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सोनपरी

 

उसके सीने के बायीं ओर ठीक वहाँ जहाँ पसलियों के नीचे दिल होता है, दर्द हो रहा है। दर्द उसके दिल में ही उठ रहा है। एक लहर सी उठती है और किसी तालाब के ठहरे पानी में उठी लहर की तरह दूसरे छोर पर जाकर गुम हो जाती है। लेकिन तब तक दूसरी लहर फिर उमड़ने लगती है। उसका मन होता है जब यह लहर उठे कोई उसके आस-पास न हो, निपट एकान्त हो, सन्नाटा हो, बियाबान जैसा कुछ। जहाँ कोई ऐसा न हो जिससे अपने दर्द का ज़िक्र करे तो तुरन्त किसी हार्टकेयर सेंटर जाने की सलाह दे डाले। 

लहरें बार-बार एक चेहरे में सिमट जाती हैं। यह चेहरा जो उसकी लम्बी प्रतीक्षाओं से बना है। उसकी उपस्थिति से तेज हो जाती धड़कनों और उसकी अनुपस्थिति से बनने वाली बेचैनी से बना है। महीनों का साथ, पचासों मुलाक़ातें, कभी उँगलियों, कभी चुन्नी और कभी लंबे बालों से खेलते पोरों के नशीले स्पर्श और न जाने कितनी तरह की कहाँ-कहाँ की कैसी-कैसी बातें। लगता है, सारे रहस्य खुल रहे हैं। अँधेरे में दबी ग्रंथियाँ उजागर हो रही हैं। लेकिन अगले ही पल लगता है जैसे सब कुछ रहस्यमयी गुफाओं में तब्दील हो गया हो, ऐसी निबिड़ गुफाओं में जिनके भीतर कोई दूसरी आवाज़ नहीं है, सिवाय उसकी अपनी साँसों की आवाज़ के। वह व्यग्रता से पूछता है-क्या हम शादी नहीं कर सकते? कोयल की कूक-सी निकलती– क्यों नहीं कर सकते, हम ज़रूर शादी करेंगे। वह गहरी आश्वस्ति से भर जाता है। यही तो है उसकी सोनपरी। सोनपरी की तरह उसके सुनहरे पंख निकल आते और वह आसमान में कुलाँचे भरता दूर-दूर और दूर। 

अब एक आवाज़ उसके कानों से टकरा रही है। यह सोनपरी की आवाज़ नहीं है। सोनपरी की आवाज़ ही है शायद! पर यह उसकी पत्नी की आवाज़ है। यह आवाज़ तब तक उसके कानों में गूँजती रहेगी, जब तक कि वह एक आज्ञाकारी बच्चे की तरह अपनी दवाई का डोज़ न ले ले। हर समय उसकी चिंता हर समय उसकी देखभाल। नाश्ते का समय हो गया, नाश्ता करिये। डिनर का समय हो गया, डिनर करिये। इच्छा नहीं है, तो क्यों नहीं है? कहीं तबीयत तो ख़राब नहीं है। आज देर से सोकर उठे, कमज़ोरी तो महसूस नहीं हो रही। सुस्त क्यों बैठे हो, बुख़ार तो नहीं। 

कुछ दिन तक उसे भ्रम रहता है, जैसे उसकी खोई हुई सोनपरी वापस आ गयी है। कुछ दिन तक उसे सोनपरी के सुनहरे पंख मँडराते दिखते हैं। फिर पता नहीं कब वे पंख धीरे-धीरे काले पड़ने लगते हैं। नहीं ये उसकी सोनपरी नहीं है, उसे धोखा हुआ है। यह तो एक खाँटी क़िस्म की पत्नी है जो एक ऑक्टोपस की तरह उसके समूचे वुजूद से चिपक गयी है। बस सिर्फ़ एक घेरे में तब्दील हो गयी है। नहीं, इस घेरे को आप पार नहीं कर सकते। नहीं, इस रेखा को आप लाँघ नहीं सकते। जो देखना है इसके अंदर रहकर देखो। जो करना है इसके अंदर रहकर करो। जो सोचना है इसके अंदर रहकर सोचो। कभी-कभी वह उस घेरे को तोड़ देता है। रेखा को फलांग जाता है। लेकिन नहीं, यह मात्र उसका भ्रम होता है। रेखा फिर उसके आगे खिंच जाती है। घेरा फिर उसे अपने भीतर खींच लेता है . . . फिर सब कुछ स्पंदन और उत्तेजनाविहीन। उसकी सोनपरी वही है, जिसकी मुस्कान उसकी आँखों से उतर कर उसकी हथेलियों पर कस जाया करती थी। उसकी नसों में एक सनसनी बनकर फैल जाया करती थी। अब कहाँ होगी उसकी वह सोनपरी? 

उसके आगे ढेर सारे चित्र बिखरे पड़े हैं। उसे अपनी पत्रिका के लिए इनमें से चुनाव करना है। एक से बढ़कर एक सुंदर परिधान, एक से बढ़कर एक डिज़ाइन और चेहरे। देश की सारी ख़ूबसूरत मॉडल फ़ैशन वीक में जुटी हैं। उन्हीं के चुनिंदा फोटोग्राफ उसके सामने पड़े हैं। उसे इनमें से चुनाव करना है, तीन या चार चेहरों का। वह एक के बाद एक चेहरों को परख रहा है और परे सरका रहा है। फिर वह उस चेहरे को देखता रह जाता है, उसकी सोनपरी का चेहरा। नहीं, यह लड़की कैसे उसकी सोनपरी हो सकती है, वह तो वर्षों पहले ही चली गयी है। एकदम ताज़ा-तरीन मॉडल का रूप लेकर कैसे अवतरित हो सकती है? मगर इसका चेहरा किसी न किसी से तो मिलता है। हाँ, वह जो उसे अपनी सोनपरी होने का भरोसा दिलाती थी– शायद तुम नहीं जानते मैं तुम्हें बहुत प्यार करती हूँ। तुम विश्वास नहीं करोगे, तुम्हें कोई और इतना प्यार नहीं कर सकता। 

मगर वह सोनपरी कैसे? सोनपरी तो वही हो सकती है जो उसे सोनपरी लगे। वह कैसे सोनपरी हो सकती है जो उसे अपने सोनपरी होने का भरोसा दिलाने के लिए जी-जान एक कर दे। वह पंजे लड़ाने लगती है। उसका सर अपनी गोद में रख लेती है। उसके बालों में उँगलियाँ फिराती है। वह अपने डैनों में उसे सहेज लेना चाहती है। वह उसे बार-बार अपने सोनपरी होने का भरोसा दिलाती है और वह उसकी बातों पर भरोसा कर रहा है। सोनपरी वह कैसे हो सकती है जो आपको छोड़ कर उड़ गयी हो। वही होगी जो आपके पास हो। आप के एकदम क़रीब हो। इतने क़रीब कि आप अपनी चोंच से उसके डेनों पर कहीं भी कुटकी मार दें। कहीं से भी पर उघाड़ दें। कहीं भी अपने निशान छोड़ दें। कोई असहजता न हो। कोई कुलमुलाहट न हो। सिर्फ़ उत्तेजना और उत्तेजना। 

