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खेत समाधि

 

हमारे पास आते ही हमारे हमजोलिया झल्लन ने पहले सर खुजाया, फिर थोड़ा मुस्कुराया, फिर कुछ बुदबुदाया और फिर हमारी आँखों के आगे काग़ज़ का एक बंडल ला लहराया। हमारी उत्सुकता भीतर से कूदकर ज़ुबान पर उतर आयी, हमने अपनी एक आँख झल्लन पर और दूसरी बंडल पर जा टिकाई, “ये क्या ले आया है, ये काग़ज़ कहाँ से कबाड़ लाया है?” 

झल्लन ने हमारी ओर उँगलियाँ नचाईं फिर आँखें मिचमिचाईं, “देखिए ददाजू, हमारे काग़ज़ी पुलिंदे पर इतनी हिक़ारत मत उतारिए, इसे थोड़ी सी इज़्ज़त और थोड़े सम्मान से निहारिए। ये हमारी किताब ‘खेत समाधि’ है जो अगला बुकर लाएगी और हिंदी जगत को झकझोरकर उसकी छाती पर अपना झंडा लहराएगी।” 

हमने हैरत से उसे देखा, “क्या तेरा दिमाग़ हिल गया है या तेरी सोच का कोई पेंच ढिल गया है। तू तो ऐसे कह रहा है जैसे काग़ज़ों का एक पुलिंदा इधर-उधर फैला देगा और झपटकर बुकर को इसकी गोदी में गिरा लेगा।” 

वह बोला, “ददाजू, आप ‘रेत समाधि’ नहीं पढ़े हो तभी हमारे ‘खेत समाधि’ पर ठठिया रहे हो, लगता है पक्का सठिया रहे हो। पहले आप ‘रेत समाधि’ पढ़ आइए तब हमारे ‘खेत समाधि’ पर उँगली उठाइए।” 

दुर्भाग्यवश हम ‘रेत समाधि’ पढ़ गये थे, हमारी बुद्धि नामचीन लेखकों-समीक्षकों के झाँसे में आ गयी थी और अब इसकी पढ़न किसी चिड़चिड़ी चुड़ैल की तरह हमारे दिमाग़ पर छा गयी थी। भाषाई बलात्कार तो ठीक, हमें जिस चीज़ ने सबसे ज़्यादा कुढ़ाया था वह थी दुहर-दुहरकर रद्दी हुई वह भद्दी उथली रूमानियत जो मानव इतिहास की सतत परिघटित होती एक बड़ी त्रासदी के रिसते घाव पर नुकीले काँटे की तरह एक बार फिर चुभा दी गयी थी। हमने कहा, “तेरा ‘रेत समाधि’ हम भी धोखे से पढ़ लिये हैं और पढ़ के अपना सर धुन लिये हैं। अपनी ज़िन्दगी में इतनी अपढ़नीय, अपचनीय, अझेलनीय, असहनीय और असमझनीय किताब दूसरी नहीं पढ़ी। अब हमें अपने ऊपर भी ग़ुस्सा आ रहा है कि क्यों हम समीक्षाकारों के झाँसे में आ गये और क्यों फ़ालतू में अपना क़ीमती समय, पैसा और दिमाग़ गँवा गये।” 

झल्लन हमें झिड़कता-सा बोला, “कैसी बात करते हो ददाजू, मृदुला गर्ग, मंज़ूर एहतेशाम, प्रयाग शुक्ल, मृणाल पाण्डे जैसे महान लेखक-लेखिकाओं-विदुषी-विद्वानों ने क़सीदे काढ़ दिये हैं, इतनी तारीफ़ की है कि पन्ने फाड़ दिये हैं और आप हैं कि सबको झाड़ू से झाड़ दिये हैं।” 

हमने कहा, “इन्हीं के चलते तो हम पढ़ गये और पढ़ने के बाद हमारे दिमाग़ में छाले पड़ गये। हमारी समझ में नहीं आया कि इनकी बुद्धि पर शंका उठाएँ या अपनी बुद्धि पर तरस खायें। तू बता, तूने क्या इसे सचमुच पढ़ लिया है, तुझे क्या सचमुच ये सुहाया है जो तू ‘रेत समाधि’ की अगली कड़ी में ‘खेत समाधि’ लिख लाया है?”

