धागों में लिपटी छवि
काव्य साहित्य | कविता डॉ. कौशल श्रीवास्तव15 Mar 2021 (अंक: 177, द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)
(अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर एक चिन्तन)
वह कौन सी छवि है
जो असंख्य धागों में लिपटी है?
मूर्त है, किन्तु अमूर्त दिखती है
शब्दों के प्रहार से अविचलित है
भौतिक कष्टों की विभीषिका से बेख़ौफ़ है
मोह-माया की निरीह बन्दिनी है
और अपने परायों पर समर्पित है।
वह है भारतीय नारी
सभ्यता की जननी, परम्परा की दुलारी
रूपवती कामिनी, अपने पिया की सहचरी।
किन्तु यह तो इतिहास है, विरासत है
जैसे मूर्तिकलाएँ हैं, अजन्ता-एल्लोरा के चित्र हैं
वे मूक हैं, दर्शनीय हैं, कल्पना के प्रतीक हैं
किन्तु आधुनिक जीवन प्रवाह से कोसों दूर हैं।
जीवन की वह सहचरी अब बन गई एकल-चरी
आर्थिक आज़ादी से आई है यह अभूतपूर्व घड़ी
पिया ने अब खो दिया ‘ब्रेड विनर’ का विशेषण
पत्नी भी भूल गई ‘क्या होता है मधुर समर्पण’!
महिला सशक्तिकरण का मन्त्र चतुर्दिक छा गया
घरेलू हिंसा की ज्वाला में घर-परिवार झुलस गया।
पुराना शब्द जर्जर हुआ, नया ज़माना आ गया
‘पति-पत्नी’ व्यर्थ हुआ, ‘पार्टनर’ प्रचलित हुआ
लिंगभेद भी ख़त्म होगा, सुबह का इंतज़ार है
‘समान लिंग विवाह’ का नया विधि-विधान है।
बच्चे ख़रीदे जाएँगे निर्धनों की गोद से
मनचाहा चेहरा मिलेगा विज्ञान के प्रयोग से
कौन हैं जैविक माता-पिता? यह अधूरा प्रश्न होगा
जाति धर्म का नाश होगा, शायद सुखी समाज होगा।
कहाँ गए वो हवन मन्त्र, कहाँ गए वो सात फेरे
नवीनता की चाह में ध्वस्त हुए अरमान सारे
अर्धांगिनी तमाशा बनी, स्टेज की अमानत बनी
‘असंख्य धागों में लिपटी छवि’ आज क्यों इतिहास बनी?
‘जीन्स-शर्ट’ की विजय पताका आज है लहरा रही
सिन्दूर की विरासत गई, इक्कीसवीं सदी हावी हुई!
संस्कृति पंगु बनी, लेखों की सामग्री बनी
विकास के प्रवाह में एक ख़रीदी वस्तु बनी!!
(मेरी Kind।e e-Book ‘युग प्रवाह का दर्पण’ २०१९ से उद्धृत)
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
कहानी
कविता
हास्य-व्यंग्य कविता
एकांकी
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं