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कीड़े

 

हिश्, हिश्, हिश! 

वह चौंककर इधर-उधर देखता है। क्या सचमुच उसके मुँह से हिश्-हिश् की आवाज़ निकली है! हाँ, एक ध्वनि उसके कानों के पास गूँजकर आगे निकल गयी है। आसपास कोई नहीं है। अन्यथा कोई क्या सोचता! 

हिश्-हिश् करने से कुत्ता भाग सकता है, बिल्ली भाग सकती है, चूहा भाग सकता है, मगर कीड़े! कीड़े नहीं भाग सकते। वे हज़ारों-लाखों कीड़े जो रेंगते हुए उसकी ओर बढ़ते हैं। उसकी आँखों और उसके कानों पर चढ़ने लगते हैं। लिजलिजे कीड़े जिनकी न आँखें दिखाई देती हैं, न सिर, न पैर। वह दोनों हाथों से अपना सर पकड़ लेता है। कीड़े नहीं रुकते। रोकने की पूरी कोशिश के बावजूद वे उसके दिमाग़ की नसों में छेद कर देते हैं। 

“आख़िर ऐसे कब तक चलेगा लोग पूछने लगे हैं, और कितना टालोगे?” वह पूछती है तो एकदम दयनीय-सी, निरीह-सी लगने लगती है। 

उसका ऐसा लगना उसे अजीब-सा लगता है। वह खुले दिल-दिमाग़ वाली बिन्दास लड़की है। आधुनिक लड़की जो अपने औरत होने का अर्थ समझती है। रूढ़ियों को नहीं मानती, परम्पराओं को नहीं मानती। अपनी देह की ज़रूरतों के प्रति सजग। अपनी मानसिक ख़ुराक के प्रति सचेत। 

यह लड़की उससे प्यार करती है, बहुत ज़्यादा प्यार। ऐसा वह ख़ुद कहती है। वह भी कुछ-कुछ ऐसा ही कहता है . . . शायद वह पूरी बात नहीं कर पाता। वह रेंगते हुए कीड़ों को हटाने की कोशिश करने लगता है। कीड़ों को मारते हुए उसके हाथ लसलसा जाते हैं। उसकी आँखें इस लसलसाहट को नहीं देख पातीं। कई बार उसे लगता है कि कीड़े मर रहे हैं, मगर वे ज़िन्दा होकर फिर उसकी ओर बढ़ने लगते हैं। और वह कहते हुए ठहर जाता है, या फिर कहना कुछ और चाहता है मगर कह कुछ और जाता है . . . 

उसे फ़ैसला करना है। कुछ तय करना है। शायद कुछ तय हो जाये। अन्तिम तौर पर। 

लेकिन ऐसा कई बार हो चुका है। अन्तिम तौर पर कोई चीज़ तय नहीं होती। एक दुर्घटना हो जाती है। माँ कहती हैं, “वकील साहब के बेटे की मौत हो गयी।” 

शायद वह जानता है, जब एक मोटर साइकिल बिना रोशनी वाली जगह पर सड़क घेरकर खड़े हुए ट्रक से टकराती है तो मौत हो जाती है। माँ बताती है, अस्पताल वालों ने ठीक से इलाज नहीं किया। बहुत सी चीखें उसके आसपास मँडराने लगती हैं। माँ कहती है, “मोटर साइकिल सँभलकर चलाया कर।” 

माँ का डर उसके इर्द-गिर्द घूमने लगता है। कीड़ों की रेंग तेज़ हो जाती है। कीड़े उस वकील के बेटे में बदलने लगते हैं। वह कीड़ों को नोच-नोचकर फेंकने लगता है . . . वह मोटर साइकिल से कम, बस से ज़्यादा चलने लगा है। 

“ये स्साले आतंकवादी . . . ” उसका साथी जैसे अपने आक्रोश में सबको शामिल करना चाहता है। वह ताज़े आतंकवादी हमले से उत्तेजित है। 

