एक और चेहरा
कथा साहित्य | कहानी विभांशु दिव्याल1 Feb 2025 (अंक: 270, प्रथम, 2025 में प्रकाशित)
अब क्या कहूँगा लाखादीन से? उसे कौन-सा आश्वासन दूँगा? लाखादीन के साथ-साथ मैं भी चुकने को हो गया हूँ। जितना भाग सका, भागा, जो कर सकता था, किया, जिस-जिससे मिल सकता था, मिला, पर अब क्या करूँ? अपने ख़ुद के घर-परिवार की क़ीमत पर समय-श्रम और पैसे की कितनी उदारता बरतूँ? पत्नी चिड़चिड़ाने लगी है। बिटिया बार-बार शिकायत करती है, “पापा इस बन्तो को आपने घर में क्यों डाला हुआ है? यह तो किसी मतलब की दवा नहीं है। काम-धाम तो इससे कुछ होता नहीं, हमें और हर समय चौकसी रखनी पड़ती है।”
लाखादीन कभी भी आ सकता है। आकर अबोला बैठ जायेगा। मेरी ओर देखेगा भर . . . उसकी आँखों में हताशा का कोई भाव नज़र नहीं आता। निराशा की कोई रेखा नज़र नहीं आती। ये रेखाएँ भी शायद तब झलकती हैं, जब मन में कहीं आशा का कोई बिन्दु कौंध रहा होता है। लाखादीन की आँखों में अब सिर्फ़ राख-सी उड़ती है। वह अपनी झुर्रीदार गर्दन ऊपर उठाता है तो उसकी आँखों के कोए वीरान दिखाई देते हैं और पुतलियाँ निर्जीव।
आता ही होगा लाखादीन। बोलेगा नहीं, बस अपनी गर्दन ऊपर उठा देगा। मुझे उसकी आँखों में देखना पड़ेगा। आज तो मेरे पास कोई ढाल भी नहीं है जिसके पीछे छिपकर उन निर्जीव पुतलियों का सामना कर सकूँ। मेरे पास कोई उम्मीद नहीं बची जिसे आश्वासन बनाकर लाखादीन की झोली में डाल सकूँ . . .।
“तुम क्यों बैठे-ठाले मुसीबत मोल ले लेते हो? सारी दुनिया का उद्धार करने का ठेका तुमने ले रखा है? . . . तुम्हारे जैसे लोगों को तो घर-गृहस्थी बसानी ही नहीं चाहिए,” पत्नी का चेहरा कभी-कभी अपनी शालीनता खोता हुआ प्रतीत होता है।
दुनिया का उद्धार और घर गृहस्थी, क्या दो बिल्कुल विरोधी बिन्दु हैं? घर-गृहस्थी वाले आदमी को शेष समाज के बारे में सोचने का कोई हक़ नहीं? क्या घर-गृहस्थी वाला आदमी इतना स्वार्थी हो जाय कि उसे अपने बीवी-बच्चों के अलावा किसी और का हित नहीं सूझे? बीवी-बच्चोंवाला हर व्यक्ति इतना कायर हो जाये कि बीवी-बच्चों की असुरक्षा के भय से किसी भी अन्याय का प्रतिकार न करे, किसी अत्याचार का विरोध न करे? इतना क्रूर और हृदयहीन हो जाय कि ठीक घर के सामने मूर्च्छित पड़े इन्सान के चेहरे पर पानी के छीटे भी न मारे? . . . बाप सड़क पर बेहोश पड़ा हो, और उसकी अध-पगली बेटी शिकारियों से घिरी हिरनी की तरह मदद की साकार याचना बन, बौराई-सी इधर-उधर देख रही हो, और मैं अनदेखा कर अपने घर का दरवाज़ा बन्द कर लूँ, कैसे हो सकता है ऐसा? “क्या हो गया इसको?” मैंने सवाल किया है।
“न मालूम,” लड़की की आँखों से मोटे-मोटे आँसू बहने लगे हैं, “चलते-चलते गिर पड़े।”
“ये कौन है तुम्हारा?”