सोनपरी और शादी का भी कोई रिश्ता है क्या? न उसने शादी के लिए कहा है और न उसके मन में शादी का ख़्याल आया है। आया भी है तो हमेशा सवाल बनकर या दुविधा बनकर। वह सिर्फ़ सोनपरी से शादी करना चाहता है और यहाँ वह अभी तक आश्वस्त नहीं हुआ है कि यह सोनपरी है या नहीं। एक सोनपरी की भाषा देह की भाषा कैसे हो सकती है? सिर्फ़ उत्तेजना के चढ़ने और उतरने की भाषा कैसे हो सकती है? कई-कई बार तो उसे ख़ुद ही उसके पंख सहेजने पड़ते हैं, उसे दोबारा एक रूप देना पड़ता है। देह से गुज़रने के बाद उसे लगता है, नहीं यह उसकी सोनपरी की देह नहीं है और वह बिना उससे पूछे ख़ुद ही उसे उसी के पंखों से ढक देता है। 

और एक दिन ख़ुद उसने पूछ लिया है, “तुम्हें शादी नहीं करनी।” वह चौंकती है,“अरे! मैं तो सोचती थी तुम ख़ुद मुझे प्रपोज़ करोगे।” और अब वह चौंकता है। नहीं उसने चौंकने का अभिनय किया है, “मैं . . . मैं . . . शादी कैसे कर सकता हूँ, मुझे लगता है मैं शादी के लिए बना ही नहीं।” वह थोड़ी देर तक चुप्पी मारे रहती है फिर खिलखिला कर हँसती है . . . “शादी के लिए तो मैं भी नहीं बनी, पर तुम कहते तो मैं ज़रूर तुमसे शादी कर लेती।” उस दिन उसे पक्के तौर पर मालूम हो गया है, यह उसकी सोनपरी नहीं है। 

सोनपरी तो उसको ऑफ़िस के पास वाले पार्क में मिलती है। बाक़ी लोग लंच के समय ऑफ़िस के लॉन में ही पेड़ों की छाया तले अपने-अपने लंच के डिब्बे खोलकर चार-चार, पाँच-पाँच के झुंड में बैठ जाते हैं। और वह नज़दीक के पार्क में पाकड़ के पेड़ के नीचे जा बैठता है। वहाँ जो अवतरित हुई है वह उसकी सोनपरी है। वह कहती है, “कल मैंने आपका लेख पढ़ा था।”

“जी, आप . . . “

वह मुस्कुराई है, “मैं साथ वाले ब्लॉक में ही हूँ, मार्केटिंग में। आपको अक़्सर पढ़ती हूँ।”

“बैठिये,” उसने कहा है। उसका मन जल तरंग हो रहा है, इस बार उसने टटोलती-सी नज़र उस पर डाली है। वह मॉडल नहीं है मगर उसके गेंहुए रंग में एक चमक-सी घुली हुई है। उसकी आँखों में निमंत्रण देती-सी मुस्कान ठहरी हुई है, उसकी साड़ी में पहनावे की एक ख़ास कलात्मकता अलग से नज़र आती है। जब वह बैठती है तो वह देखता है कि उसके हाथ में लंच का डब्बा है। 

“मैं अक़्सर आपको देखती थी। मगर कभी हिम्मत नहीं हुई, आज सोचा कि आपको डिस्टर्ब किया जाये।” वह कहती है। 

वह हँसता है, “मैं क्या बहुत डरावना लगता हूँ?” वह झेंपी सी मुस्कुराई है फिर शरारतन बोलती है, “डरावने तो बिल्कुल नहीं लगते आप। बस, औरतों का जो थोड़ा सा संकोच होता है न . . . ” उसने डब्बा खोल कर उसकी और बढ़ा दिया है, “लीजिए थोड़ा शेयर करिये।”

वह बताती जाती है कि उसके लेख उसे क्यों अच्छे लगते हैं, कि वह स्वयं इसी तरह के विचार रखती है लेकिन उसकी मजबूरी है कि वह लिख नहीं पाती। थोड़ी ही देर में वह जान जाता है कि उसे चीज़ों के बारे में अच्छी जानकारी है। उसने “दोस्तोयेव्स्की” को पढ़ रखा है। कामू के बारे में वह जानती है। वह इलियट की कविताओं का भी ज़िक्र करती है—वी आर हौलो मैन। लंच ख़त्म होने तक वे दोनों बहुत से विषय पर बातचीत कर चुके होते हैं। उसे लगता है जैसे उसे इसी की तलाश थी। यही है उसकी सोनपरी। इंटेलेक्चुअल, सलीक़ेदार जिसकी बातों में भी खिंचाव है और विचारों में भी। हाँ यही है उसकी सोनपरी। 

वे लंच के समय मिलते हैं, बात करते हैं, बातें करते रहते हैं। एक दिन उसने कहा है, “लंच टाइम थोड़ा ज़्यादा होना चाहिए था।” वह कुछ अधिक आत्मीय हो उठी है, “आई टू फ़ील सो।” वह रिश्तों के बारे में बात कर रही है। उठने के समय तक जैसे बात शुरू भी नहीं हो पायी है। और उसने प्रस्ताव किया है, “दफ़्तर के बाद बैठें, कॉफ़ी हाउस में।”

“आज नहीं कल बैठ सकते हैं।” वह कहती है। वह बिना बताए समझ जाता है कि लड़कियों के लिए समय पर घर न पहुँचना या बिना बताए कहीं रुक जाना सहज काम नहीं है। अगर वह कल के लिए बोल कर गयी है तो वह कल घर पर बोल कर आएगी। क्या वह उसके बारे में अपने परिवार में बताएगी? मन में एक द्वन्द्व पैदा होता है। वह बता भी सकती है और नहीं भी बता सकती है। अगले दिन लंच के समय वह मिलती है तो उसने चहककर कहा है, “शाम को कहाँ कॉफ़ी पिला रहे हो?” उसका यह उत्साह उसे कुछ अजीब-सा लगता है लेकिन उसे अच्छा भी लगता है। वह उसे समय-बेसमय याद करने लगा है, उसके बारे में सोचने लगा है। अब वह अपने अन्दर की बेचैनी से मुक्ति पा लेना चाहता है, और उससे कह देना चाहता है कि वह उसकी सोनपरी है। मगर रेस्त्रां में एक कोने की टेबल पर उसके साथ बैठते हुए उसने पहला सवाल किया है, “तुम कल क्यों नहीं रुकी थीं?” 

