बिरादरी
कथा साहित्य | कहानी विभांशु दिव्याल1 May 2025 (अंक: 276, प्रथम, 2025 में प्रकाशित)
हौलनाक सन्नाटा! दूर-दूर तक पसरी सड़कों पर हाँफता हुआ कुत्ता तक नहीं। इधर-उधर मुँह मारती आवारा क़िस्म की कोई गाय भी नहीं। शहर में हुआ हादसा जैसे उन मूक पशुओं को भी सहमा गया था। जैसे वे भी उन तीनों की तरह कर्फ़्यू के आतंक से दबे किसी कोने में दुबक गये थे।
संगीनधारियों से भरी हुई पुलिस की जीप। टायरों की रगड़ से उत्पन्न ख़ौफ़नाक आवाज़। भारी-भारी गमबूटों की एकरस ठक-ठक-ठक। दहशत खाये हुए वे तीन, टूटी टीन की ओट में दुबके हुए। माथे पर चूता हुआ पसीना।
तीनों ने एक दूसरे की आँखों में देखा। सिर्फ़ दहशत! कोई बोल नहीं पा रहा था। डर के कारण आवाज़ भीतर ही कहीं जम गयी थी।
बूटों की ठक-ठक-ठक . . .! एकदम क़रीब! तीनों झुककर ज़मीन से सट गये। कहीं संगीनधारियों की नज़र न पड़ जाये।
गमबूटों की आवाज़ क़रीब से गुज़रकर दूर होने लगी। लोहे के टोप और कन्धे पर लदी राइफ़लें आगे निकल गयीं। उनके दिल की धड़कनें सामान्य होने लगीं। ओंठों पर बुदबुदाहट भी फूट आयी, मगर वाक्य नहीं बने। बने भी तो ख़ाली-ख़ाली, उलझे हुए।
एक जीप तेज़ी से गुज़र गयी।
उनके दिल भी एकबारगी तेज़ी से धड़क गये।
“परमा!”
“हूं।”
“परमा!”
“हूं।”
“ऐसे कब तक बैठे रहेंगे?”
“मैं क्या बताऊँ!” परमा की आवाज़ भय से थरथरा गयी। तीनों के बीच फिर चुप्पी।
“रहमान!”
“हूं।“
“ज़रा देख तो, पुलिस कितनी दूर है?”
“मरवायेगा क्या! मैं नहीं देखता, तू ही देख,” रहमान का भिंचा हुआ स्वर।
फिर चुप्पी।
“सिद्धू, तू देख, पुलिस कितनी दूर है?”
“चुपचाप बैठा रह। देख लिया तो गोली भेजा खोल देगी,” सिद्ध फुसफुसाया।
परमा ने गर्दन झुकाये-झुकाये जानवरों की तरह कान सतर्क किये और आहट लेने लगा। कोई आवाज़ नहीं। साँय-साँय सन्नाटा। उसकी अंतड़ियों में भूख ऐंठने लगी। अपने ऊपर ग़ुस्सा आने लगा, क्या ज़रूरत थी इधर आने की? सड़क पर चिड़िया तक का पूत नहीं . . . पुलिस का भोंपू ज़ोर-ज़ोर से चिल्ला रहा था। और वह खाना चाहता था कुन्तो के ढाबे में! अब मर भूखा! न कुन्तो आयी, न पेट में रोटी गयी।
देर तक कोई आवाज़ क़रीब से नहीं गुज़री तो सिद्धू का साहस लौटा, “भूख से आँतें चटक रही हैं।”
“तुझे स्टेशन से ही कुछ ले आना चाहिए था,” रहमान बोला। सुबह से उसके पेट में भी कुछ नहीं गया था।
सिद्धू बेआवाज़ बड़बड़ाया, मालूम होता कि ऐसा होगा तो वह स्टेशन से बाहर ही क्यों निकलता? वैसे उसे सोच लेना चाहिए था, यह उसकी बेवुक़ूफ़ी थी, जो उसने ऐसा नहीं सोचा। कुन्तो कैसे आती? उसके इलाक़े में भारी दंगा हुआ है। स्टेशन पर ही कुछ खा लेता तो . . .!
