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लल्लू लाल कौ रुपैया

 

ये रहे हमारे लल्लू लाल! 

लल्लू लाल बल्द घूरे लाल, क़ौम आदमी, काम खेती किसानी, शौक़ लट्ठभाँज पहलवानी, टोला छुटौला, गाँव मंझोला, पंचायत कुछ घर की कुछ बाहर की, थाना कोसभर, तहसील दो कोस, ज़िला बादशाह अकबर के नाम का, प्रदेश जो सबका सो लल्लू लाल का, जानों प्रदेशों में प्रदेश अपना उत्तर प्रदेश। 

नेहरू राज में जन्मे, इन्दिरा राज में जवान हुए, जनता जमूरे राज में जैसी मिली वैसी समझ हासिल की, फिर नए पंच-सरपंच देखे, चुनावी हवा के नये-नये प्रपंच देखे, इनकी रार उनकी तकरार देखी, पुराने पर नये ज़माने की मार देखी। धरम मिटा ईमान मिटा पर वह थोड़ा-सा सत्त थोड़ा-सा न्याय बचा लाये, गाँव की पावन पोखर कीचड़ में बदल गयी पर होशियार रहे कि कोई दाग़-धब्बा न लग जाये। 

सरकार को राजा मानते रहे। राजा को सम्मान देने की परंपरा निभाते रहे। बाक़ी जो वे करें सो वे भरें, हम करें सो हम भरें। ज़िन्दगी भर वह कभी इधर भरते रहे, कभी उधर भरते रहे। उम्मीद करते रहे, ‘आज हारे सो हारे कल सत्त की जीत होगी, न्याय-धरम की थापना होगी। आज के पापी नरक भोगेंगे, पुण्यात्मा सरग का राज पावेंगे। वह क्यों अपना सत्त डिगाएँ, क्यों औरों की तरह कुपंथ पै जायें। और सौ बात की एक बात, हुई हैं वहि जो राम रचि राखा, सही रखौ निज बानी भाखा, धरम-करम में चित लगावें, राम रखें त्यों रहते आवें। सो न ऊधौ कौ लैन, न माधौ कौ दैन, लल्लू लाल की ज़िन्दगी में चैन ही चैन।’ 

पर होनी तो होनी, होनी को कौन टाल सके। लल्लू लाल का नाम उस सूची में आ घुसा जिसमें ग़रीब सहायता राशि और बाढ़ डूबी फ़सल का मुआवज़ा पाने वालों के नाम दर्ज थे। ग़रीब वह ख़ुद को मानते नहीं थे, और उनकी एक कट्टा फ़सल डूबी थी जिसे उनने राम की मर्ज़ी माना था, और जिसके लिए न किसी के आगे हाथ फैलाया, न किसी पर अपना दुख-ताप जताया, न कहीं कोई आवेदन भिजवाया। सो लल्लू लाल भौचक कि उनका नाम औचक सूची में कैसे प्रविष्ट हो गया। उनने राम जी की कृपा मानी, टोपी पहनी, लाठी उठायी और जो हुआ सो देखने की ठानी। उनने अपने क़दम उठा दिये जो धपक-धपक पंचायत के ठिये पर जा रुके। 

हुजूम का हुजूम जमा था। न जाने कितने लैनहार न जाने कौन दैनहार। भोर की उजास दुपहर की धूप में बदली और दुपहर की धूप गोधूलि के झुटपुटे में। जब लल्लू लाल बल्द घूरे लाल के नाम की पुकार हुई तब तक दिया-बाती होने लगी थी। लल्लू लाल के सामने कौन अहलकार था कौन कारिन्दा सो राम जाने, पर उनके सामने एक काग़ज़ आ गया जिसमें उनके नाम के आगे दस रुपये चढ़े थे। सरकार का पैसा सो राम का पैसा, जो मिले सो सरमाथे। न उनने यह पूछा कि हज़ार के नुक़्सान पर दस क्यों मिले, न उनने यह पूछा कि दस भी मिले तो क्यों मिले! पढ़ना जानते थे सो उनने दस पढ़ लिये और लिखना जानते थे सो अँगूठे की जगह दस्तख़त टेक दिये। 

न मालूम यह पटवारी था कि कानूनगो, उसने लल्लू लाल के आगे पाँच का एक नोट और दो-दो के सिक्कों की रेज़गारी खिसका दी। साथ ही अगले नाम की टेर भी लगा दी। 

मगर लल्लू लाल तब तक अपना सवाल दाग चुके थे, “और एक रुपैया?” 

सुनने वाला ठनका। उसने ऐसे घूरा जैसे समझ में न आया हो कि क्या सुना है। 

“बिटर-बिटर का देखी रह्यो ए?” और लल्लू लाल ने अपना सवाल कुछ ज़ोर से दुहरा दिया, “और एक रुपैया कहाँ ए?” 

सुनने वाले ने अबकी बार सुना भी और समझा भी, मगर वह हैरत में पड़ गया। ये कौन उजबक जो ऐसी अनकहनी बात कह रहा है। हैरत उसकी आँखों से झाँकी और ज़ुबान से फूटी। ”इतने ही मिलेंगे!”

कहकर उसने दुबारा टेर मारनी चाही तो लल्लू लाल को याद आया कि उनके हाथ में लाठी है। उनने लाठी उठाई और धप से धरती पर धपका दी। बोले, “च्यों मिलेंगे इत्ते! सरकार कौ रुपैया सो राम कौ रुपैया। जा में ते ना काटनि देंगे एक धेला। एक रुपैया तो हमें चहिएं।”

जिसने सुना था अब वह देख भी रहा था। उसने लाठी देखी, लाठी वाला हाथ देखा, हाथ वाली देह और देह का नोकदार मूँछों वाला तावदार चेहरा देखा। उसने सूँघ लिया कि बात कुछ टेढ़ी है। समझाता हुआ बोला, “ताऊ ये दस्तूर है, एक रुपया कटकर मिलता है।”

लल्लू लाल को ये टालने वाला तौर न तो सुहाया, न उनकी समझ में आया। वे बोले, “कटि कें च्यों मिलेगौ? दसखत दस पे कराओगे, रुपैया नौ सरकाओगे। सो न चलेगी! हमें तो एक रुपया चहिएं।”

लल्लू लाल ने अपनी लाठी फिर से धपक दी। 

सुनने-देने वाला थोड़ा घबराया-सा लगा। 

लल्लू लाल के पीछे जो खड़ा था उसने भी शायद अपने नाम के आगे दस का अंक देख लिया था। दस रुपये की क्या औक़ात, हफ़्ते भर की बीड़ी का ख़र्च भी न निकले, सो वह कुछ-कुछ जल-भुन गया था। सो उसने भी लल्लू लाल के स्वर में अपनी ताल मिलाई, “चहिएं तो चहिएं!” और अपने खीसे से निकालकर बीड़ी सुलगा ली। 

लल्लू लाल न तो हटते दिखे न खिसकते। विनकी लाठी जहाँ धपकी थी, वहीं धपकी हुई थी। विनकी आँखें जहाँ टिकी थीं वहीं टिकी थीं–सुनने देखने वाले पर। 
सुनने-देखने वाला अब तक लल्लू लाल की आँखों में दो-तीन बार आँख डाल चुका था, और उसकी आँखें भीगी बिल्ली-सी वापस लौट आयी थी। कुछ लोग बेचैन होने लगे थे और कुछ लोग मज़े लेने लगे थे। बहुत देर से खड़े थे सो ऊब गये थे इसलिए उन्हें मज़े लेना और बेचैन होना भूख में चना-चबैना मिलने जैसा लग रहा था। देखने-सुनने वाले को इसी का डर लग रहा था। 

लल्लू लाल बोले, “ला भैया, हमें हमाओ रुपैया टिका, हम चलें औ अपओं काम देखें।”

देखने-सुनने वाला, मतलब कि पैसे बाँटने वाला धरम संकट से घिर गया। न दे तो ये उजबक टलेगा नहीं, दे तो दस्तूर टूटेगा। बाक़ी लोग भी फिर वैसा ही करेंगे। पैसा भी लेंगे और उसका मख़ौल भी उड़ाएँगे। मख़ौल की उसे कोई ज़्यादा चिन्ता नहीं थी, मगर पैसा! कोई ऐसा-वैसा होता तो वह डपट के भगा देता, मगर यहाँ तो सामने लाठी धपकी हुई थी, जैसे ख़ुद लाठी कह रही हो, पैसा दे, नहीं तो अपनी खोपड़ी पर मुझे ले। 

वह अपना पिंड छुड़ाने की ग़रज़ से बोला, “देखि ताऊ, हमारे हाथ दस्तूर से बँधे हैं। जो रही तुम्हारे एक रुपैया की बात तो वह हमारे पास नहीं तुम्हारे प्रधान के पास है। हमें तो रुपैया में पाई मिलै। पाई कहै तौ दै दें।” 

लल्लू लाल बोले, “बा पाई कूं तू रक्खि, तेरी जिन्दगी पार लगावेगी, तेरे लड़का-बच्चनि के काम आबेगी, हमें तो पूरौ रुपैया चहिएं।”

पीछे से आवाज़ आयी, “हम्बे पूरौ रुपैया चहिएं।”

देखनहार बोला, “तो जाओ प्रधान से ले लो उसी के पास है।”

“तो पिरधान कौन सौ आसमान ते टपकौ ए। हमाऔ रुपैया बाके पास ए तौ बापै ते लै लिंगे,” लल्लू लाल बोले, और धपकी लाठी उखाड़ी और पलट पड़े। 

एक आदमी साथ में हो लिया। उसने लल्लू लाल को समझाया, “दद्दू सुनी ए सरकार के हियां ते सौ निकरे हते, गाँव में आवत-आवत दस रहि गये। बाऊ में ते एक रुपैया और लै लयो।”

लल्लू लाल ने न ज़िन्दगी भर बेईमानी की, न बेईमानी सही। तिस पर ये कि बिनके भीतर के सत्त को बहुत दिनों से जागने का मौक़ा नहीं मिला था, एक रुपैया ने उनके सत्त को जगा दिया था, जो अब उनके भीतर लाठी फटकार रहा था। सो बिनने बाहर लाठी फटकारी और बोले, “दान धरम के सौ लै लेउ, पर सरकार कौ पईसा सो राम कौ पईसा, जा में ते अपनौ रुपैया ना लैन दिंगे। जि हमाए हक्क कौ रुपैया ए, जाइ ना छोड़ेंगे।” 

प्रधान अपनी चौपाल लगाये बैठा था। चौपाल का चबूतरा उसने हाल ही में चौड़ा करवाया था। पहले चार लोग बैठ पाते थे अब चौबीस बैठने लगे थे। जिनसे प्रधान को काम होता वे वहाँ आ जाते, जिन्हें किसी काम से कोई काम नहीं होता था वे वहाँ बने ही रहते। प्रधान की उगाही सम्भालते, प्रधान जिसकी चाहते उसकी पगड़ी उछालते, इज़्ज़त उनके लिए कोई चीज़ नहीं थी जिसकी जब चाहते उतार डालते। इलक्शन के दिनों में इन्हीं की चाँदी रहती, पूरी निष्पक्ष चुनावी प्रक्रिया इनकी बाँदी रहती। न ये प्रधान के बिना रह सकते थे न प्रधान इनके बिना, सो ये चौपाल पर जमे रहते, मन होता तो चौपटिया खेलते, वरना आपस में चांय-चांय तो करते ही रहते। 

तो जब लल्लू लाल अपने पिरधान की चौपाल पर पहुँचे तो सब चौकन्ने हो गये। गाँव और कुछ करे न करे मगर लल्लू लाल की इज़्ज़त करने में पीछे नहीं रहता था। लल्लू लाल के पीछे चलने वालों की भी कमी नहीं थी जैसे कि इस समय भी कुछ लोग विनके पीछे-पीछे चले आये थे। लौंडे-लफंगे उनसे डरते भी थे कि कब उनके सत्त से बौखलाया उनका सतफुटा लट्ठ किसकी कमर तोड़ दे, किसका कंधा उतार दे। प्रधान उनसे चिढ़ता भी था और दबता भी था। चिढ़ता इसलिए था कि गाँव के बहुत से लोग लल्लू लाल के साथ रहते थे उसके नहीं, और दबता इसलिए था कि कहीं उससे नाराज़ होकर लल्लू लाल ख़ुद पिरधानी के लिए खड़े न हो जायें। सो वह पीठ पीछे तो उनके लिए मुँह आया बकता था पर मुँह देखी चिरौरी करता था। इस समय मुँह देखी की बेला थी। सो प्रधान उन्हें देखते ही बोला, “राम राम कका!”

लल्लू लाल बोले, “राम राम तौ तेरी लै लई पिरधान पर जि बता मेरौ रुपैया कहाँ ए?” 

लल्लू लाल की बात न तो प्रधान समझा न प्रधान के लग्गे तग्गे। मुँह बायें लल्लू लाल का मुँह देखने लगे। लल्लू लाल समझ गये कि बिनकी बात बिनकी समझ में नहीं आयी सो अपनी तरफ़ से थोड़ा समझाकर बोले, “देखि पिरधान, जो सरकार कौ रुपैया सो राम कौ रुपैया जा रुपैया में ते हम काऊ ए कछू न लैन देंगे न दैन देंगे। कारिन्दे ने दस में ते नौ दये ऐं, कही ए एक रुपैया तेरे पास ए, सो हमाऔ रुपैया हमें टिका, हम चलें।”

लौंडे-लपाड़े फिस्स से हँस पड़े। 

लल्लू लाल ने धप्प से अपनी लाठी धपक दी। 

लौंडे-लपाड़े चुप भी हो गये और पीछे खिसककर लाठी की जद से बाहर भी हो गये। प्रधान न तो हँसा और न बोला। उसकी खेली-खाई अक़्ल तुरंत जान गयी कि ग़लती कहाँ हो गयी। आँख बंद करके जो लिस्ट बनाई थी उसमें लल्लू लाल भी लिस्टिया दिये थे। नाम इस चक्कर में डाला था कि लल्लू लाल बुरा न मान जायें। गाँव के बड़े-बड़े लोगों का नाम तो ग़रीबों की लिस्ट में, पर उनका नहीं, सो कहीं इज़्ज़त का सवाल न बना लें। पर यहाँ तो खेल ही उलट रहा था। अब करे तो क्या करे–भई गति साँप छछूंदर केरी। रुपैया दे तो किरकिरी न दे तो किरकिरी। फिर उसने सोचा, झूठ चले दो कोस, सच्चे की मार सौ कोस! क्यों न सच बोल दे। सो प्रधान बोला, “सुनो कका, सौ टंच पक्की और सच्ची बात जे है कै तिहारौ रुपैया हमारे पास नायें, बू तौ है तैसीलदार के पास। बा में ते कुल जमा पाँच पईसा होंगे हमारी अंटी में।” 

“तौ तेरे पास सच्ची में नांईं?” लल्लू लाल ने फिर अपनी लाठी धपक दी। 

“कका, तुम्हनि ते झूठ बोलूँ तों कीरा परें। मोऊ ए ऊपर बारे कूँ जवाब दैनों ए। काऊ ते झूठ बोलूँ, परि तुम्हनि ते न बोलूँगो . . . बस्सि पाँच पईसा होंगे। अब देखौ कका, खेती-किसानी ते घर चलि जाय बोऊ भौत ए। पिरधानी नाइं चल्ति। तुमई सोचौ अफ़सर आवें, नेता आवें, पाँच बेर हमैऊं ए जानौ परै, कबऊ तैसील जायें तो कबऊं थाने। कबऊं-कबऊं तो राजधानी ऊं जानौ पत्तु ए। जामें पईसा तौ खच्चु होतु ए कै नाईं?” प्रधान ने लल्लू लाल के आगे पूरी बात खोल दी। 

लल्लू लाल ने प्रधान का चेहरा देखा, चेहरे से आती हवा सूँघी। इस सूँघ में उन्हें खोट महसूस नहीं हुआ। पिरधानी के लिए पाँच पईसा तो चहिएं ही। उनने हिसाब लगाया, पैसा बराबर पाई कारिन्दे के पास, पाँच पईसा पिरधान के पास। बाक़ी बचे चौरानबे सो तैसीलदार के पास। तौ मतलब जे कि असल रुपैया तैसीलदार के पास ही है। 

लल्लू लाल ने उचारा, “सरकार कौ रुपैया सो राम को रुपैया। राम का रुपैया हों तैसीलदार पै ऊ ना छोडुँगो। बात सत्त-न्याय की ए।”

लल्लू लाल की वाणी की गहन गम्भीरता सबने महसूस की। 

लल्लू लाल का मन हुआ कि तुरत-फुरत तहसील जा पहुँचें। दो कोस दो घंटा में जा लगेंगे। पर रात घिर आयी थी। तहसील बंद हो गयी होगी। तहसीलदार घर चला गया होगा। सो उनने घोषणा की, “कल्लि पीरी फटे तैसील जाऊंगौ।”

तो हमारे लल्लू लाल चले आये अपनी बाखर में, कमर सीधी करने, भरपेट भोजन करने और रात भर की खुर्राटेदार नींद लेने। पर उधर प्रधान की चौपाल से लल्लू लाल का क़िस्सा कूदा तो चंद्रमा की उजिरिया होते न होते गाँव के हर पौठे बाखर में घुस गया। 

गाँव में प्रधान से हलकान बहुत से लोग थे। उन्हें लगा कि लल्लू लाल तहसील तक पहुँचेंगे तो चार लगाई बूझाई प्रधान की भी करेंगे, सो क्यों न उनकी हौसला अफ़ज़ाई की जाये। 

गाँव में ऐसे लड़कों का भी टोटा नहीं था, जो निठल्ले बैठे थे और जिन्हें न सरकार रोज़गार दे पा रही थी न सेठ-साहूकार। पूरा दिन इधर से उधर मठूलते-मचकते गुज़ारते, कुश्ती-दंगल न सही आपस में पंजा लड़ाई करते, थोड़ी बहुत छिनरई भी कर लेते। बहुत से बहुत दिनों से गाँव से बाहर नहीं निकले थे। लड़कों ने सोचा, क्यों न लल्लू लाल के साथ तहसील तक का चक्कर लगा लिया जाये। 

गाँव के बड़े बूढ़ों को लगा कि उनके साथ का एक योद्धा सत्त-न्याय की लड़ाई लड़ने जा रहा है। अब न्याय-धरम की लड़ाई हो और वे अपने योद्धा को विदा करने तक न जायें तो ऐसा तो जीवन ही बिरथा है। राम के नाम पर तो बंदर-भालू तक एक हो गये थे, वे तो परमेश्वर की किरपा से मनुख जौनि में हैं। 

प्रधान तक जब पलट सूचनाएँ आयीं तो उसने अपने पट्ठों को आदेश दिया कि लल्लू लाल के साथ जायें, चौकस निगाह रखें कि लल्लू लाल उसके ख़िलाफ़ कुछ उल्टा-सीधा न कर आयें, उसके दुश्मन इस मौक़े का कोई राजनीतिक फ़ायदा न उठा ले जायें, और उसके वोटर कहीं इधर से उधर पल्टी न मार जायें। 

गाँव की जनानियों, बैयर-बानियों के बीच तो और भी बड़ा अकाल पड़ा हुआ था। पौठे-टोले, जाति-बिरादरियों में बँटी जनानियाँ अपने मर्दों की इलक्शनखोरी और रोज़-रोज़ के लड़ाई-झगड़ों के चलते न आपस में हिल-मिल पा रही थीं न नाच-गा पा रही थीं। न हँसी ठिठोली कर पा रहीं थीं। उन्हें लगा कि लल्लू लाल न इस पार्टी में न उस पार्टी में, न इस जाति के न उस जाति के, सो क्यों न इस मौक़े पर एकजुट होकर सामूहिक बधावे गा लिये जायें, महीनों की मुराद पूरी कर ली जाये। 

पीरी फटे जब लल्लू लाल ने बाखर बाहर पाँव रखा तो सारा गाँव उनके दरवाज़े पर खड़ा था। आदमी-औरतें थे, तैयार होकर निकले बाँके छोरे थे, लल्लू लाल के मिस छोरों को देखने सजसंवर कर निकली चुलबुल छोरियाँ थीं, बड़े-बूढ़े थे, यहाँ तक कि घरों में हुई जगार से अधनींदे उठकर आये औंघियाते बच्चे भी थे। 

लल्लू लाल को देखते ही न जाने किस पट्ठे के उत्साह ने ज़ोर मारा कि उसने हाथ उठाकर बोल दिया, “बोल लल्लू लाल की।”

और पूरे गाँव ने ज़ोरदार जयकारा मारा, “जै!”

