दोहराव
काव्य साहित्य | कविता सुमित दहिया1 Aug 2022 (अंक: 210, प्रथम, 2022 में प्रकाशित)
और फिर वह अचानक आती है
जवान जीभ की व्याकुलता बनकर
मुँह में इधर–उधर भागती दौड़ती हुई
माँगती है अपने लिए एक सामाजिक ठिकाना
और कहती है मेरा इंसाफ़ करो
प्रेम की आवाज़ों के मध्य खड़ी
मेरी बुद्धि का सारा व्याकरण
औंधे मुँह गिर जाता है
जब सुनता हूँ
उस जाते हुए अंतिम वाक्य में यह वेदना
मुझे प्रदान करो एक सामाजिक परिचय
और मेरा इंसाफ़ करो
और फिर वह अचानक आती है
भाषा का निम्नतम स्तर बनकर
कड़वे शब्दों को आलिंगन करती हुई
और चारों तरफ़ से एकत्रित की गई
अपनी सारी आंशिक बेचैनी को
मेरे चेहरे पर डकारकर
स्वयं ही दोहराने लगती है
प्रेम की प्रथम भावुक पंक्तियाँ
जिनमें नहीं हुई थी कोई बात
दबाव या तनाव की
बंदिश या मनमुटाव की
जिनमें नहीं था कहीं भी समाज या परिवार शामिल
वहाँ थी तो केवल दो पक्षियों की आज़ाद उड़ानें
और वह भी बेशर्त
बिना किसी परिचय या ठिकाने के॥
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