स्टेशन पर ख़बरें आयी थीं कि सारे शहर में दंगा फूट पड़ा है . . . रेल की पटरियाँ उखाड़ दी गयी हैं . . . गाड़ियाँ स्टेशन से बाहर नहीं निकलेंगी . . . दंगाई खड़े हैं . . . पुलिस गोली चला रही है। जिस आख़िरी सवारी का सामान ढोकर उसने रिक्शे में रखा था, उससे स्वयं उसने ही कहा था, “बाबूजी, जल्दी घर पहुँचिए। दंगा हो गया है शहर में। दंगा, पुलिस में और . . . ” वह अपनी ही बिरादरी का नाम लेते हुए हिचक गया था। बाद की सवारियाँ तो स्टेशन से बाहर ही नहीं निकली थीं।
परमा और रहमान, सिद्धू को देख रहे थे। अब तीनों ने अपने सिर ऊपर उठा लिये थे। इससे उन्हें आराम मिल रहा था।
उन्हें सिद्धू का चेहरा न समझ में आने वाला लगा। यह क्या आ गया है सिद्ध के चेहरे पर? “क्या बात है रे सिद्धू?”
“ऐं क्या!” चौंका सिद्धू।
“क्या हो गया तुझे?” रहमान ने भी पूछा।
क्या हो गया था उसे, सिद्धू सोचने लगा। इतनी देर में वह न जाने कहाँ-कहाँ हो आया था। मरा हुआ बाप भी उसकी आँखों के सामने से गुज़र गया, उस पर ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाता हुआ, ‘तेरे बाप-दादे भी पढ़े थे कि तू ही पढ़ेगा . . . कहाँ से लाऊँगा तुझे पढ़ाने को?’ अपने बाप को वह अपनी बिरादरी को मिलने वाले सरकारी वजीफ़े की बाबत बताता तो बाप पंजे निकालकर झपटता, ‘तेरे वजीफ़े से तेरे पेट की आग ही ठंडी नहीं होगी। कमा के ला तो खा रोटी . . .?’
सरकारी वजीफ़ा मिलने के बावजूद वह नहीं पढ़ सका। उसके स्कूल का मास्टर उससे कहता था, “अबे गधे के बच्चो, पढ़ लो! सरकार मुफ़्त में वजीफ़ा दे रही है तो क्यों नहीं पढ़ते। ढोर के ढोर बने रहोगे! कुलीगीरी करोगे!” अब कर रहा है न कुलीगीरी, ढोर का ढोर बना हुआ! कुली नहीं होता तो कुन्तो के ढाबे का मुँह ताकता? यहाँ आता? क्यों आज चूहे की तरह यों बिल में घुसकर बैठना पड़ता?
रहमान ने सिद्धू के कन्धे पर हाथ रखकर दबाया।
पुलिस के भारी बूटों की ठक-ठका-ठक।
तीनों फ़ुर्ती से झुककर ज़मीन से चिपक गये।
बूटों की आवाज़ दूर होती चली गयी। तीनों ने फिर से सिर ऊपर कर लिये। सिद्धू ने देखा, परमा उसकी ओर देखे जा रहा था। सिद्धू ने एकाएक प्रश्न किया, “परमा, तू कौन बिरादरी है?”
सुनकर परमा सतर्क हुआ। क्या झूठ बोला जाये? पर नहीं बोला।
कहा, “पंडित हूँ!”
“ऐ . . . पंडित!” सिद्धू चौंका।
रहमान भी चौंका, “तू पंडित होकर रिक्शा चलाता है?”