झल्लन बोला, “ददाजू, सवाल पढ़ने और सुहाने का नहीं है, सवाल बुकर जुटाने का है और जिन-जिन कलाकारियों से बुकर का रास्ता खुलता है उन्हें साधने का है।” 

हमने कहा, “तो तुझे लगता है कि तेरा उपन्यास इतना पठित-चर्चित हो जाएगा कि तूझे बुकर मिल जाएगा?”

“आपकी बुद्धि फिर गयी है ददाजू, जब हमें बुकर मिल जाएगा तो ‘रेत समाधि’ की तर्ज़ पर हमारा ‘खेत समाधि’ भी पठित-चर्चित हो जाएगा।”

“तुझे क्या लगता है कि तुझे क्यों बुकर मिलेगा?” 

झल्लन ओंठ दबाकर मुस्कुराया, बोला, “ददाजू, हमने अपने ‘खेत समाधि’ में ऐसे-ऐसे प्रयोग किये हैं कि पढ़ने वालों का दिमाग़ चकरा जाएगा और बुकर कहीं भी जा रहा हो हमारी तरफ़ चकरिया आएगा।”

हमने कहा, “काहे को ये बेसिर-पैर की हाँक रहा है और काहे को अपने दिमाग़ का लट्ठ हवा में भांज रहा है?”

झल्लन ने अपनी चौथाई नाक हिलाई, फिर आधी आँख मटकाई और पूरी ज़ुबान चलाई, “देखिए ददाजू, बेसिर-पैर की नहीं हम सिर से पैर तक की हाँक रहे हैं और हवा में लट्ठ नहीं अपना बुकरलाऊ उपन्यास भांज रहे हैं। और हाँ, आपके लट्ठ की बात पर याद आया, हमने अपने उपन्यास का एक पात्र लट्ठ बनाया है जिसे हमने ‘रेत समाधि’ की चिरकुटिया छड़ी की छाती पर ला बिठाया है। हमारा लट्ठ कभी-कभी लंठिया भी जाता है, पर फिर-फिर उपन्यास का प्रमुख पात्र बनकर अपनी औक़ात पर उतर आता है। छड़ी में से फूल-तितलियाँ उड़ते हैं, पर हम अपने लट्ठ में से चील-चमगादड़ उड़ाएँगे, जो हमारे बुकर के रास्ते में आने वालों के मुँह पर अपनी चीलीयता और चिमगादड़ीयता जा चिपकाएँगे।” 

हमें ग़ुस्सा आ रहा था, झल्लन हमें सहा नहीं जा रहा था, हमने कहा, “एक ओर तो हमारा दिमाग़ पहले ही भिन्ना रहा है, पैसे और वक़्त की बर्बादी काहे की, इस पर तिन्ना रहा है, तिस पर तू बैठकर किन्न-किन्न किन्ना रहा है।” 

वह बोला, “लगता है ददाजू आपका साहित्यबोध मर गया है तभी आप इतने उखड़ रहे हो, हमें तो आप भरे-पूरे लगते थे पर लगता है आप अपनी पठनशक्ति में उजड़ रहे हो। हमने यह उपन्यास पढ़ा तो हमें बड़ा मज़ा आया और पढ़ते ही ‘खेत समाधि’ हमारे मन में उतर आया।” 

हम झुँझलाकर उठ खड़े हुए तो झल्लन बोला, “आप उठ रहे हो तो उठ जाओ पर हम फिर आएँगे और आपको अपने ‘खेत समाधि’ की पूरी थीम समझाएँगे।”

साँप की साँपापीयता चूहे की चूहाहीयता

“तो अब आगे सुनिए ददाजू।” झल्लन अपने ‘खेत समाधि’ का पुलिंदा उठा लाया था और शायद हमें सुनाकर ही उठेगा, ऐसा मन बनाकर आया था। 

हमने कहा, “तो तुझे ‘रेत समाधि’ सचमुच इतना सुहाया है कि इसकी तर्ज़ पर तू ‘खेत समाधि’ लिख लाया है?” 