जवाब में वह मुस्कुरायी नहीं है, उसने अपनी लम्बी पतली उँगलियाँ धीमे से उसकी हथेली पर रख दी हैं। वह कहती है, “दरअसल मैं आपकी तरह आज़ाद नहीं हूँ आपसे अभी तक मैंने कोई पर्सनल बात शेयर नहीं की, आज करना चाहती हूँ।” 

उसने अपने दोनों कोमल हाथों के बीच उसकी मोटी खुरदरी हथेली दबा ली है, “मेरे हस्बैंड बहुत शक्की दिमाग़ के आदमी हैं।”

उसे झटका-सा लगता है। जो बात उसे पहली मुलाक़ात में मालूम हो जानी चाहिए थी वह इतने दिनों बाद मालूम हो रही है। वह फिर बोलती है, “हस्बैंड की मैं कोई बहुत ज़्यादा चिन्ता नहीं करती लेकिन मेरा बेटा मेरा इन्तज़ार करता है, उसे बिना बताए बिना समझाए मैं घर लौटने में देर नहीं करती।”

उसे दूसरा झटका लगता है। जैसे कोई गुलदस्ता अचानक हाथ से छूटकर ज़मीन पर गिर पड़ा हो। उसके पास इस समय कहने के लिए कोई शब्द नहीं है। मगर वह बोलती है, “यह हम औरतों की ज़िन्दगी का एक हिस्सा है। मैं अपने पति से बोलकर आयी हूँ कि दफ़्तर के काम से देर तक रुकना है। अगर मैं सच बता देती तो वह पहले तो यक़ीन ही नहीं करता, वह सोच ही नहीं सकता कि मैं किसी दूसरे आदमी के साथ दोस्ती कर सकती हूँ। उसके साथ अकेले में बैठकर अपनी-परायी हज़ार तरह की बातें कर सकती हूँ। और अगर उसने यक़ीन कर लिया तो फिर वह हर वक़्त मुझे शक की नज़र से देखेगा, आप यक़ीन करिये मैं अपने लिए नहीं, उस आदमी के लिए झूठ बोलती हूँ। क्योंकि वह सच बरदाश्त नहीं कर सकता। बताइए ग़लत करती हूँ मैं?” 

इस तरह की बात उसकी सोनपरी जैसी ही कोई कर सकती है। अब तक वह झटके से उबर चुका है और अपनी इस सोनपरी को उसी के नज़रिए से देखने की कोशिश कर रहा है। अब उसने सोनपरी के दोनों हाथ अपनी दोनों हथेलियों से ढक दिये हैं। भले ही वह शादीशुदा है, भले ही वह एक बेटे की माँ है मगर सोनपरी के रूप में उसे जो चेहरा दिखायी देता रहा है वह इस औरत का है . . . पर साथ ही उतनी ही मज़बूती के साथ एक दूसरा ख़्याल दूसरे छोर पर जम गया है, अगर यह सोनपरी है तो उसकी ज़िन्दगी में इसे किस तरह रहना है। किसी दूसरे की बीवी उसकी अपनी सोनपरी कैसे हो सकती है और इस बेतुके ख़्याल का तो कोई अर्थ ही नहीं निकल रहा है कि सोनपरी उसकी है मगर इसके बावजूद उस पर अधिकार किसी और का है। 

उसका यह रिश्ता कॉफ़ी हाउस से निकलकर नयी-नयी हदें लाँघता हुआ चलता रहता है। और उसकी नज़रें सोनपरी की तलाश में भटकने लगी हैं . . . नहीं, उसकी सोनपरी तो वही थी जिसका वह घंटों इन्तज़ार किया करता था और जो ग़ायब हो गयी थी। 

उसकी पत्नी मेहमानों की आवभगत में लगी है। एक स्मार्ट सा आदमी, थोड़े से मोटापे की ओर बढ़ती गोल चेहरे वाली पैंतीस-चालीस साल की औरत और दस-बारह साल की दो लड़कियाँ। पत्नी के रिश्तेदार या परिचित होंगे। लेकिन जैसे ही वह औरत उठकर उसे नमस्ते करती है तो उसकी आँखों में आँखें डालकर देखती हुई वह दृष्टि पन्द्रह-सोलह साल की लड़की में तब्दील हो जाती है। 

“आपने पहचाना?” वह खिली हुई मुस्कान के साथ पूछ रही थी। फिर, कहती है, “हमें इधर ही आना था हमें मालूम था आप यहाँ हैं, इसलिए आपसे मिलने चले आये . . . ” बाद में उसने अपने पति और अपनी बच्चियों का परिचय किन नामों के साथ कराया कुछ भी उसके दिमाग़ में दर्ज नहीं हुआ है। उसे वह लड़की दिखायी देती है जिसने एक किताब में रखकर अपना प्रेम-पत्र उसे भेंट किया है। एक-एक अक्षर रचाकर लिखा गया है जैसे सारी कला उन अक्षरों के बनाने में ही उड़ेल दी हो। दो-तीन फ़िल्मी गीतों की पंक्तियाँ हैं, दो एक शेर लिखे हुए हैं और आख़िर में, अगर आप हमें नहीं मिले तो हम मर जाएँगे जैसा एक वाक्य लिखा हुआ है। तब वह एक स्कूल में अस्थायी रूप से पढ़ा रहा होता है और यह लड़की सातवीं क्लास में पढ़ती है। अगले दिन जब उसने वह प्रेम-पत्र उसे लौटाया है और उसे प्रेम-व्रेम छोड़कर पढ़ने में ध्यान लगाने को कहा है तो वह टपटप आँसू गिराने लगी है। उस समय उसके दिमाग़ में न किसी सोनपरी की कल्पना है और न कोई सोनपरी उसके आस-पास है मगर उसने इस लड़की से कहा है, “तुम्हें मालूम है मेरी सगाई हो गयी है और जल्दी ही शादी होने वाली है।” तब लड़की ने रोना रोककर उसे घूरती हुई आँखों से देखा है। अपने पत्र की चिंदिंया की हैं और वहीं फेंककर पलट गयी है। जब तक वह स्कूल में रहता है वह लड़की उसे दिखाई देती रही है मगर कभी सामने नहीं आती है . . . और इतने वर्षों बाद आज वह तब आयी है जब उसकी अपनी बेटी शायद छटवीं या सातवीं में पढ़ रही है। 

उसने वर्षों बाद इस लड़की के चेहरे में सोनपरी जैसा कुछ तलाशने की कोशिश की है। अगर तब वह इसे सोनपरी मान लेता तो? शायद यह सम्भव नहीं था, उस समय इस लड़की के मन में बचपनिया खिंचाव रहा होगा। और आज शायद सम्मान और श्रद्धा का। सोनपरी वहाँ कहीं नहीं है। वे लोग जब तक बैठते हैं, तब तक वह उसकी अध्यापन कला की तारीफ़ करती रहती है। स्वयं उसने एक मज़ेदार घटना के स्मृत हो आने की हल्की-सी गुदगुदी भर महसूस की है। इससे अधिक और कुछ नहीं। उस समय तक उसके मन में दैहिक शुचिता के मूल्यों और पैमानों के प्रति कोई संदेह पैदा नहीं हुआ है। उसमें दैहिक प्रयोगों का साहस भी नहीं है। 

