असली कहानी
कथा साहित्य | कहानी विभांशु दिव्याल1 Jan 2025 (अंक: 268, प्रथम, 2025 में प्रकाशित)
इस सम्मेलन में अपना परिचय देने के लिए भी मेरे पास मात्र यही कहानी थी। दोस्तों से भी सबसे ज़्यादा प्रशस्ति इसी कहानी को मिली थी। पाँचू का सारा दुःख-दर्द, उसकी सामाजिक उपेक्षा, मालिकों द्वारा उसका शोषण, मिल में हुई दुर्घटना के बाद उसके सड़ते घाव और सड़क पर बैठकर भीख माँगने की उसकी मजबूरी को मैंने ज्यों-का-त्यों कहानी में उतार दिया था। कहानी अच्छी पत्रिका में छपी थी, अच्छा पारिश्रमिक मिला था। मेरी ख़ुशी के हिस्सेदार मेरे दोस्त भी थे। शग़ल के लिए दारू आयी, ती आधे से ज़्यादा पारिश्रमिक वही चाट गयी।
जिन दिनों मैंने सड़क पर बैठ कर भीख माँगते पाँचू से, कहानी के कथ्य के चक्कर में बात की थी, तब तक उसके घावों में सड़न पैदा नहीं हुई थी। पर इधर कुछ दिनों से वह घावों को ढकने से भी लाचार हो गया था . . . पता नहीं क्यों, जब दारू का सुरूर हलके-हलके झटके दे रहा था, तभी सड़ते घावों पर से मक्खियाँ हटाने का असफल प्रयास करते पाँचू की तस्वीर बेमतलब आँखों में अटकने लगी थी। दारू की झोंक में ही वह सर्वथा अजनबी ख़्याल ज़ेहन में कुलबुलाया था कि पारिश्रमिक में पाँचू का भी हिस्सा है . . .
पाँचू से हमदर्दी तो थी, परन्तु उसके लिए आत्मीयता जैसी कोई चीज़ कभी पैदा हुई हो, यह मैंने कभी महसूस नहीं किया था। पारिश्रमिक में से हिस्से की बात तो महज़ दारू की झोंक से पैदा हुई थी, इसी झोंक में दस का नोट लेकर मैं पाँचू की तलाश में निकल पड़ा था।
पाँचू जिस मज़ार के पास पड़ा रहता था, वहाँ नहीं था। अपने आप तो उसमें खिसकने की भी शक्ति नहीं थी, फिर कहाँ गया! पर थोड़ी ही दूर पर नीम के एक ठूँठ के नीचे वह दिख गया था। शायद मज़ार पर चढ़ावा-मनौती के लिए आनेवालों की असुविधा से बचने के लिए ही उसे वहाँ से हटाया गया था।
पता नहीं, पाँचू होश में था या बेहोश, परन्तु उसके शरीर से तेज़ दुर्गंध उठ रही थी। मैंने उसके क़रीब जाकर एक आवाज़ दी, मगर दूसरी आवाज़ नहीं दे सका। सड़ते घावों की बदबू का भभका मेरी नाक में समा गया था। तुरन्त ही पेट में मरोड़ होने लगी थी। मैंने दस का नोट उसके ऊपर फेंका और वहाँ से हट आया। पर चार क़दम चलते ही नाली पर बैठना पड़ा। तेज़ उबकाई के साथ पेट का सब कुछ निकल कर बाहर आ गया . . . वह बदबू दिमाग़ में चकफेरी मार रही थी। पूरी शाम का मज़ा उस एक उल्टी में बह गया था। मैंने पाँचू के पास आने की मूर्खता ही क्यों की थी?
