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नकार नृत्य

 

बुल्की ने मन ही मन स्वयं को पिटने के लिए तैयार कर लिया लेकिन उसने अपनी माँ के सवाल का जवाब नहीं दिया। माँ की आवाज़ इस बार और भी सख़्त हो गयी, “बोल, तू टंडन साहब के यहाँ कितने बजे पहुँची थी, कहाँ रह गयी थी रास्ते में?” पूछने के साथ ही बुल्की की अम्मा ने झाड़ू हाथ में ले ली। 

बुल्की को इस पल माँ की मार का डर कम, मुटकी टंडन बाई पर ग़ुस्सा ज़्यादा आ रहा था। मुटकी बाई ने आज फिर उसकी शिकायत कर दी थी। अगर वह घंटा भर देर से पहुँची तो क्या हो गया! कौन-सा ख़ुद कोई काम करती है जो घंटा आधा घंटा देर से बिगड़ जाएगा! मुटकी बाई उससे जलने लगी है। गुरु जी मुटकी बाई के सामने उसकी तारीफ़ जो करते हैं। 

बुल्की की अम्मा ने मारने की मुद्रा में झाड़ू तान दी, “बता कहाँ गयी थी? नहीं तो झाड़ू मार-मारकर तेरी खाल उधेड़ दूँगी।”

बुल्की ने सीधे माँ की आँखों में झाँका, “गुरु जी के यहाँ गयी थी।”

“तू फिर गुरु के यहाँ गयी।” हाथ की झाड़ू बुल्की के शरीर पर पड़नी शुरू हुई तो देर तक पड़ती रही और बुल्की बिना कोई प्रतिवाद किये अपनी कटखनी निगाहें अम्मा की आँखों में डाले रही‌। बुल्की को डर सिर्फ़ इतना लगा कि अम्मा गुरु जी को गालियाँ निकालना न शुरू कर दे। जब अम्मा गुरु जी को गालियाँ देती थी तब उसे यह अम्मा सबसे ज़्यादा बुरी लगती थी। 

बुल्की का बस चलता तो मुटकी बाई के यहाँ जाना ही बंद कर देती। पर माँ की मार से डरती थी। माँ की मार से भी ज़्यादा उसे अपने घर से डर लगता था। 

जिस दिन बाप दारू पी आता था उस दिन उसके घर की गाली-गलौज पूरे मोहल्ले में फैल जाती थी। बाप कभी बरतन फेंककर मारता था, कभी दारू की बोतल और कभी नंगे हाथ चलाता था। और माँ उतने ही ज़ोर-शोर से गालियाँ निकालती थी। छोटा भय्या फुदक कर घर से बाहर निकल जाता था और वह सहमी-सी दोनों में लातत-घूँसा होते देखती थी। भाई की तरह एक बार उसने भी बाहर जाने की कोशिश की तो माँ-बाप दोनों ने ही उसे पीट डाला, “कहाँ चली, बैठ घर में,” बाप ने डाँटा। 

“घर में तेरा दीदा नहीं लगता,” माँ ने डाँटा। बुल्की को लगता है कि वह सबको छोड़-छाड़ कर भाग खड़ी हो। पर जाये कहाँ? वह तब तक कोने में खड़ी रहती जब तक बाप का दारू का नशा नहीं उतर जाता और माँ की गालियों की बौछार ठंडी नहीं पड़ जाती। 

बाप एक कारख़ाने में चौकीदारी का काम करता था और माँ दो किलोमीटर दूर बाबू लोगों की कालोनी में झाड़ू-बरतन करती थी। 

♦    ♦    ♦

उस दिन माँ को बुख़ार आ गया था। माँ बिना काम किये ही हारी थकी लग रही थी। वह दो दिन काम पर नहीं गयी थी और तीसरे दिन भी उसकी काम पर जाने की हिम्मत नहीं पड़ रही थी। पर उसे डर लग रहा था कि बाइयाँ-सेठानियाँ उसके पैसे काट लेंगी। और ज़्यादा चिंता टंडन साहब की बीवी की हो रही थी जहाँ से उसे सबसे ज़्यादा पैसे मिलते थे और जहाँ उसे काम के लिए समय भी ज़्यादा देना पड़ता था। 

माँ ने बुल्की को ऊपर से नीचे तक देखा, फिर बोली, “चल मेरे साथ।”