वह अभी भी तय नहीं कर पाता कि उसकी पसलियों के बीच जो बेचैनी सी अटकी रहती है वह दर्द है या टीस है या उसकी खोयी हुई सोनपरी की तस्वीर है। न वह टीस को खींचकर बाहर निकाल पाता है न तस्वीर को। वह बचपन नहीं है। बचपन एक झटके से पीछे छूट गया है। उसकी अपनी देह उसमें नये नये आश्चर्य जगाने लगी है। उसका मन किताबों के ऊपर से कुलाँचें भरता हुआ कभी किसी की आँखों पर जा बैठता है कभी किसी के ओठों पर और कभी किसी की समूची तस्वीर पर और अचानक ही वह धक से रह गया है, परियों में परी सोनपरी उसने देख ली है। जहाँ से वह निकलती है वह वहीं खड़ा रहता है उसके घर से निकलने के वक़्त भी और घर लौटने के वक़्त भी। इस समय सोनपरी गहरी कशिश है, एक गीत है—कभी प्रणय गीत तो कभी विरह गीत। सब कुछ रूहानी, आत्मा से जुड़ा हुआ दिव्य सा। देह के उफान उस दिव्यता में दब जाते हैं। मन होता है कविताएँ लिखे, मन होता है गीत गाये। क़स्बे की सीमाएँ छोटी होती हैं इन्हीं सीमाओं में वह भी है और वह भी है। कॉलेज की डिबेट में उसे भी बोलना है और उसे भी। परिचय एक डर सा बनकर उसके मन पर बैठ गया है। उसके दोस्त ने कहा है—उससे कुछ बोल मत देना, सीधे जेल पहुँचा देगी।” एस.डी.एम. की बेटी जेल पहुँचा सकती है वह मानता है। वह उसे देखता भर है और एक दिन बसंत की ख़ुश्बू जैसे ख़ुद उसके पास आकर ठहर गयी है। “तुमने अच्छी डिबेट बोली थी।” उसे लगता है जिस प्रथम पुरस्कार से वंचित हो गया है वह कई गुणा बड़ा होकर उसकी झोली में आ गया है लेकिन वह ऊँचे पायदान से बोल रही है और वह बहुत नीचे खड़ा रह गया है, “नहीं-नहीं आपने बहुत अच्छा बोला था, आपके प्वाइंट्स ज़्यादा ठीक थे।” उस दिन वह उसे नहीं बता पाता कि वाद-विवाद प्रतियोगिताओं के अपने भाषण वह ख़ुद तैयार करता है। कुछ-कुछ अजीब-सा घट गया है। उसका परिचय हो गया है। उसने उसकी आँखों में शायद कुछ पढ़ भी लिया है। चलते वक़्त उसे देखकर वह मुस्कुराई भी है लेकिन उसमें एक हीन भाव पैदा हो गया है। परिचय चलता रहता है, मुलाक़ातें होती रहती हैं और उसकी इस सोनपरी की तस्वीर उसकी धड़कनों के बीच बनी रहती है। 

अब कहाँ होगी वह? वह क्यों नहीं कह पाया कि तुम मेरी सोनपरी हो। वह जेल से क्यों डरता रहा? शायद यह उसका अपना तैयार किया हुआ डर था। शायद वह भी उसे चाहती थी। अगर नहीं चाहती होती तो उसको देखकर मुस्कुराती क्यों? उसको देखकर ‘हैलो’ क्यों बोलती थी, क्यों उसके सामने पड़ने पर ठिठक-सी जाती थी। नहीं, अगर उसके मन में कुछ होता तो वह ज़रूर कहती। कहने के लिए उसे डरने की ज़रूरत नहीं थी, वह एस.डी.एम. की बेटी थी। नहीं, शायद उसको कुछ कहना ही नहीं था। शायद वह संकोच करती थी। वह एक लड़की थी, लड़कियाँ संकोच करती ही हैं। इन दिनों लगता है लड़कियाँ संकोच नहीं करतीं। शायद वह पूरा सच नहीं है। लड़कियाँ अभी भी संकोच करती हैं। उसे पश्चाताप होता है। एक बार उससे ज़रूर कहना चाहिए था, अगर यह नहीं कह सकता था कि वह उसकी सोनपरी है तो इतना तो कह ही सकता था कि वह सोनपरी जैसी लगती है। शायद वह बुरा नहीं मानती शायद . . . अब कहाँ होगी वह? एस.डी.एम. का तबादला हुआ है और वह धीरे से रंगमंच से उतर गयी है, वह महीनों उदास रहता है। महीनों उससे मिलने की कल्पना करता रहता है मगर कभी वहाँ जाने का साहस नहीं जुटा पाता जहाँ उसके बाप का तबादला हुआ है। आख़िर क्यों जाएगा वहाँ, उसे लगता है कि अगर जाएगा तो अपमानित होगा। अपमानित होने का भय उस पर इतना हावी क्यों हो गया था और क्यों उसकी तस्वीर पसलियों के बीच कहीं अटककर रह गयी है? 

जब भी उसे सीने का दर्द बढ़ता हुआ महसूस होता है वह अपने गुलाब के गमलों के पास चला आता है। खिले हुए गुलाब उसे खींचते हैं वह उन्हें छूना चाहता है मगर पंखुड़ियों का बिखर जाना उसे अच्छा नहीं लगता। कभी मन होता है वह गुलाब की डालियों को अपनी दोनों हथेलियों के बीच लेकर हौले-हौले मथता रहे। फिर अपना ही यह ख़्याल उसे बचकाना लगने लगता है। कभी-कभी गुलाब को सहेजने की कोशिश में काँटे उँगलियों के पोरों में धँस जाते हैं। उसका मन हो रहा है कि वह सारे गुलाबों को काँटेदार टहनियों से अलग कर दे लेकिन काँटे हैं कि एक बार चुभने के बाद देर तक चुभे हुए से महसूस होते रहते हैं। 

“तुम सिर्फ़ आदर्शवादी हो। तुम्हारे लेखों में कोरा आदर्शवाद झलकता रहता है। व्यावहारिक ज़िन्दगी कोरी बातों से नहीं चलती,” वह एक व्यावहारिक राय देती है और बेहद वज़नदार तरीक़े से उसमें स्कूल की अध्यापिका की आत्मा घुस जाती है। वह जब-तब व्यावहारिकता का उपदेश देती रहती है। 

उसे उपदेश कभी अच्छे नहीं लगते मगर यह औरत उपदेशों को आदेश की हद तक खींच ले आती है। यह उसकी विवाहिता सोनपरी के साथ आने लगी है। दफ़्तर वाले पार्क में। पार्क वाली सोनपरी ही उसका परिचय कराती है। 

