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प्रतीक्षा

 

उन्होंने एक बार फिर दीवार घड़ी पर नज़र डाली है। लगा जैसे सूई जहाँ की तहाँ ठहर गयी हो। आठ बजने में अभी भी दस मिनट शेष हैं। मीरा के आने का समय आठ बजे का है। लेकिन वह सुबह के नित्यकर्म से मुक्त होते ही उसका इंतज़ार करने लगते हैं। जैसे-जैसे बड़ी सूई आठ की पूर्णता के लिए बारह के नियामक अंक की ओर बढ़ती है, उनकी बेचैनी बढ़ने लगती है। आशंकाएँ घेरने लगती हैं। अगर मीरा नहीं आयी तो। मीरा प्रायः आठ बजे के आस-पास आ जाती है। एक बार ही ऐसा हुआ था कि वह नहीं आयीं थी और वह इंतज़ार करते रहे थे। जब दो घंटे तक वह इंतज़ार करने के बाद भी नहीं आयी थी तो उन्होंने स्वयं को समझा लिया था कि वह नहीं आएगी। उस दिन ख़ुद अपने हाथ की बनायी हुई चाय उन्हें बहुत बेस्वाद लगी थी। पूरा दिन अनहुआ सा गुज़रा था—बेहद लंबा, थकाऊ, घुटन और उदासी से भरा। हालाँकि मीरा ने फिर कभी ऐसा नहीं किया था कि बिन बताए न आयी हो, फिर भी उनके ज़ेहन में एक आशंका स्थायी तौर पर जम गयी थी। अगर न आयी तो। वह तब तक बेचैन-से बने रहते जब तक कि दरवाज़े की घंटी बजाकर वह अपने आने की सूचना न दे देती। 

वह किसी भी पल घंटी बजने की प्रतीक्षा कर रहे हैं। जब पत्नी नहीं होती तो उनकी चाय मीरा ही बनाती है। वह आग्रह करके मीरा को भी अपने साथ बैठकर चाय पीने के लिए बाध्य कर देते हैं। मीरा अक़्सर चाय पीकर आने की बात कहती है मगर वह साधिकार कहते हैं, “यह तो गर्म पानी है एक कप और पी लेगी तो तेरी सेहत नहीं बिगड़ जाएगी।” 

मीरा उन्हें टालती नहीं और अपनी चाय भी बना लाती है। यही वह अवसर होता है जब उनके भीतर जमी हुई हलचल पिघलने लगती है। एक आत्मीय-सा संवाद बन कर बहने लगती है। और वह हल्का महसूस करने लगते हैं। कभी-कभी तो यह बहाव मीरा की अनुपस्थिति में भी होने लगता है और वह मन ही मन मुस्कुराने को हो आते हैं। मीरा कहती है, “बाऊजी, इस उमर में कोई बीवी को ऐसे छोड़े रखता है।” मीरा मज़ाक़ करती है। 

वह भी मज़ाक़ ही करते हैं, “अगर बीवी आदमी को छोड़-छोड़ कर भागे तो आदमी क्या करे, तू अपने मर्द को छोड़ कर भागे तो वह बिचारा क्या कर लेगा?” 

“करैगा कै, दूसरी ला बिठावेगा। तुम ये हू ना कर सके हो . . .” मीरा मुस्कुराती है। 

मीरा को उनकी पत्नी का जाना क्या सचमुच अच्छा नहीं लगता? इस सवाल के जवाब में वह हमेशा संदेह से घिर आते हैं। शायद मीरा चाहती है कि सविता उन्हें इस तरह अकेला छोड़ कर न जाया करे। मीरा उनकी परेशानियों को समझती है। सविता के न रहने पर उनका खाना-पीना-सोना-उठना सब कुछ गड़बड़ा जाता है। उनकी अपनी मर्ज़ी तो जैसे ख़त्म ही हो जाती है। सविता अपने हिसाब से पूरी व्यवस्था करके निकलती है, दोनों समय उनका खाना पहुँचाने की ज़िम्मेदारी पास में रहने वाली अपनी बहन को दे जाती है। वे लोग अपनी तरफ़ से ध्यान भी रखते हैं। पर जैसे उनकी भूख ही मर जाती है। टिफ़िन बॉक्स की रोटी-सब्ज़ी गले से नीचे नहीं उतरती। सुबह का नाश्ता जब वह मीरा से बनवा लेते हैं तो चाव से खा लेते हैं। 