झल्लन बोला, “सच कहें ददाजू, यह उपन्यास हमें चुनौती दे रहा था कि पढ़ के दिखा सो हम चुनौती स्वीकार लिये और पढ़ के दिखा दिये और आपकी तरह कुनमुनाने की बजाय ख़ूब मज़े भी ले लिये। पढ़ते हुए ख़्याल आया हम भी उपन्यास के कौवे और तीतर की तरह बन जायें और कबूतर बनकर इनके संग कबूतरी भाषा में थोड़ी गुटरगूँ कर आयें।”

हम झल्ला गये, “तो गुटरगूँ कर आता, ये फ़ालतू की कुटरकूँ करने के लिए हमारे पास तो न आता। हमें तो हैरानी हो रही है कि तेरे जैसा खुटिया दिमाग़ इसे कैसे पढ़ पाया, क्या तेरे दिमाग़ में कोई भी क्रोध विरोध अवरोध नहीं आया?” 

झल्लन आँख नचाते हुए बोला, “ददाजू, हम कलेजे वाले इंसान हैं, इतने कमज़ोर नहीं है कि एक किताब तक नहीं पढ़ पायें, आपकी तरह नहीं है जो शब्दों-वाक्यों, कथ्यों-कल्पनाओं की सरकसी कलामंडियों से घबरा जायें और किताब में आँख नाक कान दिमाग़ बंद करके डुबकी मारें तो ख़ाली हाथ निकल आयें। हमने तो जब इसे पढ़ा तो हमारे मन में फुरफुरी भुरभुरी कुरकुरी थुरथुरी घुरघुरी मुरमुरी सारी संवेदनाएँ एक साथ करवट लेकर जगिया गयीं और हमारे ऊपर तनिया गयीं।” 

“फुरफुरी झुरझुरी तो ठीक पर ये थुरथुरी मुरमुरी क्या हैं हमारी तो समझ में नहीं आया है, तू जबरन इन्हें प्रयोग में क्यों लाया है?” 

“यही तो आपकी नासमझी है ददाजू, जैसे ‘रेत समाधि’ में शब्दों को ऊपर से नहीं उनके भीतर घुसकर देखोगे तो उनके नये-नये अर्थ खुल जाएँगे, आपकी चेतना की साँसों में प्रदूषण की तरह घुल जाएँगे और चिकरघिन्नी बनने के जो मज़े आपको कभी नहीं आये होंगे वह तुरत फुरत आ जाएँगे। बस हम वहीं से प्रेरणा ले लिए हैं और अपने ‘खेत समाधि’ की गोदी नये-नये शब्दों से भर दिये हैं।” 

“फ़ालतू के शब्द गढ़ने और शब्दों को आढ़ा तिरछा घुसेड़ने से क्या कोई चीज़ सचमुच मज़ेदार हो जाती है जो तेरे जैसे खडूस को इतना भा जाती है?” 

“ददाजू, इन शब्दों की एन्द्रिकता को नहीं पहचान सकते तो इनकी अतीन्द्रियता को तो पहचानिए, इनकी बुनावट से नहीं इनकी ध्वनि से इन्हें जानिए, पढ़कर आपका माथा झनझना जाएगा और आपका पाठकत्व खनखना जाएगा। और ददाजू, अब आप इधर उधर की टोका-टाकी नहीं करेंगे, जो हम सुना रहे हैं अगर उसे चुपचाप सुनते रहेंगे तो अपना सर धुनने से बचते रहेंगे।” 

हमने कहा, “चल बोल, अपनी किताब का अगला ढक्कन खोल।”