वह जैसे मन को भेदने वाली नज़र रखती है। वह खनकती-सी आवाज़ में कहती है, “कभी-कभी मेरा मन होता है यहाँ से दौड़ती हुई जाऊँ, बिना साँस लिए सीधे ऐवरेस्ट पर जा चढ़ूँ, फिर वहीं से छलाँग लगाऊँ तो सीधे इस पार्क में आकर गिरूँ, ठीक तुम्हारे पास।” वह खिलखिलाने लगती है। आज उसकी सोनपरी नहीं आयी है। पार्क में सेमल के फूल खिल रहे हैं। फूलों की चमक उसे ग़ायब लगती है। वह फिर मुस्कुराती है। उसने अपना हाथ उसके पुरुष हाथ पर रख दिया है। उसे अपने मांस में चुभन सी महसूस होती है मगर वह अपने आपको मुक्त नहीं करा पा रहा है। वह मुक्त होने के लिए जितनी कोशिश करता है नेलपॉलिश लगा पंजा उसकी कलाई में उतना ही गहरा धँसता चला जाता है। 

वह कई बार घर आने का निमंत्रण दे चुकी है। कई बार अपने घर वालों से मिलाने की बात कह चुकी है। उसका निमंत्रण मात्र एक औपचारिकता नहीं है। आज वह उसे घर ले जाने पर आमादा है। वह सोचता है इसके माँ-बाप से कैसे मिलेगा, उनकी सामान्य उत्सुकताओं का जवाब कैसे देगा? उनके घर तक पहुँचते हुए भी जैसे उसे कोई वापस धकेल रहा है पर वह डर बँधे पालतू जानवर-सा खिंचा जा रहा है। वह किसी अड़ियल बछड़े की तरह रस्सी को विपरीत दिशा में खींचना चाहता है मगर रस्सी उधर खिंच रही है जिधर वह खींच रही है। 

कोई नहीं है घर में, उसकी आँखें उसे गहरी नज़रों से घूर रही हैं। उसे डर-सा महसूस होता है। वह खिलखिलाकर हँसती है, “क्यों डर लग रहा है, डर तो मुझे लगना चाहिए उल्टे तुम डर रहे हो।” वह सचमुच डर गया है। डर ने जैसे उसके हाथ पैर लुंज कर दिये हैं। और वह दो नुकीले पंजों को अपनी देह पर झपटते देखता है, “रियली आई लव यू, आई लव यू वेरी मच।” यह वाक्य उसके कानों से टकराकर पलट गया है मगर लिपटी हुई बाँहों के बीच उसकी देह उत्तेजित हो उठी है। 

कपड़े जगह छोड़ रहे हैं साथ ही उसकी पार्क वाली सोनपरी भी। सोनपरी की जगह यह नया चेहरा उसे घेर रहा है, चेहरा नहीं एक शरीर उसे घेर रहा है। उसने खुजराहो की मूर्तियाँ देखी हैं, उनके सौन्दर्य को महसूस किया है, कभी वह सोनपरी को इन मूर्तियों में देखता रहा है कभी इन मूर्तियों को अपनी सोनपरी में मगर यहाँ जैसे कोई मूर्ति खंडित हो रही है। 

वह कहती है, “दिक़्क़त यह है कि कपड़ों की तरह हम अपनी स्थापनाएँ नहीं उतार सकते। सारे नियम-क़ायदे ज़िन्दगी को जीने के लिए बनाए जाते हैं अगर यही नियम-क़ायदे ज़िन्दगी जीने में बाधा बनें तो नियम-क़ायदों को तोड़ देना चाहिए।” वह नियम-क़ायदे तोड़ देना चाहती है– “विवाह तो मात्र एक सामाजिक औपचारिकता है। जो लोग कमज़ोर हैं इस औपचारिकता को निभाना उनकी मजबूरी है लेकिन ज़रूरी तो नहीं हर कोई इस औपचारिकता को निभाए।” वह कोई औपचारिकता निभाना नहीं चाहती। 

लेकिन अगर साथ-साथ रहना है तो . . . तो वह कहती है, “फालतू में समाज से क्यों लड़ा जाये, क्यों लोगों की बेहूदी नज़रें झेली जायें। एक फॉरमेलिटी ही तो पूरी करनी है चलो कर लेते हैं।” शायद वह एक व्यावहारिक बात कर रही है। और ऑफ़िस वाले पार्क में उसकी विवाहिता सोनपरी कहती है, “सुना है आप लोग शादी कर रहे हैं।” वह कुछ कहता इससे पहले ही वह बोल पड़ती है, “देख तेरा अब तक का किया-दिया सारा माफ़, आगे डोरे मत डालना। अब ये मेरे पति बन रहे हैं।” पति शब्द पर उसने ख़ासा ज़ोर दिया है जैसे अपनी सम्पत्ति की घोषणा कर रही हो। अब वह मुस्कुरा रही है जैसे कोई चील मुस्कुरा रही हो। क्या कुछ ग़लत हो रहा है? मगर जब तक वह कुछ तय कर पाता तब तक ग़लत हो चुका है। 

वह अख़बार पलट रहा है। पढ़ते समय या टी.वी. देखते समय उसके सीने में दर्द नहीं होता। उसकी पत्नी दवा और पानी का गिलास ले आयी है। वह बिना कुछ कहे रैपर खोलकर गोली निकाल लेता है और पानी के साथ गोली गटक लेता है। वह अपनी पत्नी के चेहरे की ओर देखता है। पत्नी के चेहरे की ओर नहीं सोनपरी के चेहरे की ओर। सोनपरी जो उससे ज़िद कर रही है, “बताइये न आपकी शादी क्यों टूटी?” 

यह सवाल जितना सीधा है उसके पास उत्तर इतना सीधा नहीं है। उसने कहना चाहा कि मन के विरुद्ध किसी रिश्ते को आप सिर्फ़ शरीर के सहारे नहीं खींच सकते। वह आदेश देती थी या उपदेश। उसे लगता था इन उपदेशों और आदेशों की रचना जीवन के ज़रूरी व्यावहारिक ज्ञान से होती है लेकिन नहीं उनकी रचना उसकी आदत से होती थी। जब वह बाहर जाने के लिए तैयार होता तो वह फटाफट पैंट शर्ट निकाल देती ये पहन लो ये ही अच्छे लगेंगे। वह अगर कभी पूरी तरह सुनिश्चित होता कि इस पैंट के साथ यह शर्ट अच्छी नहीं लगेगी तब भी वह असमंजस की स्थिति में पड़ जाता। वह पहन लेता जो उसे पहनाया जाता और फिर वापस घर आकर कपड़े उतारने तक वह सोचता रहता कि क्या यह कपड़े सचमुच उस पर अच्छे लग रहे हैं। 

वह खाना बनाती और जो भी सब्ज़ी तैयार करती उसकी तारीफ़ करती—इस सब्ज़ी में एक ख़ास तरह का फ़ाइबर होता है। यह सब्ज़ी तुम्हारे पेट के लिए अच्छी रहेगी, मैं इसलिए बनाती हूँ। वह ऑफ़िस के बारे में भी पूछ लेती—तुम्हारा हेड कौन है इस समय, तुम्हें ठीक-ठाक पोज़िशन क्यों नहीं देता, तुम कहो तो एक बार मैं बात करूँ। 