टीवी के पर्दे से निकलकर ख़ून के लोथड़े उसकी आँखों में समा जाते हैं . . . इधर-उधर छितराये हुए अंग . . . कटा हुआ . . . धड़ से टूटकर अलग हुआ सर . . . चिरे पेट से निकलकर बाहर सड़क पर पसरी हुई अँतड़ियाँ . . . वह आँखेंं बन्द करता है तो ख़ून के थक्के और अधिक गहरे होते हुए दिखने लगते हैं। 

“सालों को पकड़-पकड़कर ऐसे ही बम से उड़ा देना चाहिए।” 

“तो तुझे किसने रोका है, जा जाकर उड़ा दे।” 

“तुम लोगों के साथ यही तो दिक़्क़त है। तुम साले हर बात को मज़ाक़ में लेते हो। जब तुम्हारी पेंदी के नीचे बम फटेगा, तब मालूम पड़ेगा।”

“अबे तू ख़ामख़ा सीरियस हो रहा है। न हम उन्हें पकड़ सकते हैं, न बम से उड़ा सकते हैं। ये सरकार का काम है, पुलिस का काम है, हम क्या कर सकते हैं?”

“सरकार निकम्मी नहीं होती तो बात ही क्या थी . . . सबसे पहले तो इस साली सरकार को ही उड़ा देना चाहिए . . . “

साथी लोग भिड़ गए हैं। उसे अपनी छाती से फूटता आक्रोश सा कुछ महसूस होता है। मगर कीड़े। उसे अपने आक्रोश की छाती से चिपके हुए कीड़े दिखाई देने लगते हैं। कीड़े सबकुछ छाप लेते हैं। सब कुछ लिसलिसाहट से भर देते हैं। 

माँ कहती है, “ले पंडित जी ने दिया है। रोज़ सुबह जाप करना है। तेरे ऑफ़िस की सब बाधाएँ दूर हो जाएँगी . . .” 
उसने पुर्जा ले लिया है . . . ॐ ह्रीं क्लीं . . . 

पहले वह माँ से मज़ाक़ कर लेता था। अब ग़ुस्सा आता है . . . मगर वह माँ का दिल नहीं दुखाना चाहता। उसने पुर्जा जेब में डाल लिया है। 

और अब पुर्जे में से मन्त्र के बजाय महषी चिन्ना का चेहरा झाँक रहा है। उसके मारक मन्त्रों में जो ताक़त है, उसे यह मंतर कैसे काट पाएगा। वह ज़रूरत से ज़्यादा काम करता है। ध्यान रखता है कि काम में कोई कमी न रह जाये, किसी को कोई शिकायत नहीं मिले . . . मगर . . . 

“अबे तरक़्क़ी करनी थी तो जाँघों के बीच फाँक लेके पैदा होता!” 

उसका मन घिना जाता है। 

ये लोग चिन्ना की तरक़्क़ी का हर राज़ जानते हैं। पीठ पीछे कही अनकही सब कहते हैं। उसके और चीफ़ मैनेजर के रिश्तों को होटलों के कमरों से लेकर दोस्तों के बिस्तरों तक ले जाते हैं . . . जब चिन्ना सामने होती है ‘यस मैडम’ की चासनी टपकाते हैं। हाथ जोड़कर चिर ग़ुलामों की मूर्तियों में बदल जाते हैं। वह कीड़ों को कुचलने की बेतहाशा कोशिश करने लगता है। मरे हुए कीड़ों की लिसलिसाहट से मुक्ति पाना चाहता है। मगर कीड़े मरकर ज़िन्दा होने लगते हैं। वह जितनी ताक़त से झटकना चाहता है, कीड़ों की चिपक उतनी ही मज़बूत हो जाती है। 

उसे जवाब देना है। आख़िर कब तक टालेगा वह? माँ कहती है, “उम्र निकल जायेगी, तब शादी करेगा।” 