झल्लन बोला, “तो सुनिए ददाजू, हमने अपने ‘खेत समाधि’ में एक ज़हरीले साँप को भी घुसवाया है और पास में एक चूहे को भी बिठवाया है। जब साँप की साँपापीयता जागेगी और उसकी करुणा को छुल जाएगी तो वह चूहे की तरफ़ दोस्ताना करुणा से निहारेगा और तब उसकी साँपापीयता चूहे की चूहाहीयता से घुलमिल जाएगी। हमारा ये नवल धवल क्रांतिकारिया प्रयोग फ्लैपिया और अनफ्लैपिया विकट प्रचंड लेखकों-समीक्षकों को ज़रूर भाएगा, उनकी प्रशस्ति हमारी झोली में लाएगा और यही हमें पुरस्कार के बुकरत्व तक ले जाएगा।” 

हमारे मन में फिर ग़ुस्सा उतर आया पर किसी तरह दबाया, “तो तू समझता है कि तेरा लट्ठ, तेरे चील चिमगादड़ और तेरे साँप चूहा तेरे ‘खेत समाधि’ को इतना ऊँचा उठा ले जाएँगे कि बुकर पकड़कर ले आएँगे?” 

“देखिए ददाजू, अगर छड़ी कौवा तीतर ‘रेत समाधि’ को बुकरिया सकते हैं तो हमारे चील चिमगादड़ भी हमें बुकर दिला सकते हैं पर ये तो हमारे चुटपुटिया किरदार हैं, हमारे ‘खेत समाधि’ के चाकर चौकीदार हैं। हमारी मुख्य पात्रा तो एक डोकरी है, डोकरी नहीं दरअसल नब्बे साल की छोकरी है और सहायक उपपात्रा इस डोकरी की बीस साला छोकरी है।” 

हमने कहा, “लगता है तेरा दिमाग़ थकिया गया है और तू घसिया गया है। नब्बे साला छोकरी की बीस साला छोकरी यानी बच्ची जन गयी एक सत्तर साला डोकरी?” 

“ददाजू, जब ‘रेत समाधि’ की अस्सी साला डोकरी चुलबुल छोकरी बन देदनादन कर सकती है तो हमारी सत्तर साला डोकरी भी बच्चा जन सकती है।” 

हमने झुँझलाकर कहा, “कोई नेचुरल लॉजिक भी तो होता है कि तू हर क़ुदरती नियम-कायदे को सर के बल खड़ा कर देगा और पात्रों के साथ जो चाहे वो कर लेगा?” 

झल्लन बोला, “देखिए ददाजू, ‘रेत समाधि’ जिस लाजिक पर चलता है उसी तर्क-लाजिक पर हमारा ‘खेत समाधि’ भी चलता है और ‘खेत समाधि’ पर हमारी खाँटी मिल्कियत है जिससे इसका हर शब्द पन्ना पात्र हमारे इशारे पर हिलता है, हमारे इशारे पर गिरता उछलता है। और सीधी सट्ट बात ये ददाजू, जब ‘रेत समाधि’ के किसी भी पात्र-पात्रा पर किसी ने लाजीकल उँगली नहीं उठाई तो हमारे ‘खेत समाधि’ पर क्यों उठाएगा, हमारे ‘खेत समाधि’ को बुकर लाना है सो ले आएगा।” 

इससे पहले कि हम कुछ बोलते वह बोला, “सुनो ददाजू, आज अभी हमें अपने खेत की समाधि पर शिल्पकारी चित्रकारी फुलकारी खिलकारी करनी है, कहानी के फुंदने टाँके आँके बाँके जोड़ने तोड़ने हैं, तराशी नक़्क़ाशी करनी है सो हमें इजाज़त अनुमति परमीशन दीजिए और आप भी अपने घर का रुख़ कीजिए। अगली बार आएँगे तो बाक़ी बात बतिआएँगे।”

डोकरी छोकरी चली पूर्वी पाकिस्तान 

झल्लन का बुकरिया अंदाज़ अब हमें दुखद मज़े दे रहा था और झल्लन भी अपने बुकराकांक्षी ‘खेत समाधि’ की कहानी हमें सुना सुनाकर मज़े ले रहा था। हमने कहा, “तो बता, तेरी नब्बे साला छोकरी आख़िर क्या करेगी, पाकिस्तान की कौन सी हद सरहद पार करेगी, उसकी बीस साला छोकरी कहानी पर कौन सी धार धरेगी?” 

