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तीसरा कंडोम

 

राक्षसी हँसती है। 

दर्शक देखता है। 

मगर दर्शक वहाँ नहीं देख पाता जहाँ राक्षसी हँसती है। दर्शक सिर्फ़ टीवी का पर्दा देखता है। दर्शक वहाँ भी नहीं देख पाता जहाँ इस समय एक बड़े से कमरे में एक बड़े भव्य सोफ़े पर इतिहास अधलेटा बैठा हुआ है। उसके हाथ में टीवी का रिमोट है। 

इतिहास साइड टेबल पर रखे महँगी दारू के गिलास को उठाकर कुछ पलों के लिए अपने ओंठों से चिपकाता है फिर गिलास को वापस टेबल पर रख देता है। इतिहास इस कमरे में तृतीय पुरुष है। प्रथम पुरुष सामने बैठा हुआ वह चैनल हैड है जिसने इस समय घुटनों तक आती हुई हाफ़ पैन्ट पहन रखी है। कमर से ऊपर का भाग निर्वस्त्र है। वह अपने सोफ़े पर आराम से कोहनी टिकाये बैठा है। द्वितीय पुरुष एक दूसरे चैनल का न्यूज़ डायरेक्टर है। उसने भी वैसे ही हाफ़ पैंट पहन रखी है। मगर उसने छिछली-सी बनियान भी शरीर पर डाल रखी है जिसमें से उसकी छाती के बाल और उसके शरीर की गठान एक साथ बाहर झाँक रहे हैं। 

इतिहास प्रायः ऊलजुलूल सोचता है। वह द्वितीय पुरुष के चेहरे पर अपनी नज़र टिकाता है। एक ख़्याल उसके भीतर हू तू-तू करने लगता है . . . यह आदमी समाचार संपादक या समाचार निदेशक क्यों नहीं है। न्यूज़ डायरेक्टर क्यों है? फिर समांतर ख़्याल उभरता है . . . उसकी काम वाली सिर्फ़ ‘संतो’ क्यों है और उसके चैनल की एंकर ‘मैडम’ क्यों है . . . जहाँ कोई पिटती हुई भाषा छोटेपन का अहसास कराती है वहाँ उसे चढ़ती हुई भाषा से स्थानांतरित करके भारी भरकम वांछित प्रभाव पैदा किया जा सकता है। जो बात समाचार संपादक में हल्की और छोटी लगती है वह न्यूज़ डायरेक्टर में घुसकर भारी-भरकम और क़द्दावर हो जाती है। 

द्वितीय पुरुष घड़ी देखता है। 

उसके घड़ी देखने को प्रथम पुरुष देखता है। प्रथम पुरुष मुस्कुराता है, “दीक्षा के आने में अभी आधा घंटा है।”
द्वितीय पुरुष न झेंपता है न सकुचाता है, वह भी सिर्फ़ मुस्कुराता है। वह अपने गिलास में से एक लंबा घूँट गटकता है और एक बेहया नज़र इतिहास की आँखों में फेंक देता है। 

इतिहास अभी तक इतनी बेशर्मी से या बेतकल्लुफ़ी से मुस्कुराना नहीं सीख पाया है। वह अपने सामने बैठे पुरुषों की मुस्कुराहटों के पीछे छुपी सत्ता और उसके दर्प को सूँघता है। क्या इन लोगों को सचमुच कोई डर, संकोच नहीं सताता? क्या इन्हें सचमुच कोई घबराहट नहीं होती? अपने इस तरह के काम को लेकर इनके मन में कोई अनैतिकताबोध उत्पन्न नहीं होता? इनके मन में ही क्यों इनके पास जो दीक्षा आ रही है क्या उसके मन में भी कोई संकोच, कोई भय, कोई अपराधबोध नहीं होगा? अगर होता तो वह यहाँ आती ही क्यों और क्यों यह लोग इतनी बेफ़िक्री से उसका इंतज़ार करते? . . . और वह स्वयं इनके जैसा बेफ़िक्र क्यों नहीं हो पा रहा? क्या वह कायर है या कुछ और? 

इतिहास फिर अपने गिलास में से एक घूँट लेकर गिलास टेबल पर रख देता है। तली हुई मछली का एक टुकड़ा मुँह में रखता है तो मुँह में काँटे की उपस्थिति से सतर्क हो जाता है। बीच-बीच में इस तरह सतर्क होना उसकी फ़ितरत में शामिल है। जब वह सतर्क होता है तो उसके दिमाग़ का टेप कभी रिवाइंड होने लगता है तो कभी फ़ास्ट फ़ॉरवर्ड। 

टेप रिवाइंड होकर एक पुराने फ़्रेम पर रुक गया है। इस फ़्रेम में कॉलेज के दिन फ़्रीज़ हो रहे हैं . . . वह और उससे एक साल सीनियर यह प्रथम पुरुष कॉलेज की छात्र राजनीति में समाजवाद का झंडा उठाए हुए है . . . वे जमकर बहस करते हैं, कभी लोहिया से शुरू होकर मार्क्स तक पहुँच जाते हैं तो कभी गाँधी से शुरू होकर बुद्ध तक तो कभी देश के बँटवारे से लेकर सिकंदर के हमले तक। वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था हमेशा उनकी गालियों पर होती है . . . वे लड़कियों पर भी फ़िक़रे फेंकते हैं पर उनमें छिछोरापन नहीं होता। वे औरत की आज़ादी पर घंटों बात करते हैं . . . समय हाथ जोड़कर खड़ा हो जाता है—महानुभाव अब खाने का वक़्त है, अब पढ़ने का वक़्त है, अब सोने का वक़्त है . . . मगर किसे ध्यान रहता है। 

वे अपनी भूमिकाएँ तय कर रहे हैं . . . कोई राजनेता बनना चाहता है, कोई लेखक बनना चाहता है तो कोई पत्रकार, कोई प्रेमचंद को मात देना चाहता है तो कोई महावीर प्रसाद द्विवेदी और गणेश शंकर विद्यार्थी को। सबके अपने-अपने आदर्श, अपने-अपने लक्ष्य। इन आदर्शों में कभी-कभी सरदार भगत सिंह भी जुड़ जाते हैं तो कभी सुभाष बोस तो कभी-कभी माओ, चारू मजूमदार और जंगल सांथाल भी . . . जो देश की इस आज़ादी को आज़ादी बताने की कोशिश करता है वे उस पर पिल पड़ते हैं . . . 

वे पूँजीवाद से लड़ना चाहते हैं . . . जो आईएएस बनना चाहता है वह भी, जो संपादक बनना चाहता है वह भी, जो चुनाव लड़ना चाहता है वह भी। 

प्रथम पुरुष इतिहास की ओर देख रहा है। 

दोनों की आँखें मिलती हैं। टेप फ़ास्ट फ़ॉरवर्ड होता है और फ़्रेम में फिर बड़ा कमरा आ जाता है। प्रथम पुरुष पूछता है, “तू रुकेगा कि जाएगा?” 

