चोरनी पक्की
काव्य साहित्य | कविता हरिहर झा21 Feb 2019
चुराली,
चन्द्रमा से कला सोलहों
चोरनी पक्की, ठुमक कर मुस्कुराई।
मली बदन पर,
चाकी की धूल केसर
अंग चंदन की सुगंध से महक रहा
अणु भट्टी जले
ताप का ओज छीना
लिजलिजी देह से लावण्य दहक रहा
नखशिख चुरा लिये
मेघदूत-ग्रन्थ से
सोलह शृंगार में कितनी चतुराई।
तस्करी नैनों की
दुबकती कब कहाँ
अंग-प्रत्यंग से सौम्यता टपकती
ठगा सा हर कोई देखता रह जाय
आँखे धवल चंदा की तुझ पर तकती
कमी अगर कुछ भी
सब औरों का माल
दूजा है बुरा, तुझमें नहीं बुराई।
क्या हुआ ग़ज़ब,
मौलिकता नहीं तो भी
उर्वशी रंभा के,
नक़्शे-क़दम नृत्य
रंग रूप उधार,
जेवर भले नक़ली
प्रतिस्पर्धा टक्कर की, क्षम्य सब कृत्य
व्यर्थ है रूप अगर,
नज़र भी न खींचे
सुन्दर सी तूने सुन्दरता चुराई।
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