इस घटना के बाद से ही मेरा दिमाग़ उस टकराहट का अखाड़ा बन गया था—पाँचू के पास जाने का क्षोभ और मेरी लेखकीय नैतिकता, एक-दूसरे से टकरा रहे थे। मैं लेखक था, संवेदनशील था और बहुत से अन्य लेखकों के यत्र-तत्र प्रकाशित वक़्तव्यों की तर्ज़ पर अपने नगर की कई गोष्ठियों में लेखकों के सामाजिक सरोकारों पर बोल भी चुका था। किसान-मजदूरों, दलितों, शोषितों के साथ एकजुटता की आवाज़ भी मैंने कई बार, कई तरह से उठायी थी . . . फिर ऐसा क्यों हुआ कि मुझे पाँचू के पास पहुँचते ही उल्टी हो गयी थी?
मैं पाँचू पर एक सफल कहानी लिख सकता था, पर मेरा संवेदनात्मक लगाव उससे इस हद तक क्यों नहीं हुआ था कि उसके पास पहुँचकर मुझे उल्टी नहीं होती? पाँचू की जगह अगर मेरा बाप, या चाचा होता, तो मैं इस तरह उल्टी नहीं कर सकता था। बस, इसी बात पर मैं इस सम्मेलन में बिना बुलाये चला आया था।
अख़बारों में मैंने कई दिग्गजों के नाम पढ़े थे, जो अधिवेशन में शिरकत करने वाले थे। इनमें से कई ऐसे थे, जिन्होंने उत्पीड़ित मानवता को सहलाने की ग़रज़ से सामान्य आदमी के शोषण और शोषक वर्ग को बेबाकी से नंगा किया था। इन लोगों के लिए श्रद्धा का अटूट सैलाब था मेरे मन में। इनकी संगति पाकर मैं अपनी दुविधा से उबर सकता था। अगर पाँचू से मेरा कोई अपनापन क़ायम नहीं हो सका था, तो उस पर कहानी लिखकर उसकी पीड़ा के पारिश्रमिक से दारू पीने की बेईमानी पर मैं अपने लेखक को खड़ा नहीं करना चाहता था . . . अपनी इस बेईमानी से उबरने का रास्ता तलाशने ही आया था मैं यहाँ।
रहने-ठहरने की व्यवस्था के सिलसिले में मुझसे नाम-पता पूछा गया, तो मुझे ज़िल्लत का सामना करना पड़ा। किसको कहाँ ठहरना था, यह पहले से ही तय था, जबकि मैं अनामंत्रित था। एक युवा लेखक ने मुझे इस अपमानजनक स्थिति से उबार लिया था, “हमारे कमरे में टिक जाओ यार, चारपाइयाँ निकाल कर हमने ज़मीन पर बिस्तर लगाया है।”
बाद में ज्ञात हुआ कि यह ज्ञानेश्वर था।
पिछले दिनों ज्ञानेश्वर की कुछ कहानियाँ देखने को मिली थीं। इधर उसने अपने गुट द्वारा प्रकाशित पत्रिका में कुछ कहानीकारों की कहानियाँ ‘असली कहानी’ नाम से प्रकाशित की थीं। वे सारे कहानीकार ‘असली कहानी’ आन्दोलन को स्थापित करने के इरादे से समूहबद्ध हो इस अधिवेशन में आये थे।
ज्ञानेश्वर देर तक मुझे ‘असली कहानी’ के बारे में कहानी की जटिल तकनीकी शब्दावली में समझाता रहा था, परन्तु मैं लाख कोशिश करने पर भी अन्य कहानियों से ‘असली कहानी’ के अन्तर को नहीं समझ पा रहा था। ज्ञानेश्वर चाहता था कि मैं असली कहानी आन्दोलन में शरीक हो जाऊँ, उसने यह भी कहा, पाँचू पर लिखी मेरी कहानी वस्तुतः ‘असली कहानी” थी। आश्चर्य हुआ कि मुझसे अच्छी तरह मेरी कहानी के बारे में ज्ञानेश्वर जानता था। बहरहाल, मैंने आन्दोलन में शरीक होने का मसला इस विचार के तहत टाल दिया कि जब तक इस आन्दोलन और ‘असली कहानी’ का अर्थ ठीक से मेरे पल्ले नहीं पड़े, इसमें शामिल होना सिर्फ़ एक गिरोह में शामिल होने जैसा होगा। इसका लाभ मुझे सिर्फ़ इतना ही मिल सकता था कि ज्ञानेश्वर एण्ड कं० की पत्रिका में मुझे जगह मिल जाती और सिर्फ़ इसीलिए एक नये आन्दोलन से जुड़ने को मैं लेखन धर्म के प्रति वैसी ही बेईमानी समझता था, जिससे उबरने के लिए मैं इस सम्मेलन में आया था।