इतिहास अपनी तरफ़ उछाले गए इस तटस्थ से सवाल को पूरी तटस्थता से ग्रहण करता है। अगर वह चला जाएगा तो भी इन लोगों पर कोई फ़र्क़ नहीं पड़ेगा, रुक जाएगा तो भी ये लोग कोई बाधा महसूस नहीं करेंगे। सवाल का जवाब दिये बग़ैर वह चुपचाप दारू की चुस्कियाँ लेता रहेगा तो भी इनमें से कोई भी दोबारा सवाल करने का दबाव महसूस नहीं करेगा। इन लोगों से उसका केवल काम-काजी औपचारिक रिश्ता नहीं है। चैनल में भले ही वह प्रथम पुरुष के साए में हो लेकिन उनकी अंतरंगता कॉलेज के दिनों जैसी ही है। वे एक-दूसरे से छिपने-छुपाने का खेल नहीं खेलते। 

“यार इतिहास,” द्वितीय पुरुष अनायास कहता है, “तू अभी तक प्रोफ़ेशनल नहीं हो पाया।”

इतिहास संबोधन से इतिहास चौंकता है। पहली बार किसने उसे यह संबोधन दिया था, उसे याद नहीं आता। शायद चैनल के ही किसी लड़के या लड़की ने। अब तो प्रथम पुरुष भी कभी-कभी उसे इसी नाम से बुला बैठता है। वह अपनी बातचीत में अक़्सर ऐतिहासिक उद्धरणों को घसीट लाता है, शायद इसलिए। शायद इसलिए भी कि वह अपने आसपास के लोगों की जीवन गाथाओं में पैठने और उनकी खोजबीन करने का लती है। आपसी बातचीत में वह अक़्सर कह बैठता है . . . मुझे उसका पूरा इतिहास मालूम है। व्यक्तिगत इतिहासों में उसकी ख़ास रुचि ही उसके लिए इस संबोधन की वजह बनी है . . . 

द्वितीय पुरुष ने यह बात पहली बार नहीं कही है। वह कहता ही रहता है। जब भी वह ऐसा कहता है टेप तेज़ गति से आगे-पीछे होने लगती है। वह अपना काम अच्छी तरह कर लेता है, अच्छी तरह गेस्ट-कोऑर्डिनेशन कर लेता है, कोई नया मुद्दा उठता है तो अपने प्रोग्राम का कंटेंट तुरंत तय कर लेता है, किस विषय का कौन अच्छा जानकार है यह वह जानता है, किन लोगों के विरोधी विचारों से डिबेट गरमाएगी उसे अच्छी तरह मालूम है, उसकी प्रोग्रामिंग हमेशा हिट रहती है, स्टुडियो डायरेक्टर भी अक़्सर उससे सलाह ले लेता है . . . मगर द्वितीय पुरुष की नज़र में वह प्रोफ़ेशनल नहीं है। प्रोफ़ेशनल प्रथम पुरुष है . . . द्वितीय पुरुष है। मालिक का सिर्फ़ घोड़ा नहीं, चेतक बन जाना प्रोफ़ेशनल होना है। मालिक की पुतली फिरी नहीं तब तक चेतक मुड़ जाता था . . . इतना ही नहीं इसके अलावा भी बहुत कुछ . . . यह बहुत कुछ उसे हमेशा दुविधा में डाले रखता है। 

उसने हाथ में लगे रिमोट का बटन दबा दिया है। चैनल पर प्रोमो चल रहा है . . . कैसा होगा आपका भविष्य, कौन से ग्रह दे सकते हैं आपको कष्ट . . . कौन से रत्न कर सकते हैं आपके अनिष्टकारी ग्रहों को शांत . . . कैसे कर सकते हैं आप अपने संकट दूर . . . कैसे पा सकते हैं आप अपना मनचाहा भविष्य . . . उपाय बताएँगे। विश्वविख्यात आचार्य, ज्योतिषविद श्री श्री धर्मपति शास्त्री जी महाराज . . . सिर्फ़ हमारे चैनल पर . . . सुबह सात बजे। 

विंडो से निकलकर शास्त्री का घुटा हुआ मुंड, उभरी हुई तोंद और चमक चिचोया चेहरा फ़ुल फ़्रेम बनकर पूरे पर्दे पर छप गया है। इतिहास शास्त्री की आँखों में देखता है। इन आँखों में उसे बेहद काँइयाँ क़िस्म का जन्तु बैठा नज़र आता है . . . 

प्रथम पुरुष पर्दे की ओर देखता है—अबे ये फ़्रॉड तुम्हारे चैनल में। प्रथम पुरुष ने यह बात द्वितीय पुरुष से कही है। 

“जब से आया है, मॉर्निंग शो की टी आर पी बढ़ गई है।” द्वितीय पुरुष ‘फ्राड’ को भिनकती मक्खी की तरह छिटक देता है, सीधे प्रोफ़ेशनल मलाई की बात करता है। 

“कितने दिये तुम्हारे यहाँ?” प्रथम पुरुष पूछता है। 

“पता नहीं, सीधे बिग बॉस से जुगाड़ लगा कर आया है,” द्वितीय पुरुष बेहद तटस्थ और असंपृक्त आवाज़ में कहता है। 

इतिहास इस फ़्रॉड शास्त्री की अनेक हरामज़दगियों से वाक़िफ़ है। ऐसे लोग चैनल पर आने के लिए मंत्रियों तक की सिफ़ारिश ले आते हैं, जमकर सौदेबाज़ी करते हैं, अपना व्यापार बढ़ाते हैं . . . आशंकाग्रस्त दिमाग़ों का भयादोहन करते हैं . . . पैसा पाते हैं, प्रसिद्धि पाते हैं . . . उसके मुँह से निकलता है, “इन लोगों को बढ़ावा देकर हम लोग अच्छा नहीं कर रहे हैं . . .”

“इसीलिए तो मैं कहता हूँ तू कभी प्रोफ़ेशनल नहीं हो सकता . . . अबे हम अच्छा-बुरा तय करने वाले कौन हैं . . . मार्केट जो माँगेगा हम वही तो देंगे . . . अब इन ज्योतिषियों का ख़ासा मार्केट है तो हम क्या करें . . .”

राक्षसी हँसती है। एक सहज हँसी। 

इतिहास दर्शक की तरह देखता है। 

पर्दे पर कमर्शियल ब्रेक उतर आया है। एक शहंशाह सच-सच बोलता हुआ मसालों के रथ पर बैठकर निकल गया है। एक टायर सारे देश को मजबूर कर गया है। एक सीमेंट ब्रांड राष्ट्रीय एकता स्थापित कर गया है। एक चावल सार्वजनिक स्वास्थ्य की गारंटी कर गया है। एक शिक्षा व्यापारी संस्था पूरे देश के रूपांतरण की गारंटी कर गई है। एक साबुन पूरे देश को स्वस्थ कर गया है। 

इतिहास ने रिमोट का बटन दबा दिया है। 

एक स्वामी भारत का कायाकल्प कर रहा है। कैंसर हो या एड्स, सबके ठीक होने का पक्का वादा कर रहा है। भारतीय संस्कृति के विस्थापित गौरव को पुनः स्थापित करने के अपने संकल्प में लोगों का सहयोग माँग रहा है . . . 