जयकारा तीन-चार बार और पुनरावृत हुआ तो लल्लू लाल का चौड़ा सीना और चौड़ा हो गया, उनकी मूँछें थोड़ी और तन गयीं। उनके हाथ की लाठी जैसे अपने आप सरसरा उठी। उनके मुँह से निकला, “तैसीलदार की ऐसी-तैसी, बू मैरो रुपैया देगौ, बा कौ बापु देगौ।”

एक बुज़ुर्ग दूरदर्शी था। वह अपने खीसे में रोली अक्षत डाल लाया था। उसने आगे बढ़कर लल्लू लाल के माथे पर रोली लगाई, अक्षत लगाया और कोदों की कटान पीछे उछाल दी। 

एक बार फिर जयकारा लगा! 

एक युवक को तत्काल याद आया कि ऐसे मौक़ों पर साथ वाले वही वेशभूषा धारण कर लेते हैं जो उनके नेता की होती है। अब धोती-बंडी तो वे पहनने से रहे पर नेहरू टोपी तो पहन ही सकते थे। समझदार लड़के ने एक टोपीधारी बुज़ुर्ग से निवेदन किया, “दद्द़ू आज भर कूं अपनी टोपी उधार दै दै।”

दद्द़ू ने आँखें तरेरीं तो लड़का चिरौरी पर उतर आया, और बोला, “हमायो नेता टोपी कौ, हम संग बारे बिन टोपी के, अच्छौ लगैगो का . . . गाँव की इज्जत की बात ए।”

बुज़ुर्ग को बात जँच गयी। गाँव की इज़्ज़त के आगे उसकी टोपी भर इज़्ज़त बित्ते भर की। उसने अपने हाथ से अपनी टोपी लड़के के सर पर रख दी। बस देखते ही देखते जिसके सर पर टोपी थी और जो तहसील तक नहीं जा पा रहा था उसने अपनी टोपी क़ीमती विरासत्त की तरह किसी न किसी लड़के को सिरान्तरित कर दी। 

अब टोपियाँ कम सिर ज़्यादा, सो किसी ने रुमाल बाँधा, किसी ने गमछा, किसी-किसी ने सर्दी के मौसम का मफ़लर इस मौसम में भी इस अंदाज़ में बाँध लिया कि सर पर कफ़न बाँध बीर बाँकुरे चल पड़े। हौंस भरे एक हुरकिया को जब कुछ नहीं मिला तो वह चुपके से बिलायंद भर का घूँघट निकाले खड़ी एक जनानी के पास जाकर फुसफुसाया, “भौजी, कछु कपड़ा लत्ता होइ तौ दै दै।”

भौजी ने कुहनी चलाई और उसे परे‌ टहोक दिया। 

इधर औरतों ने बधावा शुरू कर दिया—तुम जाओ लल्लू लाल रुपैया लैकें अइयों, रुपैया लैकें अइयों, हो रुपैया लैकें अइयों . . . 

मर्द भी पीछे नहीं रहे। उन्होंने सुर खींचकर आसमान तक पहुँचा दिया—रुपैया लैकें अइयों, रुपैया लैके अइयौं! हो तुम जाओ लल्लू लाल, रुपैया लैकें अइयों। 

लड़कों ने आगे तान जड़ी—कै सूली पै चढ़ि जइयों, कै रुपैया लैके अइयों, हो रुपैया लैकै अइयों, रुपैया लैकें अइयों, तुम जाऔ लल्लू लाल, रुपैया लैकें अइयौं। 

जुलूस गाँव के गौंड़े की तरफ़ बढ़ लिया। आगे-आगे लल्लू लाल और पीछे-पीछे नाचता ठुमकता, बधावे गाता, जयकारे लगाता पूरा गाँव। पर हुरकिया को सर पर बाँधने अब तक कुछ नहीं मिला था। सो उसने फिर भौजी से चिरौरी की, “भौजी, देखिलै ऊपर नीचे ते कहूँ ते निकारि कैं कछू लत्ता दै दै।” 

भौजी ने घूँघट से ही हुरकिया को देखा, फिर अपना बिलायंद भर का घूँघट हाथ भर नीचे गिराया, अपने पोलका में हाथ डाल बटन चटकाया और पलभर में अपनी चोली निकालकर अपने देवर के हाथ में दे दी, और फिस्स से हँस पड़ी! 

भौजी मस्त तो देवर मलंग! उसने चोली ली और मज़े से सर पर फेंट ली। जिसने देखा वह ठठा उठा। माहौल का वीर रस छपाक से हास्य रस की गोद में जा बैठा। और जुलूस हँसी ख़ुशी चल पड़ा। लड़कों को एक बात और सूझी। लल्लू लाल अपनी लाठी लेकर चल रहे थे, सो उन्होंने भी लाठियाँ लेने की ठानी। वैसे लाठियाँ लेकर चलना लड़कों के लिए फ़ैशन बाहर की बात थी पर आज की बात ही कुछ और थी। सो जिसको जैसी मिली उसने वैसी लाठी कबाड़ ली। जिसे लाठी नहीं मिली उसने अरहर की लौद सम्भाल ली। 

गाँव के गोंडे तक बूढ़े, औरत, मर्द, बच्चे सभी पहुँच गये! प्रधान को इस बात की सल नहीं पड़ी कि पूरा गाँव इस तरह आ जुटेगा। नींद टूटी तो उसने दिशा मैदान से पहले जुलूस की तरफ़ दौड़ लगाई। बधावों की लय उसके कानों में थिरकने लगी:

“चाएं विपति कितेकउ आवें परि पीछें ना पल्टइयों
तुम जाऔ लल्लू लाल, रुपैया लैकें अइयों! 
रुपैया लैके अइयों, गाँव में नाम कमइयों! 
हो तुम, जाऔ लल्लू लाल रुपैया लैके अइयों!” 

प्रधान को आते देखा तो प्रधान के पहले से पहुँचे हुए पट्ठों ने ज़ोरदार जयकारा मारा “पिरधान जी की!” केवल कुछ आवाज़ें आयीं “जै!” प्रधान बहुत दिनों से राजनीति खेल खा रहा था। उसने अपने गले का दुपट्टा उतारा और लल्लू लाल के गले में डाल दिया और नारा लगा दिया, “बोल लल्लू लाल की!” और इस बार जो जै! का जयकारा लगा वह गौंडे के पार फूट मुख्य सड़क तक जा पहुँचा। 

यहाँ से बूढ़े-औरतों-बच्चों के लौटने की पारी थी, सो वे हँसी-ख़ुशी लौट लिये। बाक़ी जो जवान थे, हुरियार थे, बेकार थे, होनहार थे, रार मचावनहार थे, सब लल्लू लाल के साथ आगे बढ़ लिये! यह बेमौसम जुलूस था, सबका साझा जुलूस था सो सबको मज़ा आ रहा था। 

राह भेंटते लोग पूछते कि “भैया कितें जाइ रह्ये औ?” तो एक साथ चार-पाँच आवाज़ें उद्घ़ोष की तर्ज़ पर गूँजने लगतीं “रुपैया लैबे।” फिर उत्सुक राहगीर पूरी बात जानने के लिए जुलूस की जौनि में शामिल हो जाते, और जब उनकी उत्सुकता ठंडी पड़ जाती तो चुपके से किनारे हो जाते। बहुत से ऐसे थे जो तहसील दिशा में जा रहे थे तो कुछ तहसील ही जा रहे थे। उन्होंने सोचा, सवारी का इन्तज़ार कौन करे, जुलूस के साथ ही निकल चलें। पैसे का पैसा बचे, पुण्य काम के जुलूस में शामिल होने का पुण्य मिले सो अलग! 

तहसील के आधे रास्ते तक जुलूस ख़ासा लम्बा हो गया। राह मिलते-देखते कुछ लोगों ने पुन्न की ख़ातिर अपनी टेंट में से कुछ पैसे निकालकर लल्लू लाल पर बार कर लल्लू लाल को ही दे दिये। राम का प्रसाद, सो लल्लू लाल ने दोनों हाथों की अंजुरी बना ग्रहण किये और माथे से लगा खीसे के हवाले किये। 

जिस बेला जुलूस से पहले जुलूस की ख़बर तहसीलदार तक पहुँची, उस बेला वह ज़मीन की रजिस्ट्री-पट्टों से हुई कमाई गिन रहा था। मुंशी-पेशकार उसके पास ही बैठे थे। ख़बरची नये ज़माने का था, टीवी के सनसनिया चैनल भी कभी-कभार देख लेता था। इसलिए ख़बर में थोड़ी सनसनी लगाना उसे थोड़ा आवश्यक लगा। उसने आवाज़ में थोड़ी भरभराहट, थोड़ी सनसनाहट, थोड़ी चिरवुआहट भरकर ख़बर दी कि अमुक गाँव का लल्लू लाल नाम का कौन विकट ख़लीफ़ा लाठी-डंडों, बल्लम-भालों से लैस हज़ारों लोगों के जुलूस के साथ तहसील की तरफ़ आ रहा है। तहसीलदार से हिसाब-किताब करने! हिसाब-किताब उसने एंकरिया अंदाज़ में ऐसे कहा जिसका सीधा-सरल अर्थ ‘काम तमाम करने’ का निकलता था। 

तहसीलदार के हाथ-पैर फूल गये। उसने क्या किया, कब साँप की बांबी में हाथ डाला? इलाक़े के जितने साँप थे, जितने बिल थे, जिनमें कोई नेताजी रहता था, कोई डकैत रहता था, अफ़सर ऐमैले का कोई रिश्तेदार रहता था, वह सब में दूध डालता रहता था और उसके साथ ऐसी मिठबोली रखता था कि डसने की बात तो दूर कोई फुंकारे भी नहीं। पर यह लल्लू लाल नाम उसने पहली बार सुना था, जो इस तरह बल्लम भालों से लैस हज़ारों लोगों को लेकर सरेआम उसे मारने आ रहा था। वह जल्दी-जल्दी दो बार अपने कक्ष के निजी शौचालय में हो आया। एक बार छोटे काम के लिए और एक बार बड़े काम के लिए। तीसरी बार फिर उसे दबाव महसूस होने लगा। 

पेशकार बोला, “साब, थाने को ख़बर कर दीजिए। थानेदार आपका तो यार है।”

तहसीलदार ने पेशकार को घूर कर देखा, कि वह सच कह रहा है कि मज़ाक़ उड़ा रहा है। सब जानते थे कि दरोगा उससे खार खाता था। उसने एक बार एक चहेती पतुरिया के चक्कर में दरोगा का ट्रांसफ़र करवाने की कोशिश की थी, भीतरी तौर पर। यह बात किसी तरह दरोगा को मालूम हो गयी थी। पर इस वक़्त नाक का नहीं जान का सवाल था, सो उसने पेशकार को ही थाने की तरफ़ दौड़ा दिया। उसने क्षेत्र के ऐमैले को फोन मिलाया तो मालूम हुआ कि साहब राजधानी चले गये हैं। 

हुआ यह था कि लल्लू लाल के जुलूस की ख़बर एम एल ए तक भी पहुँच गयी थी। उसका अचूक नुस्ख़ा था। ऊँट की करवट देख करवट ले, हवा का रुख़ देख रुख़ बदले। न उसे अभी करवट का पता था न रुख़ का सो वह अपने ठौर से ही करवट मार गया था। जब तमाशा देख लेगा तब तय करेगा डुगडुगी कहाँ बजानी है। 

क़ानून व्यवस्था का सवाल था सो दरोगा को कुछ न कुछ तो करना था। उसने पता लगा लिया था कि जुलूस में जो पचासेक लोग हैं न उनके पास बल्लम भाले हैं न कट्टे तमंचे। वैसे लौंडे लपाड़े हैं जो हाथ में डंडे-वंडे लिए हुए हैं। किसी-किसी ने हाथ में सरकंडा ले रखा है तो किसी ने बेशरम की लौद, जिनसे आदमी तो क्या चींटी तक न मरे। उसने यह भी पता लगा लिया था कि न वे मारपीट करने आ रहे हैं न उत्पात करने, बस तहसीलदार पर कुछ पैसा बनता है, वह लेने आ रहे हैं। 

दरोगा को एक तो अपने अधिकारियों को अपनी कुशलता का परिचय देना था और दूसरे तहसीलदार को कुछ सिखाना था। तो उसने ऊपर ख़बर भिजवाई कि उसने तहसील की क़ानून व्यवस्था को ख़तरे में डालने वाले लोगों से निपटने का पूरा इंतज़ाम कर लिया है, चिन्ता की कोई बात नहीं है, और इधर तहसीलदार से कहा, “तहसीलदार साब, ये क्या कर दीने। हज़ार हथियारबंद लोगों को रोकने के लिए मेरे पास पुलिस तक नहीं है। जब तक हेडक्वार्टर से फ़ोर्स आएगी तब तक तो पूरी तहसील तबाह हो जाएगी? उन लोगों ने हर सड़क की नाकेबंदी कर दी है। आपको निकाल भी नहीं सकता।”

तहसीलदार को लगा कि उम्मीद की आख़िरी डोर भी टूटी। उसे फिर दबाव महसूस हुआ। जब फ़ारिग़ होकर लौटा तो बोला, “भूलचूक लैनी-दैनी दरोगा जी। पुरानी बातें तो आपस में बैठके निपटा लेंगे। अभी तो आपको कुछ करना पड़ेगा।”

दरोगा पुराना घाघ था। जब वह भीतर मुस्कुराता था तो ऊपर पूरी कुटिलता उतार लेता था और जब भीतर कुटिलता कुलाँच भर रही होती थी तब ऊपर से मुस्कुराने लगता था और कभी-कभी गम्भीर भी हो जाता था। तो इस समय वह मुस्कुराते-मुस्कुराते गंभीर हो गया और बोला, “पैसे की ताक़त आप से अच्छी तरह कौन जानता है। कुछ तो उधर नक़दी चढ़वाइए, और कुछ जुलूस के लोगों की ख़ातिर तवज्जोह का इंतज़ाम करवाइए। अगर बात से काम निकल जाये तो लात की क्या जरूरत।”

तहसीलदार को जान की पड़ी थी माल की नहीं। माल तो फिर भी आ जाएगा, जान कहाँ से आएगी? उसने आज की सारी कमाई और जो कुछ उसकी पैंट की जेब में था दरोगा के हवाले कर दिया। पैसे जेब में डाल कर दरोगा बोला, “आप कुछ माला मिष्ठान मँगवा लीजिए। गाँव का आदमी है, आव भगत देख के पिघल जाएगा।”

दरोगा की बात तो तहसीलदार को जँची पर हज़ार लोगों की आवभगत का इंतज़ाम? पैसे तो सब दरोगा की जेब में थे। 

दरोगा ने उसे देखा और मुस्कुराते हुए बोला, “आप पचासेक का इंतज़ाम करवा लीजिए, बाक़ी जो हथियारबंद हज़ार लोग हैं उनको मैं बाहर ही रुकवाता हूँ।” कहकर दरोगा हज़ार हथियारबंद लोगों को रोकने के लिए रवाना हो गया। 

तहसीलदार ने अपने पेशकार कारिन्दों के आगे हाथ फैलाया, मर्जी-बेमर्जी जो हाथ लगा, उसे लेकर उसने एक कारिंदा माला-मिठाई लाने के लिए रवाना कर दिया। 

जब तहसीलदार ने बिना बल्लम-भाले केवल पचासेक लोगों को शान्ति से तहसील के दरवाज़े की तरफ़ आते देखा तो उसने मन ही मन दरोगा का आभार माना और पश्चाताप भी किया कि क्यों एक औरत के चक्कर में उसने दरोगा के ट्रांसफ़र की कोशिश की। और जब लल्लू लाल और उनके शिवगण तहसील के दरवाज़े पर रुके तो वह भी हैरत में रह गये। तहसीलदार ने ख़ुद आगे बढ़कर लल्लू लाल के गले में माला डाल दी। गणों ने जयकारा मार दिया, “लल्लू लाल की!” 

“जै” गण बोले! वहाँ खड़े तमाशबीनों का भी जै बोलने में कुछ नहीं जाता था, सो उन्होंने भी जय बोल दी। जब तहसील के कारिंदों ने जुलूस के लोगों के गले में मालाएँ डालना और उन्हें मिठाई के दोनों के साथ शरबत देना शुरू कर दिया तो कुछ तमाशबीनों ने भी माला डलवाने के लिए अपनी-अपनी गर्दनें आगे कर दीं। 

तहसीलदार बोला, “लल्लू लाल जी, आप इतनी दूर से चलकर आए हैं हारे-थके होंगे, पहले पानी-पत्ता कर लीजिए, फिर और बातें कर लेंगे, आप मेरे साथ मेरे कमरे में आयें, मेरा सौभाग्य होगा।”

लल्लू लाल ने सोचा, माला डाली सो ठीक, शरबत पिलाया सो ठीक, मगर उनका रुपैया। उन्होंने तुरंत अपनी लाठी धपक दी। मगर इससे पहले कि वह कुछ बोलते तहसीलदार ने विनय से उनका बिन लाठी वाला हाथ पकड़ लिया और बोला, “मुझ ग़रीब पर कृपा कीजिए लल्लू लाल जी! मेरे कमरे में चलिए। तब तक आपके साथी लोग भी नाश्ता-पानी कर लेंगे।”

लल्लू लाल ने अपने जुलूस को देखा जो माला पहन कर झूम रहा था और लड्डू शरबत से गाल भरे हुए था। लल्लू लाल की तरफ़ कोई देख भी नहीं रहा था। बाँस सरकंडे सबने फेंक दिये थे। जिनके पास वापसी लाठियाँ थी वे उन्होंने काँख में दबा ली थीं जिससे माल सपोरने में कोई कठिनाई न हो। अब लल्लू लाल भी इतने तंगदिल इंसान नहीं थे कि एक ग़रीब आदमी पर कृपा भी न कर सकें। रुपैया वसूली की बात तहसील के बाहर नहीं तो भीतर ही सही। लल्लू लाल तहसीलदार के साथ उसके कमरे में आ गये। 

तहसीलदार ने उनके लिए कुर्सी आगे कर दी, लल्लू लाल बैठ गये! फिर उन्हें ख़्याल आया कि बैठकर लाठी कैसे धपकेंगे, सो वह खड़े होने लगे पर तहसीलदार ने उन्हें आग्रह से फिर बिठा दिया। पेशकार ने तत्काल शरबत का गिलास, लड्डू की एक प्लेट और कुछ बड़े-बड़े पेड़े उनके आगे रख दिये। पेड़े लल्लू लाल की कमज़ोरी थे। देखकर तालू सुरसुरा जाता था सो सुरसुराने लगा! सोचा पहले पेड़ा खा लें लाठी बाद में धपक लेंगे। बैठे-बैठे भी धपक लेंगे। 

जब खा पीकर लल्लू लाल अफर गये तो उन्हें तहसीलदार कुछ भला मानुष प्रतीत हुआ। पर इसने उनका रुपैया क्यों रख लिया? सो लल्लू लाल बिना लाठी धपकाये बोले, “देखि तैसीलदार, देखनि में तौ तू भलौ आदमी लगतु ए परि जि बता तैनें मेरौ रुपैया क्यों राखि रखौ ए?” 