टंडन बाई के घर में बुल्की का वह पहला दिन था। बुल्की घर की एक-एक चीज़ को आँखों में भर रही थी। उसे घर वैसा लग रहा था जैसा कभी-कभार वह पड़ोस के टीवी में देखती थी। बुल्की घर देख रही थी और अम्मा टंडन बाई से बोल रही थी, “बीबी जी, जब तक मेरी तबीयत ठीक नहीं हो जाती ये आपका काम कर दिया करेगी। आप जैसा बता देंगी वैसा कर देगी। थोड़ा समझा-बुझा दीजिएगा।” 

तेरह वर्षीय बुल्की रोज़गार पा गयी। 

टंडन बाई का घर बुल्की को अच्छा लगा। बड़े-बड़े सजे कमरे, बड़ी-बड़ी अलमारियाँ, सोफ़ा, कुर्सी, मेज़ें, गर्मी में भी ठंडी हवा फेंकता हुआ कूलर और रंगीन टेलीविज़न। बुल्की इधर से उधर आते-जाते टेलीविज़न के पर्दे पर नज़र डालती। मौक़ा मिलने पर मिनट-दो मिनट ठहर कर देखती और फिर काम पर लग जाती। टंडन बाई का घर बुल्की को सबसे ज़्यादा इसलिए अच्छा लगता था कि वह यहाँ आकर अपने घर की मार-पीट, चीख-पुकार को भूल जाती थी। यहाँ न गाली-गलौज होती थी, न मारपीट, न डाँट-डपट। टंडन बाई जब उसे कभी कोई फल, कभी मिठाई का टुकड़ा या कभी अपनी बेटी का कोई पुराना कपड़ा दे देती थी तो बुल्की का मन टंडन बाई के घर में और भी रम जाता। वह टंडन बाई का काम और भी उत्साह से करने लगती। 

माँ स्वस्थ होकर जब काम पर लौटी तो टंडन बाई ने माँ के सामने प्रस्ताव रखा, “तू बुल्की को हमारे यहाँ काम पर लगा दे। सुबह आएगी शाम को जाएगी, पैसे भी बढ़ा देंगे। यह लड़की काम ठीक-ठाक करती है।” 

माँ को जैसे राहत मिली। 

बुल्की सुबह आती और सुबह, दोपहर, शाम को घर-चौके के काम निपटाती। इस घर में बुल्की का मन लगने लगा था। लेकिन बुल्की को सबसे अच्छा उस समय लगता जब टंडन बाई की बिटिया डांस सीखती। 

गुरु की उँगलियाँ तबले के ऊपर थिरकतीं, धिक-धिन-धिन। और उधर लवली हाथ ऊपर उठाते हुए पैरों को एक विशेष गति देती ठुमके लगाती। गुरु जी बताते, ऐसे नहीं करो पर लवली लटपटा जाती। कभी हाथ ग़लत उठ जाता, कभी पैर ग़लत पड़ जाता। गुरु जी के चेहरे पर झल्लाहट आ जाती। 

उस दिन गुरु जी ने लवली को निर्देश दिया कि ऐसे करो। इधर बुल्की के हाथ-पैर कब नृत्य मुद्रा में आ गये ख़ुद बुल्की को भी पता नहीं लगा। वह अनायास ही अपने हाथ पैर की गतियों को नृत्य मुद्राओं में ढाल रही थी। गुरु जी ने बुल्की को देखा। बुल्की की निगाह गुरु जी से मिली तो वह झेंप गयी। उसका अंग संचालन वहीं का वहीं थम गया। गुरु जी बोले, “ज़रा फिर से करके दिखाओ तो!” लेकिन बुल्की खड़ी रही। 

गुरु जी ने इस बार आदेश भरे स्वर में कहा, “चलो करो!” और बुल्की ने नृत्य की पूरी मुद्रा फिर से दोहरा दी। 

गुरु जी के मुँह से अनायास निकला, “बहुत ख़ूब।” उसी दिन गुरु जी ने टंडन बाई से कहा, “बहन जी, यह लड़की तो जन्मजात कलाकार लगती है। आप कहें तो लवली के साथ इस लड़की को भी नृत्य सिखा दूँ!” 