वह बोला, “सुनो ददाजू, हमारी डोकरी छोकरी पश्चिमी पाकिस्तान नहीं पूर्वी पाकिस्तान जा रही है, अपनी बीस साला छोकरी को संग ले जा रही है।” 

हमें मज़ाक़ सूझा, “उनका वीसा पासपोर्ट तू ही बनवाएगा, तभी न उन्हें वहाँ भिजवाएगा। पर ये बता तेरी कहानी पूर्वी पाकिस्तान में क्यों घुस रही है जबकि परंपरा पश्चिमी पाकिस्तान में घुसने की रही है? और तू पूर्वी पाकिस्तान क्यों कह रहा है, वह तो न जाने कब का बांग्लादेश बन गया है?”

वह बोला, “ददाजू, आप इत्ते सवाल एकमुश्त पूछोगे तो हम गड़बड़ा जाएँगे पर फिर भी बिना हड़बड़ाए आपको प्रश्नवार बताएँगे। यह कोई अच्छी बात नहीं है कि हर सरहदपारी प्रेम कहानी पश्चिमी पाकिस्तान के हिस्से में आये और बेचारा पूर्वी पाकिस्तान तकता रह जाये। सो हम बनी बनायी लीक तोड़ रहे हैं और अपने ‘खेत समाधि’ का रुख़ पूर्वी पाकिस्तान की ओर मोड़ रहे हैं। जो रही बीजा पासपोर्ट और प्रापर डाकुमेंट्स की बात तो ‘रेत समाधि’ की तरह हमारी डोकरी छोकरी भी अपनी छोकरी के संग बिना प्रापर डाकुमेंट्स के घुस जाएगी, अपने शौहर की तलाश करेगी और बिना गोली खाये उससे मिलकर लौट आएगी। अब आती है बांग्लादेश की बात, तो जब हमारी कहानी की नींव पड़ी थी तब वह पूर्वी पाकिस्तान था जहाँ से हमारी नब्बे साला छोकरी को दस साला उमर में विभाजिया मार काट से बचकर भागना पड़ा था और वाया कलकत्ता दिल्ली आकर नया पड़ाव जमाना पड़ा था।” 

हमारे दिमाग़ की घंटी घटघनाई, हमने थोड़ी गणित की चक्की चलाई, “तू कह रहा है कि तेरी नब्बे साला डोकरी छोकरी दस साल की उम्र में भागी थी और विभाजन को हुए हैं पिचहत्तर साल, तो उसकी उम्र हुई पिच्चासी साल पर तू बता रहा है नब्बे साल?” 

वह बोला, “का ददाजू, पाँच-दस साल इतें उतें होने से जब कहानी पर कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता है तो किसी का क्या बिगड़ता है। जैसे ‘रेत समाधि’ में कोई गणित काम नहीं करता वैसे ही हमारे ‘खेत समाधि’ में नहीं करेगा, अपने उपन्यास में जैसा कालबोध हम डालेंगे वैसा ही रहेगा।” 

हमने पूछा, “अच्छा बता, उसका शौहर प्रेमी कैसा बंदा है, क्या अभी तक ज़िन्दा है?” 

वह बोला, “कैसी बात करते हो ददाजू, मुर्दा प्रेमी के पास कौन सी प्रेमिका जाएगी, ज़िन्दा होगा तभी न उससे मिलने धाएगी। जैसे ‘रेत समाधि’ का प्रेमी बिना मरे अपनी प्रेमिका का अबोला इंतज़ार सा करता है वैसे ही हमारे ‘खेत समाधि’ का एक सौ पाँच साला प्रेमी भी इंतज़ार कर रहा है और क्योंकि वह खेत पर रहता था सो आज भी खेत की अपनी मढ़ैया में अपनी यादीली आँखों से आसमान तक रह है।” 

“तेरा यह प्रेमी एक सौ पाँच साला है और अब भी जिये जा रहा है, झल्लन तू तो ग़ज़ब किये जा रहा है?” 