वह उम्र को निकलने नहीं देना चाहता। उम्र निकलने भी कहाँ दी है उसने। उम्र के तक़ाज़े वह पूरे कर देता है। उसके बालों से खेलता है तो एक ख़ुशी-सी मन पर तैरने लगती है। ख़ुशी ज़्यादा देर तक नहीं ठहरती। उसके शैम्पू किये घने काले बालों से लिजलिजे कीड़े झड़ने लगते हैं। उसके मासूम से दिखने वाले चेहरे को ये कीड़े चिन्ना के चेहरे में तब्दील कर देते हैं। चिन्ना की तरह वह भी तो एक ऑफ़िस में काम करती है। चिन्ना की शादी की अफ़वाह भी उड़ती रहती है . . . किसी लौंडे को फँसा लिया है। 

कीड़े उसकी तरफ़ दौड़ने लगे हैं। उसे लौंडा बना रहे हैं। वह कीड़ों को पकड़-पकड़कर बाहर फेंक रहा है . . . उसके हाथ जैसे लकवाग्रस्त हो रहे हैं। कीड़े उसकी कोशिशों की पकड़ से निकलकर दिमाग़ की तरफ़ दौड़ रहे हैं। 

आगे कुछ हो गया है। शायद कोई मौत। उसे लोगों की भीड़़ दिखाई दे रही है। ग़ुस्साई भीड़़। बसों के शीशे तोड़ती, पत्थर फेंकती, आग लगाती, चीखती-चिल्लाती, डंडे फटकारती भीड़। फँसे हुए लोग बेचैन हो रहे हैं . . . बेचैनी सब्र तोड़ रही है . . . वे बड़बड़ाने लगे हैं। 

‘एक मर गया तो बाक़ी को क्यों परेशान कर रहे हैं . . .’ 

‘हमने मारा है क्या . . . मादर . . . सड़क पर चलना तक नहीं जानते . . .’ 

‘सड़क पर चलने वाले क्या करें, इन हराम के बस वालों से कोई कुछ नहीं कहता। जिसे चाहे कुचल देते हैं।’ 

‘इनसे कौन कहेगा . . . नेताओं के दामाद जो हैं . . .’ 

उसे देर हो रही है। 

वह समय पर कर ही क्या पाता है? वह इन्तज़ार कर रही होगी, वह फोन मिलाना चाहता है, मगर सिगनल काम नहीं कर रहे हैं। गाली देना चाहता है . . . शायद किसी विज्ञापन को जो तमाम लुभावने वादे करता है, हिन्दुस्तान के हर कोने में हर समय अपनी पहुँच को प्रचारित करता है। कूल्हे मटकाती आँख नचाती एक बड़ी तारिका बार-बार भरोसा दिलाती है . . . यही एक सेवा है जो कभी भी नहीं टूटती, कभी भी नहीं चूकती . . . सफ़ेद झूठ . . . एक मोटी-सी गाली ओठों के ऊपर ही घुट जाती है। कीड़े घुस रहे हैं . . . वह कुछ नहीं कर पा रहा . . . 

लोग पुलिस को गाली दे रहे हैं . . . पुलिस तमाशा देख रही है . . . लोग सरकार की माँ-बहन कर रहे हैं, सरकार वहाँ कहीं नहीं है . . . 

बसों से उतरकर कुछ लोग भीड़़ में शामिल हो गये हैं। सड़क की परतें उखाड़कर पत्थर निकाल रहे हैं। पत्थर कहाँ फेंक रहे हैं, ख़ुद उन्हें नहीं मालूम। ये पत्थर उन कीड़ों पर क्यों नहीं पड़ते जो उसे घेर रहे हैं। इन पत्थरों से ये कीड़े क्यों नहीं मरते . . . भीड़़ जैसे-जैसे आक्रामक हो रही है कीड़े भी वैसे-वैसे आक्रामक हो रहे हैं . . . वह ख़ुद को बेहद डरा हुआ, असहाय-सा महसूस कर रहा है . . . 