परमा को दोनों की आँखें अपनी देह से चिपकी हुई लगीं। सवाल की कील गाड़ती हुई, मगर क्या जवाब दे परमा? कैसे बताये उन्हें कि वह क्यों अपने घर से सैकड़ों मील दूर इस शहर में रिक्शा चला रहा है? घर में तीन-तीन जवान बेटियाँ। तीनों ब्याहने को। कोई और कमाने वाला नहीं। घर में इतना भी नहीं कि एक के भी हाथ पीले कर सके। बाप-दादे पंडिताई करते रहे। घर में नहीं छोड़ गये फूटी कौड़ी भी। दो बीघा खेत था, कभी सूखे का शिकार तो कभी बाढ़ का। यहाँ मज़दूरी कर रहा है परमा। रुपये जोड़ेगा। लड़कियों के हाथ पीले करेगा। अपने गाँव में मज़दूरी करे तो पचास बिरादरी वाले देखें नाक कटे। अब किसी को क्या बताये परमा? उसने कुछ बताया भी नहीं।
रहमान ने दुबारा कुरेदा तो परमा को अच्छा नहीं लगा। उसे कुन्तो के ढाबे पर नहीं आना चाहिए था, पर भूख? वह नये फ़ैशन की एक ज़नानी सवारी को ले जा रहा था, जब पुलिस की गाड़ी में लगा लाउड-स्पीकर चीखा था, ‘शहर में कर्फ़्यू लगा दिया गया है, सभी लोग तुरन्त अपने-अपने घरों में पहुँच जायें। जो भी व्यक्ति सड़क पर बाहर घूमता दिखाई देगा, उसे गिरफ़्तार कर लिया जायेगा।’
उसने जल्दी-जल्दी पैडल मारने शुरू कर दिये थे। राजामंडी चौराहे पर एक फ़िक़रा उसके कानों से टकराया था, “अबे बुड्ढे! इसे जल्दी पहुँचा दे, नहीं तो कोई उठा ले जायेगा, दंगा हो गया है आगे।”
उसने आवाज़ फेंकने वाले की ओर देखने की कोशिश की, परन्तु पहचान नहीं पाया। सात-आठ लोग तेज़ी से एक ओर जाते नज़र आये थे। रिक्शे में बैठी नयी उमर की ज़नानी सवारी बेहद घबरा गयी थी। देखकर उसने कहा था, “डरिये मत बहन जी, आपको सही-सलामत घर छोड़कर आऊँगा। अभी पहुँचाये देता हूँ।” उसने और तेज़ी से पैडल मारे थे।
ज़नानी सवारी को सही-सलामत उतारकर लौटा तो सड़कों पर भागती भीड़ ग़ायब हो गयी थी। वहाँ एक डरावनी चुप्पी व्याप गयी थी। कुन्तो के ढाबे पर दो रोटी पेट में डालेगा, फिर ठिकाने पर पहुँच लेगा, उसने सोचा था, सिद्धू और रहमान से मिलने की बात भी दिमाग़ में आयी थी। तीनों तक़रीबन एक ही समय वहाँ रोटी खाने पहुँचते थे।
“तूने बताया नहीं परमा?” फिर पूछा सिद्धू ने।
परमा ने सिद्धू की आँखों में घूरा। उसके प्रश्न के एवज़ में तो वह कुछ नहीं बोला, मगर एक दूसरी ही बात छेड़ बैठा, “झगड़ा तेरी ही बिरादरी के लोगों ने शुरू किया था न!”