“हमारा बापू,” लड़की की रुआँसी आवाज़ ने झोली फैला दी है . . . मदद . . . मदद।
मैं बाप को देखता हूँ, फिर बेटी को देखता हूँ। बेटी को देखता हूँ फिर बाप को देखता हूँ।
जो आदमी साठ पार कर गया हो, कई दिनों से बेटी के साथ मारा-मारा फिर रहा हो, दो दिन से जिसके मुँह में अन्न का दाना भी न गया हो, तो और क्या होगा उसका, सिवाय इसके कि वह सड़क पर बेहोश होकर गिर पड़े . . .। मेरी मदद से आश्वस्त होकर बताती है वह लड़की। बाप होश में आता है पानी के ठीटे खाकर, बैठने-बोलने की ताक़त पाता है, थोड़ा ग्लूकोज पीकर, थोड़ा दूध पीकर।
इसकी राम कहानी हज़ारों-लाखों की कहानी से अलग नहीं है—दबंग सामंती ताक़त के अत्याचार के विरुद्ध आवेश में अकेले उठ खड़ा होना, दमन के दुष्चक्र में फँस, निरुपाय हो सब कुछ गँवा बैठना, फिर शेष बची जिजीविषा को समेट किसी तरह शहर की ओर निकल भागना, और अंततः एकदम खुले में आ जाना कि कोई भी, कहीं से भी शिकार कर सके। खुले में भाग रहा है लाखादीन . . .।
वह मेरे पैर पकड़ कर गिड़गिड़ाता है, “आप भगवान समान है बाऊजी, बस दो-चार दिन बिटिया को सर छुपाने को जगह दे दीजिए। हम अकेले गैल-घाट, कहीं भी रात गुज़ार लेंगे, पर जवान छोरी को लेके कहाँ रुकें?” वह रोने लगता है।
लाखादीन ने कैसे विश्वास कर लिया कि उसकी बेटी मेरे संरक्षण में सुरक्षित रहेगी? शायद मानवीय करुणा का उजला चेहरा अपनी अलग पहचान रखता है। यह आदमियत को भी ज़िन्दा रखता है, और आदमियत के प्रति भरोसे को भी। ज़रूर लाखादीन ने मेरे इसी चेहरे को देख लिया है। मैं चाहता हूँ कि लाखादीन के भरोसे को टूटने न दूँ। मैं कोशिश करूँँगा कि लाखादीन को न्याय मिल सके। मैं उन लोगों से भी मिलूँगा जो लाखादीन को न्याय दिलाने में मददगार हो सकते हैं।
‘कहिए’ की मुद्रा में उसने अपना भारी थूथन ऊपर उठा दिया है। बल-बलाती इच्छा होती है कि उसके मुँह पर ज़ोर का तमाचा लगाऊँ . . . बदमाश, इतना कुछ निगल चुका है, अब क्या सारे मुल्क को पचाएगा? तुम लोगों की ख़ून की प्यास क्यों नहीं बुझती . . . उन ग़रीबों को उजाड़ने-खदेड़ने में तुम्हारे दिल का कोई रग-रेशा नहीं काँपता! . . . कहाँ जाये लाखादीन? कहाँ जाये उसकी अधपगली, अभागी बेटी बंतो? उसका थूथन वैसे ही उठा हुआ है, मैंने बोलने में देरी की तो जैसे मुझे ही निगल जाएगा। मैं अपनी सारी नफ़रत और ग़ुस्से पर विनम्रता का मुलम्मा चढ़ाते हुए कहता हूँ, “मैं आपके पास लाखादीन के बारे में बात करने आया हूँ।”
“कौन लाखादीन?”
“आपने जो ज़मीन अपनी फ़ैक्ट्री के लिए ली है, उसमें एक झोंपड़ी लाखादीन की भी थी। उसने पाँच सौ रुपये देकर ख़रीदी थी।”
“लाखादीन की झोंपड़ी। पाँच सौ रुपये में ख़रीदी थी। किससे ख़रीदी थी?”
“यह तो मुझे नहीं मालूम, मगर उसने उस ज़मीन पर रहने के लिए पाँच सौ रुपये दिये थे, उससे कहा गया था कि ज़मीन पर उसी का हक़ . . .”
मेरी बात उसकी मुस्कराहट से टकराकर रुक जाती है काटती छीलती मुस्कराहट। वह बोलती है, “आप तो पढ़े-लिखे समझदार मालूम पड़ते हैं, फिर भी बच्चों जैसी बातें करते हैं। यहाँ इस शहर में पाँच-सौ रुपये में ज़मीन मिल जायेगी? अगर आपके घर को कोई और बेच दे, पाँच सौ रुपये में, तो क्या आप उसका अधिकार स्वीकार कर लेंगे?”
“फिर भी, लाखादीन झूठ तो नहीं बोलता। उस ग़रीब ने कपड़े-लत्ते बेचकर पाँच सौ रुपये दिए। आप चाहें तो . . .”
“आप किस तरह की बातें करते हैं! क्या मुझे दिये रुपये? हमारा इससे क्या सम्बन्ध! हमने तो ज़मीन मठ के ट्रस्ट से ली है। उसने जिसे रुपये दिये, उससे जाकर माँगे।”
“उसको वो कहाँ तलाशे?”
“तो क्या मैं तलाशूँ? पुलिस के पास जाइए? प्रशासन के पास जाइए।”
“आप समर्थ हैं, वह बेचारा ग़रीब . . .”
“ओफ्फोह, आप तो हद करते हैं। मुल्क के सारे ग़रीबों का ठेका हमने ले रखा है क्या? देखिये जिस मामले से हमारा कोई सम्बन्ध नहीं, उसमें हम कुछ नहीं कर सकते . . . सॉरी, मैं आपकी मदद नहीं कर सकता, एण्ड नाऊ . . .” बिना बोले ही जैसे उसने कहा है ‘गैट आउट’।
ख़ूनी खटमल! तू मेरी मदद क्यों करेगा? तू तो उस महंत की मदद करेगा, जिसने तुझे लाखों की ज़मीन मिट्टी के मोल दिलवा दी है। तूने मुल्क के ग़रीबों का ठेका नहीं ले रखा, पर उनका ख़ून चूसने का ठेका तो ले रखा है। खटमल! ख़ूनी कीड़े!