“हज़ार करोड़ से ज़्यादा का बिज़नेस है इस स्वामी का,” प्रथम पुरुष टिप्पणी करता है। “केवल पाँच साल में किया है इसने यह चमत्कार,” द्वितीय पुरुष प्रति टिप्पणी करता है। फिर जैसे उसे कुछ याद आता है, “गुजराती संत के कुछ लोग हमारे पास आये थे। स्वामी के ख़िलाफ़ उनके पास बहुत से काग़ज़ी प्रमाण थे।”

“क्या चाहते थे?” इतिहास ने सवाल किया है। “चैनल पर ख़बर चाहते थे। एक करोड़ तक देने को तैयार थे। पर हमने मना कर दिया।”

इतिहास को याद आता है कि बाद में स्वामी के बारे में एक नेगेटिव ख़बर एक टटपुंजिया चैनल पर चली थी। शायद वे एक करोड़ उधर स्थानांतरित हो गये थे। इन संतों, स्वामियों, बाबाओं के आपसी झगड़े भी ठेकेदारी के झगड़ों से कम नहीं होते, वह सोचता है। फिर उसके दिमाग़ का टेप रिवाइंड होकर एक बाबा के फ़्रेम पर अटक जाता है . . . “स्वामी जी आप टैक्स चोरों, तस्करों, नेताओं, व्यापारियों के दिमाग़ का इलाज क्यों नहीं करते . . . ये लोग ज़्यादा बीमार हैं। 

“ज़्यादा बीमारियाँ फैला रहे हैं . . . “

“हम तो सबको सद्मार्ग दिखाते हैं, सबको निरोग बनाते हैं।”

“छोटी-मोटी शारीरिक व्याधियों को दूर करने से समाज थोड़े ही स्वस्थ होता है . . . पर आप भी क्या करें, बड़ी व्याधियों का इलाज करने लगेंगे तो आपको पैसा कहाँ से मिलेगा,” वह बाबा पर एक नैतिक हमला जैसा करता है। 

अगले दिन उसे मालूम होता है कि बाबा ने बिग बॉस से उसकी शिकायत कर दी है। प्रथम पुरुष किसी तरह मामले को सँभालता है और उसे कसता है—उल्लू के पट्ठे, मज़ाक़ बराबर वालों से किया जाता है, उनके साथ नहीं जो मालिक के साथ उठते-बैठते हैं। 

“मैंने सच कहा था, मज़ाक़ नहीं किया था,” वह सफ़ाई देता है। 

“अबे साले, मीडिया में सच से बड़ा कोई दूसरा मज़ाक़ है क्या! तुझे इतने साल हो गये, तू ये छोटी-सी बात कब समझेगा।”

इतिहास अक़्सर यहाँ द्वंद्वात्मक संकट से घिर जाता है—वह सच और मज़ाक़ के मीडिया विकसित रिश्ते के साथ सीधा तालमेल नहीं बिठा पाता है। 

फ़्रेम फिर कमरे पर फ़्रीज़ हो जाता है। समाचार चैनल चल रहा है। 

एक गोली गर्भधारण के तनाव से मुक्ति दिला रही है, एक कम्प्यूटर दुनिया की सारी सफलता आपके चरणों में रख रहा है, एक मोबाइल फोन सारी दुनिया को आप से जोड़ रहा है . . . 

पूरा चैनल इन्हीं का विज्ञापन है, इतिहास सोचता है। वह रिमोट का बटन फिर दबा देता है। 

इस चैनल पर चुनाव सुधार का पैनल बैठा हुआ है। एक बुद्धिजीवी क़िस्म का व्यक्ति चुनाव में काले धन के प्रयोग पर ज़ोर-शोर से अपने तर्क रख रहा है। बग़ल में बैठा एक नेता मंद-मंद मुस्कुरा रहा है। बुद्धिजीवी कुछ चिढ़ता-सा दिखता है। स्टुडियो का कैमरा उसके चेहरे को नहीं उसकी झुँझलाहट को पकड़ने की कोशिश कर रहा है-अगर कालाधन नहीं रुकेगा तो कोई चुनाव सुधार नहीं होगा . . . 

“साला बेवकूफ,” प्रथम पुरुष बोलता है। 

“कौन?” इतिहास पूछता है। प्रथम पुरुष बिना सवाल पर ध्यान दिये रौ में बोल रहा है, “चार किताबें पढ़कर बहस करने चले आते हैं। दे डोन्ट अंडरस्टैंड प्रैक्टिकल पॉलिटिक्स। आई रियली पिटी दीज़ पीपुल।” 

द्वितीय पुरुष कहता है, “सुना है तुम्हारे चैनल ने चुनाव में अच्छा पैसा पीटा है। ब्यूरो और इंडिविजुअल रिपोर्टर्स को ठेके दे दिये गये थे . . . आई मीन टारगेट।”

“आधा पैसा तो बीच में रिपोर्टर ही खा गये। एक बाइट सौ में बेची तो यहाँ पचास दिये, एक स्टोरी चलवाने के हज़ार दिये तो वहाँ दो हज़ार वसूले . . .” प्रथम पुरुष मुस्कुराते हुए बताता है जैसे कि यह कोई मामूली बात हो। 

इतिहास का टेप थोड़ा रिवाइंड होता है . . . फ़्रेम में उसके यहाँ एक लोकल रिपोर्टर है और एक लोकल नेता। लोकल नेता रिपोर्टर की शिकायत करने आया है कि वह कवरेज के लिए पैसा माँग रहा है। रिपोर्टर नेता को न्यूज़ रूम के बाहर ही धर लेता है . . . तुम किसके लिए चुनाव लड़ रहे हो? जीत के जो पैसा बनाओगे उसे क्या हमें दे जाओगे? हमने यहाँ दानखाता नहीं खोल रखा है . . . चैनल पैसों से चलता है . . . तुम्हारा चेहरा हम फोकट में क्यों दिखाएँ . . . 

