अनुभूति
काव्य साहित्य | कविता शशि पाधा17 Jan 2008
अतीत की गहराइयॊं में यूँ उतरती जा रही हूँ,
रोक लो मुझे मैं तुमसे दूर् होती जा रही हूँ।
सुख की अनुभूतियाँ झर रहीं हैं फूल सी
छल की विस्मृतियाँ चुभ रहीं हैं शूल सी
बीन लो मुझे, मैं स्वप्न सी बिखरती जा रही हूँ,
रोक लो मुझे, मैं तुमसे दूर् होती जा रही हूँ।
निश्वासों से भीगी रहती,मेरे अधरॊं की मुस्कान
दो नयनों में घिर घिर आई पीड़ा पाहुन सी अन्जान
सुख दुख के पुष्पहार सुधियों में पिरोती जा रही हूँ।
रोक लो मुझे, मैं तुमसे दूर् होती जा रही हूँ।
प्राण वीणा मौन मेरी, मौन है संगीत मेरा
क्षीण आस ज्योत है, दूर् है मनमीत मेरा
चिर मिलन का प्रेम पथ,अश्रुयों से धोती जा रही हूँ
रोक लो मुझे, मैं तुमसे दूर् होती जा रही हूँ।
कैसा बंधन, कैसी पीड़ा, जाने कैसा यह संसार
विरह-मिलन हैं कूल दो, जग सिंधु है अपार
थाम लो पतवार, मैं लहरॊं में बहती जा रही हूँ
रोक लो मुझे, मैं तुमसे दूर् होती जा रही हूँ।
ज़िन्दगी की उलझनों में यूँ उलझती जा रही हूँ।
रोक लो मुझे, मैं तुमसे दूर् होती जा रही हूँ।
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