महंत के सामने छोटी-सी भीड़ जुड़ी है। लोग आते हैं, हाथ जोड़कर महंत को प्रणाम करते है, दंडवत करते हैं, फिर बैठ जाते है, महंत के ठीक आगे एक बुढ़िया बैठी है, और बुढ़िया की बग़ल में बैठी है एक छुई-मुई जवान औरत-बुढ़िया की बेटी या बहू। बुढ़िया भीड़ पर नज़र डालती है। महंत के पार्श्व में बैठा शिष्य खोखियाता है, “जल्दी बोल माई। जल्दी। बहुत लोग बैठे हैं।”
“दो दफ़ा गिरावट है गयी। अब फिर पैर भारी हैं . . .” बुढ़िया भरकस धीमी आवाज़ में बोलती है जैसे इतने लोगों के सामने यह बात कहते हुए संकोच हो रहा हो।
महंत ने आँखें बन्द की हैं। पास रखे लोहे के हवन कुंड से भभूत निकाल कर बुढ़िया को दी है। कहा है, “कल्याण भव!”
मूर्ख कहीं की! अस्पताल जाकर डॉक्टर को क्यों नहीं दिखाती? यहाँ चली आई है बेवुक़ूफ़! यह भभूत बच्चे को गिरने से रोक लेगी!
बुढ़िया और वह औरत उठ गयी हैं। एक दूसरा आदमी साष्टांग ज़मीन पर फैल गया है। फिर बैठने की मुद्रा में सिमटता है। वह धीमे-धीमे बोल रहा है, शायद किसी मुक़द्दमे के बारे में। महंत ने एक लाल धागा उठाकर उसे दे दिया है। धागे को उस व्यक्ति ने इस तरह माथे से लगाया है जैसे दुनिया की सारी पवित्रता, उस धागे में समाई हुई हो।
अब एक औरत अपनी बेटी का ज़िक्र कर रही है। बेटी को दौरे पड़ते हैं। वह बताती है कि महंत जी का नाम सुनकर वह शहर के दूसरे कोने से आयी है। महंत लड़की के सर पर हाथ फेरता है। फिर पीठ पर, उसके माथे पर भभूत लगा देता है। थोड़ी-सी उसकी जीभ पर रख देता है, महंत के शिष्य की आँखें लड़की के आर-पार जा रही हैं। वह बोलता है, जैसे जानवर गुर्राया हो, “अगले मंगल को फिर दिखा ले जाना।”
धूर्त! इन लोगों से किस बैर का बदला चुका रहा है! इन्हें बहला-बहक़ा कर इनकी तकलीफ़ें क्यों बढ़ा रहा है? तेरे ये धागे, तेरी यह भभूत क्या कल्याण करेंगे इनका?
महंत की दृष्टि अब मेरे ऊपर है। यह दृष्टि एक साफ़-मन निष्कलुष व्यक्ति की दृष्टि नहीं है। मगर मुझे तो काम निकालना है। मन दुविधाग्रस्त होता है—चरण स्पर्श करूँ, या यहीं से हाथ जोड़ दूँ। कूटनीति के तहत चरण छू ही लिए जायें। शायद प्रभावित हो, शायद काम बन जाये। मैं महंत के पैर छू लेता हूँ।
महंत ने आँखें मूँद ली हैं, जैसे मेरे भूत-भविष्य पर मनन कर रहा हो। मैं उसके नेत्र खुलने की प्रतीक्षा करता हूँ।
शिष्य मेरी प्रतीक्षा से ऊबता है, “कहो भक्त, अपनी शंका कहो।” मुझे यह व्यक्ति और भी अधिक धूर्त प्रतीत होता है। पर मुझे क्या लेना-देना इससे। बस, किसी तरह मेरी बात इनकी समझ में आ जाय। लाखादीन का कोई ठिकाना मिल जाय, बंतों मेरे घर ज़्यादा दिन डेरा न डाले . . . मैं कहता हूँ, “मुझे महंत जी से बात करनी है।”
“कोई गूढ़ शंका? कोई गुप्त चर्चा!” शिष्य पूछता है। उसकी छोटी-छोटी आँखें डरावनी लगती हैं।
“वैसा कुछ नहीं है,” मैं कहता हूँ, “मैं लाखादीन के बारे में बात करने आया हूँ। मठ की ज़मीन से जो झुग्गियाँ हटाई गयी थीं, उनमें एक झुग्गी लाखादीन की भी थी। उस झुग्गी को भी हटा दिया गया। ग़रीब आदमी है। बहुत परेशान है। जवान बेटी साथ है। अकेला हो तो चाहे जहाँ रात गुज़ार ले . . . आपकी कृपा हो जाय तो उसे कहीं जगह मिल जाय . . .”
“भक्त, हमारी कृपा से क्या होगा,” आख़िर महंत के नेत्र और ओंठ, दोनों ही खुलते हैं, “कृपा तो उसकी चाहिए।” महंत का हाथ ऊपर आकाश की ओर संकेत करके नीचे लौट आता है, “सबको अपने कर्मों का फल भोगना ही होता है। भाग्य रेखा किसके मिटाये मिटी है।”
“महंत जी, वह बेचारा बहुत परेशान है। बुड्ढा है, बीमार है। बेटी भी नीम पागल है उसकी। उसे सिर्फ़ सर छुपाने को जगह चाहिए . . .”
“भक्त, सर छुपाने को छत भी वही तानता है, मुँह को निवाला भी वही देता है,” महंत की उँगली फिर आकाश की ओर उठ गयी है, “जब ग्रह ठीक होंगे, स्वतः ही सर्व साधन सुलभ हो जायेंगे।”
“आप जैसा धर्म पुरुष दया दिखायेगा तो . . .”
