चाँद की व्यथा
बाल साहित्य | बाल साहित्य कविता डॉ. नीरू भट्ट1 Nov 2020 (अंक: 168, प्रथम, 2020 में प्रकाशित)
महान कवि रामधारी सिंह "दिनकर" जी की कविता से प्रेरित
एक बार चाँद ने माँ से फिर गुहार लगाई
एक झिंगोला सिलवाने की माँग है दोहराई
गर्मियाँ बीत गयी माँ, सर्दियाँ हैं आने वाली
काली लम्बी-लम्बी रातें हड्डियाँ गलाने वाली।
दिन तो कट जाता है मय्या रात नहीं कट पाती
मुझे ठिठुरते देख तुझे क्या जरा दया नहीं आती?
बेटे की सुन दीन व्यथा, दुखियारी माँ बोली
कैसे समझाऊँ तुझे, अनसुलझी यह पहेली।
घटता बढ़ता रूप ये तेरा नाप कहाँ मिलता है!
तुझे ठिठुरते देख मुझे भी चैन कहाँ मिलता है!
पिछले साल “विक्रम” से तेरा नाप था मँगवाया
वह बेचारा धरती पर एक फोटो भेज न पाया।
इस साल महामारी ने बेटा हालत पतली कर दी
दफ़्तेर वालों ने पापा की तनख़्वाह आधी कर दी।
मॉल दुकाने बंद हैं कब से, घर में बैठे सब दर्ज़ी
कैसे सिलवा दूँ झिंगोला, मेरी चलती नहीं है मर्ज़ी।
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