इनपुट हेड रिपोर्टर को टोकता है तो रिपोर्टर उस पर चढ़ जाता है . . . बिना पैसे लिए इन नेताजी को कवर कर दिया तो आप लोग ही बोलोगे मैं बीच में खा गया। ये लो ख़ुद बात कर लो नेताजी से . . . मुझे क्या है, मैं पूरा पैकेज बनवा देता हूँ . . . नेता शायद पहली बार राजनीति समझा है, वह चुपचाप खिसक लेता है। 

इतिहास प्रथम पुरुष की ओर देखता है जिसने अभी-अभी एक सवाल द्वितीय पुरुष की ओर उछाला है, “तुम्हारे मालिक की डील का क्या हुआ? मिनिस्टर से उसकी मुलाक़ात तो हो गई थी।”

“हाँ ऑलमोस्ट हो गई है,“ द्वितीय पुरुष सहज-सी जानकारी देता है, “थोड़ा-सा पेपर वर्क रह गया है। ज़मीन हमें अलॉट हो जाएगी।”

इतिहास सतर्क होता है ‘हमें’ पर। द्वितीय पुरुष जो चैनल हेड भी नहीं है ख़ुद को अपने मालिक और उसकी कंपनी से मालिकाना श्रेणी में जोड़ रहा है। अगर इसे यहाँ से पिछाई पर लात मारकर निकाल दिया गया तो यह दूसरे मालिक के साथ भी इसी शैली में जा जुड़ेगा। 

दूर कहीं राक्षसी हँस रही है। 

इतिहास नहीं देख पाता। वह दर्शक बना हुआ है। 

द्वितीय पुरुष फिर घड़ी पर नज़र डालता है। 

प्रथम पुरुष फिर उसके इसे देखने को देख लेता है, “क्यों बेचैन हो रहा है। आ जाएगी।”

“अगर गच्चा दे गई तो।” द्वितीय पुरुष ने यह बात यूँ ही अंदाज़ में कही है जैसे वह भीतर खाते अच्छी तरह जानता हो कि किस एंकर की हिम्मत जो चैनल हेड को चकमा देकर निकल जाये। 

इतिहास बटन दबाता है। 

एक सुपर फ़ास्ट चैनल पर्दे पर है। सिंक ख़त्म होते ही एंकर का चेहरा उभरता है . . . एक बार फिर आपका स्वागत है . . . इतिहास का टेप तत्काल एक पुराने फ़्रेम पर फ़्रीज़ हो जाता है। यह ख़ूबसूरत एंकर आकांक्षी लड़की उसके चैनल में चक्कर काट रही है . . . कभी चैनल हेड के पास तो कभी आउटपुट एडिटर के पास तो कभी एचआर मैनेजर के पास . . . सबकी नज़र उस पर है, पर पहले . . . उसे इधर से उधर दौड़ाया जा रहा है . . . वह खीजती है, परेशान होती है और एंकर इंचार्ज के आगे फट पड़ती है . . . 

“आप बताते क्यों नहीं मुझे कहाँ जाना है, किसके पास जाना है, घर पर जाना है या किसी होटल में जाना है . . . गुपचुप इशारे क्यों करते हैं . . . साफ़-साफ़ बताइए मुझे किसके साथ जाना है . . . मुझे परेशान क्यों कर रहे हैं . . .”

चुनौती इतनी खुली होती है कि इसे खुले में स्वीकार करने की हिम्मत कोई भी नहीं दिखा पाता। अब यह लड़की सुपरफ़ास्ट में जमी हुई एंकरिंग कर रही है। 

इतिहास के टेप में एक और फ़्रेम फ़्रीज़ होता है . . . 

वह सीधे उसी के पास चली आती है। वह एंकरिंग कर रही है और वह अच्छी तरह जानती है कि चैनल हेड उसका दोस्त है और कभी-कभी उसकी बात मान भी लेता है। वह कहती है, “यार मुझे प्राइमटाइम एंकरिंग दिलवा दो . . . तुम कहो तो तुम्हारे बच्चे की माँ बनने को भी तैयार हूँ।”

यह प्रचलित-सा जुमला है, शायद मज़ाक़ में कहा गया है, मगर वह हिल जाता है। कहता है, “ऐसी फ़ालतू बातें मुझसे मत किया करो।”

यह दीगर बात है कि इस समय चैनल में वह प्राइम टाइम एंकरिंग कर रही है। पुरुष एंकर खीजते-खिजलाते हैं, यह उनका काम है, करें। 

द्वितीय पुरुष को चढ़ रही है। उसे देर होना शायद खलने लगा है। वह पूछता है, “हू इज़ दिस युअर न्यू दीक्षा?” 

ज़ाहिर है कि द्वितीय पुरुष ने अभी तक नयी दीक्षा को देखा नहीं है। अगर दीक्षा का प्रायोजन उसने किया होता तो ऐसा ही सवाल प्रथम पुरुष उससे कर सकता था। 

इतिहास के दिमाग़ में एक सुंदर-सी तेज़ चाल लड़की की छवि उभरती है। उसने कई बार उसे प्रथम पुरुष के चेम्बर में देखा है। कई बार उससे संवाद किया है। कई बार उसे कुरेदने की कोशिश की है . . . कई बार उसके मन में इस लड़की के प्रति सहानुभूति पैदा हुई है . . . और अब वह लड़की नयी दीक्षा है . . . 

दीक्षा लड़की का नाम नहीं है, यह हर उस लड़की का नाम है जो एंकर बनने के लिए या एंकर होते हुए मनचाहा स्लॉट पाने के लिए किसी भी प्रभावशाली के बिस्तर तक जा पहुँचती है। पहले वह दीक्षा लेती है, फिर अपनी मनचाही जगह पर पहुँच जाती है। 

वह पूछता है, “व्हाई डिड यू चूज़ दिस प्रोफ़ेशन?” 

वह कहती है, “ऑनेस्टली सर, मीडिया इज़ माई पैशन।”

वह पूछता है, “व्हाई इलेक्ट्रॉनिक न्यूज़ मीडिया?” 

वह कहती है, “बिकॉज़ इट गिब्स यू मच बैटर चांस टू एक्सप्रेस एंड शो युअरसेल्फ़।”

वह कहता है, “तुम्हें नहीं लगता कि यहाँ बहुत से कंप्रोमाइज़ करने पड़ते हैं?” 

वह सीधा जवाब देती है, “फ़्रेंकली सर, कंप्रोमाइज़ेज आर एवरीव्हेअर। इफ़ यू वांट टू बिकम समथिंग, यू कान्ट अवाइड देम . . .”

वह अपनी बात थोड़ा और स्पष्ट करना चाहता है, ”एक्चुअली यू आर नॉट गेटिंग माई पॉइंट“

वह कहती है, “व्हाटएवर सर, आई एम हियर टू स्टे इन दिस प्रोफ़ेशन। टू बिकम ऐन एंकर इज़ माई चैरिश्ड ड्रीम . . .”

उसके मन में पल भर के लिए तरस पैदा होता है, मगर वह तुरंत स्वयं को असहाय महसूस करने लगता है। जिनके बाप, भाई या पति कहीं सत्ता में नहीं है, या कहीं बड़े अधिकारी नहीं है, या जो सीधे मालिक या मालिक के दोस्त-रिश्तेदारों के परिवार से नहीं हैं, एंकर-संघर्ष उन्हीं का होता है। कुछ वे भी अपवाद हैं जो अपनी प्रतिभा क्षमता पर भरोसा रखती हैं और इसी बल पर वे चैनल की ज़रूरत बन जाती हैं। उन्हें अलग से किसी दीक्षा की ज़रूरत नहीं होती . . . 

