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काला दाग़

 

वह उस लड़की का इंतज़ार कर रहे थे। उसने ग्यारह बजे आने को कहा था और पन्द्रह मिनट ऊपर हो चुके थे। इतनी देर तो किसी भी वजह से हो सकती थी। लेकिन एक अजीब-सी उद्विग्नता उन्हें मथने लगी थी। एक ही मुलाक़ात में वह लड़की उनके आत्मीय तंतु को झनझना गयी थी। उसके जाने के बाद उन्हें अपने बच्चे देर तक याद आते रहे थे। 

कल जब दरवाज़े की घंटी बजी थी तब नौकर घर में नहीं था। दरवाज़ा उन्होंने ही खोला था। लड़की ने सौम्यता से उन्हें नमस्कार करते हुए अपना परिचय दिया था और अपने आने का मक़सद बताया था। उसने बिना किसी पूर्व सूचना के और बिना समय तय किये आने के लिए विनम्रता से क्षमा याचना की थी। 

इस लड़की के आने में कुछ भी नया नहीं था। अवकाश प्राप्त करने के बाद उन्होंने मीडिया से एक रिश्ता क़ायम किया था या मीडिया ने उनसे रिश्ता क़ायम किया था। वह अपने कार्यकाल में ही एक सक्षम, सफल और सुयोग्य पुलिस अधिकारी होने की ख्याति प्राप्त कर चुके थे। तब मीडिया में अपनी बात कहने को लेकर अनेक प्रतिबंध थे, अब वह उनसे मुक्त हो गये थे। जब भी मीडिया को पुलिस को लेकर कोई बहस करानी होती थी या किसी आपराधिक घटना पर किसी सक्षम व्यक्ति की टिप्पणी लेनी होती थी तो मीडियाकर्मी उनके पास आ जाते थे। इसके अलावा तमाम सामाजिक संगठन भी उन्हें गाहे-बगाहे बोलने के लिए आमंत्रित करते रहते थे। यह लड़की भी शायद उनके बारे में जानती थी। वह पुलिस की कार्यप्रणाली पर कोई पेपर तैयार कर रही थी, इसलिए उनके पास चली आयी थी। 

वह पुलिस व्यवस्था के बारे में ज़्यादा नहीं जानती थी। इस मामले में व्यावहारिक ज्ञान तो उसे क़तई नहीं था। जो कुछ अख़बारों में या किताबों से उसने जाना था, वही जानकारी उसके पास थी। वह अपनी जिज्ञासाएँ उनके सामने रखती रही थी और वह उनका समाधान करते रहे थे। उन्होंने अपने पुलिस जीवन और अपनी कार्यप्रणाली के अनेक उदाहरण उसके सामने रखे थे कि कब किस परिस्थिति में किन अपराधियों को उन्होंने कैसे उनके अंजाम तक पहुँचाया। लेकिन शीघ्र ही एक बात वह जान गये थे कि लड़की केवल आम तौर पर पूछे जाने वाले सवाल लेकर नहीं आयी थी। वह उनकी तकनीकी कार्यप्रणाली को बार-बार अपनी मूल दार्शनिक चिंताओं के घेरे में खड़ा कर रही थी। मगर उन्हें उसकी बातों में रस मिल रहा था। 

बातचीत को थोड़ा अनौपचारिक करने के इरादे से जब उन्होंने कहा था, “मैं तुम्हारे लिए चाय की व्यवस्था करता हूँ।” तो उसने घर में उनके अकेले रहने के बारे में सवाल किया था। तब उन्होंने बताया था कि उनका बेटा अमरीका में नौकरी कर रहा है और वहीं बसने का मन बनाए हुए है, उनकी बेटी अपने पति के साथ बंगलौर में रह रही है, यह भी कि उनकी पत्नी कुछ महीनों के लिए बेटे के पास चली गयी है। उनका सारा काम यहाँ एक नौकर करता है जो आज छुट्टी पर चला गया है। 

तब लड़की किचिन का रास्ता पूछकर ख़ुद चाय बनाने के लिए उठ गयी थी। चाय उसने वाक़ई बहुत अच्छी बनाई थी। चाय का घूँट लेते हुए ही उनका ध्यान लड़की की बायीं कलाई पर गया था जहाँ एक बड़ा-सा दाग़ बना हुआ था। उन्होंने पूछा था, “यह क्या जलने का दाग़ है?” 