सवाल सुनकर तहसीलदार उजबक की तरह लल्लू लाल का मुँह ताकने लगा। 

“ना समझि परी,” लल्लू लाल बोले, “एक पाई कारिंदे के पास, पाँच पईसा पिरधान के पास, बाक़ी कौ रुपैया तेरे पास। जि बात काऊ और नै नांइ पिरधान ने बतायी ए।”

तहसीलदार अब भी उजबक की तरह उनका मुँह जोह रहा था। लल्लू लाल ने फिर उसे सारी बात बताई। बार-बार बोल-बोल बताई। जब बता चुके तो बोले, “जो सरकार कौ रुपैया सो राम कौ रुपैया! तेरे शरबत पेड़ा जा लंग, हमायो राम को रुपैया बा लंग। राम कौ रुपैया हों ना छोड़ूंगो।”

तहसीलदार समझ गया। मन हुआ कि इस उजबक को निकाल बाहर करे जिसे न सरकारी दस्तूर पता है, न लोक का चलन! पर उसे तत्काल उन हज़ार बल्लम-भालों से लैस लोगों की याद हो आयी जिन्हें भले दरोगा ने उसकी ख़ातिर रोक रखा था। 

लल्लू लाल फिर बोले, “हमायो रुपैया हमें टिका हम चलें।”

उसने सोचा अगर उसने लल्लू लाल का रुपया दे दिया तो उसके अधिकारी क्या करेंगे, उसकी खाल खींच लेंगे। एक पिद्दे से तहसीलदार को क्या हक़ कि एक सुस्थापित परंपरा को तोड़े। फिर लल्लू लाल के साथ वे हज़ार लोग भी उसे दिखाई देने लगे जो लल्लू लाल को रुपया मिलते ही अपना-अपना रुपया माँगने वाले थे। हज़ार को लाख में बदलते क्या देर लगेगी। तब तो बड़े-बड़े अधिकारी नेता सब बिक जाएँगे, पर रुपया पूरा नहीं पड़ेगा। इतनी बड़ी बला अपने सर क्यों ले? सो वह हाथ जोड़कर खड़ा हो गया। और बोला, “लल्लू लाल जी, सच्ची बात तो ये है कि आपका रुपया मेरे पास नहीं है। मैं तो छोटा-सा हूँ। मुझसे बड़े-बड़े लोग हैं–डिप्टी साब हैं, कलेक्टर साब हैं, ऐमैले साब हैं आप अपने रुपये के बारे में उनसे पूछें।”

इस बार लल्लू लाल ने सचमुच खड़े होकर लठिया धपक दी। इस धपक में तहसीलदार को हज़ार वर्दी-भाले दिखाई दिये जो उसकी चिंदियाँ बिखेर सकते थे। वह घिघियाकर बोला, “मेरी बात पर भरोसा करिये लल्लू लाल जी, मेरे पास तो रुपये में दस पैसे भी नहीं आते। मेरे भी बाल-बच्चे हैं। तमाम निजी और सरकारी ख़र्चे हैं। कभी इस अफ़सर की आवभगत कभी उस अफ़सर की, कभी नेता का सत्कार तो कभी मंत्री का, कभी इसे देना, कभी उसे। हमारा काम कैसे चलता है, हमी जानते हैं। आपका रुपया कलक्टर के पास होगा या विधायक जी के पास, आप उनसे पूछें।”

लल्लू लाल को तहसीलदार की बात भले न खरी लगी हो मगर उसकी घिघियाहट सौ टंच खरी लगी। सो वह बोले, “अब तोइ मरे भये कूं का मारें, तेरे पास तौ कुल्लि दस पइसा एं! अब उनीते बात करेंगे जिनि के पास हमायौ रुपैया ए।”

लल्लू लाल ने अपनी धपकी लाठी उठा ली और सीधे कलक्टर से रुपैया वसूल करने की ठानी, “कलक्टरू होगौ अपएं घर कौ, लल्लू लाल कौ रुपैया तौ दैनौ परैगौ।”

अब उसी दिन कलक्टर के यहाँ जाने की न सूरत थी न साइत सो लल्लू लाल अपने लौंडे-लपाड़ों के साथ गाँव को लौट पड़े। लल्लू लाल जब पहुँचे तब पहुँचे पर उनकी कीर्ति उनसे पहले वहाँ पहुँच गयी कि कैसे पूरी तहसील उनकी ख़ातिरदारी के लिए उमड़ पड़ी, कि कैसे थानेदार ने ख़ुद उन्हें तहसील तक पहुँचने का रास्ता सुझाया, कैसे तहसीलदार ने दरवाज़े पर लल्लू लाल को अपने हाथ से माला पहनाई और किस तरह जुलूस के लड़कों को जनवासे जैसा सत्कार मिला। 

जिसे एक माला मिली थी उसने दो बतायीं, जिसे एक गिलास शरबत मिला था उसने पाँच बताया और जिसे चखके मिठाई मिली थी उसने छकके बताई। गाँव में यह ख़बर भी फैल गयी कि भीतर तहसील में ले जाकर तैसीलदार लल्लू लाल के पाँव में गिर पड़ा, उनसे जानबख्शी की भीख माँगी, अपने बाल-बच्चों का वास्ता दिया, तब कहीं लल्लू लाल पसीजे। ख़बर यह भी फैल गयी कि लल्लू लाल का रुपैया तैसीलदार के पास नहीं कलक्टर के पास है, सो लल्लू लाल अपना रुपैया लेने कलक्टर के पास जाएँगे। और अगले दिन ही जाएँगे। 

जुलूस में जित्ते मुँह उत्ती बातें। जिसने भी मुँह खोला उसने लल्लू लाल के बाद ख़ुद को बड़ा मुख्तार बताया, जो हुआ था वह बताया ही बताया और जो नहीं हुआ वह भी बताया। जो नहीं गये थे उन्हें अफ़सोस हुआ कि लड्डू-पेड़े उनके मुँह से फिसल गये, मगर ख़ुशी भी हुई कि लल्लू लाल को उनका रुपया नहीं मिला था। मतलब साफ़ था कि जुलूस अगले दिन भी उठना था, जिसमें शामिल होने का पूरा-पूरा मौक़ा उन्हें भी मिलना था। प्रधान को ख़ुशी हुई कि वह लल्लू लाल को विदा करने वक़्त पर पहुँच लिया था। अगले दिन उसने और जल्दी पहुँचने की गाँठ बाँध ली। सबसे ज़्यादा ख़ुशी बैयर बानियों में थी जिनकी बधावेदार ख़ुशी आज शुरू होकर आज ही नहीं बिलायी थी। सहेली भायलियाँ कल भी जुटनी-जुड़नी थीं और कल उन्हें फिर बधावे गाने थे। 

गाँव के अधेड़ों-बुज़ुर्गों की ज़िन्दगी में बहुत दिन से कोई रस नहीं टपका था। आज की सुबह उन्हें भी बधावों में हुमक निकालने का मौक़ा मिला था, सो अगले दिन भी मिलना था। दूसरे, बहुत दिनों से उनके भीतर का सत्य और न्याय जो थोड़ा-बहुत सुबह जग गया था, अब गुलाटी मारने लगा था, उनके गाँव में पहली बार ऐसा हुआ था कि कोई सत्त की लड़ाई लड़ने निकला था। उन्होंने गाँधीजी का नाम सुना था, नेहरू जी का नाम सुना था, सरदार पटेल का नाम सुना था, जिन्होंने सत्त की लड़ाई लड़ी थी और नाम पाया था। इनके अलावा उनकी धरती के मोहरसिंह, माधोसिंह, मलखानसिंह जैसे बागी थे जिन्होंने सत्त की लड़ाई लड़के जस कमाया था। न गांधी-नेहरू उनके लिए ज़्यादा बड़े थे न मोहरसिंह-माधोसिंह ज़्यादा छोटे। जो जस कमाता था उस पर उनको नाज़ होता था। लल्लू लाल जस कमाने निकले थे, सो वो तो उनके ऐन गाँव के थे। उन पर नाज़ तो होना ही था। कुछ बुज़ुर्ग आज गाँव के गोंडे तक भी नहीं गये थे। उनने गाँठ बाँध ली कि अगले दिन गौंडे तक तो जाएँगे ही जाएँगे। 

तहसील विजय दिवस के समापन के बाद यह कलक्टर विजय दिवस की शुरूआत थी। आज की सुबह ज़्यादा उमंगों वाली थी। सूरज की उजास कुछ ज़्यादा ही निराली थी। गाँव तो गाँव आज आन गाँव के औरत-मर्द भी आ जुटे थे। लाठियाँ भी ख़ासी दिख रही थीं और टोपियाँ भी। पोशाकों की छटा ज़्यादा निखरी हुई थी, लोगों के चेहरे ज़्यादा खिले हुए थे। ढ़ोल-तांसे वाले भी आ जुटे थे। बच्चों के खिलौने बेचने वाला झुंका आ गया था। तो रेवड़ी बताशे की रेहड़ी लगाने वाला सुकना। गाँव के किसी घर में शायद ही कोई अभागा होगा जो ओंघता रह गया होगा, नहीं तो दुधमुँहे तक अपनी महतारियों की छातियाँ चुसकते चले आये थे। 

लल्लू लाल घर से निकले नहीं कि ढोल तांसे बजने शुरू हो गये, जयकारे लगने शुरू हो गये, बधावे गवने शुरू हो गये। ढोल की थाप पर बैयर-बानियों ने बाद में नाचना शुरू किया छोरों ने पहले कमर मटकाना शुरू कर दिया। छोरियाँ भी ठुमके लगाने लगीं। घूँघट वाली भौजी ने नाच का घेर मारा और घूँघट में उँगली फँसा इधर-उधर नज़र भी मार ली। आज वह एक के ऊपर एक दो चोलिया~म पहन आयी थी। पर कल का मलंग देवर न जाने किसकी उतरी टोपी तिरिछिआये हुए था। 

जुलूस शुरू हुआ तो प्रधान विरोधियों को कुछ राजनीति-सी सूझी और उन्होंने रेहड़ी वाले से बतासे रेबड़ी ख़रीद जुलूसियों को बाँटने शुरू कर दिये और सबसे पहले मुँह मीठा कराया लल्लू लाल का। प्रधान को अफ़सोस हुआ कि ऐसी बात हमेशा उसे पहले सूझती थी पर आज क्यों नहीं सूझी। उसने तुरंत अपने पट्ठे दौड़ा दिये कि कोस भर जुलूस पहुँचे तो वहाँ उसकी ओर से सबके पान-पत्ते का इंतज़ाम हो जाये। 

गाँव के गोंडे पर आकर जहाँ से बड़े-बूढ़ों, बैयर-बानियों और बाल-गोपालों को वापस होना था वहाँ ढोल-झाँझ का, ठुमके और नाच का, उछाह और सत्त की आँच का वो समा बँधा जो इससे पहले किसी के इलक्शन में भी नहीं बँधा था। बधावे और जयकारे सुनकर दो-दो कोस के गाँव नगले तो जागे ही खेत-खलिहान तक जाग गये। व्यापारियों के दलाल जाग गये। अधिकारियों के कारिंदे जाग गये। नेताओं के दुमछल्ले जाग गये, यहाँ वहाँ सोये पड़े ढोर जिनावर जाग गये, पेड़ों में छिपके पड़े परिंदे जाग गये। ज़नानियाँ गा-नाच कर गाते-नाचते लौट गयीं। और बधावे के बदले सुर छोरों ने सम्भाल लिये:

“अरे, चलि दये लल्लू लाल रुपैया अपनौ लैबे
रुपैया अपनौ लैबे, होऽऽ रुपैया अपनौ लैबे
अरे चल दये लल्लू लाल रुपैया अपनौ लैबे
राम कौ रुपैया लैके आवें, पक्की मन में ठानी
न्याय सत्त की विजय होति ए कहि गये ग्यानी ध्यानी
हो न्याय सत्त कौ जज्ञ करौ ए जा में आहुति दैवे
हो चल दये लल्लू लाल रुपैया अपनौ लैबे”

एक मील चलते न चलते यह बधावा लल्लू लाल के अभियान गीत में बदल गया। ढोल-तांसे, झाँझ-मंजीरा बजाते नाचते गाते हुरकियों ने जुलूस आगे बढ़ाया तो साक्षात्‌ शिवजी की बारात धरती पर उतर आयी। 

उधर प्रधान ने जुलूसियों के सत्कार के लिए कोस भर दूर जो अग्रिम व्यवस्था दस्ता भेजा था उसमें तीन-चार वे लौंडे भी थे जो पिछले दिन माला पहनकर शरबत सूंत आये थे, लडुआ सपोर आये थे। सो सबसे पहले उन्होंने जो इंतज़ाम किया था वह जुलूसियों के लिए माला का था। चार फूल आक के, चार फूल ढाक के, दो फूल गेंदा के दो फूल झरबेंदा के, माला तैयार। 

प्रधान का एक पट्ठा दूसरे से बोला, “आज ससुर ऐंचे-पेंचेनि कूं माला पैहनानी परैगी।”

दूसरा पट्ठा पहले से ही जलाभुना बैठा था, “देखिलै मेंड़ जवार कोंच लगी होइ तौ! डारिदे माला में, खुजावत, खुजावत ससुन्नि के पिरान निकर जांगे।”

“कहै तो शरबत में दस्तावरि मिलाइ दऊं!” पहले ने सुझाव दिया। 

छोरों की हँसी-ठिठोली और माला-मिठाई की तैयारी के बीच, खेत खिरानी, हाट बाज़ार के लिए निकले लोग रुक-रुक कर पूछने लगे, “काइ बात की तैयारी चल रई ए छोरा औ!”

एक का मन हुआ कि कह दे कि “तेरी मौड़ी के ब्याह की” पर ये ऐसी ठट्ठई का वक़्त नहीं था। पर ठट्ठई, तो ठट्ठई सो बोला, “हमाए लल्लू लाल संत महात्मा है गये हैं। कलक्टर नै बिने दर्शन दैवे कूं बुलायो ए। सो कलक्टर कूं आसीरबाद दैवे जाइ रहे एं!”

सुनने वालों को न ठट्ठई का पता चला न छोरों की मलंगई का। उनने एक कान सुनी दस मुँह निकाली, आस-पास ख़बर फैल गयी कि कोई बड़े महात्मा कलेक्टर को वरदान देने निकले हैं। जो कलक्टर को वरदान दे, उससे बड़ा महात्मा कौन और जो बड़े महात्मा का दर्शन न पावे उससे बड़ा पापी कौन। पाप लेने की हिम्मत किसकी सो जिसने सुना वहीं रुक गया। 

छोरों ने तुरन्त पाप में से पुन्य खेंचने की जुगत कर डाली। एक ने अपनी लाल स्वाफी वहीं ज़मीन पर बिछा दी, और जेब में से चार सिक्के निकाल स्वाफी पर डाल दिये और नारा मार दिया, “जै महात्मा के भण्डारे की।”

देखते ही देखते स्वाफी पर सिक्कों की खन्न-खन्न सुनाई देने लगी। लड़कों को अपनी मेहनत वसूल होती दिखाई दी। जब तक लल्लू लाल की अगुआई में जुलूसिये वहाँ तक पहुँचते तब तक अच्छी ख़ासी भीड़ भी जुट गयी थी और थोड़ा बहुत पैसा भी। स्वाफी सही वक़्त पर उठा ली गयी। और लल्लू लाल को देखते ही ज़ोर का जयकारा मार दिया गया, “बोल महात्मा लल्लू लाल की!” और भीड़ ने खुले कंठ से नाद किया, “जै!”

भीड़ महात्मा की चरण रज लेने को हुड़िया पड़ी। 

भीड़ ने अभियान गीत भी सुना–चलि दये लल्लू लाल, रुपैया अपनौ लैबे। 

पर भीड़ को चरण रज लेने की चिंता थी। अभियान गीत का अर्थ समझने की नहीं। 

स्वागत सत्कार के बाद जब जुलूस आगे बढ़ा तो जुलूसियों की संख्या दो गुनी हो गयी थी। लोग आगे की सोचकर कलेऊ बाँध लाये थे, उन्हें पछतावा होने लगा। न यहाँ खाने की कमी होनी थी न पीने की। 

जुलूस आगे बढ़ता गया और ‘जाकी रही भावना जैसी प्रभु मूरत देखी तिन तैसी’ के अनुसार लल्लू लाल की ख्याति भी सड़क के रास्ते ज़िला मुख्यालय की ओर बढ़ती रही। मौज-मस्ती में डूबे जुलूसियों को चुनावी जुलूसों की तरह न किसी को गरियाना पड़ रहा था, न किसी को पतियाना पड़ रहा था। यह लल्लू लाल के सत्त का शुद्ध आनन्द था जिसमें सब डुबकियाँ लगा रहे थे। 

ज़िला मुख्यालय पर इस बढ़ते आते जुलूस को लेकर हड़कंप मचा हुआ था। लल्लू लाल नाम के इस आदमी का नाम न तो सत्तापक्ष की ओर से कभी आया था, न कभी किसी विपक्षी पार्टी ने इस नाम को उछाला था। कलक्टर और एस.एस.पी. के पास जनता छोड़ बाक़ी सबसे संपर्क रखने वाले जन नेताओं, बड़े-बड़े प्रतिष्ठित असामाजिक तत्वों, अधर्मकांडी बड़े-बड़े धर्मगुरुओं, सरकार चलाने वाले तस्करों, चुनावों में चकराने वाले बड़े-बड़े गिरोहों, शान्ति के साथ अशान्ति फैला सकने वालों, क़ानून व्यवस्था के नाम पर क़ानून व्यवस्था का संकट खड़ा कर देने वालों आदि की पूरी सूची मौजूद थी, पर किसी भी सूची में कहीं भी लल्लू लाल नाम दर्ज नहीं था। 

डी.एम. और एस.एस.पी. दोनों ही को अपने-अपने मातहतों की रपटें मिल चुकी थीं, और दोनों ही उनका बहुत बारीक़ी से अध्ययन कर चुके थे। तहसीलदार की रिपोर्ट डी.एम. के पास थी जिसमें उसने लिखा था कि कैसे लल्लू लाल नाम का यह आदमी हज़ारों हथियारबंद लोगों को लेकर तहसील में आग लगाने के इरादे से तहसील के दरवाज़े तक आ गया था, कैसे उसने पूरी प्रशासकीय क्षमता का इस्तेमाल करके आग लगाने पर आमादा उसके समर्थकों को समझा-बुझा कर शान्त किया और कैसे उसने उग्र हमलावरों के नेता लल्लू लाल को चपरासी से अंदर बुलवाकर उसका ब्रेनवाश किया, और अंततः उसे बिना कुछ नुक़्सान के समझा-बुझाकर वापस भेज दिया। रपट में यह भी उल्लेख था कि इस आदमी से निपटने में पेड़े बहुत अहम भूमिका अदा करते हैं। उसके कमरे में पेड़ों की प्लेट देखकर इस आदमी ने उसमें से उठाकर एक पेड़ा खा लिया था। उसके बाद तो वह एकदम ठंडा होकर बात करने लगा था। रपट में दरोगा की भूमिका की भी तारीफ़ की थी जिसने केवल कुछ सिपाहियों के साथ बहादुरी से मुक़ाबला करते हुए हज़ारों हथियारबंद लोगों के हथियार रखवा लिये थे। 

दरोगा की रिपोर्ट एसएसपी के पास थी जिसमें उसने तहसीलदार की रिपोर्ट की ताईद की थी। लिखा था श्रीमान जी की कृपा से हम इतनी ख़तरनाक गिरोहबन्द हथियारबन्द भीड़ को क़ाबू में करने में सफल रहे। श्रीमान के अनावश्यक बल प्रयोग न करने के बेहतरीन आदेश का पालन करते हुए हमने बल की जगह अक़्ल का प्रयोग किया। पूरी भीड़ को हमने घेर लिया। भीड़ को अपने-अपने हथियार ज़मीन पर रख देने के आदेश के साथ समझाया। सबने आदेश का पालन करते हुए हमारी बात समझ ली। हमने समझाने के लिए यह आदेश भी दिया कि आगे वे कभी कोई धारदार हथियार-तमंचा लेकर न निकलें। हमारे इस आदेश को भी उन्होंने ठीक तरह से समझ लिया। हमारी जानकारी के मुताबिक़ यह लोग आगे हथियार नहीं रखेंगे। उन्होंने लाठी रखने की फ़रियाद की सो श्रीमान जी का बल प्रयोग न करने की बात ध्यान में रखते हुए हमने मान ली। श्रीमान जी की कृपा से यहाँ थाना-तहसील सब पूरी तरह सुरक्षित है। लॉ-आर्डर का कोई प्रॉब्लम नहीं है। 

डी.एम. ने सोचा, तहसीलदार को पूरा मामला वहीं निपटा देना चाहिए था, यहाँ तक बढ़ने ही नहीं देना चाहिए था। फिर सोचा, तहसीलदार इतनी ही अक़्लवाला होता तो तहसीलदार की जगह ए.डी.एम. न होता। यही बात एस.एस.पी. ने भी सोची कि दरोगा ने जब इतनी बहादुरी से इतना बड़ा काम किया था तो थोड़ी-सी अक़्ल का और इस्तेमाल करके मामले को वहीं पूरी तरह ख़त्म कर देना चाहिए था। फिर सोचा, दरोगा इतनी अक़्ल वाला होता तो एस.पी. न हो गया होता। अब मुख्यालय के दरवाज़े पर बड़ा हुजूम टक्कर मारने को था। और उन्हें ही सारे मामले से निपटना था। उसने मन ही मन दरोगा की तारीफ़ की कि उसने हथियारबन्द लोगों को निहत्था कर केवल लाठी-भीड़ में बदल दिया था। लठिया लोगों से निपटने में पुलिस को कोई दिक़्क़त नहीं आने वाली थी। 

पर बेहथियार भीड़ को खदेड़ने-मारने का संकट यह होता है कि बाद में मीडिया और जनसंगठन निहत्थी भीड़ पर पुलिस की बर्बरता का आरोप लगाकर पुलिस को मुसीबत में डाल देते हैं। लोगों के पास कट्टे-तमंचे हों तो पुलिस को उन्हें बदमाश बताने में आसानी होती है। बदमाश बताने के लिए उन्हें अपने पास कट्टा-तमंचों का स्पेशल स्टॉक रखना पड़ता है। दरोगा को कम से कम कुछ लोगों के पास तो कट्टे-तमंचे छोड़ ही देने चाहिए थे। पर अब क्या हो? 

