बँधुआ
कथा साहित्य | कहानी विभांशु दिव्याल15 Jul 2024 (अंक: 257, द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)
सुबह की पहली अँगड़ाई ली तो कमली के लिए दी गई मालिकिन की साड़ी की सतरें उसके दिमाग़ में खुलने लगीं। साड़ी के रंग की उजास उसके हर ख़्याल को सहलाने लगी। उसे लग रहा था, श्रद्धा से सर नवाते-झुकाते जैसे किसी मंदिर की मूरत का आशीष फला हो। मन हुआ कि उठे, साड़ी पर उँगलियों के पोर रखकर परस की पावन अनुभूति से फिर गुज़रे। तभी ध्यान आया कि एक दिन और बीत गया है। अब गाँव जाने में केवल तीन दिन रह गये हैं। गाँव के मेले की सारी झमक-झनक दृष्टि में उतर आई।
उसने उँगलियों पर हिसाब बिठाने की कोशिश की कि पिछली बार गाँव कब गया था। तब गाँव में बाढ़ से हुई तबाही की ख़बर आई थी। वह अपना घर-द्वार देखने को बेचैन हो उठा था। नई-नई नौकरी थी पर मालिकिन ने बिना किसी उज़्र के जाने दिया था। महीने-भर की पगार दी थी। आने-जाने का भाड़ा दिया था। जल्दी लौट आने की हिदायत दी थी।
खारी की बाढ़ प्रलय फैला गई थी। किसान के हाथ से उसके फ़सल-मवेशी ऐसे छीन ले गई थी जैसे किसी मज़दूर की महीने भर की पगार कोई उचक्का ले उड़े। घर-घर में अंधिरिया उतर आई थी। लेकिन उसके खेत टीले-डूह के खेत थे। जैसे पानी में डूबे थे, पानी उतरने पर वैसे के वैसे निकल आए थे। कोई ख़ास नुक़्सान नहीं हुआ था। सब देख-सुनकर, सबको धीर-दिलासा दे, सबके हाथों में आस-उम्मीद की डोर थमा, वह तीसरे दिन वापस शहर लौट आया था।
दूसरी बार गाँव जाने की हुड़क मन में उठी थी, तब दीवाली का मौक़ा था। मालिकिन बोली थी, “कुछ दिन पहले ही तो होकर आया है। अब क्या करेगा जाकर? गाँव पास होता तब भी ग़नीमत थी। पूरा एक दिन पहुँचने में ही लग जाता है। मैं मना नहीं करती, पर पैसा फ़ालतू ख़र्च करने से फ़ायदा?”
वह ज़िद करता तो मालिकिन मना नहीं करतीं। उसे मालिकिन की सलाह ही नेक लगी थी। फिर जब सारा शहर रोशनी और पटाखों के शोर में नहाने-डूबने लगा था तब उसे अपना गाँव बहुत याद आया था। कमली याद आई थी। नहना याद आया था। नहना अब पौरी लाँघकर दगरे में पहुँचने लगा होगा। बित्ता-सा था, तभी कितने हाथ-पैर फेंकता था।
कमली का ध्यान आया तो मालिकिन की दी हुई साड़ी का भी ध्यान आया। साड़ी का रंग फिर उसकी आँखों में भर गया। साथ ही भूरा की बात भी याद आई, ‘साड़ी ही दी है, ब्लाउज नहीं दिया?’
बात उसके पल्ले नहीं पड़ी थी तो भूरा ने समझाया था, “इस जमाने में कोरी साड़ी देने का चलन नहीं रहा। दुकान से साड़ी लाओ तो दुकानदार भी वैसे ही रंग का ब्लाउज का कपड़ा देता है।”
“बासू!” कोयल की कुहक-सी कानों में रस घोलनेवाली मालिकिन की आवाज़ सुनाई पड़ी।
“जी,” वह फुर्ती-से उठा और मालिकिन के सामने जाकर खड़ा हो गया।
“ये लेटर डाल आ। शाम को तुझसे कहने का ध्यान ही नहीं रहा। कल का लिखा रखा है,” मालिकिन ने लिफ़ाफ़ा उसकी ओर बढ़ाया।
लिफ़ाफ़ा अपने हाथ में लेते हुए उसने मालिकिन के शरीर से उठनेवाली उसी पहिचानी हुई गंध को महसूस किया जो थोड़ी देर को उसकी सुध-बुध बिसरा देती थी। उसे तब अपने गाँव के खेत याद आने लगते थे। खेतों में फूलती सरसों याद आने लगती थी। सरसों के पीले फूल याद आने लगते थे जिनकी गंध में डूबकर वह थोड़ी देर के लिए सुध-बुध भूल जाता था। उसने अनायास ही हाथ उठाकर उस लिफ़ाफ़े को सूँघा। लगा, मालिकिन के शरीर से हर समय उठकर मन के कलुष धोनेवाली गंध उस लिफ़ाफ़े में भी बस गई है। उसने गहरी आत्मीयता से उस लिफ़ाफ़े को फिर सूँघा।
सहसा उसे वह दिन याद आया जब वह पहली बार मालिकिन के आगे खड़ा हुआ था। एक अबूझे भय ने उसे हक्का-बक्का कर दिया था। बार-बार पूछे जाने पर भी वह अपना नाम तक नहीं उचार सका था। उसकी टाँगें काँपने लगी थीं। भूरा संग में नहीं होता तो पलटकर भाग लेता। मालिकिन ने कहा था, “देखने में तो अच्छा-ख़ासा लग रहा है, बोल नहीं पाता क्या?”
