वो बहेलिया
काव्य साहित्य | कविता हरिहर झा8 Jan 2019
पंछी फाँसा और चल दिया वो बहेलिया।
पाँव जिधर था वहीं गंदगी
धतिंग से भरी थी बंदगी
खून से अपने हाथ धोये
बीज घृणा के फिर फिर बोये
भारत माँ का सौदा करता यह बिचौलिया।
गाता रहता ख़ुद की महिमा
झुलसाता औरों की गरिमा
भरा तेरे पाप का सागर
करतूतों को करे उजागर
लिपटा देह से काहे खींच रहा तौलिया।
घाव दिये तूने जो गहरे
घड़ियाली फिर आँसू तेरे
हीन भावना का शिकार तू
दुर्योधन का अहंकार तू
डींग मारता ऊँची ऊँची, है मखौलिया।
मानवता क्या? तू क्या जाने
माँग फिरोती बन्दूक ताने
बारूद फ़सल नहीं उगाता
इतना भी तू समझ न पाता
कुण्ठित मन, भेजे से पूरा, तू दिवालिया।
तुझे छीलता तेरा छल है
सोच, मूढ़ता में मृगजल है
बलि चढ़ेगा बन कर बकरा
जग-व्यवस्था से ना टकरा
दाल गले ना तेरी, कर ले कुछ भी छलिया।
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