“नहीं, जन्म से है,” उसने हल्की-सी मुस्कुराहट के साथ कहा था। 

वह दाग़ उनकी आँखों में बना रहा। 

लड़की की बातों से उन्हें मालूम हुआ कि वह अपनी माँ के साथ रहती है। पिता की मृत्यु हो चुकी है। माँ प्रायः बीमार रहती है इसलिए उसका अधिकतर समय माँ की देखभाल में जाता है। 

बाद में वह फिर अपने विषय पर आ गयी थी। 

अच्छी-ख़ासी चर्चा के बाद उसने कहा था, “आपको नहीं लगता कि किसी व्यक्ति की आपराधिकता यहाँ केवल एक चांस बेस्ड फ़ैक्टर है यानी व्यक्ति का चरित्र नहीं बल्कि संयोग से बनी एक परिस्थिति ही उसका अपराधी होना या न होना तय करती है?” 

उन्हें एकाएक नहीं सूझा था कि इस सवाल का क्या जवाब दें। दूसरे, उन्हें एक कार्यक्रम में जाने के लिए भी तैयार होना था। उन्होंने कहा था, “अच्छा हो, बाक़ी बातचीत के लिए तुम कल आ जाओ . . . अभी मुझे निकलना है।” 

लड़की कल ग्यारह बजे आने की बात कहकर उठ खड़ी हुई थी। 

तब उन्होंने एक अनौपचारिक-सा सवाल भी पूछ लिया था, “तुम इसी शहर की हो? तुम्हें देखकर तो नहीं लगता।” 

“मैं खैरागढ़ को बिलांग करती हूँ, वैसे लंबे समय से माँ के साथ यहीं रह रही हूँ,” वह बोली थी। 

“ओह, खैरागढ़! एक अर्से पहले मेरी भी वहाँ पोस्टिंग रही थी। चलो फिर कल बात करते हैं,” उन्होंने बातचीत ख़त्म कर दी थी। 

लड़की चली गयी थी मगर अप्रत्याशित तरीक़े से वह उन्हें याद आती रही। वह समझ नहीं पाये कि अपने बच्चों की याद की वजह से वह लड़की के प्रति आत्मीयता महसूस कर रहे थे या वह लड़की के प्रति आत्मीयता महसूस कर रहे थे इसलिए उन्हें बच्चे याद आ रहे थे। वह एक उदासी भरा अकेलापन महसूस कर रहे थे। उस लड़की का अपनी माँ के प्रति लगाव जैसे उन्हें किसी अभाव की याद दिला रहा था। 

आख़िर जब लड़की आयी तो उन्होंने पहला सवाल देर से आने को लेकर ही किया। लड़की ने फिर विनम्रता से क्षमा-याचना की और बताया कि माँ की तबीयत अचानक बिगड़ गयी थी इसलिए उसे उनकी देखभाल के लिए रुकना पड़ा। उनकी नज़र एक बार फिर लड़की की कलाई पर बने काले दाग़ पर चली गयी। यह दाग़ उनके भीतर एक धुँध सी पैदा कर रहा था। 

लड़की ने अपने पिछले सवाल को आगे बढ़ाया, “आपको नहीं लगता कि आपराधिकता हम सबके भीतर है। लेकिन अपराधी केवल वह व्यक्ति माना-ठहराया जाता है जो परिस्थितिवश पकड़ में आ जाता है?” 