“भक्त, दया-ममता उस प्रभु की होनी चाहिए। जिसे स्वयं ईश्वर दंडित करे, पिछले जन्म के कर्मफल के कारण जिसके भाग्य में दरिद्रता का कष्ट भोगना लिखा हो, उसके लिए, हमारी दया का क्या फल?”
“सिर्फ़ थोड़ी-सी जगह . . .”
“धन-ज़मीन भाग्य से सुलभ होते हैं, भक्त, पुण्य फलता है तो भाग्य फलता है। धन-ज़मीन सदा किसके हो के रहे? जिसका पुण्य फलित हुआ, जिसका भाग्य प्रबल हुआ, धन-ज़मीन उसके!” महंत निरन्तर मुस्कुरा रहा है, प्रचंड आत्मविश्वास से भरी एक गर्वीली मुस्कुराहट।
“परन्तु महाराज . . .”
“नहीं भक्त, शंका को स्थान नहीं। जो पीड़ित है, कष्ट में है, उसे अपने भाग्योदय की प्रतीक्षा अवश्य करनी पड़ेगी।” उसने जैसे अपनी ओर से सारी बातचीत पर विराम लगा दिया है।
मेरे भीतर से ग़ुस्से की लपट-सी उठती है कि इस दुष्ट के सुर्ख़ पड़े गालों का लहू तमाचों की मार से बाहर खींच लूँ, पर मैं विषहीन साँप की तरह सिर्फ़ बल खाकर रह जाता हूँ। उठ खड़ा होता हूँ . . .
मैं लाखादीन को आश्वासन देता हूँ, “अभी तो बहुत से रास्ते हैं लाखादीन, केवल महंत और जैन सेठ ही सब कुछ नहीं हैं।”
लाखादीन बोल नहीं पाता। शायद मेरे प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने को उसे भाषा नहीं मिलती। मगर उसकी आँखों में उम्मीद की चमक आ जाती है। यह चमक बताती है कि वह मेरी बात को गम्भीरता से ले रहा है, मुझ पर भरोसा कर रहा है। मैं उससे कहता हूँ, “मैं अपने एक दोस्त से मिलूँगा लाखादीन, बहुत बड़ा अफ़सर है। वह ज़रूर कुछ-न-कुछ करेगा।” मैं यह बात इसलिए भी कह रहा हूँ कि लाखादीन की आँखों की चमक मुझे अच्छी लगती है। मेरी बात सुनकर यह चमक और भी चटख हो आती है।
मैं अपने उस अफ़सर दोस्त का दरवाज़ा खटखटा देता हूँ।
लाखादीन की कहानी घटना-दर-घटना इस दोस्त के आगे उड़ेलता हूँ कि किस तरह कुछ दिन पहले लाखादीन एक साधारण खेतिहर था, किस तरह एक बड़े किसान ने उसके खेत को जाने वाला पानी रोक दिया, किस तरह उसका झगड़ा बढ़ा, किस तरह उसके जवान बेटे की हत्या हुई, किस तरह पुलिस ने उसे ही परेशान किया और किस तरह वह अपनी बेटी की इज़्ज़त की ख़ातिर जान बचाकर गाँव से भागकर शहर आया, किस तरह एक आदमी ने पाँच सौ रुपये लेकर उसे मठ के पासवाली ज़मीन पर झुग्गी बनाने की इजाज़त दे दी थी . . .
मेरा यह दोस्त सोचने की गम्भीर मुद्रा अख़्तियार किये हुए है। सोचने के दौरान वह अपने चेहरे से पसीना पोंछता है। पंखा चल रहा है। मुझे उसके चेहरे पर पसीना नज़र नहीं आता। वह अपनी झकाझक पैंट से कुछ झाड़ता है, परन्तु उसने क्या झाड़ा है, मुझे नज़र नहीं आता। मुझे लगता है, वह लाखादीन की समस्या को लेकर गम्भीर है। जब बोलेगा तो किसी ठोस समाधान के साथ बोलेगा। मैं व्यग्रता से उसकी ओजस्वी मुखाकृति की एक-एक भंगिमा को देखता हूँ . . . अफ़सर है, बड़ा अफ़सर। बोलेगा तो सोच-विचार के ही बोलेगा, उचित अनुचित सोच के बोलेगा . . .।
अफ़सर का मौन टूटता है, “ये क्या लफड़ा पाल लिया तुमने? जो चीज़ तुम्हारे अधिकार क्षेत्र की नहीं है, उसमें क्यों टाँग अड़ा दी? ऐरे-ग़ैरे लोगों की परेशानियाँ ऐसे अपने सिर बाँधोगे तो कैसे चलेगा?”
मुझे झटका-सा लगा है। मैं यहाँ इसका प्रवचन सुनने नहीं, सहयोग माँगने आया हूँ। मगर यह बात मैं पूरे आत्मविश्वास के साथ उससे नहीं कह पाता। कहता हूँ, “आगे-से कोई लफड़ा नहीं पालूँगा, पर जो लग गया है उसे तो . . .”