उसे ग़ुस्सा आता मगर वह ख़ुद को समझाता आख़िर उसकी चिंता ही तो कर रही है। वैसे भी अतिरिक्त दबाव बनाए बिना कौन किसके लिए रास्ते खोलता है। मगर कभी भी इस तरह के प्रस्तावों पर उसका चिढ़ना नहीं रुका। और . . . और वह उससे बहुत प्यार करती थी। ऐसा वह कहती थी। छुट्टी के समय कभी दिन में और प्रायः रात में जब वह अपने गाउन में होती और अपने दोनों हाथ उसके कंधे पर रखकर अपनी आँखें भी बंद कर लेती फिर कहती मैं बहुत प्यार करती हूँ तुम्हें—तो उसे लगता जैसे कोई छिपकली अपने शिकार पर झपटने की तैयारी कर रही हो . . . मर्द वह है और उसने अपने कपड़े भी अपने हाथ से नहीं उतारे। वह खिलौना था या फिर एक पात्र या फिर एक ग़ुलाम या फिर एक मूर्ख। उसने सोनपरी की कोमल-कोमल परिकल्पनाएँ इस औरत की झोली में डाल दी हैं जिन्हें वह कभी उनके नाश्ते में परोस देती है, कभी दोस्तों के बीच उछाल देती है, कभी बिस्तर पर उन्हें बेशर्मी से नंगा कर देती है। 

वह अपनी सोनपरी से कहते हैं, “हम लोगों के ख़्याल अलग थे, हमारी रुचियाँ अलग थीं, और चीज़ों को समझने के हमारे संस्कार अलग थे।”

नये रिश्ते अचानक सूखकर झड़ जाते हैं और पुराने रिश्ते फिर से अचानक हरे हो जाते हैं। ऑफ़िस वाले पार्क में उसकी विवाहिता सोनपरी कहती है, “मैं नहीं सोचती थी ऐसा हो जाएगा। वैसे डर मुझे रहता था . . . सच कहूँ वह अजीब औरत है तुम्हारे जैसे इंसान के साथ भी ठीक से नहीं रह सकी।” और पहली बार ऐसा हुआ है कि उसकी फिर से स्थापित हुई सोनपरी ने उसका हाथ अपने हाथ में ले लिया है, “मैं एक बार सोचती थी तुम्हें चेतावनी दूँ पर तब तक तुम भी तय कर चुके थे।”

उसके मन पर उदासी छायी है। उसका मन रोने को कर रहा है। मगर उसकी इस उदासी और रोने की इच्छा में वह औरत क़तई शामिल नहीं है जो उसे छोड़कर चली गयी है या जिससे जान छुड़ाकर वह निकल भागा है। पर मन के भीतर कुछ फूट तो रहा ही है। वह देखता है कि उसकी सोनपरी ने अपनी उँगलियों से उसकी एक-एक उँगली से खेलना शुरू कर दिया है। वह धीरे से कहता है, “उसकी जगह तुम्हें होना चाहिए था।”

“कभी-कभी मैं भी ऐसा ही सोचती हूँ, मगर क्या हो सकता है। ऊपर वाला बड़े ग़लत तरीक़े से पेयरिंग करता है।” वह हँसती है फिर कहती है, “तुम्हारे यहाँ कोई है इस समय?” यकायक वह समझ नहीं पाता कि वह क्या पूछ रही है। वह कहता है, “तुम्हारा मतलब घर पर?” 

“हाँ घर के लिए ही पूछ रही हूँ।” 

“नहीं, कोई नहीं है, क्यों?” 

सोनपरी ने उसकी आँखों में एक गहरी-सी रहस्मयी-सी दृष्टि गड़ा दी है, “मैं सोचती हूँ, आज तुम्हारे साथ चलूँ।” 

“क्या?” वह चौंकता है। यह कैसे सम्भव है। वह अपने घर से अलग कहीं और जाने की बात कैसे सोच सकती है, वह तो कॉफ़ी के लिए भी नहीं रुक सकती। कई सवाल उसके भीतर फड़फड़ाने लगते हैं। 

वह समाधान करती है—“माई हसबैंड इज़ नॉट होम टुडे, बेटे को माँ के पास छोड़ कर आयी हूँ। उन्हें बोल कर आयी हूँ मुझे शादी में जाना है। देर हो जाएगी। बेटा वहीं रहेगा। कल छुट्टी है, सुबह जाकर ले लूँगी।”

तो क्या उसने यह सारी योजना उसके लिए बनायी है। अपनी इस सोनपरी के लिए उसके मन में प्यार उमड़ आता है। उसने अपने उमड़ते हुए आँसू भीतर ही रोक लिये हैं। रात का भोजन उसने पैक करा लिया है। 

उसकी सोनपरी कुछ देर तक इस कमरे में से उस कमरे तक एक-एक चीज़ को देखते हुए घूमती है। फिर किचन में घुस जाती है। उसने फ़्रिज खोल लिया है।”चलो ग़नीमत है दूध तो है, चाय पीने की ज़बरदस्त इच्छा हो रही थी।” वह चाय बनाने लगी है।”बीअर लोगी, बिअर भी है।” वह पूछता है। 

“ना बाबा ना, मैं बीअर शीअर नहीं लेती, “वह स्कूली लड़की की तरह हाथ नचाते हुए बोलती है। 

वह हँस पड़ता है। अब न तो उसका मन रोने को कर रहा है, और न उस पर उदासी तारी हो रही है। किचन में चाय बनाती सोनपरी अब उसे सिर्फ़ एक नारी देह लग रही है। 

वह एकाएक दुविधा का शिकार हो जाता है। सोनपरी के अकेले यहाँ चले आने का अर्थ क्या है? अगर वह सीधे उजागर कर दे कि उसकी क्या इच्छा हो रही है, तो उसे कैसा लगेगा? मुझे तुमसे ऐसी उम्मीद नहीं थी, वह कह सकती है, और आगे बिना कुछ कहे सुने झटके के साथ जा सकती है। वह मुश्किल से अपने आप को नियंत्रित कर पा रहा है। 

“लो चाय पिओ। कहाँ खो गये!” वह काफ़ी ख़ुश लग रही है। 

मगर वह चाय नहीं पीना चाहता। उसके भीतर एक बलात्कारी जाग रहा है, और वह पूरी शक्ति लगाकर इस बलात्कारी को रोक रहा है। अपनी सारी नैतिकताओं का आह्वान कर रहा है। वह फिर किचन की ओर जा रही है। उसकी लचकती कमर और हिलोर से लेते मांसल अर्धवृत्त उसे झटके देने लगते हैं। वह झटके से उठ खड़ा होता है। फ़्रिज के पास पहुँचकर पानी की बोतल निकालता है और एक साँस में आधी बोतल गटक जाता है। 

वह किचन से नमकीन लाकर टेबल पर रख रही है। अब वह बीअर नहीं हार्डड्रिंक लेना चाहता है। वह कहता है, “तुम्हें एतराज़ न हो तो व्हिस्की ले लूँ?” 

