जादूगर
हास्य-व्यंग्य | हास्य-व्यंग्य कविता बृज राज किशोर 'राहगीर'11 Mar 2016
तमाशे कुछ नये लेकर के आ जाते हैं जादूगर।
क़सम से, हर दफ़ा उल्लू बना जाते हैं जादूगर।
जिन्हें फ़ुटपाथ पर सोकर भी, अच्छी नींद आती है;
उन्हें पंखा लगे घर में सुला जाते हैं जादूगर।
जिन्हें दो वक़्त की रोटी, बड़ी मुश्किल से मिलती है;
उन्हें ख़्वाबों में रसगुल्ले खिला जाते हैं जादूगर।
जिन्हें बेरोज़गारी की, पड़ी है मार बरसों से;
उन्हें इक नौकरी पक्की दिला जाते हैं जादूगर।
मयस्सर जिनके बच्चों को, नहीं स्कूल सरकारी;
उन्हीं बच्चों को अँग्रेज़ी पढ़ा जाते हैं जादूगर।
जिन्हें एक झोंपड़ी की चाह भी, मुमकिन नहीं लगती;
उन्हें पक्के घरों की छत दिखा जाते हैं जादूगर।
किसी पर भी यक़ीं कर ले, ये वो मासूम जनता है;
महज़ बातें बनाकर ही लुभा जाते हैं जादूगर।
चुनावी बारिशों में तो, बड़ी आवाज़ करते हैं;
न जाने फिर कहाँ जाकर समा जाते हैं जादूगर।
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