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हरेला की सामाजिक, सांस्कृतिक और वैज्ञानिक महत्ता 

 

जी रया, जागि रया, 
यो दिन बार, यो मास, भेटने रया। 

(जुग-जुग जियो, जागरूक बने रहो, यह दिन यह महीना भेंट करते रहो। यह दिन बार-बार आता रहे!) ये आशीष वचन हरेला के दिन स्वतःही बड़े बुज़ुर्गों के मुख से निकल पड़ते हैं। हरेला उत्तराखंड का प्रमुख सामाजिक और सांस्कृतिक पर्व है। हरेला पर्व वर्ष में तीन बार—चैत मास, श्रावण मास तथा आश्विन मास में मनाया जाता है, लेकिन श्रावण मास में मनाए जाने वाले वाले हरेला को अधिक महत्त्व दिया जाता है। श्रावण मास शंकर भगवान को विशेष प्रिय है और हरेला को शिवजी की पूजा अर्चना से जोड़ा जाता है। हरेला शब्द की उत्पत्ति हरियाली शब्द से हुई है, हरियाली मतलब हरा-भरा और श्रावण मास में तो सूखी, वीरान और बंजर धरती भी हरी-भरी हो जाती है तथा प्रकृति अपने हरित परिधान से सृष्टि में उमंग और उत्साह भर नई ऊर्जा का संचार करती है। 

हरेला उत्तराखंड के समूचे कुमाऊँ मण्डल और गढ़वाल के कुछ क्षेत्रों में मनाया जाता है। इसके लिए सावन लगने से दस दिन पहले उपलब्धतानुसार पाँच या सात प्रकार के अनाज और दालों के बीज जैसे गेहूँ, मक्का, जों, धान, मड़ुवा, सरसों, चना, गहत, उड़द, भट्ट को मिलाकर छोटी-छोटी टोकरियों में मिट्टी डाल कर बोया जाता है। टोकरियों को सूर्य की सीधी रोशनी से दूर रखा जाता है और प्रतिदिन सुबह पानी का छिड़काव किया जाता है। नवें दिन संध्या समय ‘पाती (आर्टिमिशिया वलगेरिस)’ की टहनी से हरेला की गुड़ाई की जाती है और विधिवत पूजन किया जाता है। दसवें दिन अर्थात्‌ हरेला के दिन सुबह नहा-धोकर, पहाड़ी पकवान बनाकर इसे काटा जाता है। घर के बुज़ुर्ग सुबह विधि अनुसार पूजा-पाठ करके हरेला देवताओं को चढ़ाते हैं। उसके बाद घर के सभी सदस्यों के सिर पर हरेला चढ़ाया जाता है। 

हरेला सुख, समृद्धि और हरियाली का प्रतीक है। इस पर्व का सामाजिक पक्ष बहुत गहरा है। यह समाज में एकजुटता, समरसता और सामंजस्य स्थापित करता है। आज जहाँ संयुक्त परिवार ख़त्म होते जा रहे है और एकल परिवारों का बोल-बाला हो रहा है वहाँ हरेला पर्व एक साथ रहने की शिक्षा देता है। संयुक्त परिवार कितना भी बड़ा हो पर हरेला एक ही जगह पर बोया जाता है चाहे बच्चे अलग-अलग स्थानों में रहते हों, हरेला उनके पैतृक घर में ही बोया जाता है। कुछ गाँवों में तो हरेला सामूहिक रूप से गाँव के मंदिर में बोया जाता है। हरेला के दिन सभी ग्रामवासी मंदिर में एकत्रित होकर हरेला काटते हैं, और एक दूसरे को शुभकामनाएँ देते हैं। 

वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी हरेला एक महत्त्वपूर्ण त्योहार है। यह एक ऋतु आधारित पर्व तथा बारहमासा खेती को जीवंत बनाए रखने का प्रतीक है। हरेला पर्व नई ऋतु के शुरू होने की सूचना देता है, उत्तराखण्ड में मुख्यतः तीन ऋतुयें होती हैं: शीत, ग्रीष्म और वर्षा। शीत ऋतु की शुरूआत आश्विन मास से होती है, और आश्विन मास की दशमी को हरेला मनाया जाता है। इसी प्रकार ग्रीष्म ऋतु की शुरूआत चैत्र मास से होती है, जिसमें चैत्र मास की नवमी को हरेला मनाया जाता है तथा वर्षा ऋतु की शुरूआत श्रावण मास से होती है, और श्रावण मास की पहली तिथि को हरेला मनाया जाता है। 