वह बोले, “हमारे अंदर आपराधिकता होती है, तभी तो हम क़ानून बनाते हैं, सामाजिक मर्यादाएँ निर्धारित करते हैं, सांस्कृतिक आचार-विचार का पालन करते हैं।”

“लेकिन ये बातें तो दोनों पर समान रूप से लागू होती हैं। जिसे अपराधी ठहराया जाता है उस पर भी और जो अपराधी ठहरा रहा है उस पर भी। फिर एक क्यों अपराधी माना जाता है, दूसरा क्यों नहीं? सिर्फ़ इसलिए कि एक ही चरित्र और व्यवस्था का हिस्सा होते हुए भी एक इस स्थिति में होता है कि उसे अपराधी ठहराना आसान नहीं होता, जबकि दूसरा एक कमज़ोर स्थिति में होता है जिससे उसे आसानी से अपराधी ठहराया जा सकता है,” उसने तर्क किया। 

“चलो तुम्हारी बात मान भी लें, तब भी अपराध को रोकने के लिए औज़ार तो वही हैं . . . क़ानून, नैतिक मर्यादाएँ। सोचो अगर ये न हों तो क्या स्थिति होगी!” वह समझाने की मुद्रा में बोले। 

“लेकिन इनसे आपराधिकता कैसे ख़त्म होगी? मूल सवाल तो आदमी और आदमी के बीच के रिश्ते का है। एक अपराधी जिनके प्रति अपराध करता है वह उन्हें अपनी ही तरह दुख-सुख महसूस करने वाला इंसान नहीं मान पाता। इसी तरह जो लोग अपराधियों से निपटते हैं जैसे कि आप, तो आप भी उन्हें अपनी ही तरह की इच्छाओं, भावनाओं, संवेदनाओं वाला इंसान नहीं मान पाते। आप उनके साथ उन्हें अपराधी मानकर व्यवहार करते हैं, इंसान मानकर नहीं। फिर दोनों में फ़र्क़ क्या हुआ? केवल हैसियत का ही न?” लड़की की आँखों में सरल-सी चमक थी, लेकिन शब्दों में वज़नी दृढ़ता की खनक थी, “यहाँ भी आपकी सनक या आपका कोई लालच या आप पर कोई दबाव यह तय कर सकता है कि आप व्यक्ति को अपराधी मानें या न मानें। आप यह भी कह सकते हैं कि उसे अपराधी मानते हुए भी किसी दबाववश अपराधी न मानें या उसके निरपराध होते हुए भी आप उसे अपराधी ठहरा दें। इन स्थितियों को आप किस श्रेणी में रखेंगे . . .?” 

वह पुलिस और क़ानून संबंधी सवालों के उत्तर देने के अभ्यस्त थे, पर ऐसे सवाल उनके सामने पहली बार आ रहे थे। उन्हें परेशान भी कर रहे थे। अपने कार्यकाल में वह अपराधियों से सख़्ती से निपटने के लिए जाने जाते रहे थे। ऐसे भी अनेक अवसर आये थे जब उन्हें इधर-उधर के दबाव के चलते अपराधियों के प्रति नरमी बरतनी पड़ी थी, परन्तु यह सब तो पुलिस कार्यप्रणाली का हिस्सा है। इसमें कोई भी क्या कर सकता है। उन्हें कभी-कभी तो क़ानून की रक्षा के लिए क़ानून तोड़ना पड़ता है। उन्होंने भी ऐसा ही किया। उल्टे इसके लिए कोई पश्चाताप भी नहीं था। वह बोले, “तुम्हारा मतलब है हमारे मन में अपराधियों के प्रति करुणा होनी चाहिए, उनसे सहानुभूति होनी चाहिए . . . आख़िर तुम किस निष्कर्ष पर पहुँचना चाहती हो?” 