एक लम्पट कथन कीड़ों के बीच से होता हुआ उसके दिमाग़ से आ टकराया-क्या करेगा शादी-वादी करके। आज आएगी, कल दहेज़ का केस डाल देगी . . . तू भी भागता फिरेगा और तेरे घर वाले भी। मैं तो नहीं पड़ने का इस झमेले में। 

मगर वह इस लम्पट जैसा नहीं हो सकता। वह इस तसल्ली के साथ कीड़ों को भगाना चाहता है कि वह वैसी नहीं है। माँ सूचना देती रहती है—पच्चीस नम्बर वाली की बहू कैसी भोली दिखाई देती है, अब देख क्या गुल खिलाया है। झगड़ा औरत आदमी का था, जेल भिजवा दिया सास-ससुर को . . . पच्चीस नम्बर वाले लड़के को वह जानता है। वह लड़का अब बिना झिझक-संकोच अपनी बीवी को 'लूजकरेक्टर' बताता है . . . उसने फोन सुन लिये, मैसेज पकड़ लिये . . . सबकुछ खुलकर सामने आ गया तो असलियत पर चादर डाल रहा है . . . 

केस तो दहेज़ का दर्ज होता है, असलियत का नहीं। असलियत ये कीड़े हैं जो न मर रहे हैं, न कम हो रहे हैं। वह कहती है, “न कोई औरत अकेली रह सकती है, न कोई आदमी।” 

वह कहता है, “हम जैसे रह रहे हैं, वैसे ही रह सकते हैं।” वह कह रहा है, मगर कीड़ों ने उसका आत्मविश्वास कुतर डाला है। वह धकियाकर शब्दों को बाहर निकालता है, “हम एक-दूसरे की ज़रूरत पूरा कर रहे हैं।” 

“तुम आदमी हो, इसलिए ऐसी बात करते हो। तुम्हारी फिजिकल ज़रूरत पूरी हो जाती है तो तुम्हें लगता है तुम्हारी हर ज़रूरत पूरी हो गयी। औरत की ज़रूरत इमोशनल होती है। उसे इमोशनल सिक्यूरिटी चाहिए होती है . . . और सोशल सिक्यूरिटी भी . . .” 

वह कहना चाहता रहा है . . . क्या आदमी को इमोशनल सिक्यूरिटी नहीं चाहिए होती? सोशल सिक्यूरिटी उसकी ज़रूरत नहीं होती? मगर उसका मर्दपना आड़े आ जाता है . . . और ये कीड़े। कीड़े उसकी खुली आँखों की पलकों पर आकर बैठ जाते हैं। वह कीड़ों की घनी परत को चीर कर उस पार देखना चाहता है। कुछ भी साफ़-साफ़ नहीं दिखाई देता। 

माँ कहती है, “अब तो रोशनी के भी लाले पड़ गये हैं। कोई ठिकाना नहीं रहा कब बिजली चली जाये।” 

माँ ठीक कहती है। सरकार ज़ोर-शोर से वादे करती थी, बिजली प्राइवेट हाथों में चली जाएगी तो सब ठीक हो जाएगा। प्राइवेट और सरकारी हाथों के बीच करोड़ों के वारे-न्यारे हो गये। बिजली निजी कम्पनियों की मिल्कियत हो गयी है। रेट तिगुने हो गये हैं। जो बिल पाँच सौ का आता था वह डेड़ हज़ार का आता है। तिस पर राहत ज़रा भी नहीं। ख़बर तक नहीं देते, कब बिजली जाएगी, कब आएगी। 

माँ कहती है, “सारे पड़ोसियों ने जनरेटर लगवा लिए हैं . . . अगर तेरी तनख़्वाह बढ़े तो . . .” 