मालिकिन हँसने लगी थीं। उसे लगा था, खारी नदी के पानी में सैकड़ों मछलियाँ डुबकी लगाकर हिलोर पैदा कर गई हैं। वह हँसी, उसकी रही-बची हिम्मत भी समेट ले गई थी।
भूरा के साथ बाहर निकलने के बहुत देर बाद उसे याद आया था कि मालिकिन के सामने ले जाने से पहले भूरा ने उसे क्या-क्या सिखाया था। कैसे बात करे, क्या बात करे, कैसे अपने काम का भरोसा दिलाए, सारी बातें भूरा ने समझाई थीं। वह बचपन से रटी ओलम की तरह उन बातों को रटता रहा था। मालिकिन के सामने खड़े होने पर बिसर गई वे सारी बातें, फिर तब तक याद नहीं आई थीं, जब तक मालिकिन का चेहरा और उनकी हँसी उसके दिमाग़ पर छाये रहे थे। अब तो वह बात करते समय मालिकिन की ओर देख लेता है। मज़ाक़ करती हैं तो वह हँस देता है। कभी-कभी जवाब भी दे देता है। भय का तो नाम-निशान नहीं।
गाँव से आने के थोड़े दिन बाद ही उसने अपने आप से कहा था, “भली करी वसदेवा, गाँव छोड़ दीने। रोजाना की चिल्ल-पों से बचे। दो रोटी का सुख हुआ।”
वह दंड-बैठक लगाता था तो बाप झींकता था। वह अखाड़े में जाता था तो बाप झींकता था, “रोटी खाइवे नाहि, बेटा पैलवान बनिंगे। बाप के हाड़मांस रांधौ। कबलों खबावे घर बैठारिकें। मजूरी-बजूरी क्यों ना देखत?”
बिना देह तोड़े हराम की रोटी तोड़ना उसे भी नहीं सुहाता था। गाँव के ओर-पास वह मौक़ा-मजूरी की तलाश में रहता था। न गाँव में पूरे साल कटाई-बुवाई होती थी, न मजूरों को पूरे साल काम मिलता था। दो-चार ठाकुर-बामनों के घर थे, जहाँ घरू नौकर थे, सो भी इतने कि उँगलियों पर गिने जा सकें। जिस पर सब के सब बेगार करनेवाले। बेगार करना उसे सुहाता नहीं था। बाप कहता था, “बैठे से बेगार भली।” मगर इस जगह वह मुहावरा उलट देता था, बेगार से बैठे भले।
बाप का ताड़ना-त्रासना सर से ऊपर निकलने लगता तो मैय्यो कहती, “कबहूं, कभार खेत पै चलो जाइवे करि।”
बाप के आगे तो वह सुट्टा खींच जाता था, पर मैय्यो पर फट पड़ता, “ऐसे कहति ऐ कि सौ बीघा काश्त होय, सो खेत में हल चलाऊँ . . .।”
चार बीघे ज़मीन थी, वह भी टीले की। पास की नदी भी खेतों को प्यासा छोड़कर आगे बढ़ जाती थी। बिना पानी की धरती पर बाप के हाथ को भी पूरा काम नहीं था, तो वह खेतों पर जाकर क्या करता!