“भई देखो, प्रशासन का मामला बहुत नाज़ुक है . . . और तुम से छिपाना भी क्या! जैन इंडस्ट्री वालों का ख़ासा दबदबा है, सब जानते हैं कि यहाँ का विधायक उसका चमचा है। सिंघानियाँ को सेक्रेटेरिएट से डी.एम. बनाकर यहाँ लाने में अकेले विधायक जी का हाथ नहीं था . . . सारा पैसा तो जैन इंडस्ट्री वालों ने ख़र्च किया था। सिंघानियाँ से उनकी कोई रिश्तेदारी भी होती है, दूर-पास की। ऐसी हालत में तुम सोचो, डी.एम. क्या करेगा जैन इंडस्ट्री वालों के ख़िलाफ़? वहाँ से झुग्गी-झोंपड़ी हटाई गयी थीं तो कुछ लोगों ने बावेला मचाया था, बाद में सब के सब महंत से और इंडस्ट्री वालों से टुकड़े खाकर चुप हो गये। सारी दिक़्क़त तो उस मठ की है। सब जानते हैं कि सरकारी ज़मीन पर है, पर कोई करे तो क्या करे। ज़रा-सी बात पर सांप्रदायिक दंगा . . . तुम किसी नेता-वेता को टटोलो!”
“पर जिस शख़्स ने लाखादीन से पाँच सौ रुपये लिए, उसके ख़िलाफ़ तो कुछ हो सकता है! कुछ न भी हो पर उसे वो पाँच सौ रुपये तो वापस मिलने चाहिएँ . . .” मैं अपने उबलते ग़ुस्से को अन्दर ही दबाने का प्रयास करता हूँ। तुम कुछ नहीं कर सकते तो प्रशासन की यह कुर्सी क्यों तोड़ रहे हो! किस बात के अधिकारी हो तुम, कि एक टुच्चे विधायक तक से विरोध मोल नहीं ले सकते! एक भ्रष्ट कारखानेदार का कुछ नहीं बिगाड़ सकते! एक दुष्ट महंत के सामने जाकर खड़े नहीं हो सकते!
“हाँ, एक काम कर सकता हूँ,” वह जम्हाई तोड़ता हुआ कहता है। मेरे कान उत्सुकता से उससे जुड़ जाते हैं।
“उस इलाक़े के पुलिस इंस्पेक्टर के पास चले जाओ, दरअसल, तुम्हारा मामला पुलिस का ज़्यादा है, प्रशासन का कम। कहना मैंने भेजा है। जिस आदमी ने पैसे लिये होंगे, हो सकता है वह इस्पेक्टर उसे जानता हो। और हो क्या सकता है, जानता ही होगा, तुम तो जानते ही हो कि आजकल बिना पुलिस की शह के कोई काम नहीं होता।”
मुझे लगता है, वह ‘काम’ को ‘अपराध’ के पर्याय के रूप में प्रयुक्त कर रहा है। तभी तो वह इंस्पेक्टर, उस आदमी को जानता होगा। ऐसा कैसे हो सकता है कि इलाक़े में जुआ, सट्टा, लूट-तस्करी, हत्या हो, और इलाक़े के इंस्पेक्टर को मालूम न हो। उस इंस्पेक्टर से बात तो की ही जा सकती है। एक आई.ए.एस. अफ़सर का हवाला देने पर कुछ तो सुनेगा ही . . .
लाखादीन जब भी घर के बरामदे में आकर बैठता है, बंतो उसके लिए पानी ले आती है। वह अपने बाप को पानी पीते हुए निहारती रहती है। लाखादीन पानी पीकर गिलास ख़ाली करता है, तो बंतों गिलास अपने हाथ में लेकर बैठ जाती है। बैठी ही रहती है, दोनों एक दूसरे की ओर देखते है, पर बोलते नहीं। मैं बंतो से कहता हूँ, “बंतो, लाखादीन को खाना खिला दें।”
बंतो रसोई के खाये-पीये बरतनों से पोंछ खुरच कर, जो भी मिलता है, लाकर बाप के आगे रख देती है। लाखादीन निर्लिप्त भाव से निवाले निगलता है, और बंतो का चेहरा अजीब-सी चमक से दहकता रहता है। पलाश की तरह सुर्ख़, चटख ख़ुशी की दहक बंतो के चेहरे से निकल मेरे अन्दर समाने लगती है। किस तरह की ख़ुशी है यह? कैसा सुख! ख़ुशी का यह अहसास मेरे थकते हुए उत्साह को सहारा देकर बड़ा कर देता है। मैं पुलिस इंस्पेक्टर की आदमियत को खंगालने के लिए उठ खड़ा होता हूँ।
इंस्पेक्टर की सुर्ख़-शराबी आँखें मुझे भेद डालना चाहती हैं। यह तो तब है, जब मैंने भेजने वाले के खाते में उस भारी-भरकम अफ़सर का नाम बोल दिया है। उसकी दृष्टि मुझसे मेरा आत्मविश्वास छीने ले रही है। मेरी सारी बात सुनकर वह कहता है, “आपका क्या रिश्ता है?” शायद यह उस अफ़सर के लिए कह रहा है। मैं कहता हूँ, “मेरे मित्र हैं वे।”
“लाखादीन मित्र है आपका?”
“लाखादीन नहीं, निशीथ शर्मा मेरे मित्र हैं।”
“हाँ, हाँ, वह तो मैं जानता हूँ।” वह मज़ाक़ उड़ाने वाले अन्दाज़ में कहता है, “मैं लाखादीन के बारे में पूछ रहा हूँ। इस मामले में आपका क्या इन्ट्रेस्ट है?”