तनख़्वाह हर साल महषी चिन्ना की बढ़ती है, चीफ़ मैनेजर की चरण-चप्पी करने वाले चुगलखोरों की बढ़ती है। माँ इस बात को नहीं समझती। वह माँ को नहीं समझा सकता कि जब महँगाई तेज़ रफ़्तार से बढ़ रही होती है तो उसकी तनख़्वाह वहीं की वहीं क्यों ठहरी रहती है। 

उधर वह भी कहती है, “देखो, अगले महीने मेरी सेलरी कुछ बढ़ जाये।” और वह महषी चिन्ना को दिमाग़ से झटकने की कोशिश करने लगता है . . . वह लड़की चिन्ना नहीं है। हर लड़की की सेलरी चिन्ना की तरह नहीं बढ़ती। मगर ये कीड़े। 

उसने कई बार सोचा है, दोनों की सैलरी जुड़ जाएगी तो घर ठीक से चल निकलेगा . . . कीड़े रेंगने लगते हैं . . . उसने अलग रहने की ज़िद की तो माँ के दूर के रिश्ते की भाभी उनके पास आकर रोती हैं—बेटे की शादी को साल भी नहीं बीता और बहू उसे घर से खींच ले गयी है। कितनी उम्मीद थी, कितनी आस थी . . . 

माँ से अलग रहने का ख़्याल उसे परेशान कर डालता है . . . माँ से कभी अलग न रहने की बात वह एक शर्त की तरह उसके सामने रख चुका है। वह आश्वासन भी देती है। वह उस पर भरोसा करना चाहता है। अपने भरोसे को पुख़्ता करना चाहता है। पर कीड़ों का क्या करे? कीड़े गिर नहीं रहे। जिन्हें वह मरा हुआ मान लेता है उनकी तेज़ सड़ी हुई बदबू उसे घेर लेती है। 

वह जब भी मुलाक़ात के लिए इधर से उधर जाता है तो उसे नदी पार करनी पड़ती है। नदी शहर को नहीं लोगों को भी विभाजित करती है। इस तरफ़ देश का गाँव देहात उखड़कर बस गया है और उस तरफ़ देश की तरक़्क़ी बसी हुई है। मेल-मुलाक़ात की, सहूलियत से बैठने की और नौकरी की गुंजाइशें तरक़्क़ी वाले हिस्से में हैं, इसलिए इधर के लोग सुबह होते ही उधर के लिए दौड़ पड़ते हैं। और शाम गुज़रते ही वापस पलट पड़ते हैं। 

वह बच्चा था तब जब यह नदी, नदी थी। मछलियाँ और कछुए ख़ूब दिखाई देते थे। बगुलों और जलकपोतों की क़तारें पानी के ऊपर दूर-दूर तक मँडराया करती थीं। अब यह चौड़े फाट वाली नदी, नाले में बदल गयी है। इसमें कीड़े बिलबिलाते हैं। वह ऊपर पुल से गिजगिजाते कीड़ों को देख रहा है। उसे इस नदी में कभी अपना चाव से नहाना याद आता है। अब लगता है, हाथ डाला तो कीड़े हाथ पर होते हुए दिमाग़ की नसों तक पहुँच जाएँगे। 

एक आदमी तेज़ आवाज़ में अख़बार पढ़ रहा है। किसी उद्योगपति का बयान है, शायद किसी नेता का, शायद किसी मल्टीनेशनल दल्ले का—भारत अगले पचास वर्षों में दुनिया की महाशक्ति बन जायेगा। अमेरिका को पीछे छोड़ देगा। 

हरामज़ादे। एक नदी को बचाने तक की शक्ति नहीं है, और महाशक्ति बन जाएँगे। झूठ, सिर्फ़ झूठ। मोटी गाली ओंठों पर आकर फिर घुल गयी है। नदी बदबूदार नालाधार में पनपते-बढ़ते बड़े-बड़े शक्तिशाली कीड़े, हर प्रवाह पर फैलते हुए, हर धवल धार को निगलते हुए। कीड़े एक जायज़ गाली को भी चट कर जाते हैं। कीड़े उसे चट कर रहे हैं। 

वह न बिन्दास लग रही है, न खुले दिमाग़ की आधुनिक लड़की। उसकी आँखों में अजीब-सा डर बैठा हुआ है। वह कहती है, “तो क्या फ़ैसला किया तुमने?” 