वह बोला, “देखिए ददाजू, हमारे प्रेमी ने विभाजन के वक़्त ही क़सम खा ली थी कि जब तक मिलेगा नहीं तब तक जाएगा नहीं, सो वह अपने बच्चों नाती पोतों की बद्दुआओं के बावजूद अभी भी जिये जा रहा है, इंतज़ार किये जा रहा है।” 

“तो उसके बीवी बच्चे क्या करते हैं, साथ रहते हैं, अब तक तो वे भी बुढ़िया गये होंगे, इधर उधर झिड़िया गये होंगे?” 
“ददाजू, उसकी दो बीवियाँ बहुत पहले ही पार लग चुकी हैं और जो तीसरी थी वो कुछ साल पहले आख़िरी सफ़र पर निकल चुकी है। नाती पोते कलपते-कुढ़ते रहते हैं फिर भी थोड़ी सेवा थोड़ा टहल करते रहते हैं।” 

हमने कहा, “तेरा ये एक सौ पाँच साला आशिक़ नमाज़ पढ़ता है या हनुमान चालीसा गाता है?” 

वह बोला, “कैसा नासमझी वाला सवाल पूछा है ददाजू, हनुमान चालीसा तो नहीं पर चंडी स्त्रोत हमारी छोकरी पढ़ती थी, जब डर के साये में निकली थी तो चंडी मंत्र पढ़ती हुई निकली थी और दिल्ली पहुँचकर भी कुछ दिन पढ़ती रही थी। यह दीगर बात है कि बाद में उसे सुरैया, लता के गाने याद रहने लगे थे और उसके ओंठों पर ठहरने लगे थे। वैसे भी ददाजू, सरहदी कहानी एक ही मज़हब के बीच कहाँ बनती है, परंपरागत तौर पर इस पार एक मज़हब हो उस पार दूसरा तभी बनती है और तभी बुकर के सफ़र पर निकलती है।” 

हमने कहा, “अच्छा ये बता, मिलन यात्रा में तेरी छोकरी डोकरी तो चल रही है पर लट्ठ साथ आया है कि नहीं, उसने कोई रोल निभाया है कि नहीं?” 

वह बोला, “देखिए ददाजू, लट्ठ तो अपनी लंठई में साथ नहीं आ पाया पर लट्ठ से निकला चिमगादड़ उड़ता पुड़ता साथ चला आया है। अब नीचे दिन में हमारी छोकरी का सफ़र चल रहा है और ऊपर ऊपर रात में चिमगादड़ हुल रहा है।” 

अब झल्लन की कहानी में झुंझलाहटनुमा मज़ा आ रहा था पर हमें अपना एक ज़रूरी काम याद आ रहा था सो हम उठ लिये और झल्लन से अगली बैठकी में फिर मिलने का वादा कर दिये। 

प्यार निशानी मलमल का कुर्ता

हमने झल्लन को थोड़ा सा रेदा, थोड़ा कुरेदा, “तो झल्लन, दिन में तेरी छोकरी का दोजनी क़ाफ़िला चलता है और रात में चिमगादड़ उड़ता है तो मतलब यह कि वह डोकरी छोकरी से बिल्कुल नहीं मिलता है?” 

झल्लन ने समझाया, “कैसी बात करे हो ददाजू, हमारा चिमगादड़ हमारी नब्बे साला छोकरी से एक पड़ाव आगे रहता है जहाँ छोकरी को डेरा जमाना होता है रातभर चलकर वहाँ पहले ही पहुँच जाता है, दिनभर आराम फ़रमाता है जब शाम को डोकरी के आने का समय हो जाता है तो वह भी उठ जाता है और अपनी चिमगादड़ी बोली में थोड़ी देर बतियाता है, कहाँ कहाँ क्या क्या देखा सब छोकरी को सुनाता है जब रात घिर आती है तो छोकरी के सोने का समय हो जाता है और हमारा चिमगादड़ रात के अँधेरे में अगले पड़ाव के लिए उड़ जाता है।” 

“तो तेरी डोकरी छोकरी पैदल चलती है, गाड़ी घोड़ा नहीं करती है?” 