वह उस नई लड़की को तेज़ तर्रार लड़कियों की जमात में शामिल होते हुए देखता है। एक दिन स्मोकिंग ज़ोन में सिगरेट के कश लेती हुई दिखती है। चैनल की प्रमोशन पार्टी में उसके हाथ में बियर का गिलास दिखाई देता है। डांस फ़्लोर पर वह कुछ धुत्त जांबाज़ों के हाथ अपनी कमर पर लपेटे थिरकती-सी दिखती है। उसका संकोच छिटककर इधर-उधर बिखर रहा है . . . और वह अकेली नहीं है . . . ब्यूरो है, डेस्क है, असाइनमेंट है, आउटपुट है, इनपुट है, स्टुडियो है, कैमरा है, डिप्टी बॉस है, बॉस है . . . वह भी है। 

शुरू-शुरू में उसे सचमुच हैरानी होती थी कि क्या वह सचमुच सभ्य समझदार-सुसंस्कृत लोगों के बीच में है, पर अब लगता है कि जिसे वह जानता रहा है वह सभ्य संस्कृति नहीं थी, असली संस्कृति तो यहाँ है, वह है जो इन्होंने अपना रखी है। फिर भी उसे कभी-कभी कुछ बुरी तरह खटकने लगता है। शायद इसीलिए द्वितीय पुरुष उससे कहता है—तू अभी तक प्रोफ़ेशनल नहीं हो पाया। 

इतिहास इस बार एक लंबा घूँट भरता है। 

प्रथम पुरुष अपने मोबाइल से बात कर रहा है। स्पीकर उसने जानबूझकर ऑन किया हुआ है, वह भी सुनता है और द्वितीय पुरुष भी—ऑम ट्रेप्ड इन दिस ब्लडी जॉम बट इट विल टेक मी हार्डली फ़िफ़्टईन-टूवेन्टी मिनिट्स टू रीच देअर . . . सॉरी टू कीप यू वेटिंग . . . 

द्वितीय पुरुष ने अपना ऊर्ध्व वस्त्र उतार फ़र्श पर फेंक दिया है। उसके चेहरे पर इस बार जो मुस्कान उतर रही है वह उसकी तितली मूँछों से लेकर ओंठो और गालों तक पसर गई है। इतिहास जानता है कि जब भी ऐसा होता है द्वितीय पुरुष को कोई न कोई बात याद आ रही होती है जिसे वह मज़े ले-लेकर सुनना चाहता है . . . डू यू नो व्हॉट हैपिन्ड द अदर डे . . . उसे चढ़ गई है। 

वह शुरू हो चुका है—आई हैड कॉल्ड माई दीक्षा . . . शी केम इन, एंड यू नो। वह समझती थी कि मैं अकेला हूँ, शी डिडन्ट नो आई नेवर डू ऐनीथिंग विदआउट माई फ्रेंन्ड, माई बॉस, माई गुरु . . . वह अपना हाथ प्रथम पुरुष के कंधे पर रख देता है . . . 

“यू नो इतिहास, कमरे में हम दोनों को एक साथ देख कर वह परेशान हो गई थी। मैंने कहा, परेशान होने की ज़रूरत नहीं है . . . ये मेरा यार है . . . तेरे बहुत काम आएगा . . . जानता है इतिहास, वह क्या बोली—बट आई हैव ऑनली वन कंडोम . . .”

द्वितीय पुरुष ज़ोर-ज़ोर से हँस रहा है। 

प्रथम पुरुष उसकी हँसी में साथ दे रहा है। 

इतिहास हँसना चाहता है, पर हँस नहीं पा रहा। उसे भीतर से झोंक सी उठती महसूस होती है। झोंक शब्दों में बदल जाती है—तुम लोग गंदा खेल-खेल रहे हो। सीधी-सादी लड़कियों को करप्ट कर रहे हो। हाउ कैन यू से यू आर रिसपान्सिबल पीपुल . . . इट इज़ नॉसिएटिंग . . . 

प्रथम पुरुष और द्वितीय पुरुष की हँसी पल भर के लिए थम जाती है। पहले प्रथम पुरुष सँभलता है, “साले जब तुझे चढ़ जाती है तब ज़्यादा संतई सूझती है . . .”

द्वितीय पुरुष ग़ुस्से से इतिहास को देखता है, “अबे हम क्या करप्ट करने किसी के घर जाते हैं . . . हम क्या उन्हें टीवी में आने का, एंकर बनने का न्योता देने जाते हैं . . . कोई ख़ुद हमारे सामने खोल खड़ी हो जाये तो हम क्या करें . . .”

“डोन्ट बी वल्गर . . .” इतिहास लड़खड़ाती-सी आवाज़ में प्रतिवाद करना चाहता है। 
“देख इतिहास,” प्रथम पुरुष बोलता है, “देयर इज़ नथिंग लाईक वल्गर इन मीडिया . . . अब तक तुझे यह बात समझ लेनी चाहिए। मीडिया में सिर्फ़ अंडरस्टैंडिंग होती है, वल्गर कुछ नहीं होता . . . बस नज़रिए की बात है।”

“इसकी समझ में यही बात नहीं आएगी,” द्वितीय पुरुष कहता है, “ये तो यह भी नहीं मानेगा कि लड़कियों से ज़्यादा हमें भुगतना पड़ता है। लड़की तो घंटे भर में काम ख़त्म करके चल देती है। फिर उसका चाहा करने में हमें क्या-क्या पापड़ बेलने पड़ते हैं यह हम ही जानते हैं। मैनेजमेंट के आगे हमेशा हमारी पैंट उतरी रहती है . . .”

“सवाल पैंट उतरी रहने का ही नहीं है,” प्रथम पुरुष डिबेट खड़ी करता है, “सवाल यह है कि जो लड़की हमारे पास आती है वह क्यों आती है? तुम कहो कि उसकी मजबूरी उसे यहाँ खींच कर लाती है तो यह कोई लॉजिक नहीं है। इट इज़ हर एंबीशन दैट ब्रिंग्स हर हियर। वह अपनी महत्वाकांक्षा की वजह से आती है। टीवी ग्लैमर अट्रैक्ट्स हर। शी वांट्स टू बी ए सेलिब्रिटी ओवरनाइट लाईक ए फ़िल्म स्टार। वह नाम चाहती है, पैसा चाहती है, रुत्बा चाहती है, एंड पे फ़ॉर दैट। उसकी वह क़ीमत चुकाती है . . .”