मीरा जानती है कि सविता बेटी की प्रसूति के लिए गयी हैं‌। ऐसे वक़्त में बेटी को सिर्फ़ अपनी माँ पर भरोसा होता है अपनी सास-ननद पर नहीं। माँ को भी लगता है कि बेटी के इन क्षणों को उसके स्नेहिल स्पर्श की सबसे ज़्यादा ज़रूरत होती है। सब कुछ सामान्य होता तो बात दूसरी थी। डॉक्टर ने प्रसव पूर्व सावधानी की भारी-भरकम हिदायतें दे रखी थीं जिन्हें स्वयं सविता के अनुसार उसके अलावा और कोई ठीक से नहीं निभा सकता था। पता नहीं सविता को कितने दिन लगें। 

लेकिन मीरा कुछ और भी जोड़ देती है। मीरा कहती है, “बहन जी की सास को फुरसतै नहीं है, ‌ सोचती होगी बहू की अम्मा तौ आवै जाएँगी . . .।” 

उनके मन में इसके बावजूद बेटी की ससुराल वालों के प्रति कोई तल्ख़ी पैदा नहीं होती। हज़ार कि.मी. का फ़ासला तय कर कौन किसके पास आसानी से पहुँच पाता है? भले ही अपना कोई सगा ही क्यों न हो। बेटी हैदराबाद में, बेटी की ससुराल ग्वालियर में। 

फिर अपनी-अपनी गृहस्थी की सब की व्यस्तताएँ, आस-पास रहते हों तो बात अलग है। वह और सविता ही अपने पोते के जन्म पर कहाँ पहुँच पाये थे। बेटे ने सारा काम नर्सिंग होम में निपटाया था। तब वह बंगलौर में था। पोते को उन्होंने तभी देखा था जब बेटा-बहू उसे लेकर यहाँ आये थे। अब तो अमेरिका गए हुए भी उसे पाँच वर्ष हो गये हैं। पोते की याद आती है तो फोन पर उसकी आवाज़ सुन लेते हैं। आवाज़ सुनते हैं तो उसे देखने की इच्छा और अधिक बलवती हो जाती है। शायद इस साल उसका आना हो। 

वह मीरा से पूछते हैं, “तेरी ससुराल वाले तो सब तेरे पास ही रहते हैं?” 

मीरा हाथ नचाती है, “कौन मेरी गोदी में बैठे रहें, सब अगल-बगल रहें, जब मन करै खूब जूतम पैजार करें मन करै तौ खूब नाचें-गावें।” 

“वक़्त ज़रूरत एक-दूसरे के काम तो आ जाते हैं,” वह कहते हैं। 

“काम आहू जावें, काम बिगर हूँ जावें। काम में जुते रहें तौ ठीक। घर में बेकार बैठे कै फजीहत,” मीरा कहती है। 

वह जानते हैं कि मीरा की झुग्गियों में देशी दारू का बोलबाला रहता है। जब नशा सर चढ़ता है तो गाली-गलौज में भी खिल सकता है और हाथापाई-मारपीट में भी। पर नशा उतरते ही सारे नाते-रिश्ते सम पर लौट आते हैं। उनके यहाँ तो कोई नशा नहीं करता कोई गाली-गलौज नहीं करता, रिश्ते जैसे महसूस ही नहीं होते। कोई कहाँ, कोई कहाँ। रिश्तों की सिर्फ़ रस्म निभाई हो जाती है। साथ में रहे तो उसमें भी बनी रहे भौतिक दूरी तो जैसे सब कुछ सुखा देती है। जब बेटे को पढ़ा-लिखा कर बड़ा कर रहे थे, उसे स्वयं अपने पैरों पर खड़ा होने योग्य बना रहे थे तब कहीं यह ख़्याल पूरी तरह दिल की दीवारों से चिपका हुआ था कि वह अपने बुढ़ापे का संबल तैयार कर रहे हैं। अब तो उन्हें यह आश्वस्ति भी नहीं रहती कि आख़िरी वक़्त में बेटे का मुँह भी देख पाएँगे। 

अपने बेटे के बारे में वह सविता से नहीं मीरा से बात करते हैं। सविता से बात करें तो वह रोने-धोने को हो आती है। कहती है, “वह अपनी ज़िन्दगी सुख से जी ले हमारे लिए यही सुख है।” पर उसके इस ‘सुख’ की परत के नीचे छुपे दुख के पहाड़ को वह जानते हैं। दोनों एक दूसरे से अपना-अपना पहाड़ छुपाते हैं। इन पहाड़ों को छुपाते-छुपाते जैसे एक-दूसरे से ही छुपने लगे हैं। उनकी सहज बातें तक नहीं हो पातीं। पता नहीं कब किस प्रसंग की कोर से यह पहाड़ झाँकने लगे। पर मीरा के साथ ऐसा कोई डर नहीं होता। वह कोई तीखी बात भी कह देती है तो उन्हें उसे मज़ाक़ मानने में कोई कठिनाई नहीं होती। वह कहती है, “बुढ़ापे में भी आदमी को औलाद का सहारा नहीं मिलै तो औलाद का कै सुख।” 