यहाँ मुझे जो दूसरा धक्का लगा, वह यह था कि जिन बड़े नामों को इस लेखक सम्मेलन के आकर्षण के रूप में प्रचारित किया गया था, उनमें से लगभग सभी अनुपस्थित थे। जो उपस्थित थे, वे अधिकतर दोयम दर्जे के ही कहानीकार-उपन्यासकार थे। मैंने एक आयोजक-कथाकार को कहते सुना, “काहे के बड़े साहित्यकार! दो-दो हज़ार के चैक एडवांस में पहुँच जाते तो सब आ जाते, जानते हैं कि सम्मेलन छोटे-से क़स्बे में हो रहा है, पाँच सितारा सुविधाएँ तो मिल नहीं सकतीं। कौन वक़्त ज़ाया करे!”
तमाम बड़े साहित्यकारों के लिए उस एक अदने-से क़स्बाई लेखक की यह टिप्पणी मुझे बहुत ही अश्लील लगी। मगर मेरी अपनी हैसियत वहाँ एक अनामंत्रित बोझ की थी, अतः मेरे लिए कोई प्रति-टिप्पणी करना सम्भव नहीं था। इस बीच मेरा यह भ्रम भी कि वे कहानीकार, जो संवेदना-करुणा के छलकते प्याले थे, मुझ एक अनामंत्रित को अपने बीच पाकर एतराज़ नहीं उठायेंगे, टूट चुका था। कुछेक अपमानजनक टिप्पणियाँ सीधे मुझे अपने मुँह पर सुनने को मिली थीं। परन्तु जब आ ही गया था, तो बिना लोगों से मिले-जुले और अपनी समस्या का समाधान किये, लौटना नहीं चाहता था।
जिस तरह आयोजकों के लिए पाल साहब की उपस्थिति राहत का सबब थी, उसी तरह मेरे लिए भी। सुबह के सत्र में पाल साहब ने अपनी वे ही बातें रखी थी, जो प्रायः मैंने उनके लेखों में पढ़ी थीं। इस सत्र में पाल साहब अपने पक्ष को और भी अधिक प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत कर रहे थे। मैं पाल साहब से भेंट कर अपनी समस्या उनके आगे रखना चाहता था। विश्वास था कि पाल साहब मुझे मेरी दुविधा से उबार लेंगे। पाल साहब से मुलाक़ात अपने आप में ही बड़ी चीज़ थी। इस मुलाक़ात की चर्चा दोस्तों के बीच भी गर्व से की जा सकती थी।
पाल साहब अब मंच से कुछ नये कथाकारों की चर्चा कर रहे थे। जब उन्होंने मेरे साथ ही प्रकाशित होनेवाले दो नये लेखकों का उल्लेख किया, तो मेरे दिल की धड़कनें तेज़ हो गयीं कि शायद उनकी नज़र मेरी कहानी पर भी पड़ी हो, वे मेरे नाम का भी उल्लेख करें। पर मेरी यह वांछा फलीभूत नहीं हुई। पाल साहब सम्मेलन में उपस्थित एक नयी लेखिका की कहानियों की चर्चा पर उतर आये थे।
इस लेखिका की दो-तीन कहानियाँ मैंने भी पढ़ी थीं। पर मुझे अपनी बुद्धि पर अफ़सोस हुआ कि उन कहानियों की वे ख़ूबियाँ मेरी नज़र से क्यों छिपी रह गयी थीं, जिन्हें पाल साहब परत-दर-परत उजागर कर रहे थे। मुझे कहानी के बारे में अपनी समझ पर ही संदेह हो रहा था। मुझे तो वे कहानियाँ सिर्फ़ ‘यूँ ही सी’ लगी थीं, मगर यह तो पाल साहब के वक़्तव्य से ज्ञात हो रहा था कि इस लेखिका की वे कहानियाँ आधुनिक हिन्दी कहानी साहित्य की अक्षय निधि हैं।
अचानक ही मेरे क़रीब बैठा एक पुराना लेखक बिना किसी सन्दर्भ के बड़बड़ाया, “मुकद्दर का सिकंदर है भाई। अभी कुछ दिन पहले नयी कार ख़रीदी है। कोठी तो पहले ही बनवा ली थी। राजधानी में रहकर इतना कर लेना . . .”
