तुरत छिड़ गया युद्ध
हास्य-व्यंग्य | हास्य-व्यंग्य कविता हरिहर झा8 Jan 2019
गुनगुनाकर निर्मल कर दे,
अंतर्मन का आँगन
सिर झुकाया एक नज़र भर
चमके कितना कंगन।
सोने जैसा रूप
मुद्रा की तर्ज़ डॉलर
तेरे जलवों की नक़ल पर,
चल रहे पार्लर
तीर निकले नैनों से,
या बेलन का आलिंगन
सिर झुकाया एक नज़र भर
चमके कितना कंगन।
रतनारी आँखें मौन,
ज्यों निकले अंगार
कुरूप समझे सबको
किये सोला सिंगार
टीका करे सास-ननद की
टीका करे सुहागन
सिर झुकाया एक नज़र भर
चमके कितना कंगन।
पल में बुद्ध बन जाती
पल में होती क्रुद्ध
आलिंगन अभिसार,
लो तुरत छिड़ गया युद्ध
रूठी फिर तो ख़ैर नहीं,
विकराल रूपा जोगन
सिर झुकाया एक नज़र भर
चमके कितना कंगन।
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