अधिकारियों की आपात बैठकें हुई और तय पाया गया कि जो प्रयोग तहसील पर किया गया था, वही ज़िले में भी किया जाये। जुलूस के नेता और जुलूसियों को समझा-बुझाकर वापस कर दिया जाये। पर इतनी बड़ी भीड़ का क्या ठिकाना, पता नहीं किस उत्पात पर उतर आये इसलिए तय पाया गया कि ऑपरेशन लल्लू लाल की कमान स्वयं एस.एस.पी. सँभालें और ज़िले की हद पर ही जुलूस को रोक लें, शहर में न आने दें। अकेले लल्लू लाल को यहाँ ले आया जाये और जैसे तहसीलदार ने समझाया था वैसे ही समझा दिया जाये। लेकिन जुलूस की जैसी ख़बरें आ रही थीं वे सारे अधिकारियों को डरा रही थीं। स्थानीय एम एल ए ने जो क्षेत्र बाहर की उछाल मारी थी उसकी अभी तक वापसी नहीं हुई थी। 

एस.एस.पी. साईं बाबा का भक्त था। पिछले दिनों उसने बाबा का जो उपदेश भाव विभोर होकर सुना था उसमें ग़रीबों पर दया दिखाने का ज़िक्र था। उपदेश का अभी तक असर था। इसलिए वह आज मारपीट करने के मूड में नहीं था। मगर ड्यूटी तो ड्यूटी, जाना तो था ही। सो उसने अच्छी ख़ासी फ़ोर्स के साथ वहाँ मोर्चा सम्भाल लिया जहाँ से जुलूस को अंदर घुसना था। 

डी.एम. को आज का संकट कुछ ज़्यादा ही भारी लग रहा था। वह प्रशासनिक काम को बड़ी आसानी से कर लेता था, लेकिन लोगों को समझाना-बुझाना उसे बहुत मुश्किल काम लगता था। ख़ास तौर पर रंग-रंग के नेताओं को। टुच्चे-टटपुंजिए नेताओं से बात करते समय उसे ग़ुस्सा ज़्यादा आता था, और जाकर गाल पर चार-छः ज़ोरदार तमाचा जड़ देने की इच्छा को बलपूर्वक दबाना पड़ता था। इसलिए वह समझाने-बुझाने और वार्तालापीय कार्यों में प्रायः मिसेज डी.एम. की मदद लेता था। इस मामले में वह मिसेज डी.एम. का आभारी था। मिसेज डी.एम. न केवल मज़े से नेताओं को समझा-बुझा लेती थीं बल्कि सेक्रेटरियों, मंत्रियों, कॉर्पोरेट के बड़े-बड़े लोगों से भी बड़ी आसानी से और बड़े मज़े से बात कर लेती थीं। और उन्हें वैसे ही समझा लेती थीं जैसे डी.एम. समझवाना चाहता था। सो उसने लल्लू लाल को समझाने-बुझाने की ज़िम्मेदारी भी मिसेज डी.एम. पर डालने का मन बना लिया। 

जब तिलक रंगे और माला ढंके लल्लू लाल ज़िला शहर के दरवाज़े पर पहुँचे तब तक उनके मौंड़े जगह-जगह मिले परसादिया स्वागत सत्कार से ख़ासे अफ़रा चुके थे। बीच-बीच में आराम विश्राम भी करते रहे थे, पर फिर भी थक-से गये थे। अभियान गीत का ज़ोर भी मंदा गया था। कुछ लोग जो फौरिया पुन्न कमाने के लिए महात्मा लल्लू लाल की सत्त यात्रा में शामिल हुए थे अपने-अपने हिस्से का पुन्य कमाकर वापस लौट चुके थे। रास्ते में मिलने वाले पैसों पर लौंडें-लपाड़ों की बुरी नज़र देख, पैसे सँभालने का काम लल्लू लाल ने अकेले दम ख़ुद सम्भाल लिया था, इसलिए भी बहुत-से लौंडो-लपाड़ों का उत्साह कम हो गया था। ऐसे भी कुछ बीच से लौट गये थे। ढोल-मंजीरे भी बज-बजकर थक चुके थे। उनने सोच रखा था कि आख़िरी बजावा ऐन कलक्टर के कान में करेंगे। सो अब वे भी मरी चाल से चल रहे थे। टोपियों में पसीना भर गया था सो ज़्यादातर ने वे भी उतारकर हाथ में ले ली थीं या जेबों में खोंस ली थीं। जुलूसिए अब आख़िरी दृश्य का इन्तज़ार कर रहे थे, वो भी वे जो लल्लू लाल के गाँव के थे। जो रस उन्हें तहसील विजय की गाथा गाँव में सुनाने में मिला था, उसी रस का आनन्द वे एक बार फिर लेना चाहते थे। 

अब वे वहाँ खड़े थे जहाँ वे इस पार और शहर उस पार। सो उनने एक बार ढोल पर थाप डाली और झाँझ खनका दी:

“अरे, चलि दये लल्लू लाल रुपैया अपनौ लैबे
रुपैया अपनौ लैबे, हो रुपैया अपनौ लैबे”

एस.एस.पी. अपनी सुस्त फ़ोर्स के साथ सुस्त-सा खड़ा था। उसके कानों में लल्लू लाल का नाम पड़ा तो दन से चुस्त हो गया। उसे माला लदे लाठी वाले आदमी के पीछे एक रास-मंडली सी आती लगी। वह विराट जुलूस और उन ख़ूँख़ार लोगों की भीड़ कहाँ है जो तहसील को जला देने वाली थी और अब शहर में आग लगाने वाली थी? क्या यह रास मंडली? उसे अपनी बेइज़्ज़ती-सी होती मालूम हुई कि इन लोगों के लिए एस.एस.पी. साब इतनी तगड़ी फ़ोर्स लेकर मोर्चा लिये हुए थे। डी.एम. को मालूम होगा तो हँसेगा। उसे तेज़ ग़ुस्सा आया, स्साले चार-पाँच सौ भी नहीं आ सकते थे। पर अब क्या करें? अपनी इज़्ज़त कैसे बचाएँ? उसे तुरन्त पुलिसिया हथकंडा याद आया। वह बड़ी मुस्तैदी से अपने वायरलैस सेट पर बात करने का बहाना करने लगा, फिर अपने पास खड़े मातहतों को सुनाने के लिए ज़ोर-शोर से बोलने लगा—हाँ डिड वैल? सारे जुलूस को वहीं रोक लिया, चलो अच्छा हुआ . . . उसने यह बताने की भरपूर कोशिश की कि यहाँ की फ़ोर्स के अलावा उसने एक दूसरा इंतज़ाम कुछ दूर पहले कर रखा था। जो सफल हो गया था। 

एक मातहत ने थोड़ा-सा हँसने के लिए मुँह दूसरी तरफ़ घुमा लिया। हँसी पूरी होने के बाद वह पलटा और बोला—“सर अच्छा हुआ, वहीं रोक लिया। टेंशन ख़त्म हुई। अब इस लल्लू लाल को उठवाकर कलक्टर साब के पास भिजवा दीजिए।” 

एस.एस.पी. ने ग़ुस्से से अपने मातहत को देखा, पर तुरंत उसे साईं बाबा की याद आ गयी और वह ठहाका मारके हँस पड़ा। मातहत ने भी उसकी हँसी में इस बार बाक़ायदा सलामी अन्दाज़ में साथ दिया। 

इधर जुलूसियों को थानेदार द्वारा तहसील का रास्ता सुझाने की याद आयी। और एक ने सीधे आकर मातहत से पूछ लिया, “कलक्टर के घर कौ रस्ता कितकूं एं?” 

मातहत के मुँह से निकला, “तेरी माँ की . . . ” मगर वह अपने अधिकारी की तरफ़ देखकर असली शब्द को बाहर निकलने से पहले ही चबा गया। “क्या करना है,” की मुद्रा में कप्तान साहब की ओर देखने लगा। 

तब तक लल्लू लाल भी आ चुके थे। एस.एस.पी. ने इस बार लल्लू लाल का चेहरा ग़ौर से देखा। यह उजबक! उसका एक बार फिर ठहाका लगाने का मन हुआ पर अपनी बड़ी अफ़सरी का ख़्याल कर रुक गया। वह बोला, “नमस्कार लल्लू लाल जी! आपकी यात्रा ठीक रही होगी। डी.एम. साहब आपका इन्तज़ार कर रहे हैं। आप इस गाड़ी में बैठिए, गाड़ी आपको पहुँचा देगी।”

एस.एस.पी. ने अपने मातहत से कहा, “इन्हें डी.एम. साहब के पास ले जाओ। बता देना जुलूस को कंट्रोल कर लिया है। लल्लू लाल जी से एकदम पाज़ीटिव बात करें।”

मातहत समझदार था, सो उसने थोड़ा सुना, ज़्यादा समझा! उसने लल्लू लाल की लाठी जीप में रखवाई, उन्हें जीप के भीतर घुसने में मदद की और जीप डी.एम. आवास-सह-कार्यालय की ओर बढ़ा दी। 

दूसरे मातहत ने जुलूसियों की तरफ़ इशारा करके पूछा, “सर, इनका क्या करें?” 

“इन्हें वैन में बिठाओ, मेरे बँगले पर ले जाओ। ये लोग ढोल मँजीरे बहुत अच्छा बजाते हैं। बीवी-बच्चों ने कभी कोई देशी म्यूज़िक नहीं सुना है आज सुनवाते हैं।” एस.एस.पी. ने मुस्कुराते हुए कहा। सोचा, जब तक डी.एम. के यहाँ बातचीत चलेगी तब तक इनके ढोल मँजीरों पर साईं बाबा के भजन सुनेगा। 

मातहत ने ज़ोरदार सेल्यूट मारा, “जी, सर!” फिर उसने सारे जुलूसियों को वैन में बैठने के लिए आदेश पारित कर दिया। वैसे ऐसे मौक़ों पर पिछाई पर डंडे मार-मार कर वैन में धकेल-खदेड़ कर बिठाने की पुरानी परिपाटी थी। उसे यह परिपाटी तोड़नी पड़ी, एक तो इसलिए कि साहब का मूड इसकी इजाज़त नहीं दे रहा था, दूसरे इसलिए कि जैसे ही आदेश मिला सारे जुलूसिये वैनों में घुसने के लिए टूट पड़े जैसे किसी को घुसने में पलक झपे की भी देर हो गयी तो वैन उसे छोड़कर चली जाएगी। 

पलभर में सारे जुलूसिए वैन में ठँस गये। 

एस.एस.पी. साहब का आदेश हुआ, “इन्हें ले जाओ और रास्ते में छक्कू की दुकान पर बोलते जाना, पूड़ी-सब्जी और कुछ मिठाई-सिठाई घर भिजवा दे।”

फ़ोर्स को लौटने का आदेश हो गया। एस.एस.पी. ने चैन की सिगरेट सुलगा ली। वह अब काफ़ी रिलैक्स फ़ील कर रहा था। साईं बाबा के भजन उसे याद आ रहे थे। 

इधर जीप लल्लू लाल को डी.एम. के बँगले पर ले आयी। मातहत को इस लंठ को देख-देखकर भीतर ही भीतर खुजली हो रही थी। पर वह अपनी इस खुजली को बाहर नहीं निकाल पा रहा था। दो बार खुजली उफनाई कि लाठी समेत इसे जीप से बाहर धकेल दे, पर जब ख़ुद कप्तान साहब इसके साथ इज़्ज़त से पेश आये थे और डी.एम. साहब के लिए संदेशा भिजवाया था कि कुल जमा पाज़िटिव बातें करें, तो इसका मतलब साफ़ था कि यह खूसट कोई ऊँची चीज़ ज़रूर था। हो सकता है किसी मंत्री-संत्री का कोई रिश्तेदार-विश्तेदार हो। सो उसने अपनी खुजली को क़ाबू में रख एस.एस.पी. के कहे शब्द कुछ और सेर-बांट रख के डी.एम. साहब के कान में उतार दिये। डी.एम. साहब ने ये शब्द मिसेज डी.एम. के कान में उतार दिये। 

लल्लू लाल ने जीप से उतरने से पहले अपनी तिरछी रखी लाठी खींचकर हाथ में सीधी कर ली और उतरते ही बोले, “कितें एं कलक्टर?” 

यहाँ डी.एम. का मातहत पहले से तैयार खड़ा था। उन्हें बाइज़्ज़त बामुलाहिजा मुलाक़ात कक्ष में ले आया। उसने निवेदन के साथ लल्लू लाल जी को सोफ़े पर बैठा दिया। उनकी लम्बी खड़ान से एक फुट लम्बी लाठी उनकी बिठान से चार फुट ऊँची निकल झंडे की प्रतीक्षा में खड़ी किसी बल्ली की तरह तन गयी। 

लल्लू लाल फिर कुछ पूछते इससे पहले ही मातहत बोला, “आप बैठिए! मेमसाब अभी आ रही हैं।”

लल्लू लाल का माथा ठनका। कलक्टर मेमसाब कैसे? वे तो कलक्टर से रुपैया लेने आये थे, फिर मेम साहब . . . तभी उन्हें अपनी आँखें चौंधियाती सी लगीं। एक जनी हाथ जोड़े उनकी तरफ़ आ रही थी। उधर उस जनी की आँखों में हैरत उतरी और पाँव ठिठक गये। ये उजबक कौन? उन्हें अधिकारियों, विधायकों, मंत्रियों, व्यापारियों, पत्रकारों से बात करने में महारत हासिल थी। पर ये कौन? कई बार उनकी नज़र उजबक पर पड़ी और कई बार उजबक की लाठी पर। उन्होंने हाथ जो जोड़े तो जुड़े हाथ खोलना ही भूल गयीं। 

इधर लल्लू लाल शशोपंज में! ऐसी सजी-धजी मूरत उनने एक बार एक कलैन्डर में देखी थी जो उनका भतीजा घर में ले आया था, उन्होंने वह कलैन्डर घर से बाहर निकलवा दिया था। पर इस मोहनी मूरत का क्या करें जो कलैन्डर में से निकल साक्षात्‌ उनके सामने अवतरित हो गयी थी। उन्हें मोहनी मूरत की बाँसुरी में से निकलती आवाज़ सुनाई दी, “नमस्ते।”

लल्लू लाल ने बदले में हाथ तो जोड़ दिये मगर उनका दिमाग़ चक्कर खाने लगा। उनका रुपैया इसी के पास है? सोचा, जा के पास नाइं तो फिर जि च्यों आई ऐ! उन्होंने बोलने के लिए मुँह खोलना चाहा तो अटक गये कि कहें तो क्या कहें . . . न तो यह उन्हें अपनी देखी व्यौहारी काकी ताई जैसी लग रही थी, न भौजी बहिनी जैसी और न बहू-बेटी जैसी। तिस पर संकट यह कि एक जनानी के सामने अपनी लाठी कैसे धपकें, सो वे बोले, “सुनि अम्मा!”

“व्हाट!” मिसेज डी.एम. बुरी तरह बौखला गयीं। 

लल्लू लाल समझ नहीं पाये कि खाट कहा है कि टाट, हाट कहा है कि घाट। उन्हें लगा कि जाट कहा है। मतलब उनकी जाति पूछ रही है, सो बोले, “देखि अम्मा, हम जाट हैं न जाटब, हम तौ अपएं गाँव के लल्लू लाल एं! अपनौ रुपैया लैबे आए एं!”

मिसेज डी.एम. हत्थे से उखड़ गयीं। उनका सारा वाक् चातुर्य हवा हो गया। सामने वाले पर अपने सौंदर्य-शृंगार का जादू छोड़ने की सारी कला ज़मीन सूँघने लगी। उनका पुरुष चरित्र को समझने का मनोविज्ञान उनके भीतर ही गिड़गिड़ाने लगा। वे अपनी सारी शिष्टता-शालीनता वहीं फेंक ज़ोर से चिल्लायीं, “मिस्टर डी.एम. मिस्टर डी.एम.!”

डी.एम. भीतरी कमरे में टहल रहा था। एस.एस.पी. ने जुलूस रोक रखा था। संदेश दिया था सारी पॉज़िटिव बात करें। डी.एम. जानता था कि जुलूस का नेता वार्तालाप के लिए जब तक वार्ता कक्ष में रहता है तब तक जुलूस शांत रहता है। अगर वार्ता असफल हो जाये तो उत्पात शुरू हो जाता है। उत्पात शुरू हो जाये तो न जाने किस-किस की करनी की भरनी डी.एम. को करनी पड़ती है। जिस पर उसे अभी तक यह मालूम नहीं था कि किस मंत्री या कम्पनी मालिक ने जुलूस में पैसा लगाया है। अगर कोई सरकार समर्थक हुआ तो फिर मुसीबत। इसलिए उसने मिसेज डी.एम. को कमान सौंपी थी कि पहले आदमी को वार्तालाप के लिए थोड़ा नरम-ठंडा कर लें, फिर वह मामले के अन्तिम अध्याय पर हस्ताक्षर कर देगा। पर जब उसने मिसेज डी.एम. की कातर पुकार सुनी तो वह दौड़कर वार्ता कक्ष में घुस गया। और क्या करे, क्या न करे की अप्रशासकीय स्थिति में पड़ गया। 

लल्लू लाल के बाल सठियाए हुए थे, अनुभव पकियाया हुआ था। सो पक्की समझ गये, हो न हो कलक्टर जे ही ए! बोले, “तौ तू कलक्टर साब है?” 

डी.एम. सविनय बोला “जी लल्लू लाल जी मैं ही हूँ।” 

लल्लू लाल ने फिर पूछना चाहा, “जि पतुरिया को ए, ” पर वे ‘पतुरिया’ शब्द को गले में ही भींच गये और बोले, “जि जनीमान्सि को ए?” 