मुझे लगा, जैसे मेरे कान पर चींटा चिपक गया हो। इन लेखक महोदय को डाँट पिलाने का मन हुआ—बेवुक़ूफ़ पाल साहब की क़ीमत कोठी और कार से आँक रहा है! कुछ इसके बारे में भी पता है कि पाल साहब ने क्या-क्या लिखा है!
सत्र समाप्त हुआ, तो मैं पाल साहब से मिलने के लिए लपका। मैं उनके नज़दीक पहुँचकर अभिवादन ही कर पाया था कि दो-तीन लोगों ने उन्हें घेर लिया। पाल साहब मेरी ओर ध्यान देने से पहले ही उन लोगों से मुख़ातिब हो गये। एक को मैं पहचानता था। वह दिल्ली से प्रकाशित होनेवाली एक पत्रिका के उप-संपादक थे। उनकी कुछ कहानियाँ भी मैंने पढ़ी थीं।
मुझे आश्चर्य हुआ, जब मैंने पाल साहब जैसे वरिष्ठ लेखक को उस उप-सम्पादक के आगे बिछता हुआ-सा देखा। पाल साहब उसकी हर बात पर अपनी मुस्कराहट का समर्थननुमा ठप्पा लगा रहे थे। शीघ्र ही मैं अपने आश्चर्य को अर्थ देने में सफल हो गया। यह तो एक बड़े कथाकार का बड़प्पन था, जिसके कारण वे उम्र और लेखन में अपने से काफ़ी छोटे व्यक्ति को इतना आदर दे रहे थे। मेरे मन में पाल साहब के लिए श्रद्धा कुछ और गहरा गयी। मैं कुछ देर वहाँ खड़ा रहा। जब लगा कि उनका वार्तालाप अभी नहीं टूटेगा, तो यह सोचकर कि जब पाल साहब फ़ुरसत में होंगे, तो बात करूँगा, मैं वहाँ से हट आया।
“आओ चाय पीते हैं,” ज्ञानेश्वर ने न जाने किधर से आकर मेरे कंधे पर हाथ रख दिया।
चाय के स्टाल पर ख़ासी भीड़ जमा हो गयी थी। लोग चाय के प्याले ले-लेकर अपने-अपने समूहों में खड़े होते जा रहे थे। उस भीड़ में से ज्ञानेश्वर मेरे लिए भी एक प्याला निकाल लाया। हम दोनों खड़े होकर चाय के घूँट भरने लगे।
“और साथी कहाँ गये?” मैंने पूछा।
“सब ठिकाने से लगे हैं,” ज्ञानेश्वर मुस्कराया।
मेरा ध्यान तब तक एक वक-धवल कुरता-धोती धारी सज्जन ने खींच लिया था, जिनके गिर्द लेखकों का घेरा बड़ा होता जा रहा था, एक लेखक उन सज्जन को चाय का प्याला थमाने की कोशिश कर रहे थे, परन्तु वे हाथ जोड़कर अपनी असमर्थता प्रकट कर रहे थे।
निश्चित ही वह कोई बड़ा लेखक था, जिसने अपने प्रभामंडल से उस पूरे झुंड को चकाचौंध कर रखा था। मुझे अपने सामान्य ज्ञान को लेकर तकलीफ़ होने लगी कि मैं उसे नहीं जानता था। स्मृति पर ज़ोर डाला, मगर याद नहीं आया कि इस शख़्स का कोई चित्र किसी कहानी के साथ किसी प्रमुख पत्रिका में छपा हो। हारकर मैंने ज्ञानेश्वर से ही पूछा, “ये कौन लेखक हैं?”