“येस, दैट्स राइट। एकदम सही बात है,” द्वितीय पुरुष बहस को आगे बढ़ाता है, “वी टू पे फ़ॉर अवर एंबीशन्स। हम मैनेजमेंट के तलवे चाटते हैं। बिग बॉस के एक इशारे पर कुत्ते की तरह दौड़ पड़ते हैं, जिस पर वह शू करदे उस पर भोंकने लगते हैं . . . व्हाई फौर। टैल मी, हम ऐसा क्यों करते हैं। बस कुछ होने की अपनी महत्वाकांक्षा को पूरा करने के लिए ही तो . . . बता हम लड़कियों से कहाँ अलग हैं? दे हैव ऐन ईजी वे बट वी डोन्ट हैव ऐनी।”

“वन मोर थिंग इज़ देअर,” प्रथम पुरुष जोड़ता है, “वी ऑल आर ह्यूमैन बीइंग्स, वी आर नॉट गॉड्स। हम इंसान हैं। इंसानी कमज़ोरियाँ हमारे अंदर भी हैं। हम निःस्वार्थ भाव से ऐसा नहीं कर सकते कि जो लड़का या लड़की ग्लैमर में खेलना चाहता हो उसे मुफ़्त में अपनी गोद उपलब्ध करा दें कि लो बेटा यहाँ बैठकर कबड्डी खेलो। कोई ऐसा क्यों करेगा? वि शुड नेवर फ़ॉरगेट दैट वी ऑल आर इन द मार्केट एंड मार्केट हैज़ ए प्राइस फ़ॉर एवरीवन। मार्केट में सबकी क़ीमत है, जो क़ीमत लेकर बिकता है तो क़ीमत देकर ख़रीदता भी है। कोई हमें ख़रीदता है, किसी को हम ख़रीदते हैं . . . हम किसी से जबर्दस्ती नहीं करते, किसी का रेप नहीं करते . . .”

“समझे मिस्टर इतिहास,” द्वितीय पुरुष इतिहास को नाम से संबोधित करता है, “इस सिस्टम में ज़िन्दगी ऐसे ही चलती है। जो लड़की यहाँ आती है वह हमें देती ही नहीं हमसे वसूलती भी है, हम उस लड़की से सिर्फ़ वसूलते ही नहीं हैं उसे देते भी हैं। एंड वी हैव नो रिमोर्स फ़ॉर दिस गिव एंड टेक रिलेशनशिप। अंडरस्टैंड।”

इतिहास संकुचित-सा हो उठता है। 

राक्षसी हँसने लगती है। 

इतिहास सोचता है। सोचता है कि वह प्रथम पुरुष और द्वितीय पुरुष से कहीं ज़्यादा जानता है, बस अभी तक पूरी तरह उनके पाले में खड़ा नहीं हो पाया है। वह कभी इधर झूल जाता है कभी उधर। 

इतिहास रिमोट फिर दबा देता है। 

चैनल अपना विशेष कार्यक्रम दिखा रहा है। कुंड में मुंड। पर्दा भरा हेडर। 

एंकर चीख रहा है . . . देखिए हमारे चैनल पर पहली बार कहाँ है यह कुंड, किसके हैं इस कुंड से निकले हज़ारों नरमुंड . . . कौन पहुँचा था यहाँ, कैसे हुई इनकी मौत . . . सदी का सबसे बड़ा रहस्य जिसे हम उजागर कर रहे हैं पहली बार . . . देखना मत भूलिए। इतिहास के मुँह से गाली निकलते-निकलते रुक जाती है। 

वह फिर बटन दबा देता है। 

बदला हुआ चैनल बता रहा है कि अब क्या कर रही है पार्वती, किस नयी भूमिका में आ रही है तुलसी, कैसी लगती है बालिका वधू अपनी मूल ज़िन्दगी में . . . 

“सालों के पास समाचार ख़त्म हो गये हैं,” इतिहास बुदबुदाता है। वह बटन दबा देता है। 

चैनल पर मनोरंजन चैनलों द्वारा प्रसारित किये जा रहे फूहड़ हास्य क्रार्यक्रमों का रिपीट चल रहा है। समाचार चैनल पर मनोरंजनियाँ चैनलों का चुटकुला समाचार अवतार में उदित हो रहा है। 

इतिहास के मुँह से मोटी-सी गाली निकलकर कमरे में फैल जाती है। इतिहास फिर बटन दबा देता है। 

इस चैनल पर ब्रेकिंग न्यूज़ बंपर चल रहा है . . . राजधानी में सेक्स रैकेट . . . फ़्लेशट्रेड में लगी एक दर्जन से ज़्यादा लड़कियाँ गिरफ़्तार . . . 

प्रथम पुरुष तुरंत इतिहास के हाथ से रिमोट झपटता है। वह अपने चैनल पर आता है। वहाँ पानी पर डिस्को चल रहा है। वह बौखला जाता है। उसके हाथ का मोबाइल सक्रिय हो गया है। द्वितीय पुरुष के चैनल का पर्दा भी ख़ाली है। उसका नशा भी हिरन हो गया है। 

दोनों अलग-अलग अपने-अपने मोबाइलों पर चीखने-चिल्लाने लगते हैं . . . किसका निर्देश किसे मिल रहा है एकाएक समझ में नहीं आता . . . ख़बर क्यों नहीं चली अभी तक . . . सालों पिटवा दोगे हमें . . . कौन है इनपुट में . . . ओ वी क्यों नहीं भेजी अभी तक . . . पहले ब्रेकिंग चलाओ . . . रिपोर्टर पहुँच गया है तो फ़ीड क्यों नहीं आयी . . . पानी पर डिस्को चल रहा है तो गिराओ उसे . . . रिकॉर्ड कर लो फिर चला देंगे . . . एंकर को बोलो स्टुडियो पहुँचे . . . एंकरलिंक कौन बनाएगा . . . वो नहीं कर पाएगी शीमेल को भेजो . . . जब तक फीड नहीं आती तब तक पुराना टेप चला दो। लाइब्रेरी से निकालो . . . चेहरे मोजेके कर दो साले किसको पता है नयी फुटेज है कि पुरानी . . . शॉर्ट्स एडिट करा लो . . . रिपोर्टर से बोलो लड़कियों के बाइट्स लेगा . . . एसीपी से बात करना . . . बीजी ज़ोरदार होना चाहिए . . . ग्राफिक्स तैयार रखो . . . ख़बर पर जमकर खेलना है . . . 

दोनों हाँफ रहे हैं। 

दोनों के चैनलों पर सेक्स रैकेट उतर आया है। दोनों की टीमें ख़बर पर खेलने में जुट गई हैं। 

इतिहास जानता है कि यह खेल अब कई घंटों तक चलेगा। पानी, बिजली, महँगाई सब व्हील से उतर जाएँगे। पुलिस की गिरफ़्त में आयी लड़कियाँ हेडलाइन बनकर न्यूज़ की छाती पर दौड़ती रहेंगी। 

“यार हमने ख़बर को ख़त्म कर दिया है,” इतिहास ने अपने दार्शनिक अंदाज़ में फिर एक फ़िक़रा उछाल दिया है। शायद मज़ा लेने के लिए। 

“तू साले चूतिया ही रहेगा,” प्रथम पुरुष सम पर आते हुए कहता है, “ख़बर है क्या। ख़बर वह जिसे दर्शक देखना चाहता है और जो बिकती है . . .”