“आदमी का सुख औलाद के सुख में होता है,” वह कह तो देते हैं पर भीतर कहीं कुछ तिरक-सा जाता है। 

मीरा कहती है, “बाऊजी, तुम वहीं चले जाओ अमरीका, भैया के पास।” 

“अपना घर छोड़ कौन अमरीका जाये, हम यहीं भले,” वह कहते हैं तो उनकी श्वास लम्बी खिंच जाती है। 

“सुनै हैं वहाँ की गोरी मैम उमर वालों को भौत चाहें,” मीरा मज़ाक़ करती है। 

“तू कौन-सी किसी गोरी मैम से कम है,” वह भी मज़ाक़ करते हैं, “तू चली जा अमरीका।” 

“सच्ची बाऊजी, भिजवा दो। भैया तो तुम्हें नहीं बुलाते, मैं बुला लूँगी,” मीरा की आँखों के बीच उसकी स्याह पुतलियाँ ठुमकी-सी मारती दिखती हैं। 

भैया के लिए उन्हें बुलाना इतना सहज है क्या? 

उनके नाश्ता वग़ैरह करने के बाद जब मीरा सारा काम निपटा कर चली जाती है तो वह भी पास के पार्क में जा बैठते हैं, जहाँ सारे बड़े-बूढ़े आकर जमते हैं। अक़्सर ये लोग ताश खेलने बैठ जाते हैं। दुनिया जहान की बातों के बीच सबसे ज़्यादा बातें बेटों-बहुओं की होती हैं। बहुत पहले वह सोचते थे कि बहुओं की आलोचना का काम साँसों का होता है। जबसे उन्होंने पार्क में बैठना शुरू किया है उनकी यह धारणा बदल गयी है। बहुतों के दिल में छुपे काँटे उनकी बातों में टीसते रहते हैं। किसी की बहू बात-बात पर ताने मारती है तो किसी की उसे घर-बाहर के कामों में जोते रखना चाहती है, किसी बहू की नज़र उसकी पेंशन पर रहती है तो किसी की प्रॉपर्टी पर . . . उन्हें तो बहू से शिकायत करने का भी मौक़ा नहीं मिला। शिकायतों के बावजूद यह बुज़ुर्ग थोड़ी ही देर में पार्क से ऊबने लगते हैं। किसी को घर का एक काम याद आता है तो किसी को दूसरा। किसी को पोते-पोतियों को स्कूल से लाना होता है तो किसी को बाज़ार से रसोई का सामान ले जाना होता है। इन सारे कामों में विचित्र-सा उत्साह छलकता रहता है। वह सब देखते हैं तो उनके भीतर कुछ बुझ-सा जाता है। उस समय और बुझ जाता है जब वह कपूर साहब की बातें सुनते हैं। 

कपूर साहब का बेटा भी अमरीका में है। कुछ दिन पहले वह बेटे के पास होकर आये हैं। अमेरिका की समृद्धि की बातें कम करते हैं वहाँ अपने उकता जाने की बातें ज़्यादा करते हैं। बेटा-बहू की नियमित और बारोज़गार ज़िन्दगी में इतनी फ़ुर्सत भी नहीं कि वे उसे अपने देश से आये अपने बाप-श्वसुर के साथ बाँट सकें। वहाँ भी वही सब झेलना है तो यहाँ क्या बुरा है। कपूर साहब की ऊपरी निधड़कता से छन-छन कर आती उनकी पीड़ा को तब जैसे वह स्वयं जीने लगते हैं। 

पार्क में अपनी उम्र के और अपने से बड़े बुज़ुर्गों के पास बैठना उन्हें उस समय बहुत ज़्यादा खलता है जब वे अपनी-अपनी बीमारियों की बात करने लगते हैं। किसी की हड्डियों में दर्द होता है, कोई गठिया का शिकार हो रहा है, किसी की आँख का ऑपरेशन होना है, किसी के दाँत जवाब दे गए हैं, किसी को सुनाई देना बंद हो रहा है, जितने लोग उनसे ज़्यादा बीमारियाँ। वहाँ बैठकर उन्हें लगता है कि ये बीमारियाँ उनके बिल्कुल क़रीब मँडरा रही हैं तब वह एक अनाम से डर से घिर जाते हैं। जब ये लोग बीमारियों की बात करते-करते अनिवार्य तौर पर जीवन और मृत्यु की दार्शनिकता पर उतर आते हैं और अपनी आसन्न मृत्यु का ज़िक्र करने लगते हैं तो उन्हें डर की अनुभूति बुरी तरह जकड़ लेती है। उन्हें अपनी छोटी-छोटी बीमारियाँ बहुत बड़ी लगने लगती हैं। उनकी दायीं आँख परेशान कर रही है, लेकिन जब ऑपरेशन की बात सोचते हैं तो उन्हें लगता है कुछ अनिष्ट-सा हो जाएगा। तब वह जैसे किसी जादू की कल्पना करने लगते हैं। कोई सिद्ध पुरुष किसी पौराणिक गाथा से निकल कर आये और उन्हें चिर यौवन का वरदान दे दे। चिर यौवन न दे फिर भी दिक् करने वाली बीमारियों से तो अभय प्रदान कर ही दे। लेकिन वह जानते हैं कि ऐसा कुछ नहीं होगा। बढ़ती उम्र का अभिशाप स्वयं उन्हें ही झेलना होगा। 