डी.एम. फिर शालीनता से बोला, “जी मेरी पत्नी हैं।”

“सलि परी, जि कलकटराइन एं,” लल्लू लाल बोले, “तुमऊ इत ढिंग बैठि जाऔ कलकटराइन और सुनौ। कारिन्दे नै लई पाई, पिरधान ने लये पाँच पईसा, तहसीलदार ने लये दस पईसा। तैसीलदार ने सौं भरि कैं कही ए कै पूरौ रुपैया तिहारे पास ए। सरकार कौ रुपैया सो राम कौ रुपैया। औ राम कौ रुपैया हूँ काऊ पै छोड़त नांउ। सो हमाओ रुपैया हमें टिकाऔ, हम अपई गैल पकरें!”

कलक्टर ने कलेक्टराइन का मुँह ताका और कलक्टराइन ने कलेक्टर का। 

इसी बीच मातहत ट्रे ले आया। 

लल्लू लाल की नज़र आती हुई चौकोर थाली पर पड़ी, छोटे से गिलास में शरबत, एक तश्तरी में दाल मौंठ और एक तश्तरी में पेड़ा। 

लल्लू लाल का तालू तर होने लगा

मातहत बोला, “नाश्ता कर लीजिए!” 

लल्लू लाल बोले, “नास्ता तो करि लेंगे, परि अपओं रुपैया लें बिना ला टरकेंगे!”

कलेक्टर के शान्त चेहरे पर अशान्ति छलकने लगी। लेकिन जब कलक्टराइन ने लल्लू लाल को शरबत सुड़कते और पेड़ा गटकते देखा तो उन्हें तहसीलदार की आख्या याद आ गयी। उनके अशांत चेहरे पर शान्ति लौटने लगी, बिखरा हुआ आत्मविश्वास वापस सिमटने लगा, हवा हुआ आत्मविश्वास फिर उनके आसपास मँडराने लगा। आख़िर है तो आदमी ही! वे आत्मविश्वास को सहेजते-सहेजते ही लल्लू लाल के क़रीब इस तरह पहुँचने लगीं जैसे कोई किसी अपरिचित जीव के पास धीरे-धीरे पहुँचकर, धीरे-धीरे हाथ उस तक बढ़ाकर आश्वस्त हो लेना चाहता है कि यह जीव डंक तो नहीं मारेगा, झपटकर काट तो नहीं खाएगा, पंजे तो नहीं खरोंच देगा। जब कलक्टराइन को भरोसा हो गया कि उन पर लाठी का वार नहीं होगा तो वे सचमुच लल्लू लाल के ढिंग बैठ गयीं। और बोलीं, “यह कौन-सा रुपया है, हमें ठीक से बताइए!”

सरबत सूंतते पेड़ा सपोरते लल्लू लाल ने कारिंदे से लेकर तहसीलदार तक सारा क़िस्सा सिलसिलेवार सुना दिया। सुनकर कलक्टराइन का सारा तनाव दूर हो गया। वे मुस्कुराने लगीं। उनका मन हुआ कि छूकर देखें कि यह आदमीनुमा आदमी, क्या सचमुच आदमी है। परन्तु कलक्टर के चेहरे के बल और भी सघन हो गये। उसे तहसीलदार की हरमज़दगी समझ में आ गयी। उसने बड़े शातिराना ढंग से अपनी बला उनके सर टाल दी थी। 

कलक्टराइन मुस्कुराकर बोलीं, “व्हाई डोन्ट यू गिव हिम हिज रुपी?” 

कलक्टर चिन्तातुर होकर बोला, “यू डोन्ट अंडरस्टैंड, इट इज़ नॉट दैट ईजी!”

लल्लू लाल का यह कलक्टर उर्फ़ डी.एम. चरित्र से ईमानदार क़िस्म का आदमी था। थोड़ी-थोड़ी क्रांतिकारिता भी उसके भीतर ज़ोर मारती रहती थी। उसे व्यवस्था भी कुछ-कुछ खटकती थी। वह व्यवस्था के ख़िलाफ़ लिखना चाहता था। पर सरकारी नौकरी के चलते मन मसोसकर रह जाता था। उसे कभी-कभी नक्सलवादियों से भी सहानुभूति होती थी। सबसे ज़्यादा चिढ़ उसे फ़सली नेताओं से होती थी जिनकी उसे सबसे ज़्यादा सेवा करनी पड़ती थी। एक बार उसने पत्रकार बनने का मन भी बनाया था। पर स्थानीय पत्रकार आये दिन जिस तरह से चिरकुट कामों के लिए उसकी चिरौरी दलाली पर उतर आते थे, उससे वह इस पेशे से घिना गया था। वह एक उपन्यास लिखने का भी सोच रहा था। पर उपन्यास अभी तक सोच में ही था। बहुत सारे अफ़सर उसकी इन ख़ूबियों के कारण उसे सनकी तक कह डालते थे। 

उसका वश चलता तो वह लल्लू लाल का रुपया तुरन्त वापस कर देता पर एक तो वह रुपया उसके पास था नहीं और अगर वह अपनी जेब से दे दे तो फिर सेक्रेटरी और मिनिस्टरों को क्या जवाब देगा, ठेकेदार और इंजीनियरों की लानत मलामत कैसे झेलेगा, वकीलों और न्यायाधीशों का सामना कैसे करेगा, व्यापारियों-व्यावसायियों को कैसे सन्तुष्ट करेगा, सबसे ज़्यादा उस बेपेंदी की प्रेस का सामना कैसे करेगा जो चित की पट और पट को चित करती रहती थी। तो उसने जो वह कर सकता था, वही करने की ठान ली, यानी लल्लू लाल से दो टूक और खरी-खरी बात करने की बात। वह बोला, “लल्लू लाल जी, खरी बात यह है कि आपका रुपया मेरे पास नहीं है। उसकी कोई छुवन-कतरन भूले भटके मेरे पास आ गयी हो तो मैं कह नहीं सकता।”

सुनकर लल्लू लाल ने लाठी धपकनी चाही, पर एक तो कलक्टराइन की आँखें उनकी आँखों में चौंधिया गयीं और दूसरे कलेक्टर की कहन-भाषा से सत्त की गंध निकलकर उनकी नाक में समा गयी। यह गंध उस इत्र की गंध से अलग थी जो कलक्टराइन की देह से उठकर बहुत देर से उनकी नाक को गुदगुदा रही थी। 

लल्लू लाल बोले, “देखि कलक्टर, सरकार कौ रुपैया, सो राम कौ रुपैया, राम कौ रुपैया सो सत्त कौ रुपैया, सत्त कौ रुपैया लें बिना हूँ टरेंगों नाइ! तो पै नाइं तो बता किनके पास ए?” 

कलक्टर बोला, “किन-किन के नाम बताऊँ। कौन है जिसके पास आपका रुपया नहीं है। सच में तो रुपया विधायकों और मंत्रियों के पास है। वे आपका रुपया वापस कर दें तो किसकी हिम्मत जो आपके रुपये की तरफ़ देखे।”

मिसेज डी.एम. की समझ में नहीं आया कि उनका सनकी मिस्टर डी.एम. क्या कह रहा है। पर लल्लू लाल के कानों में मंत्री नाम भीतर तक घुसता चला गया। उन्होंने उठते हुए लाठी धपकी और बचा हुआ पेड़ा मुँह में डालते हुए बोले, “तौ जा मन्तरी ते ई बात करनी परैगी।”

जब एस.एस.पी. के पास वार्ता के सकुशल निपट जाने की ख़बर पहुँची तब वहाँ रास पूरे जोश पर था। जुलूसिये झूम-झूम कर नाच-नाच कर गा रहे थे—जय हो साईं राम तेरी जय हो! तेरी कृपा से सूरज ऊगै, तेरी कृपा से चन्दा डूबे, विश्व में तू ही तू साईं राम, तेरी जय हो साईं राम! 

ढुलकिया पूरा दम लगाकर ढोलक धपक रहा था। खंजरिये पूरी मस्ती से खंजरी बजा रहे थे, मँजरिये बिना रुके झमाझम मँजीरे पीट रहे थे। एस.एस.पी. ने ख़ुद ऐसी देशी-गंवीली मस्ती नहीं देखी थी। उसके बीवी-बच्चों की तो बात ही बेकार। एक बार तो ख़ुद एस.एस.पी. का मन हुआ कि दो-चार ठुमके वह भी लगा ले। पर चारों तरफ़ मातहत, डिप्टी मातहत, सब-मातहत भी खड़े मज़ा ले रहे थे, इसलिए उनका लिहाज़ करके उसने ख़ुद को बमुश्किल रोका। 

वार्ता ख़त्म होने का मतलब था, इस जश्न का भी ख़त्म होना जो न‌ तो एस.एस.पी. को सुहा रहा था न जुलूसियों को। पर यह साईं समारोह भी आख़िर कब तक चलता, ख़त्म करना ही पड़ा। 

लल्लू लाल और उनके शिवगण जुलूसिये रुपैया लेने निकले तो पैदल थे, मगर लौटे गाड़ियों से। डी.एम. ने लल्लू लाल को गाँव बाहर की सड़क पर गाड़ी से छुड़वा दिया था तो जुलूसियों को एस.एस.पी. ने पुलिस वैनों से। लल्लू लाल पर भले ही कोई ज़्यादा फ़र्क़ नहीं पड़ा हो मगर जुलूसिये बहुत उत्साहित थे। एस.एस.पी. के बँगले पर मिली पूरी-मिठाई पेट तो पेट, दिल और दिमाग़ में भी भरी हुई थी। उन्हें साईं कीर्तन में भी भरपेट मज़ा आया था। सो जैसे ही वे वैन से उतरे तो एक जुलूसिये ने नारा मार दिया, “बोल कप्तान साहब की”– और सारे जुलूसियों ने दिमाग़ बन्द करके घोष किया “जै”। जो मातहत पूरे रास्ते वैन में गुरु गंभीर मुद्रा में योगासन लगाए रहा था वह एकाएक आसन बदलकर हास्य मुद्रा में आ गया। 

लल्लू लाल भी गाड़ी से अभी ही उतरे थे। और सड़क किनारे ही खड़े थे। तुरंत जुलूसियों को ध्यान आया कि वे उनका ही जयकारा लगाते हुए यहाँ से रवाना हुए थे। सो उन्होंने फिर एक ज़ोरदार जयकारा मार दिया–बोल लल्लू लाल की जै! 

जुलूसियों ने अपनी-अपनी टोपियाँ फिर से पहन लीं, हाथ में ली हुई मालाएँ गले में डाल लीं, कुछ होने के भाव से गर्दनें ऊँची कर लीं, गौरव गाथा के बखान के लिए अपनी ज़ुबानों की जुगाली शुरू कर दी। हर जुलूसिया मन ही मन कोई न कोई क़िस्सा बुनने लगा जो नितान्त उसका अपना इक्सक्लूसिव हो और जिसे दर्शक-श्रोताओं के सामने पहली बार वह स्वयं रखने का दावा कर सके। 

लल्लू लाल के गाँव लौटने की ख़बर कुछ तार की तरह कुछ तीर की तरह पूरे गाँव के इस पार से उस पार निकल गयी। बहुत सी जनानियाँ साँझ का चौका-बासन निपटाकर लल्लू लाल की घरवाली के पास ही आकर बैठ गयीं थीं। मरद लोग आते-जाते रहे थे और लल्लू लाल के आने की टोह लेते रहे थे। लौटने की ख़बर सुनकर वे उनके दरवाज़े पर जुटने लगे। प्रधान ने कोशिश की कि यह जमावड़ा उसकी चौपाल पर हो पर लोग लुगाइयों का मन ऐन ठीये पर बैठने में रम रहा था। 

जब तक लल्लू लाल अपनी ड्यौढ़ी पर पहुँचते तब तक उनकी कीर्ति पताका बिन दिखे, बिन फहरे पूरे गाँव में फहर चुकी थी कि कैसे बड़े कप्तान ने उनकी आवभगत की, कैसे कप्तान ने गाड़ी में बिठालकर लल्लू लाल को कलक्टर के यहाँ पहुँचाया, और कैसे बड़े कप्तान ने ख़ुद उन्हें घर ले जाकर पूरी-पकवानों की ज्यौनार जिमाई . . . सब लल्लू लाल के सत्त का प्रताप। 

अब लल्लू लाल और कलक्टर के बीच क्या संलाप-संवाद हुआ, क्या बानी-व्यौहार हुआ, यह किसी को न तो मालूम था न किसी को मालूम करने की ज़रूरत थी। जुलूसियों को यह जानने की भी कोई ज़रूरत नहीं थी कि लल्लू लाल को कलक्टर ने उनका रुपैया भेंटा कि नहीं। उन्होंने अपनी दिमाग़ी खिलंत का खुलकर इस्तेमाल किया और लल्लू लाल के आगे कलक्टर की घिग्घी बँध जाने से लेकर उनके चरणों में पड़ जाने तक के क्षेपक विवाह में लुटाये जाने वाले बताशों की तरह फेंकने शुरू कर दिये। जितनी तरह से यह क्षेपक फेंके गये उतनी तरह से लोगों ने कान उठा-उठाकर लपक भी लिये और फिर अपनी तरफ़ से थोड़ा और रस मिलाकर आगे वालों की ओर उछाल दिये। और इधर-उधर जाते हुए डगों ने भी लल्लू लाल के घर की गैल गह ली। 

इधर लल्लू लाल घर की ड्योढ़ी पर, उधर घूँघट वाली भौजी ने बोल उठा दिये—“लेउ, आइ गये लल्लू लाल, रुपैया अपनों लैकें, रुपैया अपनों लैकें, रुपैया अपनों लैकें . . .” 

तभी लल्लू लाल ने घोषणा की, “रुपैया अबहीं नाइ मिलौ!”

उठे हुए बोल एकदम नीचे उतर आये। 

लल्लू लाल ने वहीं खड़े होकर पूरी बात बयान कर दी और बता दिया कि अपना रुपैया लेने वे मंत्री के पास ज़रूर जाएँगे! ‘जाएँगे’ सुनकर ही मर्द उल्लसित हो गये और उनसे ज़्यादा ज़नानियाँ। घूँघट वाली भौजी का मन हुआ कि उठकर नाचने लगे। जायेंगे का साफ़ मतलब था कि लल्लू लाल फिर यात्रा शुरू करेंगे, फिर उत्सव होगा, फिर बधावे गवेंगे। उसकी नाचने की हौंस अभी खुली भी नहीं थी। अब की बार वह जमकर नाचेगी। यहाँ किसी ने इसमें कोई रुचि नहीं दिखाई कि रुपैया क्यों नहीं मिला, उनकी पूरी रुचि उत्सव के थोड़ा और खिंच जाने में खंच गयी। जो बोल नीचे आ गये थे वे फिर उठान पर आ गये . . . तुम जइयों लल्लू लाल रुपैया अपनौ लैवे। रुपैया अपनौ लैबे, हो रुपैया अपनौ लैबे! 

लल्लू लाल बैठे तो बाक़ी लोग भी जिसे जहाँ जगह, घुसने बैठने का ठौर मिला बैठ गया। बड़े-बूढ़े बैठे, छोरा जवान बैठे, इस पौठे के बैठे उस पौठे के बैठे, इस जाति उस बिरादरी के बैठे, लाल टोपी वारे बैठे नीली टोपी वाले बैठे, किसान बैठे, चरबैया बैठे, अनपढ़ बैठे पढ़वैया बैठे, चाचा बैठे ताऊ बैठे, निठल्ले बैठे कमाऊ बैठे, पंच और प्रधान बैठे और सबसे पहले बैठीं वैयरवानी जो जबसे बैठी थीं तब से खड़ी ही नहीं हुई थीं। 

न लल्लू लाल का हौसला कम हुआ था, न जुलूसियों का उछाह कम हुआ था, और न गाँव का उत्सव प्रवाह कम हुआ था। पर चलने ठुमकने, हुमकने, नचने में देह तो थकती थी, सो थक गयी थी। 

दूसरी समस्या थी फ़ासले की। तहसील, ज़िला, शहर पाँवों की पहुँच में थे सो नाप दिये, पर राजधानी थी कोसों दूर। पैदल चले तो पखवाड़ा बीत जाये! तो अब क्या हो, कैसे हो, यह सब तय करें बड़े बूज़ुर्ग और पाँच पंच सो‌ पंचों और बूज़ुर्गों ने तय किया कि तय करने के लिए कल का दिन तय कर लिया जाये, चाहे तो पीपरा के नीचे पंचायत की जाये चाहे प्रधान की चौपाल पर, तय चाहे जो हो पर करें सब मिलकर। तो सभा विसर्जित कर दी गयी। और अगले दिन फिर आने के लिए जाने की मुनादी कर दी गयी। 

दो दिन में लल्लू लाल महात्मा लल्लू लाल बन गये थे और उनका रुपैया सत्त और न्याय का सिक्का। ऊपर दिखे या न दिखे, चले या न चले पर भीतर कहीं ठहरी-बसी जनात्माओं में छन्न-छन्न तो करता ही रहता था। दो दिन में इसकी छनकार तनि ज़्यादा ही तेज हो गयी थी। और गाँव के गोंडे को पार कर आस-पास के गाँवों तक भी फैल गयी थी। सो जब वहाँ भी रुपैया सभा का सन्देशा पहुँचा तो वहाँ के भी कुछ बढ़े-चढ़े रसूख़दार लोग शामिल होने का न्योता माँगने चले आये। पुण्य का काम, राम का रुपैया, सत्त-न्याय की लड़ाई, सो रोके कौन टोके कौन? सो गाँव से न्योता तो लेकर गये सौ जने, न्योता पहुँच गया हज़ार तक। 

गाँव में जाति थी, बिरादरी थी, पार्टीबन्दी थी, राजनीति थी, धरम था, कर्मकांड था, कुछ लाल टोपी वाले थे तो कुछ नीली टोपी वाले, कुछ पीली टोपी वाले थे तो कुछ सफ़ेद टोपी वाले। ये सफ़ेद टोपी वाले उनके अलावा थे जो बाप-दादों के ज़माने से सफ़ेद मुंडासा गमछा या टोपी पहनते आये थे। ये टोपियाँ आमतौर पर चुनावों के वक़्त निकलती थीं, और निकलते ही गाँव की हवा में विष घोलने लगती थीं। चुनाव के बाद ये टोपियाँ वापस अपने-अपने बक्सों में चली जाती थीं, पर हवा में विष बहुत दिनों तक घुला रहता था। समझदार लोग जब तक विषैली हवा को फूँक मार-मार कर उड़ाते तब तक कोई न कोई चुनाव फिर आ जाता, टोपियाँ फिर निकल आतीं, हवा में विष फिर घुल जाता, इस तरह ज़्यादातर दिनों में गाँव की हवा विषाक्त बनी रहती। लल्लू लाल के रुपैया के जस प्रताप से विषवायु उड़ती दिखी, पर टोपियाँ फिर निकल आयीं। सवाल यही था कि लल्लू लाल का जो जस छाया था, जो भक्त-भीड़ जुट रही थी उसकी साख बटोरी कौन करे, कौन उसका लाभ ले। प्रधान की अपनी कोई टोपी नहीं थी वह हवा देख के टोपी बदल लेता था। 

घूँघट वाली भौजी के मन में भी एक कीड़ा कुलबुला रहा था। न वह राजनीति जानती थी न चुनावनीति। चुनाव के मौसम में गाती थी और मरद बता दें वहाँ उँगली छाप देती थी। लेकिन प्रेमनीति अच्छी तरह जानती थी। उसने शुगूफा छोड़़ दिया था कि अब मुलुक में जनी-जननी वोट लै-लै कें रानी-महारानी बनि रही एं तो गाँव की जनीमान्स कूं रुपैया सभा ते च्यों रोकौ जाये। उसका शिगूफा, कानाफूसी से होते हुए तीखी नारीवादी लहर में बदल गया। कुछेक को छोड़ पूरे गाँव की ज़नानियाँ इस लहर पर नाचने लगीं। घूँघट वाली भौजी की मंशा मात्र इतनी थी कि दो-चार देवर और टहोकने को मिल जायें। मिलें तब जब मरद-औरतों की संग-सभा हो। 

जो रुपैया सभा आसान लग रही थी वह एकाएक आपदाग्रस्त हो गयी। कल तक जो असंगति में संगति दिख रही थी उसी संगति में असंगति घुस गयी। जब पीपरा के नीचे पंचायत जुटी तो लल्लू लाल ने सूँघा कि सारी जुटान अपनी-अपनी फुटान तो फूँक रही है, पर उनके राम रुपैया को बिसरा रही है। सो उनने अपनी लठिया धपक दी और बोले, “देखौ ससुर के औ, मोइ ना तौ चहियें तिहारी जे खुचरपंची और नां चहिएं तिहारी जे अक्क-वक्क। हों तौ अकिल्लौ जाऊंगौ बा मंतरी के जौरें, और अपओं रुपैया ले आऊंगौ। बू देगौ बा को बाप देगौ। तुम सिगरे लड़ौ-मरौ, जरौ-पजरौ मेई पनहियां ते। मेरे संग ज़रूरत नाएं काऊ ए‌ आइबे‌ की।”

लल्लू लाल की इस घोषणा से सबको साँप सूँघ गया। सारी टोपियाँ सहम गयीं, सारी जातियाँ सिहर गयीं। छोरे-छपारों को लगा मौज मस्ती हाथ से निकली। घूँघट वाली भौजी को लगा कि ताकने-टहोकने की साइत फिसली। सबकी राजनीति ख़त्म होती दिखी, सबका जाति-बोध पिटता लगा। दिखा तो बस लल्लू लाल का धपका हुआ लट्ठ। लल्लू लाल बोले, “काऊए कछू कहनौ ए! ना कहनौ तौ ससुरौ उठाऔ अपईं टाट टपरिया, अपएं धरनि कूं लगौ। हूँ कल्लि अकिल्लो ही निकरेंगो।”

एक काठीदार छोरा हाथ उठाकर बोला, “दद्द़ू मोइ काऊ तै कछू लैनो-दैनो नाइं, हूँ तो तिहारे संग चलूंगौ।”

एक साथ कई आवाज़ें आपस में टकराने लगीं, “हमेंऊ काऊ ससुरी टोपी ते भाँवर नांइ डारनी, हम चलिंगे।”

“राम रुपैया लाइबे कौ पुन्न हम हूँ ना छोड़िंगे। हमऊं संग चलेंगे।”

आवाज़ों ने लल्लू लाल को सिद्धावस्था में पहुँचा दिया। वे आँखें बंद करके बोले, “भैनि के मामाऔ, राम रुपैया लाइबे कौ जुद्ध सत्य न्याय कौ जुद्ध ए। जा में कहा ते तौ जाति आइ गयी, और कहाँ ते टोपी आइ गयी।”

एक उत्साहित छोकरे ने नारा मारा, “बोलि लल्लू लाल की।”

सारी जाति-बिरादरी और टोपियों को रौंदता हुआ ज़ोरदार जयकारा गूँजा “जै!”