“मेरा क्या इन्ट्रेस्ट हो सकता है . . . बस, आदमियत के नाते . . .”
“देखिये सा'ब, ये नेतागीरी की बातें तो यहाँ करिते मत,” वह मेरी बात को निर्ममता से तोड़ देता है, “साफ-साफ बताइये आप क्या चाहते हैं? आदमियत-वादमियत की बात छोड़िये, उसे मैं सब समझता हूँ . . . आप अपना मतलब बताइये।”
अमानवीयता का ख़ौफ़ मेरे सारे उत्साह की दीवारें ध्वस्त कर अन्दर तक बैठ जाता है। मैं स्वयं को साधता हूँ कि मेरी जवान न लड़खड़ाए, “मैं आपको सारी बातें बता चुका हूँ . . . उसकी लड़की मेरे घर में पड़ी हुई हैं . . .
“अब मैं भी एक घर-गृहस्थी वाला आदमी हूँ। कितने दिन तक सपोर्ट कर सकता हूँ? . . . घर से बाहर भी कैसे धकेल दूँ?”
“देखिए सा'ब, पहली बात तो यह कि मैंने आपसे नहीं कहा था, आप उसे सपोर्ट करिये . . . बाई द वे, लड़की कितनी बड़ी है?”
“जवान लड़की है . . . यूँ ही तो घर से बाहर नहीं धकेला जा सकता,” मैं थूक गटक कर कहता हूँ।
“तो यह बात रही! जवान लड़की को कौन घर से बाहर धकेलता है?” वह मुस्कुराता है जैसे उसने बहुत ही शिष्ट मज़ाक़ किया हो।
किसी की मुस्कान भी इतनी अश्लील गाली हो सकती है, मुझे पहली बार महसूस होता है।
वह कहता है, “मठ की झोंपड़ियों को जिसने बेचा था, आप चाहे तो ख़ुद उससे बात कर लें। जवान लड़की के नाम पर वह भी पैसे वापस कर देगा . . . मुझे मिला तो मैं भी बात करूँगा।” वह उठ खड़ा होता है।
मुझे लगता है जैसे मेरी नसों में तेज़ाब का इंजेक्शन लगा दिया गया हो। धूर्त, पाखंडी! . . . मैं जानता हूँ कि तू उससे कोई बात नहीं करेगा। तुम सब मिले हुए हो। सब के सब मक्कार, लुटेरे . . .।
लाखादीन मेरी बात सुनता है, मगर उसकी आँखों में पहले की तरह चमक नहीं आती। मैं भी पहले जैसे विश्वास के साथ उसे कोई दिलासा नहीं दे पाता। लाखादीन के काम से किसी से मुलाक़ात करने निकलता हूँ, तो मन में उत्साह नहीं, दहशत होती है कि सामने वाला न मालूम कौन हो; कोई रक्त पिपासु भेड़िया या ख़ूनी जबड़ों वाला जानवर।
यही कुछ अनुभव मुझे अपने घर में भी हो रहा है, ठीक अपनी पत्नी और बच्चों के बीच। लाखादीन आता है तो बंतो शिकायत नहीं करती किसी तरह की, जबकि उसके पास मेरी पत्नी, और मेरी बेटी को लेकर ढेरों शिकायतें होनी चाहिए। शायद शिकायत करके वह न अपने बाप की तकलीफ़ बढ़ाना चाहती है, न मुझे छोटा करना चाहती है। एक अधपगली के दमित-पराजित व्यक्तित्व का यह पक्ष मुझे बार-बार झकझोरता है।
मैं अपने अन्दर की यह भाषा अपनी पत्नी को समझाना चाहता हूँ, पर वह सिर्फ़ अपनी बात कहती है, “तीन बार फोन आ चुका है उसका?”
“किसका?”
“पब्लिशर का, और किसका!” वह तल्ख़ आवाज़ में कहती है, “अगर किताब लिखने का वक़्त नहीं मिलता तो उससे मना क्यों नहीं कर देते! आपको तो पैसे कमाने नहीं हैं, पर उस बेचारे का क्यों नुक़्सान कर रहे हैं?”
मैं कौन-सी किताब लिख रहा हूँ, किस प्रकाशक के लिए लिख रहा हूँ, किताब मुझे कब तक देनी है, कितने पैसे लेने हैं, आमतौर पर मेरी पत्नी को इन बातों से कोई लेना-देना नहीं होता। पर अब वह इन्हीं बातों को लेकर मुझसे विवाद करने लगी है। बंतो और लाखादीन से वह चिढ़ती है। उसे लगता है, मैं लाखादीन के चक्कर में अपना वह समय और पैसा बर्बाद कर रहा हूँ, जिस पर सिर्फ़ उसका हक़ है।
मेरी पत्नी अशिष्ट नहीं, अनुदार भी नहीं है। मेरे किसी मेहमान को उससे कभी भी कोई शिकायत नहीं रही। बाढ़, सूखा या दंगा पीड़ितों के चित्र कभी-कभी टी.वी. पर आते हैं, तो मैंने उसे अपनी आँखें पोंछते हुए देखा है, पर इधर बंतो पर वह अक्सर अपना ग़ुस्सा उतार देती है . . . टी.वी. के चित्र सीधे उसके सुरक्षा-वृत्त में प्रवेश नहीं करते, पर बंतो . . . बंतो तो उसके घर में है।
मुझे लगता है, मेरी पत्नी अपने विक्षोभ, अपनी असंतुष्टि को दबे-छिपे ढंग से प्रकट कर रही है। यथास्थिति रही तो वह किसी भी दिन मेरे आगे फट सकती है। मेरी पत्नी ही नहीं, कभी-कभार आने वाला उसका भाई भी टोक देता है, “वाह जीजाजी कमाल हैं आप! सड़क चलते आदमी को भी कोई इस तरह अपने घर में घुसाता है! क्या पता कैसे लोग हैं? आप तो पचासों क़िस्से जानते हैं . . .।”
क़िस्से से मतलब यह कि बंतो मेरे घर में डकैती डालकर भाग सकती है। लाखादीन मेरी हत्या कर सकता है . . .