कभी-कभी वह स्वयं पार्क के बुड्ढों वाली दार्शनिकता ओढ़ लेते हैं। मीरा से कहते हैं, “ज़िन्दगी का क्या ठिकाना, पता नहीं कब बुलावा आ जाये।” 

मीरा चुहल करती, “कैसी बातें करै हो बाऊजी, तुम्हारी उमर के आदमी तो ब्याह रचावै हैं। तुम्हें तो पोती-पोतों के ब्याह करने हैं।” 

मीरा की चुहल उन्हें अच्छी लगती है, अचानक हुई गुदगुदी जैसी। लेकिन पोते-पोती के ब्याह की बात पर उनके भीतर खिन्नता भरी उदासी पैदा हो जाती है। इस उदासी को वह मज़ाक़ से ढकने की कोशिश करते हैं, “तू मेरे ब्याह की बात कर रही है कि मेरे पोते-पोतियों के ब्याह की बात? दोनोंं बातें एक साथ क्यों करती है?” 

मीरा मुस्कुराती है, “वैसे बाऊजी ब्याह की बात पै अबै हूँ मन में लड्डू फूटै हैं।” 

उनके मन में लड्डू तो नहीं फूटते, विवाह का वर्तमान हा-हू करता हुआ दिमाग़ को घेर लेता है। कभी लहरों पर तिरती, हवा में उड़ान भरती-सी ज़िन्दगी जैसे एक विराने में आकर थम गयी है। घर में सन्नाटा-सा पसर गया है। जब वे मियाँ-बीवी घर में होते हैं तो सन्नाटा और अधिक मारक हो उठता है। उन दोनों को आपस में बात करने के लिए शब्द नहीं मिलते। जो शब्द मिलते भी हैं वे जैसे होंठों से उतरना भूल जाते हैं। सविता को अब घर से बाहर जाने और रहने के बहाने की तलाश रहती है। सुबह उठते ही मंदिर चली जाती है तो दो घंटे से पहले नहीं लौटती। आस-पड़ोस या दूरदराज़ रिश्ते-नातेदारी में कोई भी छोटा-बड़ा उत्सव-समारोह हो, वह दौड़ जाती है। वह जानते हैं कि सविता भी उनके साथ के अकेलेपन से लड़ रही है। उनके मन में अपनी पत्नी के लिए सहानुभूति पैदा होती है पर उनकी यह सहानुभूति सूखी नदी हो गयी है, ऐसी जिसमें नमी नहीं सिर्फ़ नाम रह गया हो। 

मीरा कहती है, “बाऊजी, अब जमाना येई हो गया है। बच्चे बड़े होवें, माँ-बाप को छोड़ के भाग लेवैं। कोऊ लंदन चला जावै‌ कोऊ विलायत चला जावै। जो कहीं न जावै वो लुगाई ‌को लेके अलग रहन लग जावै।” 

वह जानते हैं कि मीरा चाहे जितनी कड़वी बात बोले वह उनके साथ हमदर्दी रखती है। कहती है, “तुम दुख मत किया करो। बाक़ी तो सब करम की लेखी है। नसीब की खिंची किसी की नहीं मिटती।” 