सभा फिर शांत हो गयी। 

लल्लू लाल ने एक बार फिर आँखें मूँदी और खोल लीं। बोले, “मेई बात मानौ तौ सुनौ। अपईं-अपईं जाति उतारिकैं अपईं-अपईं पनहियनि में डारि देउ . . .!” 

एक मलंग बोला, “हम पै पनहीं नाइं तौ?” 

दूसरा मलंग हौले से फुर्राया, “तौ डारिलै अपई . . .”

धीमी फुर्राहट भी कई कानों तक पहुँच गयी और एक ठठाती हँसी दूर तक फैल गयी। सारा तनाव छँट गया। 

लल्लू लाल ने निर्लिप्त भाव से अपना प्रवचन आगे बढ़ाया, “जौ न रही टोपिन की बात, तौ सिग अपंए-अपंए रंग की टोपिन कूं उतारिकैं हिंया मेरे जौरें रक्खि देउ। हूँ सिगन कूं गड्ड़म-गड्ड़ करि देतों। तौन एक-एक करिकें आंओ, आंखि बंद करिकैं टोपी उठाऔ, ‌‌ जो टोपी जा के हाथ परै बाई ए मूंड पै धरिलेउ, न जि टोपी जाकी, न बू टोपी बाकी।”

एक बार फिर जयकारा फूटा “बोलि लल्लू लाल की जै!”

एक ने सनातन जयकारा भी उछाल दिया– बोलि बंसीवारे की जै! 

आनन-फ़ानन में लाल, नीली, हरी, पीली, सफ़ेद टोपियाँ लल्लू लाल के सामने आ गिरीं। लल्लू लाल ने सारी टोपियों में हाथ की घुमेर मारी तो ऊपर की टोपी नीचे और नीचे की ऊपर। एक-एक आदमी आँखबन्द आता गया और जो टोपी हाथ लगी, उठाकर सर पर लगाता गया। पलभर में बसपाई सपाई हो गया और भाजपाई कांग्रेसी। पूरा गाँव पार्टी पॉलिटिक्स से ऊपर उठ गया। 

अब अगली समस्या थी जाने की कि इतनी दूर जाया कैसे जाये। कोस-दो कोस की बात अलग–यहाँ तो सौ कोस जाना था। 

प्रधान ने सुझाव दिया, “एक मौटर करि लेतें।”

एक प्रधान प्रतिपक्षी ने खंडन किया, “एक मौटर में का पूरौ गाँव घुसि जागौ।”

एक ने सुझाव दिया, “पुन्न‌ कौ काम रेल मौटर ते ना होतु!” 

दूसरे ने समर्थन किया, “हम्बे भैया बात तो तेरी नीकी ए, परि इतनी दूर बिना रेल मौटर के ना जायौ जाइगौ।”

तीसरा बोला, “जब कांबरि लैकें जातौ तो कैसें टक्क-टक्क पांय-पांय चले जातौ। कौन सा विलायत कूं जानौ ए, हफ़्ता पखवारे में पोंहच ही जांगे।”

“बोल लल्लू लाल की जै!” ज़ोरदार जयकारा लगा और हफ़्ता-पखवारे की बात का समर्थन हो गया। 

“बोल बंसीवारे की जै!” यानी कि समर्थन पर मुहर लग गयी। 

तभी प्रधान ने पेंच फँसा दिया, “कका मिलनौ कौन से मंत्री ते ए, कौन से मंत्री के पास तुम्हाओ रुपैया ए? म्हां तो निरे मंत्री एं।”

सभा सटक गयी। बात तौ पते की ए। हियां ते‌ तौ खरम-खरम चलि देउ, वाँ पतौ ना‌ रहै कां जाइ रएऔ। पेंच लल्लू लाल को भी फँसा दिखा। सोचा जे बात ना तौ कलक्टर ने बताई, और ना बिनै पूछिबे की सुध रही। यहाँ मंत्री-संत्री की जो जानकारी पैठ-पहचान थी सो प्रधान की थी। 

रिसी मुनी सब कहि गये बात बड़ेनि की मान, बडौ गाम में एक ही, जाकूं मान प्रधान। सो यह प्रधान पर छोड़ा गया कि वह अपने साख-रसूख से यह तय करे कि राम रुपैया किस मंत्री के पास है, किस मंत्री के पास लट्ठ धपकाना है। प्रधान ने गर्दन ऊँची की और घुमाकर सबको दिखा दी। हमारे बिना नहीं होगा कोई काम गर्दन यही बोल रही थी। 

यात्रा का श्रीगणेश कब किया जाये, कैसे किया जाये ये बातें भी तय होने लगीं। जल्दी ही तय भी हो गयीं। तय होने के साथ ही लल्लू लाल के नाम का एक जयकारा और लगा। 

उधर रुपैया सभा से थोड़ा फ़ासला बनाकर खड़ी ज़नानियाँ खिसकते-खिसकते सभा के निकट तक चली आयीं थी और सभा की कार्रवाई ध्यान से देख-सुन रही थीं। सबसे आगे थी घूँघट वाली भौजी, जो घूँघट के भीतर से सभा पर कान, कड़ियलों‌ पर आँखें लगाये थी। अभी तक जनी-जनानियों की कोई बात नहीं हुई थी, इसलिए परेशान हो रही थी। 

लल्लू लाल ने एक उचंती सी नज़र सभा के शिवगणों पर डाली। फिर टोपी उतार सर खुजाया और ज़ोर से लठिया धपक दी। 

सभा लल्लू लाल से मुख़ातिब हो गयी। 

लल्लू लाल बोले “एक बात और गांठि बाँधि लेउ छोराऔ, जे सत्त न्याय की जात्रा है, जा में ना तौ लंठई चलैगी ना लफंगई। हों देखी चुकौ हूँ, कोऊ इतें उचकतु है कोऊ बितें उचकतु ए। जे फुदक-पुदक बिलकुल नाइं चलैगी . . .” 

छोरों ने इस बार जयकारा नहीं लगाया। 

मगर घूँघट वारी भौजी अपने टोल के साथ आगे बढ़ आयी और चोला बदलकर बधावा गूँज उठा:

“हमहुं चलेंगी लल्लू लाल, तोहार रुपैया लैबे
तोहार रुपैया लैबे, हो राम रुपैया लैबे
हमहुं चलेंगी लल्लू लाल तोहार रुपैया लैबे”

बधावा सारी सभा में गूँजने लगा। मलंगों को मज़ा आ गया। लल्लू लाल के उपदेश की भीत ढह गयी। पहले उन्होंने भौजी के भजन में सुर मिलाया, फिर तुरंत पलट बधावा उठा लिया:

“सुनि, तेरे बिन भौजाई रुपैया नाइं मिलैगौ
तोइ हियां छोडिकैं भौजी तेरौ को देवर निकरैगौ
संग में लै लेउ लल्लू लाल, हो राम रुपैया लैबे”

सभा में फागुन ठुमके लगाने लगा। लल्लू लाल की मूँछें मुस्कुराने लगीं। मूँछों की मुस्कान देख मलंगों ने जयकारा दिया– बोल लल्लू लाल की जै। इस जयकारे में घूँघट बारी भौजी के टोल का बोल भी शामिल था। 

एस.एस.पी. ने अपना काम मज़े से निपटा दिया था। और डी.एम. ने अपना काम ईमानदारी से। रासमंडली की रिपोर्ट न एस.एस.पी. ने ऊपर पहुँचायी और न लल्लू लाल से हुई अपनी वार्ता का ब्योरा डी.एम. ने कहीं बाहर टपकाया। 

डी.एम. और एस.एस.पी. दोनों ने ही अपने-अपने छोर पर समस्या न होने जैसी समस्या का समाधान कर दिया था। लेकिन जब उन्हें यह मालूम हुआ कि लल्लू लाल और उनके शिवगण राजधानी के लिए निकल लिये हैं तो उन्हें चिन्ता न होने जैसी चिन्ता होने लगी। कर्त्तव्य का निर्वाह करते हुए उन्होंने अपने बड़ों तक ज़्यादा चिंता न करने की सलाह के साथ अपनी अनुभव प्रसूत जानकारी पहुँचा दी। परिणामस्वरूप ज़िले से राजधानी तक किसी भी बात की ज़्यादा चिन्ता न करने का चिरन्तन भाव थिर हो गया। 

उधर लल्लू लाल के जुलूसिये जयकारा लगाते, नाचते-गाते, माँगते-खाते, ओढ़ते-बिछाते, सोते-जागते हर रोज़ नये गाँव, नयी तहसीलें, नये ज़िले पार करते हुए राजधानी की ओर बढ़ रहे थे। हर रोज़ लल्लू लाल के राम रुपैया की कहानी लोगों तक नये-नये रूप धर कर पहुँच रही थी। 

अब यह ज़रूरी नहीं था की कहानी जैसी थी वैसी ही लोगों तक पहुँचे भी, लोग उसे वैसे ही समझें भी। लोगों की अपनी समझ थी। सो जिसे जैसा भा और सुहा रहा था वह उसे वैसे ही समझ और सुन रहा था। कोई लल्लू लाल में किसी बड़े सन्त को देख रहा था तो कोई पहुँचे हुए महात्मा को। किसी को लल्लू लाल चमत्कारी लग रहे थे किसी को अवतारी। जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी, सो लल्लू लाल जहाँ से भी गुज़रते उनकी चरण रज लेने, उन पर धन-भोजन का चढ़ावा चढ़ाने और उनका जयकारा लगाने वालों की भीड़ जुट जाती। 

कुछ लोग लल्लू लाल के दर्शन पाकर वापस लौट जाते और कुछ सत्त-न्याय की जात्रा का पुण्य लेने के लिए जात्रा में जुड़ जाते। जो लोग वापस लौटते वे लल्लू लाल की संतई की सौ नयी कहानियाँ बनाकर आगे फैला देते और अगले दिन भक्तों श्रद्धालुओं की संख्या और बढ़ जाती और चमत्कार हुआ तो यह कि लोगों को लल्लू लाल के राम रुपैया में अपना रुपैया दिखाई देने लगा, और कुछ दिन बाद लगने लगा कि वे लल्लू लाल का नहीं अपना राम रुपैया वापस लेने जा रहे हैं। 

यही वह स्थिति थी जो जुलूस का मन बदल रही थी। जुलूसिये न लफंगई कर रहे थे न लंठई, न उचक्कई कर रहे थे न छिनरई! हद तो तब हुई जब एक मलंग ने घूँघट वाली भौजी के पुट्ठे पर हाथ रखा और भौजी बोली “देखी लाला, जे हिसाब-किताब तौ लैनो-दैनो चाहें जब निपटाइ लेंगे, परि अबहीं तौ न्याय-सत्त की परीक्षा है, सो तू सूधौ चलि और मोऊकों सूधौ चलनि दै।”

सारे मलंगों को सत्त-न्याय की जात्रा की पवित्रता का भान हो गया। उन्हें सत्त की सुरसती अपने भीतर बहती लगने लगी। उन्हें भीतर के मैल-विकार कटते-धुलते प्रतीत होने लगे। वे घूँघट वाली भौजी को लालच से नहीं लास से देखने लगे। 

घूँघट वाली भौजी जो तान छेड़ती वे उस तान में शामिल हो जाते। जो बोल उठाती वे उन बोलों को और ऊँचा उठा देते और अपनी ठुमकियों-फिरकियों से जो लहर पैदा करती वे उस लहर में समा जाते। भौजी ने जो बोल उठा रखे थे और जो लहर पैदा कर रखी थी, वे अब उसी में समाये हुए थे:

“हमें रुपैया दिब्बाइ दै, सरकार मेरी अम्मा
सरकार मेरी अम्मा, सरकार मेरी अम्मा
राम रुपैया दिब्बाइ दै सरकार मेरी अम्मा!” 

जुलूस आगे बढ़ रहा था, जुलूस का जोश बढ़ रहा था, जुलूस का क्षेत्र बढ़ रहा था, जुलूस का संख्या बल बढ़ रहा था। 

जुलूस गा रहा था:

“कारिंदे ने‌ पाई खाई तैसीलदार ने पंजी
कहतु‌ कलट्ट़र कछु ना बापै, रूपिया खाइगौ मंत्री
जा मंत्री कूं समुझाइ दै, सरकार मेरी अम्मा
राम रुपैया दिब्बाइ दै सरकार मेरी अम्मा!” 

अब जिस-जिस को चौकन्ना होना था वह चौकन्ना हुआ। सबसे पहले चौकन्ना मीडिया हुआ। राजनीति चौकन्नी हुई, राजनीति करने वाले चौकन्ने हुए, नेता विधायक चौकन्ने हुए, सरकार और सरकार चलाने वाले चौकन्ने हुए। जिन्हें सचमुच चौकन्ना होना था वे इसलिए चौकन्ने नहीं हुए कि उनके पास एस.एस.पी. की आख्या थी। डी.एम. की व्याख्या थी। 

मीडिया आया और लल्लू लाल के पास आकर ऐंठीली हड़कीली मुद्रा में खड़ा हो गया जैसे आमतौर पर चालू-उछालू जुलूसबाज़ नेताओं के पास खड़ा हो जाता है और जिसे देखते ही चालू-उछालू नेता अपने कमीज़-कुर्ते से लेकर अपनी जीभ दाँत तक सँभालने-सजाने लगता है। 

मीडिया ने पूछा, “जुलूस के नेता आप हैं?” 

लल्लू लाल उस समय अपनी धोती की लाँघ बाँध रहे थे, सो बोले, “धी के मामा लाँघ तौ बाँधि लैन दै।”

मीडिया को ऐसे उजबक इंसान से बात करने की जानकारी नहीं थी। और लल्लू लाल जानना नहीं चाहते थे कि मीडिया क्या होता है। उन्होंने लाँघ कसके अपनी लाठी सम्भाली तो मीडिया अकबकाया-सा दो क़दम पीछे हट गया। लल्लू लाल बोले, “ना तेरे मूंड पै मारि रह्यौ! बता का पूछि रह्यो ए?” 

मीडिया ने सवाल फिर दोहराया, “जुलूस के नेता आप हैं?” 

“देखी लल्लू” लल्लू लाल बोले, “नाम तो मेरौ लल्लू लाल ए, परि बात तू लल्लूपने की करि रह्यौ ए। हों कितैंते तोइ नेता लगतूं?” 

मीडिया ने अचकचाते हुए साफ़ किया, “इन लोगों को आप राजधानी ले जा रहे हैं?” 

“ऐं रे, जिनें का अपईं गोद में बैठारि के लै जाय रह्यौं ऊं,” लल्लू लाल ने साफ़ किया “अपईं देह ते जाइ रहे एं अपएं पांयनि ते जाइ रहे एं! हों ससुर जा में का करूँ?” 

मीडिया ने फिर पूछा, “आपकी माँगें क्या है?” 

लल्लू लाल बोले, “देखी भैया, माँग-टीकौ हमाए पास कछू नाएं, हम जाइ रह्ये अपओं रुपैया लैबे, तोइ संग चलनौ ए तो तूअऊ चलौ चलि, ना चलनौ तौ तू बितें जा हमनि इतें जान दै!”

जुलूसियों ने जयकारा मारा, “बोल लल्लू लाल की जै!”