सिद्धू की आँखों की पुतलियाँ कुछ फैल गयीं। उसके होंठों पर बुदबुदाहट-सी आकर डूब गयी। इस बुदबुदाहट के कुछ अंश उसकी आँखों में टूटकर रह गये। रहमान को लगा, सिद्धू कोई तीखी बात कहते-कहते रुक गया है।
“तू बोलते-बोलते चुप हो गया!” परमा ने कुरेदा। सिद्धू दूसरी ओर देखने लगा . . . क्या बुरा किया उसकी बिरादरी वालों ने, अगर झगड़ा शुरू किया तो! वर्षों तक जानवर बनाये रखा। सिर ऊपर नहीं उठाने दिया, इनके गू-मूत सिर पर रखते रहे। अब आदमी बनने की कोशिश करें तो भी सहन नहीं। बाबा साहब ने सुनी ग़रीबों की फ़रियाद। बाबा साहब के जुलूस पर ही पत्थर फेंक दिये। कौन सहन करता? . . . चाहते हैं, हमारी बिरादरी इनकी ग़ुलामी करती रहे। सो तो अब होने का नहीं। अच्छा किया बसें फूँकी, इमारतें तोड़ी, पटरियाँ उखाड़ी। चलाये पुलिस गोली, कितनी चलायेगी!
रहमान ने महसूस किया, सिद्ध को परमा की बात किरकिरा रही है। वह बोला, “बात सिद्धू की बिरादरी की नहीं है। बात ग़रीबों की है। झगड़ा हरीपुरा के लोगों से हुआ। कौन रहता है हरीपुरा में? नंगे-भूखे, काम करने वाले ही तो रहते हैं। ये लोग अपने किसी मौला-पीर का नाम लें तो इन पैसे वालों को लगती हैं मिर्चें!”
रहमान को इस तरह बोलते देख सिद्धू की आँखों का खिंचाव ढीला पड़ गया।
परमा को कोई और बात नहीं सूझी तो सीधा हाथ पीछे ले जाकर अपनी पीठ सहलाने लगा।
मज़ाक़ किया सिद्धू ने, “डण्डे की चोट सहला रहा है क्या?”
डण्डे की चोट ही सहला रहा था परमा। कुन्तों के ढाबे पर उसने रिक्शा रोका था। रहमान और सिद्धू वहाँ खड़े थे। सिद्धू ने बताया, वे दोनों उसी का इन्तज़ार कर रहे थे। रहमान ने बताया, कुन्तो आज आयी ही नहीं। सिद्धू का सुझाव था, स्टेशन चला जाये। सिद्धू और रहमान को रिक्शे में बिठाकर चलने को ही था परमा कि सड़क रौंदती पुलिस की जीप उनकी बग़ल में आ रुकी थी, “सालों को देखो, अभी तक तफ़रीह कर हैं।” फिर मोटी-मोटी गालियों के साथ, मोटी-मोटी लाठियों की बौछार। सिद्धू और रहमान भागे। रिक्शे से उतरकर भागते न भागते परमा को दो लाठियाँ अधिक झेलनी पड़ी थीं।
वे दौड़कर इस लावारिस टीन के पीछे आ छिपे थे। पुलिस चली जाये तो वहाँ से भागें, पर नहीं भाग पाये। परमा ने अपने रिक्शे को देखा, जो सड़क से परे उछाल दिया गया था। औंधे पड़े रिक्शे का हवा में उठा पहिया कई चक्कर लगाकर रुका था।
परमा ने अपनी पीठ सहलाना बन्द किया तो उसे पेशाब की हाजत होने लगी। इधर-उधर नज़र घुमाने लगा कि बैठने को जगह दिखे, पर वहाँ से बाहर निकलने की हिम्मत नहीं हो रही थी पुलिस के भारी बूटों की ठक-ठका-ठक।
रहमान की निगाह दूर की कोठियों पर जा अटकी। एक कोठी की छत से झाँकते हुए कुछ चेहरे। वह भी उन चेहरों में शामिल होता तो! तब वह कुन्तो के ढाबे पर रोटी खाने आता? इस तरह कर्फ़्यू में फँसता? वह भी उन चेहरों की तरह सुरक्षित रहकर सड़क का जायज़ा ले रहा होता। पर कहाँ वे चेहरे, और कहाँ वह लोहे के कारख़ाने में काम करने वाला मज़दूर!