टंडन बाई को अपनी बिटिया की तुलना में झाडू-पोंछा करने वाली लड़की की प्रतिभा की प्रशंसा अच्छी तो नहीं लगी पर उनके मुँह से निकला, “हाँ सिखा दीजिए, इस समय तक तो इसका काम ख़त्म हो जाता है।” 

लवली के साथ अब बुल्की का नृत्य प्रशिक्षण भी शुरू हो गया। लवली जिस निर्देश को दस बार समझाने पर भी न समझ पाती, बुल्की उसे संकेतों से ग्रहण करती और उसे जस-का-तस नृत्य भंगिमा में बदल देती। बुल्की बिना घुँघरुओं के भी झंकार-सी पैदा करती लगती जबकि लवली के घुँघरू हर बार बेसुरे हो जाते। पर बुल्की का नृत्य प्रशिक्षण ज़्यादा नहीं चला। 

लवली का ईर्ष्या भाव दिनों-दिन उग्र होता गया। उसने शिकायतों से अपनी माँ के कान भर डाले कि गुरु जी उसकी तरफ़ ध्यान नहीं देते, कि गुरु जी उसे सिखाते नहीं है, कि गुरु जी जब उसे सिखाते हैं तो ग़ुस्सा करते हैं और बुल्की को बहुत प्यार से समझाते हैं। 

टंडन बाई को लगा कि उनसे ग़लती हो गयी जो उन्होंने बुल्की को नृत्य सिखाने के गुरु जी के प्रस्ताव का समर्थन कर दिया। टंडन बाई कभी किसी बहाने तो कभी किसी बहाने बुल्की को नृत्य सीखने से रोकने लगी। उन्होंने गुरु जी से शाम को थोड़ा जल्दी आने का भी आग्रह किया। यानी उस समय जब बुल्की को शाम के खाने के लिए रसोई तैयार करनी होती थी। गुरु जी बिना कहे-सुने टंडन बाई का खेल समझ गये कि टंडन बाई नहीं चाहती कि बुल्की नृत्य सीखे और अगर सीखे भी तो उसकी बेटी की क़ीमत पर तो बिल्कुल नहीं सीखे। तब एक दिन गुरु ने बुल्की के सिर पर हाथ रखते हुए कहा, “बुल्की, तू यहाँ तो नहीं सीख पाएगी, मेरे घर आ जाया कर।” फिर यही बात गुरु जी ने बुल्की की माँ से भी कही, “तुम्हारी बेटी कलाकार है, बहुत अच्छी डांसर बनेगी। इसे मेरे घर भेज दिया करो।” 

माँ ने बेलाग उत्तर दिया, “वो का करैगी डांसर-फांसर बनि कैं। जे सब बड़े लोगनि के चौंचले हैं . . .” 

पर बुल्की ने माँ की बात पूरी नहीं होने दी, “मैं सीखूँगी।” बुल्की की आवाज़ एकदम साफ़ और सपाट थी।

गुरु जी का घर रास्ते से थोड़ा हटकर था, पर बुल्की को लगभग एक किलोमीटर की अतिरिक्त दूरी ज़रा भी नहीं अखरी। गुरु जी की पत्नी ने जब उसे सिर पर हाथ रख कर आशीर्वाद दिया तो बुल्की की थकान पूरी तरह काफ़ूर हो गयी। बुल्की को गुरु जी का घर टंडन बाई के घर से भी अच्छा लगा। इस घर में न रंगीन टीवी था, न कूलर और न लुभावना फ़र्नीचर, पर गुरु जी और उनकी पत्नी जब उससे प्यार से बात करते तो उसे अपना मन नाचता प्रतीत होता। वह टंडन बाई के घर पर जाने से पहले गुरु जी के घर आती, नृत्य सीखती, गुरु जी की पत्नी से थोड़ी देर इधर-उधर की बातें करती, फिर बेमन से काम के लिए चल पड़ती। हालाँकि उसका मन होता कि वहाँ देर तक रुके, पर टंडन बाई के काम की ज़िम्मेदारी और माँ की मार का डर उसे काम पर खींच लाता . . . 

