शीत ऋतु का आक्रमण है
काव्य साहित्य | गीत-नवगीत बृज राज किशोर 'राहगीर'15 Jan 2025 (अंक: 269, द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)
आजकल तो एक हफ़्ते में नहाने का चलन है।
शत्रु लगता ग़ुसलख़ाना, दूर से जल को नमन है।
कँपकँपाती देह एवम् थरथराता हुआ मन है।
होश के पूरे पटल पर शीत ऋतु का आक्रमण है॥
बाण लेकर हाथ में जब, सनसनाती हैं हवाएँ।
नाम अपने दर्ज करती, जीतकर चारों दिशाएँ।
एक व्यापक प्राणघाती क्रूरता का आचरण है।
होश के पूरे पटल पर शीत ऋतु का आक्रमण है॥
धुँध ने क़ायम किया साम्राज्य अपना धाँधली से।
कर दिया है सूर्य को भी बेदख़ल नभ की गली से।
रास्तों पर कोहरे के माफ़िया का अतिक्रमण है।
होश के पूरे पटल पर शीत ऋतु का आक्रमण है॥
चाय की चुस्की बदन में रक्त का संचार करती।
घूँट पानी की गले से बहुत मुश्किल से उतरती।
अग्नि का सामीप्य जैसे ईश्वर का अवतरण है।
होश के पूरे पटल पर शीत ऋतु का आक्रमण है॥
कुर्सियाँ ख़ाली पड़ी हैं, दफ़्तरों में हाज़िरी कम।
हो गया व्यापार ठंडा, है नहीं बाज़ार में दम।
लोग दुबके हैं घरों में और कम आवागमन है।
होश के पूरे पटल पर शीत ऋतु का आक्रमण है॥
जब रजाई कह रही थी देहसुख वाली कहानी।
हो गई जाने कहाँ से नींद की आकाशवाणी।
स्वप्न के सुंदर भवन में कामनाओं से मिलन है।
होश के पूरे पटल पर शीत ऋतु का आक्रमण है॥
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