घाव दिये जो गहरे
हास्य-व्यंग्य | हास्य-व्यंग्य कविता हरिहर झा8 Jan 2019
शरमाती गोता खा कर
आँसू प्यास बुझाते
निकले गलबहियाँ डाले
सपनों के गलियारे।
रंग भरे, पर दुख देते
हरते सारी उर्जा
यादों के झकोरे हैं,
दिल-दिमाग़ पर कब्ज़ा
सखियाँ शायद प्रेम कहें
’क्रश’ का नाम देती
संदेस दिये, ट्वीट किया,
कुछ ना उत्तर भेजा
मनुहार किये, फुसलाया,
टस से मस ना निष्ठुर
चाल और भावुकता के,
मिलते नहीं किनारे।
पटक पटक कर सिर फोड़ा,
शायद सुने फरियाद
भरम कहूँ या धोखा यह
हिल गई जो बुनियाद
फिल्में देखी साथ बहुत,
मुझे नायिका कह कर
हाय! बना डाला बिरहन
अश्रु में डूबी याद
झाँसा दे, रहा चिढ़ाता,
प्यास बुझा ना पाये।
मधुजल कलष कल्पना में,
पीती सागर खारे।
लालच महलों के सपने
छोड़ न सका अभागा
जेवर, कपड़े उड़ा लिये
बता दिया फिर ठेंगा
नाते रिश्ते तोड़ चला
’प्लान’ छुपाया ऐसा
सूत्र नहीं छोड़ा कोई
लंपट ऐसा भागा
झंझावातों के विष में
डाल गया वह जीवन
पाप किया है क्या मैंने
घाव दिये जो गहरे।
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