लाखादीन की आँखों की चमक पूरी तरह बुझ गयी है। उसके बूढ़े कंधे एक दम झूल गए हैं। लाखादीन अब मेरी ओर उत्सुकता-उम्मीद से नहीं देखता। मुझे भी अब लाखादीन के सामने आने से डर लगता है। अगर मैं लाखादीन के लिए कुछ कर सका होता तो लाखादीन की ज़िन्दा देह में मौत इस तरह प्रविष्ट नहीं हो पाती। लाखादीन नहीं, मैं पराजित हो गया हूँ। जब मैंने लाखादीन को न्याय दिलाने के लिए उसके पैरवीकार का बाना ओढ़ा था तो न मालूम क्यों, विश्वास था, कि लाखादीन के लिए मैं कुछ कर सकूँगा। यह विश्वास कितना भुरभुरा साबित हुआ है।
मैंने लाखादीन को नहीं बताया है कि मैं उस नेता से दो बार मिल चुका हूँ। उसने मुझे आश्वासन दिये हैं। कुछ करने का वादा भी किया है। लेकिन मैं लाखादीन को तब तक नहीं बताना चाहता जब तक मुझे कुछ हो पाने की ठोस ज़मीन पर पाँव रख लेने का भरोसा नहीं होता।
इसी भरोसे की तलाश में एक बार फिर मैं उस युवा नेता के दरबार में जा पहुँचता हूँ। इससे पहले कि मैं उससे कुछ पूछूँ, उल्टे वही मुझसे सवाल करता है, “आप इस काम के सिलसिले में और भी किसी से मिले?”
“मिला तो बहुतों से हूँ, पर आपकी मदद के बिना काम नहीं होगा। मेरी बात कोई नहीं सुनता। आप जैसा नौजवान नेता इस काम को हाथ में लेगा, तभी कोई हल निकलेगा . . .” मैं अपनी निरीहता और उसकी सामर्थ्य, दोनों को एक साथ जोड़कर जैसे उसकी ख़ुशामद करने लगा हूँ।
“आप बेफ़िक्र रहिए, कुछ न कुछ तो होगा ही।” पहली दो मुलाक़ातों में बोले गये वाक्य को मशीनी शैली में वह फिर दुहराता है।
मैं आमादा हूँ कि इस व्यक्ति के मुँह से कोई अर्थपूर्ण बात निकलवाऊँ कहता हूँ, “जी, जो भी होगा, आपके करे ही होगा। आपको कुछ-न-कुछ तो करना ही पड़ेगा।” मैंने सोच लिया है कि जब तक इस व्यक्ति को अपने पक्ष में नहीं झुका लूँगा, यहाँ से नहीं टलूँगा।
वह कहता है, “भाई जान, ज़माना इतना ख़राब आ गया है कि हड़ताल न करो, जुलूस न निकालो, दंगा-फ़साद न करो, तब तक किसी की सुनवाई ही नहीं होती।”
“तो फिर करिये न कुछ।”
वह परमहंस की तरह मेरी मूर्खता पर हँसता है, “आप क्या समझते हैं, यह सब आजकल के ज़माने में आसानी से हो जाता है? हम कोई महात्मा गाँधी तो हैं नहीं कि नाम सुनते ही हुजूम टूट पड़े . . . हाड़ तोड़ मेहनत करनी पड़ती है। लोगों को घरों से खींच-खींच कर लाना पड़ता है। पूरी बारात जैसी ख़ातिर करो, हज़ार मिन्नतें करो, लाख नख़रे सहो, तब एक जुलूस का इंतज़ाम होता है। झुग्गियाँ हटवाने के लिए महंत जी ने जुलूस निकलवाया था तब जैन इंडस्ट्री वालों ने पचास हज़ार ज़रा-सी देर में फूँक दिये थे . . .”
मुझे लगता है यह शख़्स मेरे पाँवों के नीचे से ज़मीन खींच रहा है। फिर भी मैं कहता हूँ, “लाखादीन की हालत तो आप जानते हैं। हड़ताल-जुलूस को छोड़िये, आप जैन इंडस्ट्री वालों से वैसे ही बात करें . . . आपकी बात वे लोग नहीं टालेंगे। आप महंत जी से . . .”
“भाई जान, आप से क्या छिपाना! ऐसी बात नहीं है कि आप जानते नहीं। साली पॉलिटिक्स इतनी गन्दी हो गयी है कि क्या कहें। हर क़दम फूँक-फूँक कर रखना पड़ता है। हर किसी ने अपने जासूस छोड़ रखे हैं। हमारे उठे-बैठे की एक-एक ख़बर ऊपर के नेताओं तक पहुँचाते रहते हैं, अब ऐसी हालत में . . .”