कर्फ़्यू की घोषणा हुई थी। कारख़ाने का छुट्टी का बजर बज उठा था। बाबू लोग और मज़दूर, सभी को जल्दी हो रही थी। घर पहुँचने की हड़बड़ी। घर पहुँचकर सबने रोटियाँ खायी होंगी, बीवियों के हाथों की सिकी। उसकी कौन बीवी बैठी थी, जो अपने हाथ से बनाकर रोटियाँ खिलाती! उसे आना पड़ा था कुन्तो के ढाबे पर। रोज़ ही आता था। यह क्या पता था कि आज इस तरह यहाँ टीन के पीछे छिपकर बैठना पड़ेगा। वह कहाँ आता था बिरादरी के झगड़े में? वह तो मुसलमान था, फिर भी फँस गया।
रहमान की नज़र परमा के चेहरे को टटोलने लगी। वहाँ बेचैनी थी। परमा की इस बेचैनी को रहमान समझ रहा था। उसे स्वयं भी अन्दर से दबाव महसूस हो रहा था।
परमा के चेहरे से पसीना फूट निकला। और अधिक रुकना उसके लिए सम्भव नहीं था। सिद्धू ने देखी उसकी हालत, बोला, “परमा अभी सड़क ख़ाली पड़ी है। तू उधर फ़ौरन बैठ ले जाकर जल्दी।”
सिद्धू नहीं कहता तो भी परमा उठ खड़ा होता। वह लगभग दौड़ते हुए वहाँ से दस क़दम के फ़ासले पर जाकर बैठ गया।
पुलिस के बूटों की ठक-ठका-ठक . . .। रहमान की नज़र उठी सड़क की ओर। संगीनधारी! वह चीखा, “परमा, उठ जल्दी!”
मगर तब तक देर हो चुकी थी। भारी-भारी बूट उस तरफ़ दौड़ पड़े थे। परमा उठ भी नहीं पाया कि लात खाकर लुढ़क गया। “उल्लू के पट्ठे!” एक ने कहा।
दूसरे ने परमा की क़मीज़ का कॉलर पकड़कर उठाना चाहा। सड़ी-गली क़मीज़ का आधा हिस्सा परमा के शरीर पर और आधा खींचने वाले की मुट्ठी में। तब थप्पड़, लात और लाठियों की कोंच परमा के शरीर पर।
सिद्धू से नहीं देखा गया। टीन के पीछे से ही चिल्लाया, “उसे क्यों मार रहे हो? वह कोई नीची बिरादरी का नहीं, पंडित है . . .”
वे परमा को छोड़ टूटी टीन की ओर लपके, “साले, ये तेरा बाप लगता है?” एक ही झपाटे में टीन अलग जा गिरी।
“यहाँ क्या कर रहे हो! सारे शहर में कर्फ़्यू लगा है। मादर . . . ज़रूर कुछ गड़बड़ी कर रहे हो।”
“हमने कोई गड़बड़ी नहीं . . . मगर रहमान की बात पूरी नहीं हुई। वज़नी हाथ का तमाचा . . . फिर लात, लाठी। गालियाँ।
”हरामज़ादों को ट्रक में डाल दो। जेल में मालूम पड़ेगा!”
कुछ हाथों ने उन्हें घसीटा। कुछ ने धक्का दिया। वे हल्के-फुल्के वज़न की तरह ट्रक में जा गिरे। पता ही नहीं लगा, कब शैतान की भाँति यह ट्रक वहाँ आ लगा था। उन तीनों के होंठों पर सड़क जैसा ही सन्नाटा आ चिपका। सन्नाटा आँखों में भी पसरने लगा। तीनों के शरीर मार के दर्द से ऐंठने लगे थे। तीनों की निगाहें एक-दूसरे से मिलीं। उन्हें अब अपनी बिरादरी में फ़र्क़ महसूस नहीं हो रहा था।
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