“मुझे क्या एतराज़ हो सकता है,” वह आँखों में चमक भरकर कहती है। 

वह व्हिस्की के घूँटों के साथ बलात्कारी को सुलाने की कोशिश कर रहा है। 

वह कहती है, “अच्छा तुम ये बताओ, तुम जो ये लिखते रहते हो कभी भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़, कभी साम्प्रदायिकता के ख़िलाफ़, कभी राजनीतिक गंदगी के ख़िलाफ़, इनसे कुछ होता है! आई मीन, कोई इन्हें सीरियसली पढ़ता भी है?” 

उसे स्वयं नहीं मालूम, कौन पढ़ता है क्या असर होता है मगर कहता है, “मुझे लगता है असर पड़ता है। मुझे यह भी लगता है कि मुझे लिखते रहना चाहिए।” 

वह कहती है, “लिखने से चीज़ों का सरलीकरण हो जाता है। सारी चीज़ें दरअसल बहुत अधिक काम्पलेक्स होती हैं। आप बेईमानी के विरोध में बोलते भी हैं और बेईमानी भी करते हैं। आप नैतिक मूल्यों में गिरावट की बात भी करते हैं और ख़ुद नैतिकता को नकारते भी हैं। मैं यह नहीं कहती सारे लोग जानबूझकर ऐसा करते हैं, मगर लगता है चीज़ों को पकड़ने में हमसे ग़लती हो रही है।”

वह हैरानी से उसे देख रहा है। वह बड़ी सहजता से शायद उसे ही उधेड़ रही है। वह असमंजस में पड़ जाता है कि नैतिकता से उसका आशय किस बात से है। अगर वह उसके सामने प्रस्ताव रख दे तो उसे नैतिक लगेगा या अनैतिक। वह अपने गिलास में अगला पैग उड़ेलने लगता है। 

वह टोकती है, “तुम्हें नहीं लगता कि ज़्यादा हो रही है।” 

अपना गिलास टेबल पर छोड़कर वह उठ खड़ा होता है। उसके भीतर का बलात्कारी सो गया है। वह कमरे में टहलने लगता है। 

एकाएक वह भी अपनी कुर्सी से उठ खड़ी होती है। जब तक वह मुड़ता उसने अपनी बाँहें पीछे से उसके कंधों पर रख दी हैं। धीरे से कसते हुए उसने अपना सर उसकी पीठ पर टिका दिया है। वह स्तब्ध-सा खड़ा रहता है। जब उसकी बाँहों की पकड़ थोड़ी ढीली पड़ती है तो वह मुड़ता है उसकी आँखों में उसे आँसू झिलमिलाते दिखते हैं। अब उसने उसके सीने पर सर टिका दिया है। 

उसे अपनी शांत होती देह फिर अनियंत्रित होती लगती है। वह टेबल पर छोड़े गिलास को उठा लेता है। गटकने के लिए अपने ओंठों तक लाता है कि उसके मुँह से निकलता है, “तुम ले लो थोड़ी-सी” और अपने हाथ का गिलास उसके ओठों तक ले जाता है। वह एक बार उसकी ओर देखती है और फिर गिलास उसके हाथ से लेकर एक साँस में गटक जाती है। वह सुबकने लगती है, “सचमुच ग़लत आदमी के पास फँस गयी हूँ।” 

अब वह कुछ सुन नहीं रहा। उसके हाथ ब्लाउज के बटनों पर चल रहे हैं। खुजराहो की खंडित मूर्ति अपने सम्पूर्ण अंग सौन्दर्य के साथ चमकने लगती है। समन्दर की लहरें उमड़कर शान्त हो गयी हैं। उसकी आँखों में नीली झील वापस लौट आयी है। 

“क्या सोच रहे हो?” वह शान्ति भंग करती है। 

“कुछ नहीं,” वह कहता है। वह कुछ भी नहीं सोच रहा। कुछ भी सोचने का मन नहीं हो रहा। 

वह कहती है, “तुम्हें यह तो लगता होगा कि मैं यह सब ग़लत कर रही हूँ।”

“नहीं, ऐसा कुछ नहीं।” वह सचमुच इस समय सही-ग़लत के बारे में नहीं सोच रहा, सोचने लगेगा तो उसे इन क्षणों को सही सिद्ध करने के लिए कोई तर्क नहीं मिलेगा—न क़ानूनी तर्क, न सनातनी नैतिकता का तर्क। वह बस स्वयं को किसी भी तरह के अपराधबोध से मुक्त रखना चाहता है। शायद नैतिकता एक शृंखला होती है और चन्द क्षणों का ऐसा विचलन जिससे कोई भी तीसरा अवगत न हो, इस शृंखला को भंग नहीं करता। 

उसने अभी तक अपने आपको उससे अलग नहीं किया है। कहती है, “हमारा कोई भी सामाजिक नियम पूरा नहीं है। सब कुछ सतही अधूरा-अधूरा-सा। मुझे लगता है ज़िन्दगी कभी किसी नियम से बँधकर नहीं चलती, कभी चलेगी भी नहीं।”

उसे लगता है जैसे वह उसी की बात दुहरा रही हो। वह कुछ नहीं बोलता। दोनों के बीच एक चुप्पी पसर गयी है। वह नींद की बोझिलता महसूस करने लगता है, मगर उससे सटकर लेटी हुई सोनपरी की आँखें पूरी तरह खुली हुई हैं, उनमें नींद का नामोनिशान नहीं है। 

“सुनो, तुमने एक बार एक लड़की के बारे में बताया था . . .” वह अचानक बोलती है और उसकी आँखों में झाँकने लगती है। 

वह जान जाता है कि वह किसके बारे में पूछ रही है। वही जो उससे पंजे लड़ाया करती थी। उसे उसकी सोनपरी होने का अहसास दिलाती थी। उससे बहुत ज़्यादा प्यार करने की बात कहती थी। क्या वही उसकी सोनपरी थी जिसे वह पहचान नहीं पाया था। वह कहता है, “नहीं मालूम अब कहाँ है। उसके मियाँ को विदेश में कहीं नौकरी मिल गयी थी, हो सकता है वह भी चली गयी हो।” अब कुछ यादों को झटकने की कोशिश कर रहा है, जैसे अपनी ग़लतियों को झटकने की कोशिश कर रहा है। 

यह बात जैसे उसने सामने वाली लड़की से नहीं ख़ुद अपने आप से कही है—हम लोगों के ख़्याल अलग थे, हमारी रुचियाँ अलग थी, हमारे संस्कार अलग थे। वह समझ नहीं पा रहा कि उसने इन शब्दों का क्या अर्थ लगाया है। मगर वह उसे प्यार से देखने लगी है। 

दिन पंख लगाकर उड़ने शुरू हो गये हैं। पता नहीं लगता कब उस विवाहिता से उठकर उसकी सोनपरी का चेहरा इस लड़की के चेहरे में ढल जाता है। 

यही है उसकी सोनपरी। 

वह कहता है, “मैं तुम्हें बहुत पसंद करता हूँ।” उसकी सोनपरी कुछ कहती नहीं, सिर्फ़ मुस्कुरा देती है। उसकी मुस्कान उसे बहुत अच्छी लगती है, ओस में नहाये एक फूल-सी सुबह की लालिमा-सी, पानी में उठी एक हिलोर-सी, मधुर गीत की गुनगुनाहट-सी। 

यही तो है उसकी सोनपरी! और वह उससे पूछता है, “तुम शादी तो करोगी न मुझसे?” 