“लेखक!” ज्ञानेश्वर ने मुँह बिचकाया, “ये साला बनिया क्या लिखेगा? इधर यह नये लेखकों को प्रकाशित करने की योजना बना रहा है, इसलिए सब उस तरफ़ लपक लिए हैं।”
“यह प्रकाशक है?” मुझे आश्चर्य हुआ।
“और क्या। तभी तो सब चमचागीरी कर रहे हैं।”
तभी देखा कि एक आयोजक-लेखक उस लक-दक व्यक्तित्व के लिए एक गिलास दूध ले आये हैं। दूध का गिलास उसने इस तरह थामा, मानो देनेवाले पर एहसान कर रहा हो।
गिलास थमाकर वे बन्धु हमारी बग़ल से निकले, तो ज्ञानेश्वर ने छींटा कसा, “क्यों, ख़ाली दूध दिया है, या उसमें मक्खन भी मिलाया है?”
ज्ञानेश्वर ने बात पूरी रौ में कही थी। सुनकर कुछ लोग उसकी तरफ़ देखने भी लगे। परन्तु प्रकाशक की मुद्रा संत-निर्विकार रही। हाँ, जिससे यह बात कही गयी थी, वह अवश्य ही चेहरा बिगाड़ता हुआ गया था।
लोगों का ध्यान अब सम्मेलन स्थल के बाहर आकर रुकी जीप ने खींच लिया। सरकारी अधिकारी के रोबदाबवाला एक व्यक्ति जीप से उतरा। ज्ञानेश्वर भी इधर ही देख रहा था, “अरे, प्रवेशराय!” कहते ही वह उसी तरफ़ लपक लिया।
प्रवेशराय नाम मेरे दिमाग़ में गूँजने लगा। सुना हुआ नाम था, पर कुछ अधिक याद नहीं आ रहा था . . . उधर प्रवेशराय के गिर्द भी एक घेरा बन चुका था। उस समय मुझे कुछ अधिक ताज्जुब हुआ, जब अपने प्रभामंडल से सारे लेखक समुदाय को हीन कर देनेवाले प्रकाशक ने भी आधा झुककर प्रवेशराय का अभिवादन किया। देखकर मेरा लेखकीय अहम भी तुष्ट हुआ-एक प्रकाशक और लेखक से ऊपर!
चाय के स्टाल से अचानक ही तेज़ आवाज़ें उठने लगीं। कुछ लोग अपनी जगहों से ही नज़ारा लेने लगे, और कुछ बाक़ायदा मुआयने के लिए घटनास्थल की ओर बढ़ गये। एक लेखक महोदय की चाय के जूठे कप धोनेवाले छोकरे से तू-तू मैं-मैं हो रही थी, न जाने छोकरे ने क्या कहा कि लेखक ने उसके गाल पर तमाचा जड़ दिया। साथ ही तेज़ आवाज़ भी गूँजी, “सारा कपड़ा गंदा कर दिया . . . फिर बदतमीज़ी दिखाता है। ग़लती भी स्वीकार नहीं करता!”
