हिम कण
काव्य साहित्य | कविता शशि पाधा30 Dec 2008
आज शिशिर ने नील गगन के
कानों में इक बात कही
धीमे से बरसाना हिम कण
कुछ पल धरती सोई है
देख धरा की आँख उनींदी
मौन हुआ सारा संसार
पंछी भूले कलरव कूजन
दूर कहीं जा किया विहार
मौन हुई अब चहुँ दिशाएँ
कोहरे में डूबा संसार
मौन खड़े अब तरुवर देखें
धरती का यह रजत श्रंगार
आज शिशिर ने डाली-डाली
हीरक माल पिरोयी है
धीमे से बरसेंगे हिमकण
धरा सिमट कर सोई है
कुछ दिन पहले ऋतुराज ने
सत रंग होली खेली थी
नदिया झरने कलियाँ तितली
सब की रंगी हथेली थी
और ग्रीष्म के ताप की पीड़ा
धीर धरा ने झेली थी
रिमझिम रिमझिम बरसा सावन
धूप छाँव की केलि थी
क्यों आया निर्मोही पतझड़
जाने क्या पहेली थी
आज धरा की अंखियों में
हर पल की याद संजोई है
धीमे से बरसेंगे हिमकण
धरा सिमट कर सोई है।
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