जमलो मडकम
काव्य साहित्य | कविता सुमित दहिया15 Jun 2020 (अंक: 158, द्वितीय, 2020 में प्रकाशित)
व्यवस्था के नन्हें क़दम बहुत अधिक समय तक
भूख, प्यास और गर्मी बर्दाश्त नहीं कर पाए
उस ग़रीब दाढ़ में अटका सात दिन पुराना रोटी का टुकड़ा
उसे ताज़े भोजन का स्वाद देने में नाकाफ़ी साबित हुआ
उसके केवल 12 वर्ष पुराने हाथ मिर्ची तोड़ते थे
संविधान में मौजूद 'बाल मजदूरी निषेध' करने वाले अध्याय से
जहाँ वह अपने सिर के ऊपर से विमान उड़ते देखती
लेकिन उसके लिए कहाँ कोई विमान
या स्पेशल बस आने वाली थी
उसे स्वयं ही नापना था अपनी ग़रीबी का भूगोल
ये कुछ दूसरे क़िस्म के लोग होते हैं साहब
किसी दूसरे रंग के कार्ड पर
सरकारी गाली, गेहूँ, चावल और दाल खाने वाले
किसी और रंग की ताक़तवर सरकारी जीभ
सीधा इनके मुँह में थूकती है अपने 'अध्यादेश'
वह एक सुबह निकल पड़ी थी अपने आदिवासी गिरोह के साथ
चमकदार रोशनी वाले शहरी इलाक़े को पार करती हुई
अपनी ग्रामीण लालटेन की तरफ़
जिसकी लौ के आसपास आजीवन जलता है संघर्ष
हाँ, हाँ उसी सुबह
जब तुम अपने महँगे कप में पी रहे थे
यह गर्मागर्म उबलता हुआ 'अप्रैल'
वह निकल पड़ी थी
अपनी अंतड़ियों के व्याकरण में फैली-
बाँझ भूख को सहन करती हुई
ख़ाली वीरान सड़कों को घूरती हुई
उसने अनेक बार हवा में अपने दाँत गड़ाए थे
बेरहम किरणों से मुँह धोया था
इस बात से बिल्कुल अंजान कि
यह कोरोना क्या बीमारी आई है
जिसने उसके हाथों से मिर्च और रोटी दोनों छीन लिए
घर से कुछ किलोमीटर पहले ही
लड़खड़ाते जा रहे थे उसके क़दम
तुम्हे याद है, तुम्हारे हॉल की सफ़ेद टाइलों पर
कभी तुम्हारे बच्चे ने भी रखे थे
लड़खड़ाते हुए पहले क़दम
वही क़दम जिनसे
वह सीधा तुम्हारे हृदय पर चलता था
मृत्यु में भी ठीक उसी भाँति लड़खड़ाते हैं क़दम
और अंततः लड़खड़ाते, लड़खड़ाते
नन्ही 'जमलो मडकम' ने दम तोड़ दिया
मगर उसके शव की क़ीमत उसके घर पहुँच गई है
एक लाख रुपये।
नोट : बारह साल की जमलो मडकम के नाम, जो अपने घर कभी नहीं पहुँच पाई।
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