हरेला को पहाड़ के लोक विज्ञान से जोड़ा जाता है। इसे ‘बीज परीक्षण त्योहार’ भी कहा जा सकता है। प्रदेश में प्रधानतया तीन फ़सलें रबी, ख़रीफ़ और जायद उगाई जाती हैं और हरेला त्योहार बुवाई से ठीक पहले मनाया जाता है। इस तरह इस त्योहार से बीज की गुणवत्ता और बीज के अंकुरण प्रतिशतता का अनुमान लगाया जाता है। हरेला के तिनके देखकर घर के बड़े बुज़ुर्ग पूर्वानुमान लगा लेते हैं कि इस बार की फ़सल कैसी होगी। आज किसान समय से अच्छा बीज न मिलने की समस्या से जूझ रहा है लेकिन हमारे पूर्वजों ने इस समस्या का हल कितनी सरलता से त्योहारों के माध्यम से निकाल रखा है। हरेला मिश्रित फ़सल (मिक्स्ड क्रॉपिंग) को बढ़ावा देता है। मिश्रित फ़सल सतत कृषि (ससटेनेबल एग्रीकल्चर) के लिए बहुत ज़रूरी है जो आज की और आने वाले समय की माँग है। जनसंख्या बढ़ने, खेती योग्य भूमि के कम होने तथा भूमि के गिरते जलस्तर से छुटकारा पाने के लिए मिश्रित खेती एक अच्छा विकल्प है। 

प्रकृति का संतुलन बिगड़ने और जलवायु परिवर्तन से विश्व का कोई कोना अछूता नहीं है। उत्तराखंड में भी इसका प्रभाव दिख रहा है। जंगल समाप्त हो गए हैं या समाप्त होने के कगार पर हैं। जंगली जानवर आवासीय क्षेत्रों में निडर घूम रहे हैं। लोग खेती किसानी और पशुपालन छोड़ मुफ़्त राशन, मनरेगा, मज़दूरी और सरकारों द्वारा चलाई जा रही योजनाओ पर निर्भर हो रहे हैं। ऐसे समय में हरेला जैसे त्योहारों की प्रासंगिकता बढ़ जाती है। वास्तव में समृद्ध प्रकृति के बिना ख़ुशहाल मानव जीवन की कल्पना असम्भव है। वैसे पर्यावरण के प्रति जागरूकता और संवेदनशीलता भारतीय समाज में आदिकाल से रही है। भारतीय ऋषि मुनियों ने हज़ारों वर्ष पूर्व प्राकृतिक व्यवस्था को आत्मसात करने का मार्ग अपनाया, क्योंकि प्रकृति के साथ छेड़-छाड़ पूरे जीवमण्डल के लिए ख़तरा है, जिसके उद्धधरण वेदों पुराण, उपनिषद्, श्रीमद्भागवत गीता, रामायण, महाभारत आदि में मिलते हैं। इस त्योहार का उद्देश्य भी प्रकृति संरक्षण व संवर्धन है। कुमाऊँ में ऐसी मान्यता है कि हरेला के दिन मात्र टहनी रोपण से एक नया पौधा तैयार हो जाता है। इसीलिए इस दिन प्रत्येक परिवार द्वारा अनिवार्य रूप से फलदार वृक्ष लगाए जाते हैं। फलदार वृक्ष न सिर्फ़ मनुष्यों के लिए लाभदायक हैं बल्कि जैविक खाद्य शृंखला को जीवंत बनाए रखने के लिए नितांत ज़रूरी है। हरेला लोगों को अपनी ज़मीन से जुड़ रहने और एक कर्मठ जीवन जीने का संदेश देता है ताकि जीवन में निरन्तरता बनी रहे। 

हरेला का अपना एक सांसकृतिक महत्त्व है। हरेला के उपलक्ष्य में कई स्थानों पर मेलों का आयोजन किया जाता है जिसमें भीमताल का हरेला मेला काफ़ी प्रसिद्ध है। हालाँकि वर्तमान समय में मेले के प्रारूप में बदलाव आया है जो कि कुछ हद तक आवश्यक और स्वीकार्य है। नवविवाहित लड़कियाँ हरेला के दिन अपने मायके आती हैं। रोज़गार के लिए पहाड़ से दूर रहने वाले कई प्रवासी हरेला के दिन अपने घर आते हैं। जो लोग किन्हीं कारणों से घर नहीं जा पाते उनके परिवार के सदस्य उन्हें डाक अथवा अन्य परिचित द्वारा हरेला भेजते हैं। हालाँकि इस परम्परा में समय के साथ कुछ बदलाव भी आ गया है फिर भी इस पर्व का अस्तित्व अभी बचा हुआ है। इसी तरह यह संस्कृति आगे बढ़ती रहे। सभी लोग सुखी, स्वस्थ्य और समृद्ध हों, प्रकृति का आदर करें और अपनी संस्कृति की रक्षा करें। इसी के साथ सभी उत्तराखंडी भाई बहनों को हरेला की बहुत शुभकामनाएँ। 

“जी रया, जागि रया, यो दिन बार, यो मास, भेटने रया।” 

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