पिल्ले-सा छोकरा रोने लगा था। कुछ बड़बड़ा भी रहा था, परन्तु यह बड़बड़ाहट देशज थी, इसलिए मेरे पल्ले नहीं पड़ रही थी। लोगों की बातचीत से पता लगा कि प्लेट-प्याले धोते समय गंदे पानी के छीटे उन लेखक महोदय के कपड़ों पर पड़ गये थे, इसलिए उनका पारा चढ़ गया था।
एक अन्य सज्जन प्रहसन का पटाक्षेप करने की ग़रज़ से लड़के के पास पहुँचकर उसे समझाने लगे, “रोना बन्द कर। चाँटा लगा दिया, तो क्या हुआ! बड़े तो डाँटते ही हैं। बहुत बड़े लेखक हैं ये, इनसे क्षमा याचना कर।”
पता नहीं ये सज्जन व्यंग्य कर रहे थे, या सहज बोल रहे थे, कुछ लोग दबी हँसी हँसने लगे थे।
मेरे जैसे अनामंत्रितों में वहाँ एक और लेखक था, कुमार सुरेन्द्र। यों तो उसका नाम सुरेन्द्र कुमार शर्मा था, परन्तु तख़ल्लुस के लिए उसने अपने नाम के हिस्से आगे पीछे कर दिये थे। ग़नीमत यह थी कि वह शर्मा कुमार सुरेन्द्र नहीं लिखता था। कुमार सुरेन्द्र मेरे पास आकर बोला, “जानते हो, ये कौन हस्ती है?”
उसका इशारा उसी झुंड की ओर था, जो प्रवेशराय के चारों ओर था। वह प्रवेशराय के बारे में पूछ रहा था। मैंने कहा, “प्रवेशराय के बारे में ही कह रहे हो न!”
“तो तुम जानते हो!”
“सिर्फ़ इतना ही जानता हूँ कि ये सभी लेखक हैं।”
“तो क्या जानते हो! लेखक तो इस सम्मेलन में वह भी है, जो झाड़ लगा रहा है।” कुमार सुरेन्द्र ने मेरी जानकारी बढ़ायी। ”ये प्रवेशराय यहाँ के ए.डी.एम. हैं। प्रदेश सरकार में उनकी काफ़ी चलती है। किताबें बिकवाने में नम्बर एक। वह जो नेता टाइप आदमी देख रहे हो . . . “
“ . . . प्रकाशक!”
“प्रकाशक! . . . इसलिए दुम हिला रहा है कि इसकी किताबें सरकारी ख़रीद में आ जायें। प्रवेशराय की तीन कूड़ा किताबें छाप चुका है। अब ज़रूर चौथी की पांडुलिपि माँग रहा होगा। इस सम्मेलन का आयोजक मंडल प्रवेशराय के आगे दुम इसलिए हिला रहा है कि सम्मेलन के लिए काफ़ी पैसा प्रवेशराय ने जुटाया है। आख़िर ए.डी.एम. हैं . . .।”
मैं प्रवेशराय का महत्त्व समझता रहा।
“और वह जो दूसरा खड़ा है, जो बार-बार अपनी टाई सँभाल रहा है, उसे तो जानते होगे?” कुमार सुरेन्द्र ने एक अन्य व्यक्ति की ओर संकेत किया।
“नहीं, मैं नहीं जानता, कौन हैं?”
“वो दानेश है—दान सिह वघेल। दानेश नाम से आलोचना लिखता है। इसने एक किताब लिखी थी। ‘आज की कविता में सामाजिक चेतना’; प्रवेशराय की तुकबंदियों को इसने सर्वश्रेष्ठ कविताओं का ख़िताब दिया था। पूरा संस्करण प्रवेशराय की मेहरबानी से खप गया। तुम देखना, जब यह अगली किताब लिखेगा, तो निराला, भारती, मुक्तिबोध को प्रवेशराय के बाद जगह देगा।”
एकाएक मेरे मन में कुछ कुलबुलाया। मैंने पूछा, “तुम ज्ञानेश्वर से परिचित हो?”
“वही, जो प्रवेशराय की बग़ल में खड़ा है। उसे कौन नहीं जानता? कुछ किताबें प्रकाशित कर रहा है, इसलिए प्रवेशराय के तलुए सहला रहा है। बड़ी कुत्ती चीज़ है। चार कहानियाँ क्या लिख लीं, हिन्दी साहित्य में अमर होने के लिए अपने नाम से आन्दोलन ही चला मारा।”
“तुमसे भी शरीक होने को कह रहा था?”
