फ़ासलों का दर्द
काव्य साहित्य | कविता प्रेम ठक्कर ‘दिकुप्रेमी’1 Oct 2024 (अंक: 262, प्रथम, 2024 में प्रकाशित)
हाथों में तेरा हाथ, पर छू नहीं पाया,
फ़ासले जो हो गए, वो दूरी मिटा नहीं पाया।
तेरे हाथ की लकीरों में ढूँढ़ा मैंने ख़ुद को बहुत,
पर वो तेरा साथ, कभी पा नहीं पाया।
अब यादें हैं, जो हर लम्हा तुझसे मिलाती हैं,
तेरे बिना ये ज़िन्दगी अधूरी सी लग जाती है।
हाथ उठे, पर छू नहीं पाए तेरा हाथ,
बस यही पीड़ा दिल को हर रोज़ रुलाती है।
वो पल जब तुझसे बिछड़ गया था मैं।
अब हर क़दम पर तुझे खोजता हूँ मैं।
हाथ में तेरा हाथ है, पर फ़ासले हैं दरमियाँ।
यादों में जीता हूँ, तुझे देखने की आस है यहाँ।
तेरे लौट आने की ख़्वाहिश में
हर लम्हा गुज़र जाता है,
पर तेरा वो मेरे जीवन में आना,
अब भी एक सपना सा लगता है।
हाथ में तेरा हाथ, पर वो गर्मी कहाँ,
तेरे बिना ये दुनिया का हिस्सा,
अकेलेपन से भरा बचपना सा लगता है।
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