द्वितीय पुरुष बात को बीच से लपक लेता है, “न्यूज़ इज़ नथिंग बट ए प्रोडक्ट। बाज़ार में केवल वही प्रोडक्ट टिकता है जिसे बेचा जा सके, जिसे बेचकर पैसा बनाया जा सके। जिस प्रोग्राम की टी आर पी नहीं हो वह क्या ख़ाक बिकेगा।”

“डर, लालच, उम्मीद और गुदगुदी अच्छे बिकते हैं,” प्रथम पुरुष जैसे अपना सिद्धांत प्रतिपादित करता है, “ख़बर को इनके इर्द-गिर्द घुमा दो, अपने आप टी आर पी ले आएगी।”

द्वितीय पुरुष का हिरन हुआ नशा फिर बाड़े में आ गया है। वह प्रथम पुरुष के आगे गिलास समेत हाथ जोड़कर झुक गया है, “धन्य हो गुरु। मीडिया तुम्हारा लोहा ऐसे ही थोड़े मानता है।”

इतिहास बहस को यहाँ समाप्त नहीं करना चाहता। वह इन दोनों महापुरुषों के तर्कों के सहारे स्वयं अपने भीतर उठते गैर-प्रोफ़ेशनल तर्कों को सुलाना चाहता है। अपनी गाहे-ब-गाहे सर उठा देने वाली दुविधा से पिंड छुड़ाना चाहता है। वह कहता है, “हमारी पत्रकारीय परंपरा में ख़बर की यह परिभाषा नहीं है।”

“परंपरा भी बदलती है और परिभाषा भी, “प्रथम पुरुष अपने गिलास में थोड़ी और उँडेल देता है, “यह खुलेपन का युग है, न इसमें पुरानी परंपरा चल सकती है न परिभाषा।”

“देख भई,” द्वितीय पुरुष बोलता है, “सीधी बात यह है कि जो मालिक पूँजी लगाता है वह रिटर्न चाहता है।”

अपना नाम सुन राक्षसी सतर्क होती है। 

प्रथम पुरुष समर्थन करता है, “कोई मालिक, कोई कंपनी दान-खाता नहीं खोलते। जो पूँजी लगाएगा वह मुनाफ़ा चाहेगा। मुनाफ़ा बिकने वाली जिंस से होता है। चाहे साबुन हो या समाचार . . . और कंपनी हमें लाखों की सैलरी देती है तो मुनाफ़ा कमाने के लिए देती है न कि अपना ख़ज़ाना लुटाने के लिए। इफ़ वी वांट टू सरवाइव वी विल हैव टू लुक आफ़्टर कंपनीज़ इन्ट्रेस्ट . . .”

राक्षसी मुस्कुराने लगती है। इतिहास मज़े लेने लगता है, “ऐसा है तो हम पत्रकार क्यों हैं? एजेंट क्यों नहीं है, दल्ले क्यों नहीं है, मालिक की पूँजी के पिल्ले क्यों नहीं है?” 

“चुप साले, वी आर द थर्ड ईस्टेट ऑफ़ द स्टेट,” प्रथम पुरुष कहता है। 

“थर्ड नहीं फ़ोर्थ,” इतिहास सुधार करता है। 

“नो, वी आर थर्ड इस्टेट आफ़्टर लेजिस्लेटिव एंड एक्ज़ीक्यूटिव . . . वी आर द मोस्ट पॉवरफुल पीपुल . . .
और ज्यूडिशियरी . . . ”

“फ़क इट, देअर इज़ नो रिअल पॉवर इन इट। इट इज़ ऑनली ए करक्टिव एजेंसी। देखने में ताक़तवर लगती है पर है नहीं। बता कितने ताक़तवरों को फँसा पाती है? बोल मीडिया के कितने लोगों का अब तक कुछ बिगाड़ पायी है? ज्यूडिशियरी कुछ नहीं है। राज्य का तीसरा खंभा हम हैं . . .”

“आप धन्य हैं गुरु,” द्वितीय पुरुष फिर प्रथम पुरुष के आगे झुक गया है। उसकी पिछाई इतिहास की तरफ़ हो गई है। 

इतिहास की ज़ोरदार इच्छा होती है कि एक ज़ोरदार लात वहाँ जमा दे। पर किसी तरह वह ख़ुद को नियंत्रित करता है। 

इतिहास द्वितीय पुरुष को सीधा खड़ा होते हुए देखता है। फिर उस मुस्कान को देखता है जो आँखों में इनजेस्ट होकर मूँछों की तरफ़ एडिट हो रही है। यह फिर कुछ ऊलजुलूल बोलेगा। वह इंतज़ार करता है। 

द्वितीय पुरुष बारी-बारी से उन दोनों की ओर देखता है, फिर कहता है, “गुरु आम टेलिंग यू मोस्ट इंपॉर्टेंट सीक्रेट ऑफ़ अवर कंपनी . . . बट वादा करो तुम लोग किसी से बताओगे नहीं।”

दोनों के कान द्वितीय पुरुष से लग जाते हैं। 

“टॉप मैनेजमेंट ने कुछ नयी फ़ीमेल एंकर और रिपोर्टर भर्ती करने की परमिशन दी है,” द्वितीय पुरुष अपनी एक आँख दबा देता है। 

“तो इसमें कौन-सी नयी बात है, यह तो समय-समय पर हर चैनल करता है,” प्रथम पुरुष कहता है। 

इतिहास को भी इस सीक्रेट में कुछ सीक्रेट नहीं लगता। 

“नयी बात है गुरु बड़ी धाँसू नयी बात है,” द्वितीय पुरुष फिर से अपनी आँख दबा देता है। 

“अबे तो बोल ना। खामखां मिस्ट्री क्यों क्रिएट कर रहा है,” प्रथम पुरुष की आवाज़ में झुँझलाहट है। 

“देखो गुरु, पहले कह देता हूँ हमारा आइडिया मत मार लेना . . . दोस्ती अपनी जगह और बिज़नेस अपनी जगह। वी विल हैव टू कीप द थिंग्स सेपरेट,” द्वितीय पुरुष बहक रहा है। 

“अबे कुछ आगे बोलेगा भी . . .”