“हम कुछ दिन और नहीं रुक सकते?” 

“इतने दिन से रुके ही तो हुए हैं, और कितने दिन रुकें? कब तक पिल्स लेती रहूँ मैं . . . ” वह ग़ुस्सा दिखाना चाहती है, मगर उसकी आवाज़ थरथरा गयी है। 

“जब इतने दिन रुके हैं, तो थोड़े दिन और सही,” वह कहता है। उसे अपनी आवाज़ कीड़ों द्वारा खाई हुई, घुनी-सी लगती है। 

“तुम ऐसा क्यों कर रहे हो?” उसकी आँखों में आँसू उतरने को हो रहे हैं।”तुम्हें मेरे ऊपर भरोसा नहीं है?” 

“ऐसा क्यों सोचती हो तुम, तुम्हारे ऊपर पूरा भरोसा है, लेकिन मुझे अपने ऊपर . . . ” वह समझ नहीं पाता कि उसने झूठ कहा है या सच। 

“तुम्हें कैसे भरोसा चाहिए अपने ऊपर। तुम्हारा मन बदल रहा है तो मुझे साफ़-साफ़ क्यों नहीं बताते? मेरे घर वाले मेरी नाक में दम किए हुए हैं। उनसे कब तक झूठ बोलूँ, कब तक बहाने बनाऊँ?” 

“झूठ और बहानों की क्या ज़रूरत है, उन्हें सच क्यों नहीं बता देती?”

“क्या सच बताऊँ, यह कि मैं एक आदमी के साथ कई महीनों से सो रही हूँ . . . तुम भी इसी दुनिया में रह रहे हो। एक औरत की पोज़ीशन के बारे में क्यों नहीं समझ पा रहे हो तुम?” 

वह समझ पा रहा है, मगर कीड़े . . . कीड़े उसकी समझ से चिपक जाते हैं, समझ लड़खड़ा जाती है। वह बोल नहीं पा रहा। 

“तुम मेरे ऊपर शक तो नहीं करते?” 

“कैसी बात करती हो शक क्यों करूँगा?” उसे महसूस होता है वह झूठ बोल रहा है। 

“फिर क्या बात है, मुझे क्यों लगता है तुम मुझसे दूर हो रहे हो,” उसकी आँखें छलछला आयी हैं, “मैं अब तुमसे अलग नहीं रह सकती, तुम्हारे बिना नहीं रह सकती।” क्या यह अभिनय है? वह लड़की की आँखों में झाँकता है। वहाँ कातरता है, अभिनय नहीं। उसे अपने शब्द सुनाई देते हैं। “मेरे ऊपर भरोसा रखो . . .” 

“भरोसा तो पहले दिन से कर रही हूँ। भरोसा नहीं होता तो . . .” उसने वाक्य जहाँ अधूरा छोड़ा है, उसके आगे वह जानता है। वह उतनी ही कातर आवाज़ में कहता है, “बस, केवल कुछ दिन और . . . “

वह कहना चाहता है, कीड़ों को मर जाने दो, बस! मगर कीड़े फैल रहे हैं। दिमाग़ की जड़ों में घुस रहे हैं। वह चौंककर लड़की की ओर देखता है। लड़की की आँखों से कीड़े झाँक रहे हैं, वैसे ही लिजलिजे कीड़े फैलते हुए, बढ़ते हुए, सबकुछ चट करते हुए। 

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टिप्पणियाँ

मधु शर्मा 2023/10/31 09:30 PM

दिमाग़ी कीड़े...कृपया बताएँ इन्हें मारने के लिए कीटनाशक दवाई कहाँ से उपलब्ध होगी?

कृपया टिप्पणी दें

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