वह बोला, “कलकत्ता तक रेल से आयी थी पर वहाँ से ढाका पाँव पाँव जा रही है और पदयात्रा का भरपूर आनंद उठा रही है।” 

“वाह, तेरी नब्बे साला छोकरी पदयात्रा कर रही है, ग़नीमत है कि new word नहीं भर रही है।” 

वह बोला, “वह तो new word ही भरती पर उसकी बीस साला छोकरी बाधा बन रही है, वह थक जाती है इसलिए हौले हौले चल रही है।” 

हम झल्लन की तरफ़ देखे और बरबस मुस्कुराए, “अच्छा ये बता, तेरी डोकरी छोकरी को कैसे पता चला कि उसका प्रेमी पुरातन यानी शौहर न बन पाने वाला अशौहर अभी जिये जा रहा है, इंतज़ार किये जा रहा है?” 

अब झल्लन मुस्कुराया, “क्या बात करते हो ददाजू, वो तो हम आपको बता दिये कि अशौहर जिये जा रहा है, राह तके जा रहा है पर अपनी छोकरी को बिल्कुल नहीं बताए हैं कहानी में सस्पेंस जो बनाए हैं। उसे तो तब पता चलेगा जब वह खोजते खोजते पहले थक जाएगी पर आख़िर में पहुँच जाएगी और उसकी आवक सूँघते ही हमारे जीते मरते सोते ऊँघते प्रेमी अशौहर की आँख खुलकर हमारी छोकरी के मलमल के कुर्ते पर टिक जाएगी, उसे अपनी सरहदी मुलाक़ात याद आ जाएगी, उसके भीतर हलचल मच जाएगी उसकी आँखों में चमक भर जाएगी, मिलन की हकबकी ख़ुशी उतर आएगी।” 

हमने पूछा, “मलमल का कुर्ता देखकर उसे याद क्यों आती है, इस कुर्ते में ऐसा क्या करामाती है?” 

झल्लन आँख दबाकर बोला, “सुनिए ददाजू, जब हमारी छोकरी घर छोड़कर जा रही थी तो उसके लंब तड़ंब पिया मनमौजी ने उसे मलमल का कुर्ता थमा दिया था और हमारी छोकरी ने इसे प्यार की निशानी मान ‘रेत समाधि’ की मूर्ति की तरह उस वक़्त के अपने खुरदरे कुर्ते में छिपा लिया था और तभी से वह इस मलमली कुर्ते को अपने प्रेमियों पतियों बेटे बहुओं बेटियों दामादों नाती पोतों और आने जाने वालों से साल दर साल छिपाए बचाए चली आ रही है और अब जब वह शौहर न जैसे शौहर से मिलने जा रही है तो प्रेम की निशानी अपने इसी कुर्ते को पहनकर जा रही है।” 

हमने कहा, “तू कमाल करता है झल्लन, तेरी छोकरी कुर्ते को अस्सी साल तक सँभालकर रखती है, प्यार, शादी, विवाद के झंझावात सहती है पर कुर्ते पर शिकन तक नहीं पड़ती है?”

झल्लन ने अपने चेहरे पर एक रहस्यमयी मुस्कान धकेली और हमारी तरफ़ पेली, “ददाजू, हम सीधे सट्ट ‘रेत समाधि’ से प्रेरणा लिये हैं और अपने ‘खेत समाधि’ के हर पन्ने पर भर भर ऐसे कमाल किये हैं। हमारे कमालिया करतब पन्नों पर जितने उतरते जाएँगे समीक्षकों की नज़र में हम उतने ही चढ़ते जाएँगे।” 

उसकी बात सुनकर हमें हँसी आयी, हमने कहा, “तेरी छोकरी को अगर कुर्ते से इतना प्यार था, जिस प्यार पर कुर्ता देने वाले का अधिकार था तो फिर उसे अपने इस प्यार को ही सहेजना चाहिए था और एकनिष्ठ प्रेमिका की तरह शादी-विवाह, पति-प्रेमी आदि के विचलन से बचना चाहिए था।”

झल्लन बोला, “कैसी बात करते हो ददाजू, हमारी छोकरी इत्ती भी बेवुक़ूफ़ नहीं है कि एक मलमली कुर्ते से ही चिपककर रह जाये और देह मन के बाक़ी सुखों पर ध्यान न लाये। वह कुर्ते की मोहब्बत में पड़ी रहती है और साथ में अपने प्रेमियों पतियों से भी जुड़ी रहती है, बस, इसी तरह हमारी कहानी भी ‘रेत समाधि’ की नक़ल पर बिना अक़्ल आगे बढ़ती रहती है‌।”

हमने पूछा, “जब तेरी ये डोकरी छोकरी घर से निकली थी तो नाती पोतों ने टोका नहीं, उसे रोका नहीं?” 