“ये एंकर-रिपोर्टर पी आर के लिए होगी, इक्सक्लूजिव पी आर के लिए,” द्वितीय पुरुष रहस्योद्घाटन करता है। 

इतिहास चौकन्ना होता है। 

“इसमें रहस्य क्या है। व्हाय डोंट यू कम डायरेक्ट,” प्रथम पुरुष झुँझलाता है। 

“अब भी नहीं समझे,” द्वितीय पुरुष ने आँखें मिचमिचायीं, “गुरु ये लड़कियाँ अक़्सर टीवी पर दिखाई जाएँगी, इनको सेलिब्रिटी स्टेटस मिलेगा। फिर यह कंपनी के कस्टमर्स के पास जाएँगी। कस्टमर आब्लाइज़्ड महसूस करेगा, कंपनी की लाइन फोलो करेगा। नेता-अधिकारियों से भी यही काम निकलवाएँगी। ज़रूरत पड़ने पर रिपोर्टिंग के बहाने एस्कॉर्स्ट भी करेंगी। आया समझ में,” द्वितीय पुरुष ने खीसें निपोर दी हैं। 

इतिहास को लगता है, कोई उल्लू का पट्ठा हँस रहा है। प्रथम पुरुष शायद इस योजना को अपनी कंपनी के लिए सोच रहा है। 

“इट विल बी ए टीम ऑफ़ हाईली पेड़ ब्यूटीफ़ुल एंड स्मार्ट गर्ल्स। ये लड़कियाँ स्पेस सेलिंग में भी मार्केटिंग टीम की मदद करेंगी,” द्वितीय पुरुष ने जैसे पूरी योजना का ख़ुलासा किया है। 

“इन्हें अप्वाइन्ट कौन करेगा और दीक्षा कौन देगा?” प्रथम पुरुष एक गंभीर सवाल पूछता है। 

“मैं सलेक्शन कमेटी का डिप्टी हेड हूँ,” द्वितीय पुरुष का सीना फूला हुआ लग रहा है। 

“हेड कौन है?” प्रथम पुरुष पूछता है। 

“हु एल्स, चेअरमैन ऑनली,” द्वितीय पुरुष का फूला हुआ सीना और फूल जाता है। वह कहता है, “एक्चुअली, इट वाज़ बेसिकली माई आइडिया।” 

इतिहास वैसे वहीं पहुँचने की कोशिश कर रहा था जहाँ उसके ये दो दोस्त पहुँचे हुए थे, फिर भी उसका मन हो रहा है कि अपना जूता उतारे और द्वितीय पुरुष की खोपड़ी पर दबादब बरसा दे . . . अपनी इस इच्छा को भी वह दबा गया है। इस समय वह जहाँ बैठा हुआ है वहाँ उसकी यह इच्छा अवैध संतान की तरह ज़्यादा है। वह कहता है, “तुम अपने चैनल को रंडीखाना बना दोगे।” 

“क्या इतिहास,” द्वितीय पुरुष बेशर्मी से हँसा है, “अभी तुझे कोई कमी नज़र आती है क्या?” 

प्रथम पुरुष भी मुस्कुरा रहा है। 

इतिहास का टेप फिर रिवाइंड होता है। फ़्रेम में पेंट्री के एक कोने में अकेली बड़बड़ाती लड़की है . . . कोई लड़की यहाँ कैसे काम कर सकती है . . . छिछोरियों ने हम जैसियों का जीना मुहाल कर रखा है . . . वह सहानुभूति से उस लड़की की ओर देखता है। लड़की झट से आँसू पोंछकर पेंट्री से बाहर निकल गई है। वह ख़ुद को और अधिक लाचार महसूस कर रहा है। 

“अबे यार!” द्वितीय पुरुष का विस्मयबोध फूटता है। वह घड़ी देख रहा है तो मतलब दीक्षा के विलंब से है। इतिहास पुराने फ़्रेम से निकलकर कमरे के फ़्रेम में आ गया है। वह चैनल बदल देता है। चैनल बलात्कार पर खेल रहा है . . . हमारे हाथ लगी है बलात्कारी दरिंदों की एक्सक्लूसिव तस्वीरें . . . हम दिखा रहे हैं आपको एक-एक बलात्कारी की तस्वीर . . . यही वे लोग हैं जो मासूम लड़कियों को फँसाते थे, उन्हें सड़क से उठाते थे। ये दरिंदे एक के बाद एक लड़की के साथ बलात्कार करते थे। इतना ही नहीं बलात्कार का एमएमएस बनाते थे। फिर अश्लील एमएमएस को सार्वजनिक करने की धमकी देकर लड़कियों को ब्लैकमेल करते थे। देखिए बलात्कार की पूरी दास्तान . . . चैनल दिखा रहा है एक-एक बलात्कारी की तस्वीर . . . बलात्कारी नंबर एक, बलात्कारी नंबर दो . . . पर्दे के फ़्रेम में बलात्कारियों की विंडो बनती जा रही है . . . एंकर चीखता जा रहा है . . . 

इतिहास को लगता है कि उसके साथ सामूहिक बलात्कार होने जा रहा है। उसे उबकाई सी महसूस होती है। वह रिमोट से टीवी ऑफ़ कर देता है। पर्दा ब्लैंक हो गया है। इतिहास सोफ़े से उठता है। टीवी कैबिनेट की दराज़ से एक नंगी वीसीडी निकालकर प्लेयर में लगा देता है। टीवी के परदे पर अब वस्त्रविहीन मादरजाद नंगे नर-मादा दृश्य उभर रहे हैं। उनके मुँह से आदिम आवाज़ें निकल रही हैं। 

इतिहास महसूस करता है कि डरावनी अश्लीलता से निकलकर कमरे का वातावरण कुछ श्लील हो गया है। प्रथम पुरुष टीवी की ओर देख रहा है, हँस रहा है। द्वितीय पुरुष ने अपना अंडरवियर भी उतारकर फ़र्श पर फेंक दिया है। 

इतिहास को वह भी कम अश्लील लग रहा है। इतिहास अपनी आँखें बंद कर लेता है। उसके कानों में द्वितीय पुरुष की आवाज़ टकराती है . . . 

“गुरु अपनी इस दीक्षा को बता दिया है कि दूसरे कंडोम की ज़रूरत भी पड़ेगी?” 

इतिहास को अश्लीलता झटके से वापस लौटती लगती है। 

उसके कानों से प्रथम पुरुष की आवाज़ टकराती है, “इतिहास पहले बताता तो उससे तीसरे कंडोम के लिए भी कह देता।” 

और इतिहास को लग रहा है जैसे मीडिया तीसरा कंडोम बनकर उसके ऊपर पूरा का पूरा चढ़ गया है और वह बिना किसी अवांछित ख़तरे के बाज़ार में नंगे लेटे विचार, सिद्धांत, भाषा, संस्कृति, सभ्यता, सत्ता की देह में कहीं भी घुसने को तैयार हो रहा है। 

राक्षसी हँस रही है। 

हँस रही है। 

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टिप्पणियाँ

अरुण कुमार प्रसाद 2023/11/16 02:15 PM

इतिहास को आईने में रख दिया गया है.प्रथम पुरुष,द्वितीय पुरुष,तृतीय पुरुष सबों को यह आईना देखना चहिये और अपना भविष्य तय करना चाहिये.

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