ईश्वर की खोज
काव्य साहित्य | कविता अनिरुद्ध सिंह सेंगर26 Dec 2015
मैं ईश्वर खोजने निकला
मैंने कई दरवाज़े खटखटाये
कई दरवाज़ों की घंटियाँ बजाई
कई दरवाज़ों पर मत्था टेका
फिर एक दिन मुझे अचानक
ईश्वर का दरवाज़ा मिल गया।
मैं ईश्वर के दरवाज़े पर खड़ा था,
मैं दरवाज़ा खटखटा देता,
तो ईश्वर बाहर निकल आता।
पर मैं साँस रोके खड़ा रहा
मैंने दरवाज़ा नहीं खटखटाया,
मैं दरवाज़े से बिना आवाज़ किये
वापिस हो लिया
मैंने अपने पैर के जूते उतार लिये
कहीं जूतों की आहट सुनकर
वह बाहर न आ जाये।
फिर मैं मज़े से
गलियों में दरवाज़े खटखटाता रहा
ईश्वर को ज़ोर-ज़ोर से पुकारता रहा
सिवाय उस दरवाज़े और
उस गली को छोड़कर जिसमें वह रहता था।
फिर एक दिन मुझे लगा कि-
कहीं वह अपनी गली के दरवाज़े पर
आकर खड़ा न हो जाये
तो मैंने उस गली की ओर जाना छोड़ दिया
मैं दूसरे मोहल्ले में,
दूसरी गलियों में
ईश्वर को आवाज़ देने लगा।
फिर एक दिन मुझे लगा कि-
कहीं ऐसा न हो कि-
मैं इधर से निकलूँ
और वो उधर से
घूमता हुआ आ जाये
बीच रास्ते में
हमारा आमना-सामना हो जाये
तब मैंने,
घर से बाहर निकलना छोड़ दिया।
मैं अपने घर पर ही रहने लगा
अपने किवाड़ बंद करके।
फिर एक दिन मुझे लगा कि-
मैंने जिन-जिन दरवाज़ों पर,
जिन-जिन गलियों में,
उसे ढूँढने के लिए
आवाज़ लगाई थी
कहीं उन्होंने मेरे संबंध में
ईश्वर को न बता दिया हो?
फिर एक दिन मुझे लगा कि-
ईश्वर मुझे खोजता हुआ,
कहीं मेरे घर ही न आ जाये,
और मुझसे पूछने लगे,
‘क्यों भाई !
मैंने सुना है कि तुम मुझे खोज रहे थे?’
अभी-अभी,
मुझे लग रहा है कि-
बाहर कोई खड़ा हुआ है
किवाड़ की सेंध में से
सीधा आ रहा है तेज़ प्रकाश,
कहीं ईश्वर तो नहीं आ धमका
मेरे दरवाज़े पर।
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