बाप भी जानता था कि खेत पर उसके लिए काम नहीं, मैय्यो भी जानती थी। मैय्यो का रोना-धोना इसलिए होता था कि उसके और बाप के बीच तनातनी न हो। घर में कांय-कलेश न हो। बाप की कहन-सुनन पर कभी उसे क्रोध चढ़ता था, तो कभी बाप पर तरस भी आता था। बाप मुँह अँधेरे से गोड़ तोड़ना शुरू करता तो दिन डूबे तक तोड़ता रहता था। चार प्राणियों के लिए रोटी तक भी नहीं जुटती थी। बाप के पाँव की बिवाई उसे भी तकलीफ़ देती थी, पर इलाज कोई सूझता नहीं था।
बाप ने उस पर सीधा हल्ला बोला था जिस दिन भैंस का दूध बेचने की बात चलाई थी। सुबह-शाम दोनों छाक भैंस इतना दूध दे देती थी कि थोड़ा-सा वह कसरत करने के बाद पी लेता था, थोड़ा नहना के लिए हो जाता था। बचा हुआ जमा दिया जाता था। बिना छाछ सूखी रोटी निगलना कितना कठिन काम था, यह वह भी जानता था, और उसका बाप भी। फिर भी बाप भैंस का दूध बेचने पर तुल गया था। इस मसले पर वह बाप के आगे सीधा तना तो बाप ने बेलाग खरी-खोटी सुनाई। उसकी बीवी और दुधमुँहे बच्चे तक को नहीं बख़्शा, “तोइ खबाबें तेरी लुगाई कूं खबाबें, तेरी औलाद कूं खबाबें . . .।”
उस दिन उसने अपने जीने को धिक्कारा। अगले दिन दूध नहीं पिया। गाँव के ओर-पास चार कोस तक काम तलाशा। काम न मिला तो घर छोड़कर भाग निकलने की बात दिमाग़ में चकफेरी मचाने लगी। उन्हीं दिनों पड़ोस गाँव का भूरा उसके गाँव अपनी रिश्तेदारी में आया था। उसे पता था कि भूरा शहर में काम करता है। बात-बात में उसने अपनी परेशानी की बात भूरा के कान में डाली तो वह तुरंत शहर ले जाकर काम दिलाने को तैयार हो गया।
भूरा ने अपने कारख़ाने के मालिक के आगे उसे खड़ा किया तब मालिक को कोठी के लिए एक चौकीदार की ज़रूरत थी। नौकरी की पक्की बात मालिकिन को करनी थी। मालिकिन के पास ले जाते समय भूरा ने बताया था कि वह भी कुछ दिन कोठी में काम कर चुका है। बोला था, “मालिकिन तो इन्दर की परी बनी रहती है। देखकर जी जुड़ाता है। मालिकिन तुझसे ख़ुश रहेंगी तो मालिक तो कुछ नहीं।”
उसका जी सचमुच जुड़ा गया था।
मालिकिन उससे किसी काम के लिए बोलतीं तो वह उनके मुख की उजास में डूब जाता। लगता, हरसिंगार के नीचे जा खड़ा हुआ है। उनकी गुलाबी रंगत निरखता तो हिये में कनेर फूलने लगती। सोचता, मालिकिन एक मूरत होतीं तो किसी मंदिर में पधारता, शीश नवाता। मालिकिन के बताए काम को करने में उसकी काया तो दुखती ही न थी, आत्मा तक को सुख मिलता। वह ऐसा सुख जी भरकर बटोरने की कोशिश करता।
एक दिन मालिकिन उससे बोली थीं, “भई, तेरा नाम बड़ा बेढंगा है। ढंग से बोला भी नहीं जाता—बसदेवा। मैं आज से तुझे ‘बासू’ कहा करूँगी, क्यों ठीक है न।”
ज़माने-भर की मिठास जैसे इस नए नाम में भर गई हो। वह ओंठों ही ओंठों में बुदबुदाया था, बासू . . . बासू . . . बासू, फिर एक दिन उसके सामने ही मालिकिन मालिक से बोली थी, “भई, बहुत दिनों बाद इतना अच्छा आदमी मिला है। काम एक बार बता दो तो दुबारा नहीं बताना पड़ता। मुझे तो बासू पर बहुत भरोसा हो गया है।”
उस दिन उसका मन हुआ कि ज़ोर-ज़ोर से गाता रहे . . . रामा हो, जे मनुआ न बस में हमार! वह मालिकिन को अपने काम से ख़ुश देखता तो ख़ुद ख़ुशी की फुहार में भीगने लगता।
मालिकिन ने पूछा था, “बासू, तेरा मन लगता है यहाँ?”
“खूब लगता है,” उसने कहा।
“घर की याद नहीं आती?”
वह चुप रहा था।
“घरवाले तो तुझे याद करते होंगे?”
“याद काहे की। उन्हें रुपैया से मतलब। रुपैया भेज देता हूँ।”
“उन्हें रुपैया से मतलब,” मालिकिन ने ‘रुपैया’ शब्द पर ज़ोर देते हुए उसकी नक़ल उतारी। फिर हँसकर बोलीं, “तेरी बीवी को भी रुपैया से मतलब है, तुझसे नहीं?”