“मैं तो शरीक हूँ ही। बिना इसके गुज़ारा भी तो नहीं है। गिरोहबन्दी न करो, तो कोई घास भी न डाले। तुम जुड़े हो ‘असली कहानी’ से?”
मेरा मन खिन्न हो गया था। कहा, “अभी मैंने तय नहीं किया।”
मैं यहाँ अपनी लेखकीय ईमानदारी पुख़्ता करने आया था, पर यहाँ तो . . . मुझे लग रहा था, इस सम्मेलन में सभी टटुपुंजिये इकट्ठा हो गये हैं। इनसे मैं कुछ नहीं पा सकता। इनसे बात करूँगा, तो भ्रमित हो जाऊँगा, या भटक जाऊँगा। एकमात्र पाल साहब ही थे, जिनसे मुझे अपेक्षाएँ थी। पाल साहब शायद इस समय ख़ाली हों . . .
यह इतना अप्रत्याशित था कि मैं बुरी तरह बौखला गया। मेरी बेवुक़ूफ़ी! मुझे इस तरह दरवाज़ा नहीं खोलना चाहिए था। पाल साहब उस नयी लेखिका के कंधे पर हाथ रखे हुए थे। मुझे देखकर उन्होंने हाथ तो हटा लिया, परन्तु अपने चेहरे पर झेंप-झिझक जैसा कुछ भी नहीं आने दिया, जबकि मैं दरवाज़े के बीचों-बीच किंकर्तव्यविमूढ़ खड़ा रह गया था।
“आओ बरखुरदार, आओ!” पाल साहब ने सहज और आत्मीय स्वर में कहा।
मुझे जैसे साँस लेने का अवसर मिला, “मैं आपके पास . . . दरअसल . . .” मैं इतना हड़बड़ाया हुआ था कि बात पूरी नहीं कर सका।
“अरे इतना घबराने की क्या ज़रूरत है? बैठो!” पाल साहब ने थोड़ा आगे बढ़ कर मुझे चारपाई पर बैठने का इशारा किया।
उस अचानक दृश्य का दबाव मेरे ऊपर इतना अधिक था कि मैं सहज नहीं हो पा रहा था। विचित्र दशा हो गयी थी मेरी। किसी तरह कहा, “मैं आपसे बात करना चाहता था। आप मुझे समय दें, तो . . .”
“हाँ, हाँ!” पाल साहब तपाक से बोले, “कल दोपहर को बैठ लेते हैं, कल मेरा कोई लेक्चर भी नहीं हैं।”
“जी ठीक है।” मैंने उन्हें हाथ जोड़े और कमरे से बाहर आ गया। बाहर आकर मैं कुछ सहज हुआ। जो कुछ देखा था, वह अभी भी अविश्वसनीय-सा लग रहा था। मुझे एक नज़र उस लेखिका के चेहरे पर डालनी चाहिए थी। परन्तु उस वक़्त की मेरी हड़बड़ाहट ऐसी थी, जैसे मुझे ही कुछ ग़लत करते हुए रँगे हाथ पकड़ा गया हो। पर पाल साहब के चेहरे पर किसी भी तरह की कोई शिकन पैदा क्यों नहीं हुई थी?
