खिड़की
शायरी | नज़्म स्व. अखिल भंडारी15 Jul 2020 (अंक: 160, द्वितीय, 2020 में प्रकाशित)
मेरे ऑफ़िस की खिड़की से
नज़र आता है इक दरिया
शहर के दरमियाँ बहता हुआ
और दूर तक फैली हुई इन बस्तियों को
बाँटता भी जोड़ता भी
मैं जब खिड़की से बाहर देखता हूँ
सोचता हूँ
ये दरिया तब भी था जब शहर न था
ये दाएम1 है मगर ये वक़्त की रफ़्तार भी है
अगर सोचो ये दरिया तो वही है
मगर देखो तो मंज़र दूसरा है
मैं जब खिड़की से बाहर देखता हूँ
कोई तामीर होती बादलों को छू रही
ऊँची इमारत देखता हूँ
मैं दरिया की बगल में दूर तक जाती हुई
लम्बी सड़क को देखता हूँ
मैं मोटर गाड़ियों की इक मुसलसल
भागम भाग देखता हूँ
मेरे ऑफ़िस के अंदर वक़्त लेकिन थम गया है
हर इक दिन बीते दिन जैसा
जो कल था आज भी है
कल भी होगा
बे-मसरफ़2 खोखले ख़ाली दिनों को
किसी मसरुफ़ियत से भरना होगा
मसाइल3 कल जो सुलझाये थे
वापिस लौट आएँगे
नए चेहरे लगा कर लोग
फिर से आज़माएँगे
मेरे ऑफ़िस के अंदर वक़्त जैसे थम गया है
मगर ऑफ़िस का फ़र्नीचर
पुराना हो रहा है धीरे धीरे
- दाएम = शाश्वत
- बे-मसरफ़ = बेकार
- मसाइल = समस्याएँ
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कहानी
नज़्म
कविता
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