वह अचकचाया हुआ मालिकिन को ताकने लगा था। बोला था, “मालूम नहीं।”
वैसे भी वह मालिकिन के आगे ज़्यादा नहीं बोलता था। मालिकिन उसकी बोली का कोई न कोई शब्द पकड़ लेतीं और खिजाने लगतीं। वह शहर की भाषा पकड़ने का जी-तोड़ प्रयास कर रहा था, फिर भी कोई न कोई ग़लती हो ही जाती थी। मालिकिन को मज़ाक़ बनाने का मौक़ा न मिले, इसलिए वह उनके आगे बोलने में बहुत चौकसी बरतता था।
“बीबी की याद आती है तो क्या करता है तू?” मालिकिन की आँखों की मुस्कान रुके पानी-सी मेड़ तोड़ बह निकली थी।
वह इस सवाल पर हड़बड़ा गया था जैसे मालिकिन ने उस दिन की चोरी पकड़ ली हो, जिस दिन वह भूरा के साथ . . . उसका जी हुआ था कि अपने गालों पर तमाचा लगाए।
उसे हड़बड़ाया हुआ देख मालिकिन हँसने लगी थीं। उनकी निगाहें, उसकी क़दकाठी का जायज़ा लेने लगी थीं। वे बोलीं, “तू गाँव में कसरत करता था?”
“रोजीना करता था।”
“यहाँ रोजीना नहीं करता?” इस बार 'रोजीना' शब्द मालिकिन की गिरफ़्त में आ गया था।
वह झेंप गया था, और दिमाग़ पर काफ़ी ज़ोर डालने के बाद याद कर सका था कि उसे ‘हर रोज’ कहना चाहिए था। फिर उसे ताज्जुब हुआ कि यहाँ आकर उसने कसरत कैसे बिसार दी, जबकि गाँव में बाप की सबसे ज़्यादा डाँट कसरत के कारण ही पड़ती थी।
अगले दिन पौ फटी तो वह दनादन दंड-बैठक लगा रहा था। उस दिन उसे अपनी भुजाओं की गाठें, जाँघों का भरापन बहुत भला लगा था।
मालिकिन ने पूछा था, बीवी की याद आती है तो क्या करता है? मालिकिन ने वैसे ही पूछा था, मज़ाक़ में। पर वह बुरी तरह सिकुड़ उठा था। उस दिन जैसा, जो कुछ हुआ था, सब का सब दिमाग़ के पर्दे पर उतर आया।
भूरा ने कहा था, “चल, बाजार टहल आएँ।”
“मुझे सौदा-सुलफ नहीं लेना,” वह कोठी छोड़कर जाना नहीं चाहता था।
भूरा ज़िद पकड़ गया, “शहर देख ले, नहीं तो गमार का गमार रह जाएगा। चल, देखना, कैसा सौदा-सुलफ दिलवाता हूँ।”
भूरा की आँखें चमक उठी थीं। चमकती आँखों को देखकर वह सोचने लगा था, कैसा सौदा-सुलफ दिलाएगा भूरा। मालिकिन से पूछकर वह भूरा के साथ चल पड़ा था। चलते-चलते जिस सड़क पर आ निकला था, वह सड़क उसने पहले नहीं देखी थी। न वह गली देखी थी जिसमें वह घुसा था, न वह सँकरा जीना, जिस पर भूरा के पीछे-पीछे वह चढ़ता चला गया था। वे लिपी-पुती औरतें भी उसने पहली बार देखी थीं।
जीना उतरते समय उन औरतों के लिपे-पुते चेहरों से उठती गंध उसके दिमाग़ पर डंक मार रही थी। भीतर का सब कुछ बाहर उलट पड़ने को हो रहा था। कुछ ग़लत कर बैठने का अहसास उसे कौंचे लगा रहा था। उसे कमली याद आई थी। फिर मालिकिन का चेहरा उसके ऊपर आ बैठा था। मालिकिन को पता लगा तो? इस विचार के आते ही वह दहल उठा था। क्या सोचेंगी वे? उसका बासू इतना कच्चा। देवी जैसी मालिकिन की निगाह में नीचा होना उसे मौत-सा डरावना लगा। उसने कानों को हाथ लगाया, देवता की सौगंध उठाई—नहीं, अब कभी नहीं।
कोठी के चौकीदार का काम ही कितना! होता होगा तो उसे पता नहीं लगता था। ख़ाली वह बैठ नहीं सकता था। उसे यह भी नहीं सुहाता था कि कोठी के पिछवाड़े की उर्वर भूमि बंजर का लिबास पहने रहे। उसने खुरपी ख़रीदी। फावड़ा ख़रीदा। बढ़िया खाद का ख़र्चा हाथ के मैल-सा। वह जुट गया।
मालिकिन को उस ज़मीन की उपयोगिता का अहसास तब हुआ जब सब्ज़ियों की बेलें फैलने लगीं, और फूलों से ख़ुश्बू उठने लगी। एक दिन वे मालिक का हाथ पकड़ कोठी के पिछवाड़े ले जाकर बोलीं, “देखा आपने। यह सब बासू ने किया है। मैंने कभी कहा ही नहीं। उसने मुझसे पूछा तक नहीं।” उनकी आवाज़ चासनी में पगी थी। चासनी की मिठास उसके रोम-रोम तक पहुँची थी।
दंड बैठक लगा चुकने के बाद पेट-पीठ एक होने लगते। उसे गाँव का दूध का लोटा याद आता। थोड़े दिन चने खाकर काम चलाया, पर मन नहीं भरा। हुड़क बनी रहती कि चनों के साथ लोटा-आधा लोटा दूध हो। उसने कोठी के दूधिए से ही बोल दिया कि आधा लीटर दूध उसे भी दे जाया करे।
दूधवाले के हिसाब का दिन आया तो वह मालिकिन के सामने खड़ा होकर बोला, “साब, दूधवाले का हिसाब कर दें। पैसे पगार में से काट लें।” मालिकिन ने दूधवाले का हिसाब कर दिया था।
पगार के दिन मालिकिन ने पूरे के पूरे पैसे उसके हाथ पर रखे तो उसने याद दिलाया, “दूध के दाम . . .”