“पर लाखादीन की मदद करके आप कोई ग़लत काम तो नहीं करेंगे। अगर आपकी मदद से लाखादीन को कुछ मिल गया तो समाज में आपका सम्मान ही बढ़ेगा। आपको कुछ मिलेगा ही . . .”
वह मुझे घूरता है जैसे मैंने उसके सम्मान में कोई अभद्रता कर दी हो। वह एकाएक सख़्त और बदले हुए लहजे में कहता है, “भाईजान, दो टूक बात यह है कि मुझे चुनाव के लिए पैसा जैन इंडस्ट्री से मिलेगा। वोट महंत जी दिलवाएँगे। आपका लाखादीन मेरी क्या मदद करेगा? अब पॉलिटिक्स तो पॉलिटिक्स की तरह ही करनी पड़ती है न!”
वह जैसे सारे कपड़े उतार कर मेरे आगे नंगा खड़ा हो गया है। शायद इसके बाद उसके पास कहने को और कुछ नहीं रह गया। पर वह कहता है, “आज मधु फ़ाइव स्टार में उच्चाधिकारियों की एक बैठक है, मुझे भी इसमें भाग लेना है। आपकी बात मैं इसमें रखूँगा . . .”
मैं जानता हूँ कि एक निहायत ही लिजलिजा आश्वासन है, बेशर्मी से भरा हुआ सड़ांध मारता झूठ! क्या यहीं झूठ, यही रीढ़विहीन स्वार्थ सत्ता की रास थामेगा? यही मुल्क के भाल के अक्षर लिखेगा? इसी से निर्मित होगा भविष्य?
मैं हार गया हूँ लाखादीन। इससे अधिक अब मैं कुछ और नहीं कर सकता। तेरे लिए न मैं अपने परिवार की उपेक्षा कर सकता हूँ, न बड़े-बड़े मगरमच्छों से बैर लेकर अपने आपको ख़तरे में डाल सकता हूँ। फिर अपनी बेटी की बात पर ग़ौर करना है, अपनी पत्नी की सलाह भी सुननी है। मेरी ज़िन्दगी के धागे जिनके साथ बँधे हुए हैं, उनकी उपेक्षा मैं कितने दिन तक कर पाऊँगा? मेरी पत्नी ठीक ही कहती है कि न मैं सरकार चला रहा हूँ, न प्रशासन, न कोई राजनीतिक दल इसलिए तेरी मदद करने की ज़िम्मेदारी मेरी नहीं बनती, मेरी इस मदद की एक सीमा है यथार्थपरक सीमा। मैं इस सीमा तक आ गया हूँ। अब इस सीमा से आगे . . .
मैं जानता हूँ कि यह सब मैं लाखादीन से नहीं कह पाऊँगा। इतनी बात कहने के लिए जिस साहस की ज़रूरत होगी, वह मेरे पास नहीं है। फिर भी लाखादीन से कुछ-न-कुछ तो कहना ही होगा। उसे किसी-न-किसी तरह समझाना ही पड़ेगा। मैं मन-ही-मन वह भाषा गढ़ रहा हूँ, जिसमें लाखादीन पर अपनी मजबूरी जता सकूँ . . .
तू इस शहर में क्या कर पायेगा लाखादीन, यहाँ तुझे और तेरी बेटी को न खाने को रोटी मिलेगी, न तन ढकने को कपड़ा, न सर छुपाने को छप्पर। अच्छा यही है कि तू अपने गाँव वापस लौट जा। अब तक तो वहाँ सारा मामला ठंडा हो गया होगा। वे लोग इतने दुष्ट नहीं होंगे कि तुझ पर और तेरी बेटी पर रहम न खाएँ। तु यहाँ से गाँव वापस चला जा। ये पचास रुपये रख, तेरे काम आयेंगे। ले, ले लाखादीन . . .
लाखादीन एक शब्द भी नहीं बोलेगा। वह अपनी बेटी का हाथ थामेगा और मेरी चौखट छोड़कर थके-टूटे क़दमों से एक ओर बढ़ जाएगा। हो सकता है वह गाँव वापस लौट जाये, यह भी हो सकता है कि वह डर के कारण गाँव न जाए, यहीं शहर में कोई दूसरा ठिकाना खोजे। दूसरा क्या ठिकाना मिलेगा लाखादीन को? पर यह सवाल मेरे मन में क्यों उठे? मेरे घर से जाने के बाद लाखादीन और बंतों का क्या बना, यह मेरी चिन्ता क्यों हो? लेकिन मेरी आँखें देख रही हैं . . . लाखादीन और बंतो को खुले में पाकर आग और धुआँ उग़लते कुछ आदमखोर भेड़िये उस तरफ़ दौड़ पड़े हैं।
मैं उन भेड़ियों के चेहरों को पहचानने की कोशिश करता हूँ . . . जैन सेठ का चेहरा, महंत का चेहरा, इंस्पेक्टर का चेहरा, अफ़सर मित्र का चेहरा, युवा नेता का चेहरा . . . एकाएक एक और चेहरा इन सबके बीच उग आया है। यह चेहरा मेरे अन्दर दहशत जगा रहा है। इस चेहरे को मैं साफ़-साफ़ पहचान रहा हूँ। यह मेरा अपना चेहरा है।
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