वह बोली, “किसी निष्कर्ष पर पहुँचने के लिए मैं बहुत छोटी हूँ। मेरी बस जिज्ञासा है। अगर दूसरे इंसान को अपने जैसा ही इंसान मानने की मूल संवेदना तिरोहित हो तो आपराधिकता ख़त्म कैसे हो सकती है? इतना ही तो फ़र्क़ हो सकता है कि एक आपराधिकता क़ानून का अतिक्रमण करती हो, दूसरी आपराधिकता क़ानून का सहारा लिये रहती हो। सवाल आपराधिकता के परिप्रेक्ष्य का है।” 

“तुम ठीक बात कर रही हो सकती हो। मगर पूर्णता तो कहीं भी नहीं है। हम सबके लिए कुछ न कुछ सीमाएँ होती हैं, और हमें इन सीमाओं में काम करना पड़ता है। इन्हीं के बीच बेहतर करने की कोशिश करनी पड़ती है,” उन्होंने अपनी तरफ़ से बात लगभग ख़त्म कर दी। 

लड़की चुप हो गयी। वह उठने के लिए तैयार दिखने लगी। लेकिन तभी नौकर चाय रख गया तो वह रुक गयी। 
उनके अन्दर एक अजीब-सी इच्छा पैदा हुई कि वह लड़की आज भी उनके लिए चाय बनाती। उन्होंने पूछा, “तुम्हारे पिता की डेथ कब हुई?” 

लड़की ने उनकी तरफ़ देखा, फिर बोली, “मैं जब पैदा भी नहीं हुई थी। माँ के पेट में थी।” 

“ओह, क्या हो गया था?” उन्हें जानने की जिज्ञासा हुई। लड़की ने कोई उत्तर नहीं दिया! लेकिन उन्होंने देखा कि लड़की की आँखों की चमक ग़ायब हो गयी है। वहाँ स्याह-सी उदासी उतर आयी थी। उनकी जिज्ञासा और तीखी हो गयी। वह बोले, “क्या हुआ था उन्हें?” 

लड़की ने उनकी तरफ़ देखा, फिर नज़रें झुका ली। बुझी हुई आवाज़ में बोली, “पापा को पुलिस ने बिना किसी अपराध के पड़ोसी की झूठी शिकायत पर गिरफ़्तार कर लिया था। वे अपमान बरदाश्त नहीं कर सके थे, उन्होंने आत्महत्या कर ली थी।” 

उन्हें तेज़ झटका-सा लगा। उन्होंने लड़की को तेज़ परखती नज़रों से देखा। उसकी उम्र इक्कीस-बाईस की रही होगी। लगभग इतने ही वर्ष पहले वह खैरागढ़ में तैनात थे। उनका सबइंस्पेक्टर उनके पास एक औरत को लेकर आया था जो अपने पति को निर्दोष बता रही थी, उसे छोड़ने की गुहार लगा रही थी। शायद सबइंस्पेक्टर उन्हें रिहाई की शर्त समझाकर लाया था। उसने शायद यह प्रभाव छोड़ा था कि ऐसे लोगों के साथ ऐसा होता ही रहता है। वह दो दिन लगातार उनके बिस्तर पर आयी थी। उसका पति छूट गया था, और बाद में उन्हें मालूम हुआ कि उस आदमी ने आत्महत्या कर ली है। शायद उसे मालूम हो गया था कि उसे कैसे छुड़ाया गया है . . . या कुछ और भी। 

शायद उस औरत की कलाई पर भी ऐसा ही दाग़ था। उन्होंने बेचैनी से लड़की की कलाई के दाग़ से अपनी नज़र हटा लीं। मगर वह दाग़ जैसे उनके पूरे वुजूद को छापे ले रहा था . . . 

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टिप्पणियाँ

डॉ.शैलजा सक्सेना 2023/10/06 12:24 AM

कहानी पुलिस व्यवस्था की तह तक जाती है और सच उघाड़ कर रख देती है। एक बड़ा दाग़ पुलिस व्यवस्था पर है ..। कहानी की शैली बहुत सधी हुई और रोचक है। लड़की के प्रश्न सशक्त हैं और समाज, न्यायव्यवस्था और व्यक्ति के संबंध की पड़ताल करते हैं। एक अच्छी कहानी के लिए बहुत बधाई!

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