“तुझसे दूध के दाम लूँगी भला। तू तो अब घर का आदमी हो गया है, बासू,” मालिकिन ने उसे अपनापे की नज़र से देखा था।
सारे दिन उसके मन का मोर पंख फैलाकर नाचता रहा था।
उसने दरवाज़े के पास पड़ा हुआ बटुआ देखा तो ताज्जुब हुआ था। मालिकिन का बटुआ। उसने उठाया तो खुले बटुए से दस-दस, पाँच-पाँच के नोट झाँकने लगे। मालिकिन तो ग़लती करती नहीं, फिर बटुआ कैसे गिर पड़ा। मालिकिन के हाथ में बटुआ देते हुए उसने वही कहा, जो सोचा था।
मालिकिन ने लुभावने अंदाज़ में कहा था, “तेरी वजह से लापरवाह हो गई हूँ बासू। मुझे किसी चीज़ की चिंता नहीं रहती। तेरे रहते यहाँ कोई गड़बड़ तो हो नहीं सकती।” मालिकिन उसे नापती हुई नज़र से देखते हुए बोलीं, “कि हो सकती है?”
उसने जवाब नहीं दिया था। पर मन ही मन संकल्प लिया था, अपनी जान में जान रहते तो गड़बड़ होने नहीं देगा। उसके बाद से उसे लगने लगा था, कोठी की भीतरी-बाहरी देखभाल की सारी ज़िम्मेदारी सिर्फ़ उसी की है। वह इतना चौकस रहने लगा था कि हल्की-सी आहट पर उठकर बैठ जाता। रात में तीन-तीन बार कोठी के चक्कर लगाता। हर आने-जानेवाले पर संदेह की निगाह डालता।
फिर मालिकिन ने यह किया कि चौकीदारी के लिए एक दूसरा आदमी रख लिया। कोठी के अंदर के सारे काम-काज उसे संभलवा दिए।
“बसदेवा, मेले पर गाँव नहीं जाएगा?” भूरा ने पूछा था।
मेले की याद के साथ ही गाँव के खेत-खलियान उसके भीतर लहकने-महकने लगे थे। नौटंकी में नाचती नटनियों के घुँघरू उसके कान में छमाछम होने लगे थे। सारा गाँव उसे पुकारता लगा था।
पिछली बार गाँव गया था तो मैय्यो ने टेर-टेरकर दुबारा जल्दी आने को कहा था। हमेशा मौन रहनेवाली कमली उस वक़्त भी कुछ नहीं बोली थी। जो बोल रही थी, उसकी आँखें बोल रही थीं-उदास-उदास, भरी-भरी। नहना उसकी ओर देखकर किलका था। अब तो देहरी लाँघकर दगरे में पहुँचने लगा होगा।
“मेले पर जावेंगे।” उसने भूरा को जैसे अपना फ़ैसला सुनाया।
”तेरी मालिकिन तुझे जाने देगी? तेरे ऊपर निछावर रहती है, नहीं रे!”
भूरा ने आँखें मिचमिचाई थीं।
भूरा की बात में कोई बुराई थी या नहीं, उसकी समझ में नहीं आया, मगर भूरा का आँखें मिचकाना उसे भला नहीं लगा। उसने भूरा की बात का कोई जवाब नहीं दिया।
“तेरी मालिकिन का कोई तोड़ नहीं,” भूरा ने फिर कहा। उसकी आँखें छोटी हुई थीं। उसके ओंठों ने चटखारा लिया था।
भूरा का इस तरह चटखारा लेना उसे ज़रा भी नहीं सुहाया। वह बोला, “बेकार बात न कर।”
“बेकार बात?” . . . ऐं! भूरा बोला था, “मालिकिन तुझे रोज़ दूध पिलाती है, सो बेकार! ऐं!”