ये सब बातें वह भी जानते हैं। ज़िन्दगी का ऐसा दर्शन उन्होंने भी न जाने कितनों को समझाया है। जब से उन्होंने होश सँभाला है, फिर चाहे वह कॉलेज रहा हो या उनकी नौकरी या मिलने-बैठने के ठिये-ठिकाने, उनके वाक् चातुर्य और तर्क क्षमता की हमेशा धाक रही है। अपनी प्रतिभा-क्षमता के बूते ही वह एक सम्मान की ज़िन्दगी जी सके हैं। रही ख़्वाहिशों की बात तो यहाँ तक आते-आते वह इतना तो मानने ही लगे हैं कि हर ख़्वाहिश किसी की पूरी नहीं होती। जिस चमक को इंसान मुट्ठी में भरने को लालायित रहता है और उसे लगता है कि दो क़दम और रख देगा तो उसकी मुट्ठी चमक से भर जाएगी, सैकड़ों क़दम बढ़ जाने के बाद भी पाता है कि चमक उतनी ही दूर है जितनी पहले थी, मुट्ठी उतनी ही ख़ाली है जितना पहले थी। लगता है कहीं पहुँचने के लिए जो दौड़ शुरू की थी, वह दौड़ तो पूरी हो गयी, उम्र थककर ढलान पर उतर गयी, पर पहुँचे कहीं नहीं। और जहाँ पहुँचे हैं वहाँ पहुँचने के लिए तो दौड़ नहीं ही शुरू की थी। वहाँ पहुँचने के लिए जहाँ सब कुछ खो गया-सा लगता है, हाथ से छूट गया-सा लगता है। 

उन्हें अपने पिता अक़्सर याद आते हैं। इन दिनों पिता को वह अपने सपनों में भी देखते हैं। जब उन्होंने मध्यप्रदेश के एक क़स्बे से दिल्ली आकर नौकरी करने का मन बनाया था तो पिता ने कहा था, “राधे, देख ले। काम-धंधा यहाँ भी ठीक-ठाक है। अपना घर छोड़ के कहाँ पराये शहर की शरण जा रहा है।” 

पर तब तो वह अपने पर तौल रहे थे, आकाश नापने का इरादा पाले हुए थे। कहाँ उनका क़स्बा, और कहाँ देश की राजधानी। वह माँ-बाप की आँखों को गीला छोड़ आये थे। आज वे ही आँखें जैसे उनकी अपनी आँखों में बस गयी हैं। उन्होंने भी अपने बेटे से ऐसा ही कुछ कहा था। उनका बेटा भी उनकी आँखें गीली छोड़ कर गया था। अब वह तय नहीं कर पाते कि उनका मन अपने बेटे को याद करके भारी होता है या अपने पिता को याद करके। पिता की तबीयत ज़्यादा ख़राब होने का समाचार मिलते ही वह पहली उपलब्ध ट्रेन से रवाना हो लिए थे, फिर भी समाचार मिलने और उनके घर तक पहुँचने में पंद्रह-सोलह घंटे का फ़ासला समा गया था। उन्होंने पिता की मृत देह ही देखी थी। उससे पहले उन्होंने जीवित पिता को दो वर्ष पहले देखा था। पिता के बार-बार बुलावे के बावजूद वह नौकरी और बच्चों की व्यस्तताओं के चलते घर नहीं पहुँच पाये थे। यह टीस उतनी तब नहीं उभरी थी जितना अब उभरती है। उन्हें लगता है जैसे पिता के लिए उनका रोना अभी शेष है। 

वह फिर घड़ी की ओर देखते हैं। 

आठ बजने को हैं। मीरा किसी भी क्षण आकर घंटी बजा सकती है। जब भी मीरा को दस-पंद्रह मिनट की देर हो जाती है तो वह हड़बड़ी में आ जाती है। उन्हें तो चाय बना कर दे देती है लेकिन अपनी चाय लेकर उनके साथ नहीं बैठती। झाड़ू-पोंछा और बर्तनों में लग जाती है। जब तक उसका काम ख़त्म होता है तब तक दूसरे घर में काम का समय हो जाता है। वह ज़िद करते हैं तो पाँच-सात मिनट बैठ जाती है अन्यथा निकल लेती है। कभी-कभी वह कह देते हैं कि झाड़ू-पोंछा छोड़ दे, अगले दिन कर ले। कभी वह उनकी बात मान जाती है, और कभी फ़र्श पर धूल की परत देखकर झाड़ू लगाने लगती है। तब वह इस कमरे से उस कमरे तक उसके साथ-साथ चलते हुए बात करते हैं। पहली बार जब ऐसा हुआ था तो उसे कुछ अटपटा लगा था। यह उन्होंने उसके चेहरे पर पढ़ा था। उसने कुछ कहा नहीं था। अब तो वह मज़ाक़ करने लगी है। कभी कहती है, “बाऊ जी, तुम झाड़ू सँभाल लो, मैं पोंछा लगा लेती हूँ,” कभी कहती है, “आंटी को मालूम हो गया कि घर भर में मेरा पीछा करै हो तो बाहर निकाल देंगी।”कभी वह अपनी चाय चुसकते बैठे रह जाएँगे तो बोलेगी, “बाऊजी, आज मैं अच्छी ना लगै हूँ जो पास नहीं आ रहे।” 