मुझे अपनी इस शंका का कोई समाधान नहीं मिला। यह ऐसी बात भी नहीं थी, जिसका उत्तर मैं कुमार सुरेन्द्र या ज्ञानेश्वर से पूछता। मेरी वह पूरी शाम तनाव में गुज़री।
रात्रि भोजन के बाद लोग सोने जाने की तैयारी में नहीं दिखे। वे सम्मेलनीय वैचारिकता के बोझ से मुक्त एकदम ‘मौलिक’ हो आये थे। मैं अभी तक कुमार सुरेन्द्र या ज्ञानेश्वर आदि से मिलने की मनःस्थिति में नहीं लौट सका था, इसलिए चुपचाप जाकर अपने बिस्तर में घुस गया।
आँख लगे अधिक समय नहीं हुआ होगा कि नींद उचट गयी—कहीं से सम्मेलन की शैली से नितांत भिन्न क़िस्म का शोर उठ रहा था।
मैंने अपने कमरे में नज़र डाली, तो इसके बहुत-से रहवासी अभी तक वापस नहीं हुए थे। ज्ञानेश्वर ने मुझसे कहा था, “महुए का शग़ल करोगे? इस इलाक़े में ख़ूब मिलती है।”
मैंने महुए की शराब कभी चखी नहीं थी। मन डाँवाँडोल भी हुआ था। पर मैं जिस कशमकश की गिरफ़्त में था, उससे मुक्त होने के लिए दारू की मदद नहीं लेना चाहता था। मैंने ज्ञानेश्वर से क्षमा याचना कर ली थी। यह सोच कर कि यह सारा शोर दारूबाजी करा रही है, मैंने दोबारा सोने की कोशिश की, पर नींद तो जैसे मीलों फलाँग चुकी थी।
मैं बिस्तर से निकल कर बाहर आया। ध्यान उन आवाज़ों से जुड़ा हुआ था, जो पास के ही कमरे से उठ रही थीं। एक आवाज़ शोर से ऊपर उठी, “तुम एक ज़िम्मेदार लेखक हो, आम आदमी की पक्षधरता की बात करते हो, फिर ऐसी घटिया हरकत करते हुए तुम्हें शर्म नहीं आती?”
उत्तर में दूसरी आवाज़ और भी ऊँचे आयाम पर उठी, “स्सालो मैं भी तुम्हें रग-रग से पहचानता हूँ। तुम्हारे चेहरों के पीछे जो छुपा है, सब जानता हूँ। मैं खुलकर दारू पी रहा हूँ, खुल कर औरत की माँग कर रहा हूँ। तो तुम्हें मिर्चें लग रही हैं! मैं दारू पी कर तुमसे भी बात कर सकता हूँ। अपने आपसे भी बात कर सकता हूँ। तुम न मुझसे बात कर सकते हो, न अपने आपसे बात कर सकते हो . . . तुम स्सालो नपुंसक . . . मैं तो एक औरत को भोगना चाहता हूँ, तुम पूरी क़ौम को भोगना चाहते हो। मैं सिर्फ़ शरीर भोगने की बात करता हूँ, तुम तो स्सालो उनकी पूरी ज़िन्दगी को भोगना चाहते हो . . .।”
इसके बाद लगा, जैसे हाथापाई हो गयी हो। शोर और भी तेज़ हो गया था। लोग इधर-उधर से झपटते हुए-से उस कमरे की ओर जा रहे थे। वहाँ जाकर उस नज़ारे को क़रीब से देखने की मेरी भी चाह हुई, पर न जाने क्यों पैर उधर नहीं बढ़े।
सुबह देर से नींद खुली। ज्ञानेश्वर कमरे में नहीं था। पता नहीं, वह रात को आया भी था, या नहीं! अगर आया था तो पता नहीं कब उठ कर चला गया था। मेरा सिर भारी हो रहा था। चाय लेने की ग़रज़ से मैं बाहर निकल आया।
ज्ञानेश्वर अपने तमाम साथियों के साथ चाय के स्टाल पर खड़ा था। देखते ही मैंने हाँक लगायी, “ज्ञानेश्वर, मैं भी तुम्हारे आन्दोलन में शामिल हूँ।”
ज्ञानेश्वर ने अपना हाथ ऊपर उठा दिया।
अब तक ‘असली कहानी’ का सारा आन्दोलन मेरी पकड़ में आ गया था। मैं पाँचू पर कहानी भी लिख सकता था और उसके पास जाकर कै भी कर सकता था। यह अंतर्विरोध एक सफल कहानीकार होने की प्रक्रिया में कहीं भी आड़े नहीं आना था।
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