उसे लगा था जैसी देवी के चरणों में ढोक देते-देते कोई उसकी छाती ताकने लगा हो। भूरा के पचास अहसान नहीं होते तो उसका मनसूबा तो उसे धकेल बाहर करने का बना था।
गाँव जाने की बात कहने जब वह मालिकिन के पास गया तो भूरा की बातों की किरकिराहट बनी हुई थी। उसे देखकर मालिकिन के मुख पर हमेशा की तरह भोर की उजास-सी मुस्कराहट आ गई थी। क्या और भी कुछ हो सकता है इस मुस्कराहट का मतलब? मालिकिन उस पर कृपालु हैं, तभी तो उसका इतना ख़्याल रखती हैं। उसके भीतर अनचाही उठा-पटक होने लगी थी। वह बोला था, “गाँव का मेला है। जाऊँगा।”
“मेले में जाएगा, या किसी से मिलने?” मालिकिन ने मज़ाक़ किया। वे हँसीं।
उसे लगा था, मीठी फुहार झर रही है। उसने पहली बार मालिकिन की उम्र अन्दाजने की कोशिश की थी। उनका बेटा कहीं बाहर पढ़ रहा था। पिछली बार आया था, तब उसने देखा था। बारह-तेरह से क्या कम रहा होगा। इस हिसाब से मालिकिन कमली से बहुत बड़ी होगी। कमली ने अभी बीसवां भी पार नहीं किया, पर कैसी बुढ़ा गई है। गौने पर आई थी तब कैसी लगती थी, गुलबटिया-सी। जैसी कि मालिकिन अब लगती हैं। वह मालिकिन की देह से नज़र उठाना भूल गया था।
“क्या देख रहा है बासू?”
“एं, कुछ नहीं। जी कुछ कुछ नहीं,” वह अक-बक भूल गया। मालिकिन हँसने लगीं। उनकी हँसी उसके भीतर चक्रवात-सी घूमने लगी।
“कब जाएगा गाँव?” मालिकिन ने फिर पूछा।
“मेला से पहले,” वह अपने होशो-हवास सँभालता हुआ बोला।
“ठीक है चले जाना। लौट जल्दी आना। तेरे बिना यहाँ बहुत परेशानी हो जाएगी,” मालिकिन ने अपनी चिंता प्रकट की।
अब तक वह पूरी तरह सँभल गया था। मालिकिन के बारे में ऐसी-वैसी बात सोचना भी पाप! उसे भूरा पर फिर ग़ुस्सा आया। इस बार मालिकिन की मुस्कान ने उसे बेलोनवाली देवी की मूरत याद दिलाई। वह जात करने गया था, तब देवी के मुख पर ऐसी ही मुस्कान थी। मालिकिन की मुस्कान देवी की मुस्कान से मिल रही थी। उसके भीतर का सोता उमड़ने लगा था।
उसने गाँव चिट्ठी डाल दी थी कि वह मेले पर घर आएगा। मालिकिन ने उसे बुलाकर कहा था, “बासु, ये साड़ी ले, मेरी ओर से अपनी बीबी को देना।”
साड़ी लेते हुए मालिकिन की उँगली उसके हाथ को छू गई। उस स्पर्श की आँच आरती की आँच की तरह मन का मैल काटती प्रतीत हुई। उसे लगा, देवी ने साक्षात् प्रकट हो उसे और कमली को आशीष दिया है—साड़ी देकर।
अपनी कोठरी में आकर वह अपनी उँगलियाँ साड़ी पर फिराता रहा, जैसे उसमें रची-बसी सारी पवित्रता को अपने भीतर समेट लेना चाहता हो। साड़ी में से गंध उठ रही थी। मालिकिन के स्पर्श की गंध। लोबान की गंध की तरह प्राणों में उतरती हुई।
नहना के लिए खिलौने-कपड़े, बाप के लिए कुरते का कपड़ा, और मैय्यो के लिए सूती धोती लेकर उसने अपनी ख़रीदारी पूरी कर ली थी। मगर अब भूरा की कही हुई बात उसके दिमाग़ में घुमेड़ ले रही थी। मालिकिन ने साड़ी दी थी। ब्लाउज नहीं दिया था। वह देखता था, मालिकिन जिस रंग की साड़ी पहनती हैं, उसी रंग का ब्लाउज पहनती हैं। कमली को साड़ी देगा, तो क्या वह ब्लाउज के बारे में पूछेगी? शायद कह ही दे, “कोरी साड़ी दई, मालिकिन इत्ता भी ना जानें।”
कमली मालिकिन के लिए हेटी बात सोचे, यह उसे गवारा नहीं हुआ।
तो क्या मालिकिन से ब्लाउज का कपड़ा माँग ले? माँगना अच्छा लगेगा क्या? मालिकिन सोचेंगी, साड़ी से मन नहीं भरा, ब्लाउज और माँगता है।