वह मीरा की इन चुहलों का मज़ा लेते हैं। 

एक दिन पोंछा लगाती मीरा का ब्लाउज उनकी नज़र को पकड़ लेता है, पकड़े रहता है। मीरा की नज़र उनकी नज़र को पकड़ लेती है। कहती है, “कै बाऊजी निगाह कैं भटक रही है। लगै, आंटी से शिकायत ‌करनी पड़ेगी।” उसकी आँखों की काली पुतलियाँ नाचती दिखती हैं। वह जानते हैं कि मीरा कभी कोई ऐसी बात सविता के सामने नहीं कहती जिससे कोई अवांछित स्थिति पैदा हो। सविता यह भी नहीं जानती कि जब वह मंदिर चली जाती है या दस-पाँच दिन के लिए बाहर जाती है तो वह और मीरा साथ-साथ चाय पीते हैं, एक प्लेट में से बिस्कुट उठाते हैं। 

उन्हें उस दिन का अपना दर्द याद आता है। 

रात से कंधे में दर्द हो रहा है। उन्हें सरवाइकल घेरे हुए है। सुबह मीरा आती है तो उनकी तकलीफ़ भाँप लेती है, “कै बाऊजी, तबियत ठीक ‌नहीं है कै?” 
वह अपने कंधे के दर्द के बारे में बताते हैं। 

मीरा पूछती है, “बाम-वाम पड़ी है‌ कै? मैं लगा देती हूँ।” 

वह ऐसे वक़्त के लिए रखा गया जैल का ट्यूब लाकर मीरा के हाथों में पकड़ा देते हैं, मगर स्वयं एक संकोच से घिर जाते हैं। 

मीरा कहती है, “कमीज उतार दो,” फिर स्वयं ही क़मीज़ उतारने में उनकी मदद भी कर देती है। 

मीरा उनकी पीठ की तरफ़ आकर गर्दन, कंधे और पीठ पर जैल मलने लगती है। वह राहत महसूस करते हैं। राहत जैल से महसूस हो रही है या मीरा के स्पर्श से, वह समझ नहीं पाते हैं। लेकिन उनके शरीर में उत्तेजना की तरंग सी दौड़ने लगती है। मीरा ऐसे ही मालिश करती जाये, करती जाये। 

मीरा का हाथ रुकता है तो वह जैसे किसी सम्मोहन से बाहर आते हैं। वह मीरा की ओर देखते हैं तो मीरा के चेहरे पर विचित्र-सी मुस्कान थिरकने लगती है। वह झेंप जाते हैं। कहते हैं, “पता है मीरा, मेरे पिता जी अक़्सर मुझसे पीठ की मालिश करवाया करते थे। मैं छोटा था, मालिश करने में मुझे बहुत मज़ा आता था।” 

मीरा फिर मुस्कुराती है। कहती है, “हमें भी मालिश करने में मजा आवै है। करवाने में ज्यादा मजा आवै है।” 

वह मज़ाक़ करते हैं, “ला, मैं कर दूँ।” 

मीरा उनकी तरफ़ देखकर फिर मुस्कुराती है, “रहन दो बाऊजी, आंटी आ जांय तो उनकी ‌करना।” 

उनको अपना दर्द सचमुच ग़ायब हुआ लगता है। 

वह पूछते हैं, “तेरा मियाँ तेरी मालिश करता है?” 

“वो कैसी-कैसी मालिश ‌करै है, जे तुम्हें कै बतावें,” मीरा कहती है और उनके पास से हटकर किचिन में चली जाती है। 

उन्हें लगता है उनके पास मालिश करने के लिए मीरा के अलावा और कोई नहीं है। उन्हें ऐसे में अपना क़स्बाई घर याद आता है। शाम के समय घर के आँगन में हो जाने वाला जमावड़ा याद आता है। इस जमावड़े में चाचा, ताऊ, बुआ, भाई, बहन, चाची, ताई और न जाने कितने रिश्ते-नाते शामिल रहते हैं। कौन किससे बात कर रहा है, किससे ठिठोली कर रहा है, किस से झगड़ रहा है, किसकी मालिश कर रहा है, किसके सर-पैर दबा रहा है, इसका हिसाब-किताब रखना मुश्किल होता है। मगर वह सब उन्हें एक सघन सुखद अनुभूति की तरह स्मृत होता है। 

वह अपनी इस सुखद स्मृति को मीरा के साथ बाँटते हैं तो वह कहती है, “बाऊजी, ‌ तीज-त्योहार पर हम‌‌ गाँव जाते हैं तो घर-कुनबे‌ के संग हमें बहुत अच्छा लगै है।” वह पूछते हैं, “गाँव में तेरे नाते-रिश्तेदार रहते हैं?” 

