वसन्ताभास
काव्य साहित्य | कविता शशि पाधा26 Feb 2008
आम्र तरु की डार पे मैंने
नव मंजरी मुस्काती देखी
लगता है कोयल आयेगी अब
कुहुक कुहुक कर मृदुल स्वरों में
गीत नया फिर गाएगी अब ।
धरा की सूनी गोदी में अब
हरी दूब के अंकुर होंगे
चन्दन मिश्रित वायु होगी
नीड़ नीड़ में कलरव होंगे।
नव किसलय से शोभित होगी
वन उपवन तरुओं की डाली
क्यारी क्यारी पुष्पित होगी
कलियों से खेलेगा आली।
परदेस से लौटी धूप सखि
धरती से मिलने आएगी अब
डाल डाल और पात पात को
स्नेह् से गले लगाएगी अब।
गाँव -गाँव में गूँजेगी अब
गीतो की रसमयी बहार
कोई गाए फाग रसीली
कोई गाए मेघ मल्हार ।
हरी चूड़ियाँ पीत चुनरिया
ओढ़ धरा सज जाएगी अब
वासन्ती पाहुन लौट के आया
धरा त्योहार मनाएगी अब ।
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