क्या करे फिर? एकाएक विचार आया, क्यों न ख़ुद ही बाज़ार जाकर साड़ी के रंग का कपड़ा ख़रीद लाये। यही ठीक रहेगा। कमली भी ख़ुश हो जाएगी। मालिकिन की भी हेटी नहीं होगी। कैसी लगेगी कमली साड़ी ब्लाउज में? फिर उसकी आँखों में कमली की जगह मालिकिन की मूरत उतर आई।
जिस दिन शाम को रेलगाड़ी से उसे जाना था, उसी दिन दोपहर को मालिकिन ने उससे कहा, “बासू, मैं बड़ी मुसीबत में फँस गई हूँ।”
मालिकिन और मुसीबत! उसे हैरानी हुई।
मालिकिन बताने लगीं, “कल शाम तेरे साहब के दोस्तों की पार्टी है। उन्हें पता नहीं था कि तू जा रहा है, नहीं तो पार्टी नहीं रखते। कल इसलिए भी रखनी पड़ी कि परसों सुबह की फ़्लाइट से साहब को बम्बई जाना है। तू चला जाएगा तो कैसे होगा! तेरे बिना तो . . .! मैं परेशानी में पड़ गई हूँ।”
मालिकिन का मुँह उतर गया था। इस वक़्त उनके मुख पर भोर की उजास-सी हँसी नहीं थी। मालिकिन की परेशानी ख़ुद उसे परेशान करने लगी। उसके प्राण करुणा से पसीजने लगे। वह इतना ख़ुदग़र्ज़ नहीं कि मालिकिन को इस मुसीबत में छोड़कर चल दे। वह गाँव नहीं जाएगा।
न जाने का विचार आते ही कमली और नहना की सूरतें दिखलाई पड़ने लगीं। बाट जोहती मैय्यो याद आने लगी। शायद बाप भी उसे याद करता हो। गाँव जाना ही चाहिए। पर मालिकिन . . .।
“मैं तुझे रोकती नहीं बासू, पर मजबूरी ही ऐसी आ गई,” मालिकिन की मजबूरी उनके बोलने में प्रकट हो रही थी।
उसने फ़ैसला कर लिया, “आप फ़िक्र ना करें साब, मैं बाद में गाँव चला जाऊँगा।” मालिकिन के लिए वह कितना ज़रूरी है, सोच-सोचकर उसके हृदय में पुलक जागने लगी। उसे बड़प्पन की अनुभूति हुई। उसे कमली और नहना बिसर गए।
पार्टी सही सलामत हो गई। मालिक सुबह के हवाई जहाज़ से बम्बई चले गए। अब फ़ुरसत थी, सो मालिकिन ने उसे अपने कमरे में बिठा लिया था। उसकी बनाई हुई कॉफ़ी की चुस्कियाँ लेते हुए बोलीं, “तू तो अब बहुत अच्छी कॉफ़ी बनाने लगा है रे बासू। इतनी अच्छी तो मैं भी नहीं बना पाती थी।”
अपनी तारीफ़ सुनकर उसके मन में कनेर फूलने लगती थी। वह इस समय मालिकिन के बिल्कुल क़रीब बैठा हुआ था। हाथ बढ़ा दे तो छू ले। उसे साड़ी लेते समय का मालिकिन का स्पर्श याद हो आया। तब उसे लगा जैसे वह सीढ़ियाँ चढ़ किसी मंदिर में पुजारी की जगह आ बैठा है।
“पार्टी बहुत अच्छी हो गई बासू,” मालिकिन ने कहा।
“जी साब!” उसने कहा। पार्टी के दौरान वह एक पैर पर घूमता रहा था। बासू यह-जी साब! बासू वह-जी साब! हर दिशा में उसकी पुकार होती थी और वह हर पुकार पर दौड़ता था। वह नहीं होता तो कितनी मुश्किल होती!
“तेरी वजह से सब ठीक-ठाक हो गया,” मालिकिन ने फिर प्रशंसा की। उसे लगा जैसे कोई मन्नत फली हो। उसने अपनी मालिकिन के लिए गहरा अपनापन महसूस किया, ऐसा कि सब कुछ बार दे तब भी मलाल न हो।
मालिकिन चुप हो गई थीं। वह जानता था कि थोड़ी देर बाद मालिकिन के सोने का वक़्त हो जाएगा। जब तक मालिकिन नहीं सोतीं, जब तक वह उनके पास ही बैठना चाहता था। उनसे बातें करना चाहता था। उसका मन हो रहा था कि मालिकिन उससे घर-गाँव की बात करें। उससे कमली के बारे में पूछें। नहना की बाबत पूछें। उसकी मैय्यो का ज़िक्र छेड़ें। वह मालिकिन को अपने ब्याह-गौने की बातें बताए, ससुराल के दो-चार क़िस्से सुनाए, मेला-नौटंकी के अपने अनुभव दुहराए। वह अपने गाँव की यादों से मालिकिन को जोड़ना चाहता था।
तभी दरवाज़े पर घंटी बजने लगी।
“देख तो बासू, कौन है?” मालिकिन सचेत होती हुई बोलीं, “इस वक़्त कौन आया?”