पर टंडन बाई को शिकायत होने लगी कि बुल्की देर से काम पर पहुँचती है, इससे घर का काम ठीक से नहीं होता। यह शिकायत टंडन बाई ने उसकी माँ से भी कर दी। माँ ने बुल्की की जम कर लानत मलामत की और चेतावनी भी दी कि अगर वह आगे से गुरु जी के घर गयी तो उसकी खाल उधेड़ देगी। 

♦    ♦    ♦

बुल्की दो दिन गुरु जी के घर नहीं गयी, मगर तीसरे दिन उसके पैर स्वतः ही गुरु जी के घर की ओर चल पड़े‌। पिछले दिन टंडन बाई के यहाँ गुरु जी ने उसके न आने का कारण पूछा था, तो बुल्की चुप मार गयी थी, पर अब गुरु जी के घर आकर उसने गुरु जी और उनकी पत्नी को एक-एक बात बता दी। उसका सारा ग़ुस्सा टंडन बाई पर था जिसे वह मुटकी कहकर पुकारने लगी थी‌। 

गुरु जी चिंतित हो गये थे, “मैं टंडन बाई से बात करूँगा।” 

“नहीं, आप उस मुटकी से बात मत करिए” बुल्की बोली, “आप उससे कहेंगे, वो अम्मा को बता देगी, अम्मा मुझसे मारपीट करेगी।” 

“फिर क्या करेगी!” गुरु जी ने उससे पूछा। 

बुल्की ने जवाब दिया, “थोड़ी और जल्दी आ जाया करूँगी . . . मुटकी बाई को क्या, उसको अपने काम से मतलब! मैं उसके यहाँ टाइम पर पहुँच जाऊँगी।” 

अब बुल्की ने और भी जल्दी आना शुरू कर दिया। उसकी माँ उससे भी पहले निकल जाती थी, इसलिए उसे माँ को बताने की ज़रूरत नहीं पड़ी कि वह जल्दी क्यों निकलती है। 

गुरु जी की पत्नी ने उसे किसी कोने से निकालकर पुराने घुँघरू दे दिये थे। जब बुल्की उन्हें पहनकर नृत्य करती तो उसे लगता कि घुँघरुओं की झनकार उसके रोम-रोम में पैठ रही है। उसे बेपनाह ख़ुशी मिलती। अपनी अम्मा की मारपीट तथा टंडन बाई के घर के अपमान को वह पूरी तरह भूल जाती। मन होता कि गुरु जी और उसकी पत्नी के इर्द-गिर्द बनी रहे, कहीं न जाये न अपने घर न मुटकी बाई के घर। 

पर उसे जाना पड़ता, मुटकी बाई के घर भी और अपने घर भी, जहाँ उसने सिर्फ़ डाँट-फटकार पायी थी, मारपीट झेली थी, और माँ-बाप को कुत्ते-बिल्लियों की तरह लड़ते-झगड़ते देखा था। 

आज जब गुरु जी के यहाँ पहुँची तो गुरु जी की पत्नी बीमार थीं। घर का कामकाज अनहुआ पड़ा था। गुरु जी ने नृत्य करने को कहा तो बुल्की ने मना कर दिया, “पहले आंटी का काम कर दूँ। फिर करूँगी।” और बुल्की घर का काम निपटाने में लग गयी। बुल्की को लग रहा था जैसे आज वह अपने घर का और सिर्फ़ अपना काम कर रही है। 

कामकाज निपटाकर जब वह टंडन बाई के घर पहुँची तो काफ़ी देर हो गयी थी। टंडन बाई ने देर से आने की वजह पूछी तो बुल्की ने कोई उत्तर नहीं दिया, वह चुपचाप अपने काम में लग गयी। उसके देर से आने की शिकायत टंडन बाई ने उसकी माँ से कर दी और माँ झाड़ू लेकर उसकी पिटाई करने लगी। 

माँ ने कहा, “अब गुरु जी के यहाँ गयी तो तेरे पैर तोड़ दूँगी।”

बुल्की अच्छी-ख़ासी मार खाने के बाद चुपचाप एक कोने में बैठ गयी। 

अगली सुबह जब बुल्की घर से निकली तो उसके पैर सीधे गुरु जी के घर की ओर थे। उसने पैरों में घुँघरू बाँधे और बिना गुरु जी के निर्देश का इंतज़ार किये नृत्य करना शुरू कर दिया। उसके मन में न मुटकी बाई का भय रहा था, न अपनी अम्मा का। वह नाच रही थी, नाचे जा रही थी . . . 

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