पाहुन
काव्य साहित्य | कविता शशि पाधा29 Apr 2008
वासंती पाहुन घर आया
डार देह की खिली-खिली
आशाओं के फूल खिले
नेह की गगरी भरी- भरी
उड़ -उड़ जाये चुनरी मोरी
जाने कितने पंख लगे
छम-छम बोले पायल मोरी
कंगना मन की बात कहे
ओझल न हो पल भर साजन
अँखियाँ मोरी जगी- जगी ।
कभी निहारूँ सुन्दर मुख मैं
कभी मैं सूनी माँग भरूँ
चन्दन कोमल अँग सँवारे
धीमे - धीमे पाँव धरूँ
चाह से तुमने देखा जैसे
मैं मिस्री की डली- डली
उर से उभरे गान सुरीले
मनवा डोले- डोले
बाहें बन्धनवार बनें जब
गाऊँ हौले- हौले
प्राणों की बगिया में मोरे
केसर कलियाँ झरी- झरी
फाल्गुन की रुत लौट के आई
आँगन बगिया झूमे
गगन विहारी चँदा पल-पल
मुझ विरहन को ढूँढे
किरण जाल न डाल चितेरे
आज हुई मैं नई-नई ।
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