वह उठकर दरवाज़े पर आया। एक मर्द और एक औरत खड़े थे।
“कौन है बासू?” मालिकिन ने अंदर से ही पूछा।
वह कुछ बोले, इससे पहले ही ठसकदार औरत भीतर चली आई, उसके पीछे-पीछे मर्द भी।
मालिकिन की नज़र औरत पर पड़ी तो उछल पड़ीं, “अरे भाभी आप! और भाई साहब?” तब तक भाई साहब भी वहाँ आ गए।
उसने देखा, ननद-भौजाई गले लग गई हैं।
“बाहर टैक्सी में सामान रखा है,” भाई साहब ने कहा।
“बासू, टैक्सी से सामान ले आ,” मालिकिन ने ऊँची आवाज़ में आदेश दिया।
वह बाहरी गेट पर आया। चौकीदार टैक्सी से सामान निकालकर बाहर रख चुका था—दो चमड़े के संदूक, बिस्तरबंद, बाँस की डोली, लटकानेवाला झोला।
सामान रखकर वह मालिकिन के कमरे के दरवाज़े पर खड़ा हुआ तो मालिकिन कह रही थीं, “घर में कोई नहीं है। वे बम्बई चले गए हैं। डिम्पी को आना था, मगर वह कॉलेज के टूर में चला गया है। अकेली इस क़द्र बोर हो रही थी कि पूछो मत। आप लोग आ गए, मज़ा आ गया। आज कई बार याद किया था आप लोगों को . . .”
“यह नया नौकर आपने कब रखा, बीबी? आजकल के नौकर . . .!”
“अरे नहीं भाभी! बड़े भरोसे का आदमी है। ख़ूब जाँच-परख के घर के भीतर घुसने दिया है। मैं इतनी बेवुक़ूफ़ नहीं! आख़िर ननद तो आपकी हूँ न!” मालिकिन कह रही थीं।
फिर दोनों की ठहाकेदार हँसी उसके कानों से जा टकराई।
उसे लगा, दो दिन लगातार काम करते रहने के बाद सहसा वह बहुत थक गया है, उसके हाथ-पैरों की सारी ताक़त निचुड़ गई है। मालिकिन कह रही थीं, “बासू पहले गर्मागरम चाय पिलवा दे और देख फ़्रिज में क्या सब्ज़ी है। दही रखा होगा। नहीं तो बाज़ार से ले आना . . .”
खाने-पीने के बाद मालिकिन और मेहमान बातचीत में मशग़ूल हो गये थे। काम निपटाकर जब वह मालिकिन के सामने खड़ा हुआ तो वे बोली, “बासू, कॉफ़ी का एक राउन्ड और चलवा दे, फिर तेरी छुट्टी।” सबको कॉफ़ी पिलाकर वह अपनी कोठरी में आया तो मन पर कुहासा-सा छाया हुआ था। उसे नहना याद आ रहा था, कमली याद आ रही थी, मैय्यो याद आ रही थी। मुँह अँधेरे भी कोई गाड़ी पकड़े तब भी मेले के वक़्त तक गाँव नहीं पहुँच सकता था। एकाएक उसकी नज़र खिलौनों पर पड़ी। कुहासा और भी घना हो गया। उसने झपटकर खिलौने उठा लिये। फिर सारे खिलौने उधर उछाल दिए जिधर वह कूड़ा फेंका करता था। कुहासा आँखों की राह बाहर आने लगा।
इस बार नज़र साड़ी पर पड़ी। उसने झपटकर साड़ी भी उठा ली। चाहा, इसे भी बाहर फेंक आए। लेकिन साड़ी से मालिकिन की गंध उठ रही थी। उसके हाथ काँपकर रह गए। उसका एक आँसू साड़ी पर टपक कर भद्दे दाग़-सा लग रहा था।
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टिप्पणियाँ
मधु शर्मा 2024/07/18 02:54 AM
रोचक कहानी। पढ़ते समय यूँ लगा जैसे पात्र स्क्रीन से उतर कर सजीव हो उठे हों। साधुवाद।
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उपलब्ध नहीं
मधु शर्मा 2024/07/19 01:26 AM
रोचक कहानी। पढ़ते समय यूँ लगा जैसे पात्र स्क्रीन से उतर कर सजीव हो उठे हों। साधुवाद।