लल्लू लाल ने एक बार लाठी धपकी और आगे बढ़ लिये। मीडिया को लगा जैसे किसी ने सरेआम उसकी पैंट उतार दी हो! मीडिया खुन्नस खा गया। 

मीडिया ने छापा भी दिखाया भी, उछाला भी पटका भी, उठाया भी गिराया भी। 

किसी ने लिखा पंचायत में घोटाला हुआ है जिसकी जाँच की माँग लेकर लोग राजधानी जा रहे हैं, किसी ने लिखा किसी मंत्री ने लाखों डकार लिये हैं इसलिए लोग मुख्यमंत्री से शिकायत करने जा रहे हैं। लोग मंत्री का नाम नहीं बता रहे हैं, वे मुख्यमंत्री को ही बताएँगे। एक ने लिखा जुलूस में सारी पार्टियों के लोग शामिल हैं, तो दूसरे ने लिखा कि जुलूस नाचने-गाने वाले जोकरों की भीड़ है, जिनका नेता बेपढ़ा-लिखा देहाती लट्ठ है। 

जुलूसिये न अख़बार पढ़ते थे न उन्हें अख़बार पढ़ने की फ़ुर्सत थी। भूले भटके कहीं से कोई उन्हें अख़बार लाकर पकड़ा देता था तो वे उसे हगे-मूते की सफ़ाई में इस्तेमाल करके फेंक देते थे। उन्हें सिर्फ़ इतना मालूम था कि उनका जुलूस ख़िरामाँ-ख़िरामाँ आगे बढ़ रहा है, मज़े से बढ़ रहा है। यह तो उन्हें पता ही था कि राम रुपैया वापस लेना सत्त-न्याय का काम है, सो वे सत्त-न्याय के काम के लिए ही जा रहे हैं। 

राजनीति और राजनीति करने वाले चौकन्ने हुए तो पहला ख़्याल यह आया कि न कहीं चुनावी बिगुल बजा, ना किसी ने नयी पार्टी की घोषणा की, न राजधानी में किसी ने रैली आहूत की, न कोई बड़ा हत्याकांड हुआ, न कोई बड़ा बम कांड हुआ फिर ये जुलूस किसका और कैसा? जुलूस निकालने-लेजाने की सारी ठेकेदारी उनकी और उनके सिपहसालारों की थी। यह लल्लू लाल कौन खेत की मूली है जो इतना बड़ा जुलूस लिये चला आ रहा है। 

जुलूस बिना उन्हें राजनीतिक फ़ायदा पहुँचाए, बिना उनके आगे टेर-गुहार लगाए चुपचाप निकल जाये, यह बेइज़्ज़ती न इस टोपी वाले को बरदाश्त थी, न उस टोपी वाले को। सारी टोपियों के सिरमौर अपनी-अपनी राजनीति बनाने और अपनी-अपनी चालें कुचालें चलने के पैंतरे भांजने लगे। सभी छल कलाओं में पारंगत उनके लाल, नीली, हरी, पीली, टोपियों वाले करतबसिद्ध कार्यकर्ता जुलूस के इर्द-गिर्द मँडराने लगे। 

जुलूस गा रहा था:

“ना हम माँगे राज-रजावरि ना माँगे तेरी खटिया 
ना हम माँगे मौटर गाड़ी ना माँगे फटफटिया
बसि इकपहिया ढुरकाइ दै, सरकार मेरी अम्मा
राम रुपैया दिब्बाइ दै, सरकार मेरी अम्मा”

लाल टोपी वाला जुलूस के लाल टोपी वाले के पास पहुँचा, और नीली टोपी वाला जुलूस के नीली टोपी वाले के पास। लाल, लाल से बोला– लाल नीले के बीच सर फोड़े औ हाथ तोड़े की दुश्मनी, फिर तू नीली टोपी के साथ क्यों? सवाल पूछते न पूछते उसने नीली टोपी के लिए पचास गालियाँ निकाल दी, पचास कुबोल बोल दिये। उसे क्या पता कि जिस लाल टोपी को वह कुचिया रहा है उसके नीचे नीली टोपी का सर है। पता तब लगा जब टोपी उतरकर हाथ में आ गयी और लात उछलकर उसकी कमर पर जा पड़ी। 

यही हाल उस नीली टोपी वाले का हुआ जो जुलूस की नीली टोपी को अपनी टोपी मान लाल टोपी को गालियाँ निकालते हुए गलबहियाँ करने लगा था। यहाँ नीली टोपी के नीचे लाल टोपी का सर था। सो यहाँ जो लात चली वह सीधे नीली टोपी की कमर पर बैठी। ज़रा सी देर में ही पहचानना मुश्किल हो गया कि कौन सी टोपी किस टोपी को पीट-पिछाड़ रही है। पिटने वाले की भी टोपी उतर गयी और पीटने वाले की भी। किसी ने जमकर पीटने के लिए टोपी उतार ली तो किसी ने जमकर पिटने से बचने के लिए टोपी उतार ली। टोपियों की असलियत उजागर हो गयी। टोपियों के नीचे के‌ सर नंगे हो गये। 

यह कांड क्या हुआ, जुलूसियों को टोपी लदे अपने सर भारी लगने लगे। टोपियों की दुर्गंध उन्हें असह्य लगने लगी। जब और सहन नहीं हुई तो जुलूसियों ने अपनी-अपनी टोपियाँँ उतारकर फेंकना शुरू कर दिया। कोई टोपी गड्ढे में गिरी कोई नाले में तो कोई कूड़ेदान में। देखते ही देखते पूरा जुलूस टोपीविहीन हो गया। 

जुलूस में अब न एक गाँव के लोग थे, न एक तहसील के, न एक ज़िले के, सो यह टोपीविहीन निर्टोपिता गाँव, तहसील ज़िलों की सीमाओं को भेदती हुई प्रदेश भर में फैलने लगी। और जैसा कि होना था, टोपियाँ दलों में खलबली सी मच गयी। यह बीमारी फैली तो उनकी तो दुकानें ही बन्द हो जाएँगी। क्या विपक्ष क्या सत्तापक्ष, आसन्न ख़तरे से निपटने के लिए निरपेक्ष भाव से लामबन्द होने लगे। 

अब बिना मीडिया के लामबन्दी कैसी, बिना मीडिया मालिकों के सहयोग के सफलता कैसी, सो जिस-जिस का जो-जो हम-पिट्ठू था, जिस-जिस से जिस की रेंठ-पेंठ थी, जिसके-जिसके यहाँ से जो दलाली-कमीशन खाता था, और जो-जो सत्य निष्पक्षता के नाम पर सत्य के कपड़े उतार निष्पक्षता से नियमित बलात्कार करता था, सबको उनका पावन कर्त्तव्य याद दिलाया गया, और जो-जो ज़्यादा तेज़-तर्रार, ज़्यादा चुस्त-दुरुस्त, ज़्यादा चटकते-मटकते थे, उनको विशेष दायित्व के साथ काम पर या लाम पर भेज दिया गया। कई-कई कैमरा माइक दल जुलूस क्षेत्र में आ उतरे। 

एक कैमरे वाले और एक माइक वाली की टीम ऐन वहाँ जा पहुँची जहाँ घूँघटवाली भौजी थिरक रही थी। माइक वाली को जुलूस का मज़ाक़ बनाने के लिए भौजी से ज़्यादा मौजूँ और कौन पात्र नज़र आता सो वह भौजी के ठीक आगे खड़ी हो हाथ के माइक को भौजी के घूँघट के ठीक नीचे लगा बोली, “ए कहाँ जा रही हो? ये मटक क्यों रही हो?” 

भौजी को न यह टोक सुहाई और न टोक की बानी भाखा। उसने घूँघट पलटकर देखा तो कटे बाल, गदराई देह, तनि उभरा पेट और जींस फँसी जाँघें दिखाई दीं। भौजी के मन में मौज उठी और उसे ठिठोली सूझी। उसने घूँघट से सटा माइक एक हाथ से परे खिसकाया और दूसरा हाथ माइक वाली की कमर में डाल उसे अपनी ओर खींचते हुए बोली, “आइजा दारी की नैक तूअऊ मटकि लै! वाँ पलिका पै तौ खूब कमर चलावति होगी, नैक यांहू चलाइलै, सिगरी वादी छटि जायगी।”

जुलूसियों को कई दिन बाद सूखे में फुहार पड़ती दिखाई दी। वे माइक वाली छमक-छल्लो को घेरकर ठी-ठी कर ठिठियाने लगे। 

छमक-छल्लो कमर छुड़ा माइक छोड़ धर भागी। उधर ऐसे ही एक कैमरा-माइक जोड़े ने एक मलंग जुलूसिये को जा लिया। 

सवाल हुआ–तुम लोग कहाँ जा रहे हो? 

जवाब आया–सिगरी दुनिया ए मालिम परि गयी ए, तोइ ना मालिम कितें जाइ रह्ये एं! 

सवाल हुआ–क्यों जा रहे हो? 

जवाब आया– जि बात तौ तेरी अम्मा ऊ ए मालिम परि गयी होगी जा बाई ते पूछिलै। 

यहाँ भी जुलूसिये खुल कर ठिठियाए। 

कैमरा मुस्कुराता रहा, माइक ग़ुस्साता-झुंझलाता रहा। खुनसाया मीडिया थोड़ा और खुनसा गया। 

यह सारी खुन्नस उतरी टीवी के परदे पर। जुलूसियों की वह भाषा सुनाई गयी जो उन्हें निपट अनपढ़, लट्ठ-गँवार साबित करती थी, उनके वे दृश्य दिखाए गये जो उन्हें फूहड़, उजड्ड, असभ्य और जंगलियों की जमात बताते थे। वे टिप्पणियाँ की गयीं जो उन्हें लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए ही नहीं देश के पर्यावरण के लिए भी ख़तरा घोषित करतीं थीं। सरकार को चेतावनियाँ जारी की गयीं कि दिन दूने रात चौगुने बढ़ते ये जंगली अगर राजधानी में घुस गये तो सारी राजधानी इनके मलमूत्र से गंधा जाएगी। 

मीडिया के सत्य, निष्पक्ष, तटस्थ कारनामे का असर यह हुआ कि राजधानी की समूची सम्भ्रान्तता अपने सपनों में मल-मूत्र के दर्शन करने लगी, जंगलियों के बरछे-भाले हवा में उड़ते दिखाई देने लगे, अपना आरामदेह, सुविधासम्पन्न जीवन जंगलियों के क़ब्ज़े में जाता दिखाई देने लगा। सम्भ्रांतता को इस विकट संकट से उबारने की ज़िम्मेदारी पुलिस की थी, प्रशासन की थी, सत्तापक्ष और विपक्ष की थी क्योंकि सम्भ्रांतता उनकी साझी जागीर थी। सो सब सतर्क हो गये, सन्नद्ध हो गये। 

अब इसे संयोग कहें कि कुसंयोग कि जहाँ लल्लू लाल और उनके जुलूसिये डेरा डाले हुए थे, वहाँ पान की दुकान पर टीवी चल रहा था। पान वाले ने थोड़ी ऊँची आवाज़ में कहा, “देख लो भैया अपनी तस्वीर देख लो, टीवी वाले क्या कह रहे हैं, देख-सुन लो।”

जुलूसिये देखने भी लगे और सुनने भी लगे। सुना हुआ कुछ समझे कुछ नहीं समझे। पर जो देखा, उसे देखकर पहले हँसे फिर चुप हुए, फिर ग़ुस्से से बलबलाने लगे! अपने मल-मूत्र सिद्धांत को पुष्ट करने के लिए टीवी मीडिया न केवल मर्दों की उठती-बैठती आकृतियाँ दिखा रहा था बल्कि अपने टोल के साथ घाघरा घेर विसर्जन के लिए खुले में बैठी घूँघट वाली भौजी को भी दिखा रहा था। जुलूसियों की एकमत वाणी फूटी–हमारी भौजी, हम चाहे जो हँसी ठट्ठा करें, जि सुसरे कौन? 

जुलूसिये टीवी वालों का इन्तज़ार करने लगे। लेकिन उस दिन एक लम्बे मंजे अभिनेता ने खांस दिया था और एक नाटे गंजे नेता ने पाद दिया था इसलिए उस दिन की सारी टीवी फुटेज इसी राष्ट्रीय महत्त्व की घटना में खप गयी थी, और अगले दो दिन तक खपती रही। आख़िर व्यस्तता ख़त्म हुई और सुघड़ सलौने कैमरे वालों, रिपोर्टरों और छमकती-छलकती माइकवालियों की जमात फिर वहाँ पहुँच गयी जहाँ राजधानी के निकट जुलूसिये खेतों में डेरा डाले पड़े थे। 

सचेत, जागरूक, जननिष्ठ और ज़िम्मेदार अल्पवयस्कों तथा उछलबच्चों की यह जमात तत्काल उन विजुअल्स की खोज में जुट गयी जिनसे दर्शक चिपके रह सकते थे, और जिन पर अतिज्ञानी, परमविद्वान, महाचिरकुट एंकर अपनी खौखियाती, हुहुराती, फुंकारती, फूत्कारती, कनखाती, चीत्कारती आवाज़ में पेंदे से प्राण तक का ज़ोर लगाकर अपनी भड़ैतिया भड़ासिया खुजली मिटा सकते थे। इसी महत्त्वपूर्ण खोज के उत्साही प्रयास में एक कैमरा-माइक टीम वहाँ भी जा पहुँची जहाँ घूँघट वाली भौजी और उसके मलंग देवर कच्ची-पक्की बनाने-बतियाने में व्यस्त थे। इन लोगों ने कैमरे-माइक को देखा और कैमरे-माइक ने इन्हें। 

मलंग जुलूसियों को टीवी पर देखा हुआ बहुत कुछ याद हो आया। अपनी ठिठोली भी याद हो आयी और अपना ग़ुस्सा भी याद हो आया। कैमरा मलंगों की तरफ़ घूमा और खड़े होकर मलंग कैमरे की तरफ़। माइकवाली ने माइक को आगे करके अपनी तरफ़ से बहुत चतुर-चालाक सवाल उछाला, “इस औरत को मुख्यमंत्री बनाने ले जा रहे हो?” ज़ाहिर था कि इस सवाल का जो भी जवाब मिलना था उससे दर्शकों का मनोरंजन होना था। 

मलंगों ने सवाल पूरी गम्भीरता से और ग़ौर से सुना, फिर किसी ने अपना पायजामा खोलकर नीचे सरका दिया और किसी ने अपनी बिना क्रीज की मुड़ी-मुसी पैंट। अधोवस्त्र पहनने का इनमें से किसी को भी अभ्यास नहीं था। 

कैमरा अपना काम करता रहा मगर माइकवाली छमक छल्लो ने आँख फाड़कर देखा। मगर कब तक देखती, सो बिदककर पीछे हट गयी। बन्द कमरे में दारू की चुस्कियों और निर्वस्त्र फ़िल्मों के सुरूर के बीच अलग-अलग, साथ-साथ ऐसी छोटी-बड़ी चीज़ें देखती ही रहती थी, पर इस तरह सबके सामने खुले में! उसने आँखें बन्द कर लीं, सिर्फ़ इसलिए कि उसे उसके मनचाहे काम पर भेजने वाला उसका इंचार्ज यह न पूछ ले कि इतनी देर तक इस तरह आँखें फाड़-फाड़कर देखने की क्या ज़रूरत थी। 

जब तक यह जमात पलटकर भाग न ली तब तक जुलूसियों के उपहास उपेक्षा से सने ठहाके उसका पीछा करते रहे। 

अब मीडिया को अभिव्यक्ति की आज़ादी की ख़ातिर बड़े-बड़े लोगों की बड़ी-बड़ी नंगी कहानियाँ प्रसारण के एजेंडे से हटानी पड़ती हैं। इसलिए अभिव्यक्ति की आज़ादी की ख़ातिर ही मीडिया को यह फुटेज भी डंप करनी पड़ी। इतना आवश्यक समाचार ज़रूर प्रसारित किया गया कि जुलूसिये बहुत बदमाश हैं, लेकिन राष्ट्रीय और पत्रकारीय नैतिकता के चलते, उनकी पूरी बदमाशी को हम अपने दर्शकों को दिखाने में असमर्थ हैं। 

यह दीगर बात है कि छमकछल्लो की साथ वालियाँ पूरे दिन उसके साथ छेड़छाड़ करती रहीं। 

जुलूस की हवा राजधानी के भीतर घुस गयी थी और अधिकारियों के बंगले-फ्लैटों से होती हुई, मंत्री-मुख्यमंत्री के महलिया आवासों में झाँकती हुई सीधे राजभवन की चौखट तक आ गयी थी। 

प्रधान जो पहले ही राजधानी चला आया था अभी भी इस मंत्री से उस मंत्री तक भटक रहा था। उसकी राजनीति एकदम पवित्र थी। वह चाहता था कि कोई मंत्री लल्लू लाल से दो बातें कर ले, एक गिलास ठंडाई और पाव भर पेड़ा खिला दे तो गाँव में उसकी धाक जम जाएगी। और अगली बार भी प्रधान बनने से उसे कोई माई का लाल नहीं रोक सकेगा। पर यहाँ कोई मंत्री उस पर हाथ रखना तो दूर उसे घर के भीतर भी नहीं घुसने दे रहा था। सबके मन में डर समाया हुआ था कि पता नहीं लल्लू लाल नाम का यह अनोखा जीव किस मंत्री की चौखट पर आकर खड़ा हो जाये, और मीडिया वाले उसी पर जनता का करोड़ों रुपया डकारने का आरोप थोपने लग जायें। 

ज़्यादातर मंत्रियों ने इस बीच राजधानी बाहर के कार्यक्रम बना लिये थे। पक्का और अनुशासित इरादा कर लिया था कि अगर राजधानी की तरफ़ आता जुलूस जल्दी ही तितर-बितर नहीं हुआ तो वे अपने तय सरकारी कार्यक्रम के अनुसार तड़ी पार हो जाएँगे। 

इधर स्वयं मुख्यमंत्री को ऐसे मंत्री की तलाश थी जो लल्लू लाल नाम की इस बेमौसम ख़तरनाक बला को बहला-फुसलाकर टाल दे। उन्हें ज़िले के नाकारा अधिकारियों पर ग़ुस्सा आ रहा था जिन्होंने एक बेमतलब मामले को इतना तूल पकड़ जाने दिया था। उनको तो बाद में भी दंडित-मंडित किया जा सकता था, फौरी समस्या तो आयी बला को टालने की थी। उन्होंने हर समय अपने चरणों में बिछे रहने वाले एक मंत्री को अगले चुनाव में उसके पाँच रिश्तेदारों को टिकट देने के वादे के साथ इस बला से निपटने की सहमति उससे जबर्दस्ती प्राप्त कर ली। मरता क्या न करता, इस मंत्री ने भी डरते-भिनकते स्वेच्छा से लल्लू लाल से बात करने की अपनी सहमति दे दी। यह मंत्री अब एक तांत्रिक को घर में बिठाकर पूजा करवा रहा था कि बला से बात करने की नौबत न आये और जुलूस शहर में घुसने से पहले ही हवा में विला जाये। 

उधर लल्लू लाल का जयकारा लगाता, अपने राम रुपैया की माँग करता, अम्मा सरकार से गुहार लगाता जुलूस आकार और इरादे में फैलकर शहर के चारों ओर पसर गया था। उस पर न तो पानी की बौछार की जा सकती थी, न लाठियाँ बरसाई जा सकती थीं, न गोलियाँ चलाई जा सकती थीं। जुलूस के हर सदस्य के भीतर एक लल्लू लाल बैठ गया था। और हर एक दिमाग़ में उसका अपना राम रुपैया! रासमंडली राजसूय यज्ञमंडली में बदल गयी थी। और यज्ञमंडली गा रही थी:

“हमें रुपैया दिब्बाइदै, सरकार मेरी अम्मा
राम रुपैया दिब्बाइदै, सरकार मेरी अम्मा
ना हम कीनी चुअर-चकारी, न कहूँ डाकौ डारौ। 
फिर काहे कूं बतराइदै तू, हक्क हमारौ मारौ
न्याय हमारौ करवाइदै, सरकार मेरी अम्मा
राम-रुपैया दिब्बाइदै, सरकार मेरी अम्मा”

यहाँ बाक़ायदा जुलूस को शहर में घुसने से पहले ही घेर लिया गया। यह अलग बात थी कि जुलूसियों ने राजधानी को घेर रखा था, मगर सरकार, प्रशासन और सभी डरे हुए लोगों ने यह मानना ही जनहित में माना कि जुलूसियों को घेर लिया गया है। अब इस घिरे हुए जुलूस की ओर से वार्ता के लिए लल्लू लाल को ही निकलना था, सो जो लोग उन्हें लेने आये थे लल्लू लाल उनके साथ निकल लिये। उन्होंने उत्तर-दक्खिन-पूरब-पच्छिम के अलावा धरती और आकाश की ओर भी नज़र डाली, पर पिरधान का कहीं अता-पता नहीं था। 

इधर जुलूस में से फिर स्वर फूट पड़ा:

“तुम जाऔ लल्लू लाल रुपैया लैकें, अइयौं
रुपैया लैकें अइयों राम रुपैया लैकें अइयौं
हो जाऔ लल्लू लाल रुपैया लैकें अइयौं . . .” 

