हम बर्बर हैं
काव्य साहित्य | कविता डॉ. भारती सिंह1 Aug 2023 (अंक: 234, प्रथम, 2023 में प्रकाशित)
कौन कहता है कि
हम बर्बर नहीं हैं
हम आदि मानव?
मानव नहीं,
बिल्कुल भी नहीं
हम पशु की श्रेणी में भी नहीं
बस, बर्बरता की पराकाष्ठा पर हैं
हम असभ्य भीड़ मात्र हैं
बर्बरता हमारी अस्मिता है
हम स्त्री को अभी भी मात्र कठपुतली समझते हैं
प्रमाणपत्र लेकर आए हैं
यह सब करके हम गौरवांवित होते हैं
हम विश्व गुरु हैं
हमारे लिए कोई माँ, बहन बेटी नहीं
सबके लिए हम बर्बर हैं
यह भारत का कोना ही नहीं
जहाँ ऐसा घटित हो रहा
विश्व के पटल पर ऐसे बहुत से हादसे हुए और
हो रहे हैं
यह हमारे संज्ञान में है
जो नहीं है वह भी इसका हिस्सा है
भीड़ का मनोविज्ञान सदियों से ऐसा ही रहा
भीड़ विवेक रहित होती है
भीड़ तमाशा देख कर अपनी अधूरी इच्छा पूरी करती है
फिर कहीं इस सुनहरे अवसर से हाथ न धोना पड़े
भीड़ उकसाती है
भीड़ के भी सोये हुए अरमान पंख पसार लेते हैं या
ख़ामोश रहती है इसलिए कि उनके घरों में यह नहीं हो रहा
वास्तव में भीड़ का हर व्यक्ति असहाय होता है
भयभीत होता है
भीड़ का यही हुलिया है
भीड़ कैसी है यह अर्थपूर्ण है
यह सब होने के बाद ही शोर शराबा होता है
घटना पहले घटित हो जाती है
फिर राजनीति होती है
फिर मीडिया
स्त्री की बची खुची इज़्ज़त की धज्जियाँ उड़़ाने का काम निपटाती है
इस बात का ध्यान रहे कि
महिला की अस्मत किसी राजनीति के कटघरे में नहीं आती
यह समाज का दायित्व है
जिस समाज में दायित्व-बोध नहीं होगा
वहाँ बेधड़क ऐसी घटनाएँ घटित होगी
पहले पहल समाज की संरचना हुई थी
बाद में राजा चुना गया
क़ानून और संविधान बने
यह मानवता, इंसानियत और सभ्यता का विषय है
यह विश्वस्तरीय ज्वलंत प्रश्न है
महिला की अस्मत
किसी जाति, समुदाय, राष्ट्र का व्यक्तिगत मसला नहीं
मानवता का मसला है
यह समाचार केवल घर का नहीं रहा
यह बात जंगल के आग की तरह फैल गयी
समूची दुनिया में
यदि भारत की महिला वैज्ञानिक दुनिया के लिए काम करती हैं तो वे
भारत का नाम करती हैं फिर भी
वे राष्ट्रीय ही नहीं अंतरराष्ट्रीय होती हैं
फिर ये क्या कहलायेंगे
ये बर्बर पुरुष फिर किसका नाम कर रहे हैं
ये तो मानवता को शर्मसार कर रहे
ये शीर्षस्थ महिलाओं से कुछ तो सीख लेते
इन्हें दुनिया के किस न्यायालय में भेजा जाय
क़ानून के समक्ष समता के अधिकार अपनी जगह
भारतीय सभ्यता और संस्कृति की धज्जियाँ उड़ रही हैं
आज के युग में हम कितने बर्बर हैं
समाज का आईना ऐसा ही है
यह शिवाजी का देश है
या बुद्ध की धरती
हर सभ्य व्यक्ति निशब्द है
स्त्रियाँ कितनी भयभीत हैं
चारों तरफ़ स्त्रियों को लेकर शोर, नफ़रत और आक्रोश है
इस शोर में स्त्रियाँ निशाने पर हैं
ये अपने आप को कहाँ तक बचायें
ये कितनी लाचार और बेबस हैं
इन्हें सोचना कितना ज़रूरी
ये गुनाहगार को सज़ा देने की हक़दार हैं
लेकिन नहीं ये फिर फिर माफ़ कर दें शायद
ये दुनिया बचा लेंगी
कृष्ण की तरह
राम की तरह
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पाण्डेय सरिता 2023/07/25 05:06 PM
कठोर सत्य पर सार्थक रचना....