का परवर्ती हिस्सा केन्द्रित है। तवांग के रास्ते दलाई लामा का भारत प्रवेश, एक ऐतिहासिक घटना थी, जिसका औपन्यासिक चित्रण अत्यंत महत्त्वपूर्ण है।

इस उपन्यास का सबसे सशक्त पक्ष इसकी भाषा है। हिंदी में अनूदित होने के बावजूद उपन्यास की कथाभाषा मनपा जनजातीय प्रयुक्तियों, मुहावरों तथा अभिव्यक्तियों की मौलिकता को जिस रूप में अनूदित पाठ में बनाए रखा है वह ग़ौरतलब है। कठिन जनजातीय अभिव्यक्तियों के लिए हर अध्याय के अंत में शब्दार्थ उपलब्ध कराए गए हैं जो कि स्वागत योग्य है। जनजातीय भाषा में वस्तुओं, पदार्थों, परंपराओं, कर्मकांडों, रीति-रिवाज़ों के नाम आदि का सरल अनुवाद अथवा हिंदी के समानार्थी शब्दों को यथास्थान सूचित किया गया है जो कि इस उपन्यास को पठनीय बनाता है। उत्तरपूर्वी जनजातीय समाजों के जीवन पर हिंदी में बहुत कम साहित्य उपलब्ध है। यह उपन्यास अपने ढंग का विरला उपन्यास है जो भारत के सुदूर प्रान्तों में उपेक्षित और हाशिये पर पड़े समुदायों के जीवन की एक झांकी प्रस्तुत करने में सफल हुआ है।

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