लल्लू लाल जब क़दम लोट मंत्री के आवास पर पहुँचे तो मंत्री पंद्रह मिनट पहले से ही हाथ जोड़े खड़ा था। लल्लू लाल को देखते ही उसने जुड़े हाथ कुछ और कसकर जोड़ लिये। ऐसे मौक़ों पर चेहरे पर बिछाई जाने वाली मुस्कान की कई परतें एक साथ बिछा लीं। वह आइए पधारिए का आलाप लेता हुआ लल्लू लाल को वार्ता कक्ष तक ले आया। 

अंदर क़दम रखते ही लल्लू लाल की नज़र बीच में रखी गुलाईदार मेज़ पर पड़ गयी, मेज़ पर नहीं मेज़ पर रखी तश्तरी पर, तश्तरी पर नहीं तश्तरी में रखे बड़े-बड़े पेड़ों पर। लल्लू लाल ने इस बार अपने तालू को तर होने से पहले ही तनिया दिया। मंत्री जब तक उनसे बैठने का निवेदन करता तब तक उन्होंने अपनी लाठी धपक दी और बोले, “देखि मंतरी, न हमारी तोते लगी, न तेरी हमते। असल बात राम रुपैया की ए! तू हमारौ राम रुपैया हमें लौटाइ दै, और सुनि, जे पेड़ा हम तब ही खावेंगे जब अपनौ रुपया लै लेंगे।”

मंत्री को अपना सारा खेल उलटता लगा। उसको आधिकारिक तौर पर बताया गया था कि जब यह आदमी एक दो पेड़ा निगल लेता है तो सरकार से बात करने लायक़ हो जाता है। यहाँ यह पेड़ा खाने से ही इनकार कर रहा है। 

 मंत्री का सचिव हाथ जोड़कर बोला, “लल्लू लाल जी आपके रुपैया की बात तो हम करेंगे ही, पहले जलपान तो कर लीजिए।”

 लल्लू लाल ने इस आदमी को देखा, फिर बोले, “मंतरी को ए? तू कै जे?” 

सहमे हुए सचिव ने मंत्री जी की ओर इशारा कर दिया। इशारे को समझ लल्लू लाल बोले, “फिर तू बीच में टिटिर-टिटिर च्यों करि रह्ये ए! एक लंग कूं च्यों ना बैठतु।”

सचिव सचमुच एक तरफ़ को खिसक गया। 

मंत्री ने अपनी सारी पैंतरे-बाजियों, चलाकियों, मक्कारियों, ज़ुबान की चासनी और दिल की छुरियों का एक-एक कर स्मरण किया और कमर से दुल्लर होता हुआ बोला, “अतिथि देवो भव! आप तो भगवान के समान हैं। भगवान को प्रसाद चढ़ाये बिना कोई शुभ काम पूरा नहीं होता। जब तक आप प्रसाद ग्रहण नहीं करेंगे तब तक हम वार्ता का शुभारम्भ ही नहीं कर सकेंगे।”

तालू फिर तर होने को हुआ पर लल्लू लाल ने फिर तनिया दिया। 

विनने एक बार पेड़ों की ओर देखा और फिर मंत्री के विनयावनत चेहरे की ओर। बोले, “देखि मंतरी तेरी भलमनसाहत सिर माथे। तू हमें जा हाथ रुपैया दै, और बा हाथ हम पेड़ा खाइबौ शुरू करि दैंगे। ना खाबें तो जो सजा चोर की सौ हमारी।”

मंत्री के हाथ-पैर फूल गये। अगर लल्लू लाल को नहीं पटा सका तो उसका पेट और मुख्यमंत्री की लात। उसने अपनी चुनावी तिकड़मी, खुशामदी और गुंडई-मिश्रित कौशल से लोगों को पटाने, धमकाने, रास्ते पर लाने और रास्ते से हटा देने की सारी कलाओं का एक बार फिर स्मरण किया। लेकिन उसके किसी भी साँचे में इस आदमी का ढाँचा नहीं खप रहा था। न इसे गुंडों से पिटवाया जा सकता था न पुलिस से धमकवाया जा सकता था, मगर फुसलाने-बहकाने का आजमूदा हथकंडा तो एक बार आज़माया ही जा सकता था। वह आपादमस्तक अभिनीत विनय से बोला, “लल्लू लाल जी आप अपने रुपये की ज़िद छोड़ दीजिये, बदले में जितनी चाहें उतनी पेटी ले लीजिए।”

“पेटी कूं तू अपई बेटी के ब्याह कों धरि राखि, मोइ तो अपऔं रुपैया चहिएं!” लल्लू लाल जी बोले। 

मंत्री बोला, “आपके बेटा-बेटी, भाई-भतीजे होंगे। उनकी सरकारी नौकरी लगवा लीजिए!”

लल्लू लाल बोले, “नौकरी दै तू अपने बेटा-बेटिन कूं, अपने भाई-भतीजेनि कूं। मौइ तौ अपओं रुपैया चहिएं।”

मंत्री बोला, “लल्लू लाल जी, चुनाव का टिकट ले लीजिए, टिकट के साथ चुनाव का ख़र्चा ले लीजिए।”

लल्लू लाल बोले, “टिकट कूं तू ऊपर डारि, नीचे डारि मोइ कछू ना लैनौ-दैनौ! न मोइ टिकट चहिएं न खर्चा, मोइ तौ अपऔं रुपैया चहिएं!”

लल्लू लाल ने अपना लट्ठ एक बार फिर धपक दिया। 

मंत्री ने तुरत-फुरत अपनी व्यक्तिगत स्थिति का राजनीतिक आकलन किया और लिये गये फ़ैसले को जनता का फ़ैसला मान स्वयं अपने ऊपर ओढ़ लिया! वह बोला, “लल्लू लाल जी, हम रहे छोटे से मंत्री। न हमारी रीढ़ न औक़ात, न हमारी ज़ुबान न बात। मुख्यमंत्री टुकड़ा फैंके वो जनता तक पहुँचा देते हैं। जनता का जो रुपैया आवै वो मुख्यमंत्री तक पहुँचा देते हैं। हम तो बिना पेंदी-पकड़ के आदमी हैं, आप कहो तो आपके साथ वे कहें तो उनके साथ।” 

लल्लू लाल कुछ समझे कुछ न समझे, सो बोले, “देख मंतरी तेरी आयं बायं हमारी समझ आवति नाइं। बात करनी ए तौ सूधी-सट्ट करि, चित पट्ट मतिकरि! सूघैं बता हमाऔ रुपैया कहाँ ए?” 

मंत्री बोला, “सीधी बात है कि आपका रुपया मेरे पास है भी और नहीं भी है। आपको मुख्यमंत्री से बात करनी पड़ेगी।”

लल्लू लाल बोले, “देखि मंतरी हमाऔ रुपैया सत्त और न्याय कौ रुपैया है। बाइ हम लैकें रहेंगे, तो पै नाइं तौ तैसी कहि, जा पै रुपैया ए बाके पास लै चलि।”

मंत्री ने सोचा, अगर लल्लू लाल की ज़िद नहीं टूटी और सचमुच रुपैया वापस करने की नौबत आ गयी, तो फिर बचेगा क्या? सब कुछ भरभरा जाएगा। लल्लू लाल की ज़िद उसे काल के गाल समान लगने लगी जो सबसे पहले उसे ही निगलना चाहती थी। मंत्री के भीतर एक शहीदाना यानी आत्मबलिदानी भाव जागने लगा। राजनीति में आत्म बलिदान का मतलब होता है साथ में दूसरे की बलि भी ले लेना। सो उसने लल्लू लाल को सीधे मुख्यमंत्री के पास ले जाने का फ़ैसला कर लिया। 

मुख्यमंत्री को मालूम हुआ कि उनका क़दमलोट मंत्री लल्लू लाल को लेकर उनके पास आ रहा है तो उनके दिमाग़ के तार तनतना उठे। उनका पिल्ला उन्हीं पै भौंक, दग़ा दे रहा है उन्हें? फिर सोचा कि यह दग़ा नहीं राजनीति है। राजनीतिक चतुराई का नाम ही दग़ा है। उनके आगे उन्हीं का मोहरा शतरंज पर बैठे, यह उन्हें सहन नहीं था। सो उन्होंने इस दग़ाबाज़ को मंत्रिमंडल की बिसात से परे खिसकाने का फ़ैसला कर लिया। उन्होंने अपनी आँखें बंद की तो फौरी समस्या के रूप में लल्लू लाल उभर आये जिन्हें लेकर यह दग़ाबाज़ उनके कक्ष की तरफ़ बढ़ रहा था। 

मुख्यमंत्री ने बन्द आँखों से देखा तो उन्हें ज़्यादा साफ़-साफ़ दिखाई देने लगा। लल्लू लाल को रुपैया वापस करने का मतलब था राजधानी को घेरकर खड़े लाखों-करोड़ों लोगों का रुपया वापस करना। इन लाखों-करोड़ों लोगों को उनका रुपैया वापस करने का मतलब था समूची व्यवस्था का ताश के पत्ते की तरह बिखर जाना, उनके पैरों के नीचे से ज़मीन खिसक जाना, आसमान का टपककर ज़मीन पर आ गिरना। न उनका पार्टी-संगठन खड़ा कर पाना न उनका चुनाव लड़ पाना, न चुनाव लड़ने की मशीनरी तैयार कर पाना, न मनचाहे विधायक जिता पाना और न सत्ता पर काविज हो पाना–मतलब कि संपूर्ण प्रलय। मुख्यमंत्री का दिमाग़ इस प्रलय के प्रकोप से बचने का वक्तव्य तैयार करने लगा। 

जब लल्लू लाल ने मंत्री के साथ मुख्यमंत्री के कक्ष में प्रवेश किया, मुख्यमंत्री की आँखें तब भी बन्द थी। मंत्री ने बन्द आँखों को खुली आँखों से प्रणाम किया और बिना बोले बहुत कुछ बोलकर कक्ष से बाहर हो गया। 

लल्लू लाल की दृष्टि पेड़ों के थाल पर पड़ी मगर उनका गला तर होने के बजाय तिरमिराने लगा। उनने अपनी दृष्टि को पेड़ों से हटाकर कुर्सी पर बैठी शख़्सियत पर टिकानी चाही तो उनकी आँखों में कुर्सी भर गयी। उनने फिर कुर्सी पर जमी मूरत को देखने की कोशिश की तो उनकी आँखों के आगे भ्रम के बगूले से उठने लगे। इन बगूलों के बीच में से उन्हें कभी आदमी का चेहरा दिखाई देता तो कभी औरत का, कभी उन्हें देशी पोशाक दिखाई देती तो कभी विलायती। कभी उन्हें आवाज़ की ज़नानी खनक सुनाई देती, तो कभी मर्दानी, कभी दोनों खनकें मिली-जुली सुनाई देतीं। कुर्सी पर जमी मूरत कभी उठती दिखाई देती तो कभी गिरती। लल्लू लाल को लगा उनकी आँखें उन्हें धोखा दे रही हैं, सो उनने ज़ोर से आँखें बन्द कर लीं और कान ज़ोर लगाकर खोल लिये। लाठी धपकने का उन्हें ध्यान ही नहीं रहा। 

उनके खुले कानों में कुर्सी से आती हुई आवाज़ उतरने लगी–लल्लू लाल तुम इतने स्वार्थी कैसे हो सकते हो? तुम अपना रुपया कैसे माँग सकते हो? तुम्हारे अंदर बिल्कुल दया भाव नहीं है? तुम इतने निष्ठुर कैसे हो सकते हो . . . बड़े-बड़े मंत्री बड़े-बड़े अधिकारी, उनके नाते-रिश्तेदार, उनके दरबारी, बड़े-बड़े इंजीनियर, ठेकेदार-प्रबंधक, व्यापारी, जगह-जगह बैठे हुए दलाल और छोटे-बड़े कर्मचारी, वक्ता-अधिवक्ता, न्यायाधीश, ज्योतिषी, भविष्य-वक्ता, मठ मंदिरों के बड़े-बड़े मठाधीश, संगठन-संस्थानों के कर्ता-धर्ता, अभिनेता-निर्माता, दानदाता-भाग्यविधाता, क़दम-क़दम पर खड़े निरीक्षक-परीक्षक, बड़े-बड़े अधीक्षक, कौन ऐसा है जिसे तुम्हारे रुपये की ज़रूरत नहीं है, कौन ऐसा है जिसकी समृद्धि की जड़ों में तुम्हारा रुपया नहीं है? जो सत्ता चलाता है उसे तुम्हारे रुपये की ज़रूरत है, जो सत्ता चाहता है उसे तुम्हारे रुपये की ज़रूरत है। तुम्हारे रुपये से ही इन लोगों की तक़दीर बनती है, इनकी तक़दीर से ही हमारे लोकतंत्र की गाड़ी चलती है, इन्हीं की चमक से हमारा देश चमकता है, इन्हीं के कारण देश की शानो-शौकत का डंका बजता है . . . 

 . . . तुम समझ रहे हो न लल्लू लाल, तुम्हारा रुपया हमारे लोकतंत्र की रग-रग में फैला हुआ है। तुम्हारा रुपया तुम्हें वापस करने के लिए इस लोकतंत्र की रगें काटनी पड़ेंगी . . . इसका मतलब जानते हो लल्लू लाल . . . कितने लोग तबाह हो जाएँगे, कितने लोगों के सुख छिन जाएँगे, कितने लोगों के महल-बंगले गिर जाएँगे, कितने करोड़पति कंगले हो जाएँगे . . . तुम अपना रुपया माँगकर इतना बड़ा पाप अपने सर कैसे ले सकते हो . . . बोलो लल्लू लाल, तुम इतने बड़े पाप के भागीदार कैसे बन सकते हो . . . बोलो लल्लू लाल . . . बोलो लल्लू लाल . . . 

लल्लू लाल के हाथ की लाठी काँपने लगी। 

उन्होंने बेचैन होकर आँखें खोल दीं। आकृति ग़ायब थी। हिलती हुई कुर्सी उनकी ओर व्यंग्य से देख रही थी। वह कुर्सी उन्हें डराती सी लगी। 

एक तरफ़ राम रुपैया और सत्त-न्याय की लड़ाई तो दूसरी तरफ़ पूरा लोकतंत्र और उसकी चमक में चमचमाते लोग, बड़े-बड़े मंत्री-मुख्यमंत्री, मालिक-महामालिक। अगर अपना राम रुपैया वसूलें तो लोकतंत्र गया, लोकतंत्र की चमक गयी, मंत्री-मालिक महामालिक गये और न वसूलें तो राम रुपैया गया, सत्य न्याय की बात गयी, लड़ाई गयी। 

लल्लू लाल ने एक बार फिर आँखें बन्द कर लीं। बंद आँखों में मुख्यमंत्री की कुर्सी रंग बदल-बदल कर तैरने लगी। उनके कानों में फिर वही ज़नानी-मर्दानी आवाज़ गूँजने लगी . . . तुम अपना रुपया माँगकर इतना बड़ा पाप कैसे कर सकते हो . . . कितने लोग तबाह हो . . . कितने लोगों के सुख छिन जाएँगे . . . कितने करोड़पति कंगले हो जाएँगे . . . 

आवाज़ लल्लू लाल को अपने हिये पर धप-धप करती लगी। उनकी दया-ममता को कुरेदने लगी। लल्लू लाल दान-पुन्न में कभी पीछे नहीं रहे। मंगते को कभी निराश नहीं किया, दीन-दुखी को कभी त्रास नहीं दिया। न कभी किसी का कुछ मारा, न ख़ुद किसी के आगे हाथ पसारा। परहित सरिस धरम नहिं भाई, पर पीड़ा सम नहिं अघमाई। अब इतने बड़े-बड़े लोगों को पीड़ा पहुँचाकर परपीड़ा की अघमाई क्यों करें . . .! लल्लू लाल, लल्लू लाल से बोले–चलौ लल्लू लाल, अपएं गाँव चलौ। रुपैया दान देउ, सत्त-न्याय की बात जान देउ! हम एक रोटी कम खावें तौ खावें, औरनि के म्हों को कौरा च्यों गिरावें। 

लल्लू लाल जुलूसियों के पास लौटे तो उन्हें देखते ही जुलूसियों ने ज़ोरदार जयकारा लगाया–बोल लल्लू लाल की–जै! बोल सत्त-न्याय की–जै! 

लल्लू लाल जैसे एक सम्मोहन से बाहर आये। 

दूर-दूर तक जुलूसियों के मुंड ही मुंड दिखाई दे रहे थे। लल्लू लाल ने एक बार फिर जुलूसियों को भर आँख देखा। मर्द, ज़नानियाँ, बच्चे और बूढ़े भी। किसी के पाँव में पनही नहीं किसी की देह पर भर-बदन कपड़ा नहीं। किसी का पेट पिचक रहा था, किसी का मुँह लटक रहा था। कोई बीमार लग रहा था, कोई लाचार दिख रहा था, किसी का शरीर झुका हुआ था, किसी का चेहरा बुझा हुआ था . . . 

जुलूसियों ने जब न लल्लू लाल का बोल सुना और न लल्लू लाल का कोई इशारा देखा तो असमंजस में पड़ गये। घूँघट वाली भौजी अपने टोल के साथ आगे बढ़ आयी। भौजी ने बोल उठा दिये:

“लेउ आइ गए लल्लू लाल रुपैया सबकौ लैकें
रुपैया सबकौ लैकें, हो राम रुपैया लैकें
लेउ आइ गए लल्लू लाल, रुपैया हमरौ लैकें”

एकाएक लल्लू लाल की पकड़ लाठी पर फिर से मज़बूत होने लगी। लल्लू लाल फिर लल्लू लाल से बोले– धिक्कार लल्लू लाल, धिक्कार! तू अपनौ रुपैया दान कर या भेंट चढ़ा, पर इत्ते जनों का रुपैया! तेरा रुपैया राम रुपैया, फिर इनका रुपैया! इनके पाँव में पनही नहीं वे ग़लीचा पै पनही रखें, इनके पेट में रोटी नहीं वो पेरा भकोसें, इनके सर पर छत नहीं वे छत पै छत बनावें,  . . . लल्लू लाल की आँखों से कुर्सी निकल गयी, कानों से ज़नानी-मर्दानी आवाज़ निकल गयी। उनके दिमाग़ से जो रोशनी निकल गयी थी वह भक्क से जल गयी। जो इनका हक्क मार ले, इनका रुपैया छीन ले उस पर दया कैसी? जो इनकी छत काटकर महल चिनावै उससे ममता कैसी! जो इनकी रोटी छीन के हवस मिटावै उससे प्रीत कैसी, उसे क्षमा कैसी! . . . प्रायश्चित कर लल्लू लाल, अपने छनिक पाप का प्रायश्चित कर! 

और लल्लू लाल ने अपनी पकड़ मज़बूत की और लाठी ज़ोर से धपक दी। लाठी की धपक धप्प-धप्प करती इस कान से उस कान होती हुई पूरे जुलूस के कानों में उतर गयी, फिर वहाँ से उतरी तो पूरी राजधानी में पसर गयी। 

लल्लू लाल ने जो देखा था वह जुलूस को बता दिया। 

लल्लू लाल ने जो सुना था वह जुलूस को सुना दिया। 

छिन भर की जो डगमगाहट आयी वह जुलूसियों पर जना दी। 

सत्त-न्याय का जो संकल्प अब लिया था वह जुलूसियों को जता दिया। 

जुलूसियों ने सत्त-न्याय का ज़ोरदार जयकारा लगाकर संकल्प को दुहरा दिया, तिहरा दिया। 

लल्लू लाल की लाठी की धपक राजधानी में चकफेरी मार रही है। जुलूसियों का संकल्प चकफेरी मार रहा है। सत्त-न्याय का जयकारा चकफेरी मार रहा है। 

सत्ता घबरा रही है, विपक्ष घबरा रहा है, मुख्यमंत्री-मंत्रियों का सर चकरा रहा है। दलालों और दलाली के रखवालों को पसीना आ रहा है। छल-प्रपंच-हथकंडे थककर हाँफ रहे हैं। चाल-कुचाल-षड्यंत्र चुककर काँप रहे हैं। 

लल्लू लाल का लट्ठ धपका हुआ है। जुलूसिये बोल उठा रहे हैं, बोल में संकल्प उठा रहे हैं, संकल्प में चेतावनी उठा रहे हैं:

“हियां आग लगि जाइगी, सरकार मेरी अम्मा
रजधानी जरि जाइगी, सरकार मेरी अम्मा
रुपैया दिब्बाइ दै, सरकार मेरी अम्मा
राम-रुपैया सरकाइ दै, सरकार मेरी अम्मा
सरकार मेरी अम्मा, सरकार . . .” 

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