“बहुतेरे हैं, बहुत से गाँव छोड़ कर यहाँ झुग्गियों में आ बसे हैं,” मीरा बताती है। 

वह जिज्ञासा प्रकट करते हैं, “तुझे यहाँ अच्छा लगता है या गाँव में?” 

“गाँव में खुली साँस लेवै हैं तो मन‌ को भला‌ सा लगै है। अपने‌ जनों ‌से दुख-सुख की बातें ‌करें तो जी हलका होवै है,” मीरा‌‌ कहती है। 

“तब तुम लोग गाँव क्यों छोड़ आये?” 

वह जानते हैं कि यह सवाल एक दम फ़ालतू है। कोई अपना घर-गाँव छोड़कर क्यों शहर की ओर भागता है यह वह भी अच्छी तरह से जानते हैं। फिर भी उन्होंने पूछने भर के लिए पूछ लिया है। 

मीरा कहती है, “वहाँ रहते मर्दों ‌को लगै है शहर‌ में सुरग बसा है। गाँव में रोटी की नैक कमी पड़ी कै शहर को भाग लेवें। यहाँ कैसा सरग है ये तो हम जानें हैं।” 

उन्हें लगता है जैसे उनके चारों ओर एक विराट दुर्घटना घट रही है। उनके और मीरा जैसे लोग इस विराट दुर्घटना की गिरफ़्त में हैं। न जाने कितने लोग; एक छलावे के पीछे भागते हुए। एक अंधी दौड़ में शामिल-अंतहीन अंधी दौड़ में जो एक छलावे के बाद दूसरे में तो खींच ले जाती है पर पहुँचती कहीं नहीं। किसने रची है यह दुर्घटना जो लोगों से उनके घर-परिवार छीन रही है, उनके रिश्ते-नाते छीन रही है, उनकी साझी ज़िन्दगी साझी ख़ुशियों को निगल रही है? उन्हें कोई साफ़-साफ़ जवाब नहीं मिलता। 

माँ के बोल याद आते हैं, “राधे, पेट तो कुत्ता-कूकर भी भरते हैं। जीना-मरना सबका लगा रहता है। जहाँ जाओगे उम्र तो काट ही लोगे। पर अपनों की छाया और कहीं नहीं मिलेगी।” 

माँ और पिता की ऐसी बातें तब उन्हें उनकी कोरी भावुकता जैसी लगती थीं। फिर वे अकेले नहीं थे जो अपनी ज़िन्दगी गढ़ने के लिए छोटी जगह से बड़ी छलाँग लगा रहे थे। उन्होंने तो एक सफल छलाँग लगाई थी। जब कभी वह घर जाते थे तो आस-पड़ोस के चाचा-ताऊ परिवारों के लोग उनकी प्रशंसा के पुल बाँध देते थे। अपने लड़कों-बच्चों को उनका उदाहरण देकर कुछ बड़ा करने की बात कहते थे। जब उनका अपना बेटा विदेश गया था तब भी तो लोगों ने उन्हें बधाइयाँ दी थीं। 

अब किस पैमाने से नापें कि अपना क़स्बा छोड़कर उन्होंने ग़लती की या अपना देश छोड़कर उनके बेटे ने ग़लती की। क्या उनका बेटा भी कभी इसी तरह सोचेगा? इस तरह वह भी अपनी दौड़ के अंतिम पड़ाव पर पहुँचकर दौड़ के प्रति शंकाग्रस्त होगा? 

वह कामना करते हैं कि ऐसा न हो। उसके सुख अंत तक उसके साथ बने रहें। वह कभी इस तरह अकेला न पड़े। 

वह फिर घड़ी पर नज़र डालते हैं। 

मीरा को अब तक आ जाना चाहिए था। मीरा का विलंब फिर उनके समय में से कटौती बन जाएगा। 

एकाएक उन्हें कुछ सूझता है। वह चलकर किचिन में आ जाते हैं। सिंक में पड़े कल के बरतनों पर नज़र डालते हैं‌। अकेले आदमी के बरतन कितने; वह नल खोलते हैं। जूना उठाते हैं। और बरतन साफ़ करने लग जाते हैं। बरतन निपटा देंगे तो कम-अज-कम मीरा का यह समय उनके लिए सुरक्षित हो जाएगा। झाड़ू-पोंछे के लिए बोल देंगे कि कल कर ले। वह फ़र्श पर नज़र डालते हैं तो उन्हें कहीं भी कुछ ऐसा नज़र नहीं आता जिसे आज ही साफ़ करना ज़रूरी हो। 