वह एक खिंचाव महसूस करता है, देह से परे, कुछ-कुछ अलौकिक-सा पकड़ में न आने वाला, परिभाषा की हदों से बाहर चला जाने वाला। यही है उसकी सोनपरी। इससे पहले सब परछाइयाँ थी, छायाएँ थीं। सोनपरी यही है जो न उत्तेजक है, न आक्रामक न गूढ़ है न गहरी। न उथली है न छिछली। 

इसकी उपस्थिति उसे सहज सुकून से भर देती है। न स्पर्श में असहजता है न संवाद में। मगर वह अचानक असहज हो जाता है। ज़िन्दगी को फिर किसी डोर से बाँधना . . . कहीं फिर कोई दुर्घटना तो नहीं। 

नहीं, वह स्वयं को आश्वस्त करता है। सोनपरी की पुनर्रचना वह अपने हाथ से करेगा, अपने हाथ से गढ़ेगा उसे, अपनी तरह, अपनी कामनाओं की तर्ज़ पर . . . फिर किस चीज़ की ज़रूरत रहेगी? फिर कहाँ कोई भटकाव रहेगा? कहाँ कोई तलाश रहेगी? 

मगर सोनपरी जो बता रही है, उसे लगता है उसके पैरों की ज़मीन खिसक रही है। 

शादी की उम्र में चल रही सोनपरी को दो दिन पहले कोई लड़का देख कर गया है। देखना तो बहाना है, औपचारिक सहमति बन चुकी है। और वह व्यग्रता से कहता है–“मैं तुम्हारे बिना नहीं रह सकता।” उसने पहली बार सोनपरी को पूरी तरह अपनी ओर समेट लिया है। सोनपरी कसमसा रही है, वह उसकी कसमसाहट को अनदेखा कर रहा है। 

एक डर उसे घेर लेता है, कहीं सोनपरी उस लड़के से प्यार तो नहीं करती! शीघ्र ही उसका डर एक क्रूर संकल्प में बदल जाता है। वह सोनपरी को यह अधिकार नहीं देगा कि वह किसी और से प्यार करे, किसी और को पसन्द करे, किसी और से जुड़ने का मन बनाए। वह सोनपरी के माँ-बाप को भी यह अधिकार नहीं देगा कि वे सोनपरी के बारे में फ़ैसला लें। सोनपरी सिर्फ़ उसकी सोनपरी है। सोनपरी को उसे किसी भी क़ीमत पर पाना है। 

 . . . और इससे पहले कि उसकी विवाहिता पूर्व सोनपरी कहती कि मैं अपने पति से तलाक़ लेकर तुमसे शादी करना चाहती हूँ, वह उसे बता देता है कि उसे उसकी सोनपरी मिल गयी है। वह उसे अपने घर लाना चाहता है, और इस काम में उसकी मदद चाहता है। 

अपदस्थ सोनपरी उदास हो जाती है, “वह तो तुम्हें करना ही था। मैं तुम्हें आख़िर कितना दे पाती हूँ।” 

उसकी पत्नी हाथ में दूध का गिलास लेकर खड़ी है, “तबीयत तो ठीक है न आपकी। पत्नी के चेहरे पर चिन्ता की रेखाएँ हैं, “यह गिलास पकड़ो मैं दवा लेकर आती हूँ।” 

वह अपनी पत्नी के चेहरे को देखता है। 

“ऐसे घूरकर क्या देख रहे हो?” वह पूछती है। 

वह क्या बताए कि वह एक-एक वर्ष की परत उघाड़ रहा है। वर्षों की परतें चीरकर वहाँ पहुँचना चाहता है जहाँ उसकी सोनपरी दबी पड़ी है। अगर किसी को पा लेने की उद्दाम लालसा प्यार होती है तो अपना सारा प्यार सोनपरी पर उड़ेल दिया था। चालू क़िस्म के प्रेमी की तरह न जाने कितनी क़समें खा डालीं थीं। कितने-कितने वादे कर डाले थे। 

वर्ष बन्द दरवाज़ों की तरह खुल रहे हैं। अन्तिम दरवाज़े पर वह अपनी सोनपरी का चेहरा देखना चाहता है। लेकिन नहीं, वहाँ सोनपरी नहीं है। वहाँ उसकी पत्नी खड़ी हुई है हाथ में दूध का गिलास लिये हुए। 

कभी उसके सीने में दर्द उठता है तो लगता है बहुत-से चेहरे, बहुत-सी यादें, सोनपरियों के बहुत से टूटे पंख वहाँ अटक गये हैं। वह खोजता है मगर पूरी सोनपरी नहीं दिखती। वह अपने घर की छत पर खड़ा नीचे सड़क की ओर झाँकता है। कभी वहाँ से भीड़ गुज़रती है, तो कभी अकेले-एकांकी लोग। और वह तलाशता रहता है। उसकी सोनपरी उसे ज़रूर दिखायी देगी। 

उसे हँसी आती है। अब क्या कहेगा सोनपरी से, कहाँ बैठकर उससे बातें करेगा, किस विषय पर बातें करेगा, अपनी किस योजना के बारे में उसे बताएगा, उसकी ऐसी क्या उपलब्धियाँ है जो उसे गिनायेगा, सोनपरी के इधर-उधर के बेमतलब यूं-ही से प्यारे सवालों का क्या जवाब देगा? 

कभी उसे लगता है कि दिखने वाला चेहरा उसकी सोनपरी का ही है। मगर वह चेहरा किसी स्कूटर पर सवार होता है या किसी गाड़ी में। जो पूरी तरह दिखने से पहले ही तिरोहित हो जाता है। कभी-कोई चेहरा धीरे-धीरे उसे अपने नज़दीक आता-सा लगता है, मगर वह उतना ही धीरे-धीरे उसे अपनी जगह छोड़ आगे निकल जाता है। 

फिर भी उसे लगता है, एक दिन उसकी सोनपरी हौले-हौले क़दमों से चलती हुई उसके दरवाज़े पर आकर रुकेगी। वह नीचे से ऊपर देख रही होगी और वह ऊपर से नीचे, सीधे उसकी आँखों में। 

वह नीचे उतर आएगा। अपनी सोनपरी को लेकर धीरे-धीरे ऊपर चढ़ेगा। उसकी पत्नी दरवाज़े पर खड़ी होगी। और वह कहेगा, सुनो, सोनपरी बहुत दिन बाद आयी है। यह ज़्यादा देर रुक भी नहीं सकती। इसे अभी जाना है। क्या तुम हमें . . . इसे अच्छी सी चाय पिला सकती हो? 

इसके अलावा और क्या कहेगा सोनपरी के सामने। 

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