मीरा को भी उनसे बातें करना अच्छा लगता है। अगर उसके पास और घरों का काम नहीं होता तो शायद वह देर तक उनके पास बैठती। वह ऐसा ही सोचते हैं। इससे ज़्यादा इस चीज़ को वह कुरेदने की ज़हमत नहीं उठाते। मीरा जितनी भी देर उनके पास बैठ पाती है उनके लिए वही बहुत है। गाहे-बगाहे वह मीरा की मदद भी कर देते हैं। कभी हाली बीमारी में या अचानक आन पड़ी व्यौहारी में मीरा को पैसों की ज़रूरत पड़ती है तो वह दे देते हैं। इस बारे में न वह पत्नी को बताते हैं न मीरा बताती है। पैसे वापस आते हैं या नहीं आते इसके बारे में वह नहीं सोचते। उनको सुबह-सुबह कुछ मन चाहे जैसे पल जीने को मिल जाते हैं वह इसे ही बड़ी बात मानते हैं। वैसे भी इस वक़्त उन्हें न पैसे को लेकर कोई उत्साह जागता है . . . न उस पद-रूत्बे को लेकर जिसे वह भोग चुके हैं। उन्हें अक़्सर इनकी निरर्थकता का बोध होता रहता है। उन्हें हैरानी होती है कि कभी इन्हीं चीज़ों के लिए वह किस क़द्र पागल रहते थे। इनको पाने के लिए घर तो घर, स्वयं को भी भुलाए रखते थे। अब वह सारा जुनून तिरोहित हो गया है। 

मीरा कहती है, “बाऊजी, जित्ता तुम्हें ‌मिला है उत्ता भाग वालों को मिलै है। हमें देखो रोज़ कुत्ता घसीटी होवै है . . .” 

वह समझ नहीं पाते कि मीरा जिसे उनका ‘भाग’ बताती है उसे वह अपने लिए किस तरह समझें। रहने के लिए सर पर एक छत होना और पेंशन तथा ब्याज के सहारे रोटी-सब्ज़ी की एक सुरक्षित व्यवस्था होना ‘भाग’ नहीं है, इसे वह कैसे नकारें। लेकिन इस सुरक्षा के बीच उनके भीतर जो साँय-साँय होती रहती है उसका क्या करें। आदमी बूढ़ा हो जाता है पर उसके ख़्याल उसके जज़्बात तो बूढ़े नहीं होते। उन्हें तो कोई आसरा चाहिए ही। न सही भरी पूरी डाल एक छोटी-सी फुनगी ही मिले जिस पर बैठकर वे थोड़ा-सा चहक सकें। इन ख़्यालों का क्या करें? छत के नीचे रहने वाले दो थके-पस्त इंसान तो एक-दूसरे को और थका डालते हैं। एक दूसरे का रस निचोड़ लेते हैं। एक-दूसरे के लिए जीते-मरते हुए भी। 

मीरा अपनी कुत्ताघसीटी की बात करती है। पर उन्हें लगता है उस कुत्ताघसीटी में एक हलचल तो है। लोगों के अपने राग-द्वेष, लगाव-स्वार्थ तो हैं। कुछ ऐसा तो है जो ज़िन्दगी को जगाए रखता है। लोगों को अपने दुख-दर्दों के साथ उनके होने और एक-दूसरे से जुड़े-बँधे होने का अहसास तो दिलाए रखता है। पर उनके इर्द-गिर्द तो सब-कुछ जैसे जड़ हो गया है। इस जड़ता के बीच बस यादें दौड़ लगाती रहती हैं। यादें छलावों का रूप धारण कर लेती हैं—उनका पोता उनकी उँगली पकड़कर चल रहा है, उनका बेटा उनसे खाना खा लेने की मनुहार कर रहा है, उनकी बहू समय पर उन्हें दवा लाकर दे रही है . . . और उनके अपने पिता उनके सर पर हाथ रख कर कह रहे हैं, राधे मैंने तुझे क्षमा किया। 

वह चौंक कर घड़ी की तरफ़ देखते हैं, घड़ी का बड़ा काँटा बारह को पार कर गया है। अगर मीरा नहीं आयी तो। वह काँटा उन्हें अपने भीतर खुबा हुआ लगता है। भीतर से तेज़ रुलाई फूटती-सी लगती है। उनका गला रुँध रहा है। 

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टिप्पणियाँ

मधु शर्मा 2023/12/23 09:55 PM

अति रोचक। इस कहानी की कामवाली मीरा व मेरी लिखित कहानी 'विशाल हृदयी' की कामवाली निम्मो की सूझ-बूझ में ज़मीन-आसमान का अन्तर, परन्तु दोनों ही एक ही सिक्के के दो पहलू।

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