झल्लन बोला, “देखिए ददाजू, हमारी छोकरी के शुरूआती प्रेमी बिदक लिये थे बाद में जो दो पति बने वे भी लंबी यात्रा पर निकल लिये थे फिर उसने जो तीसरा ब्याह रचाया था वो पहले तो बहुत भाया था लेकिन फिर वह तीसरा भांग-दारू की अपनी औक़ात पर उतर आया था। बस, हमारी छोकरी ने उसे मार भगाया फिर वह भी पलटकर घर नहीं आया। नाती पोते अपने काम धंधों में लग गये और हमारी छोकरी निपट अकेलिया गयी, थकेलिया गयी। फिर एक दिन उसने तह लगे संदूक में छिपे मलमली कुर्ते पर हाथ लगाया तो बस पहला प्यार उमड़ घुमड़ आया और अब आप जानते ही हैं कि वह ठुमक ठुमककर जा रही है और भीतर ही भीतर सुरैया को गुनगुना रही है।”

हथनी की चींचीं चुखरिया की चिंघाड़ 

झल्लन ने अपने ‘खेत समाधि’ का पुलिंदा खोला और लरजते हुए बोला, “तो सुनिए ददाजू, हमारी नब्बे साला छोकरी लाँघ मार्च कर रही है, अपने अशौहर के खेत की ओर बढ़ रही है, कबूतर की हुरहुर गौरैया की फुरफुर सूरज की ठंडक चंदा की तपन कुत्ते की मिमियाहट गाय की गुर्राहट शेर की हुआंहुआं सियार की दहाड़ हथनी की चींचीं चुखरिया की चिंघाड़ धरती पर आसमान, आसमान पर पहाड़ नदी चुपचुप लहर गुमसुम कछुए की छलाँघ मछली की टाँग मेंढक की लाँघ कमरे में भैंसा भैंसे पर हल ऊपर चिमगादड़ की चिड़चिड़ और नीचे हमारी छोकरी की चलचलाचल।”

सुनते ही हमारा ग़ुस्सा भड़क उठा, दिमाग़ तड़क उठा, “ये क्या सुना रहा है, क्या तमाशा लगा रहा है?” 

झल्लन आधा उठंग उठा और पूरी दबंगता से बोला, “हम जानते थे कि आपकी भाषाई नासमझी कुड़मुड़ाएगी हमारे ‘खेत समाधि’ की ‘रेत समाधि’ तर्ज़ी उच्च स्तरीय भाषा आप जैसे अक्षम, असमीक्षक को नहीं सुहाएगी, आपकी साहित्तीय नादानियत ऐसी ही प्रतिक्रिया दिखाएगी।” 

हमने कहा, ‘रेत समाधि’ जबरिया पढ़िया के हम वैसे ही कुढ़िया रहे हैं और तेरे ‘खेत समाधि’ की भाषा सुनके तो हमारे सब्र के घोड़े रस्सी तुड़िया रहे हैं। चल भाग यहाँ से, अब हम कुछ नहीं सुनेंगे, पहले से ही ख़राब दिमाग़ और ज़्यादा ख़राब नहीं करेंगे।”

झल्लन बोला, “ददाजू, चुपचाप बैठ जाइए और थोड़ी देर के लिए हमारी भाषाई गहराई में डुबकी लगा जाइए। आपका शाब्दिक भाषिक विकास जो बीसवीं सदी में रुक गया है वह इक्कीसवीं सदी में उतर आएगा, आपको बाईसवीं सदी की भाषा का भाषापान करवाएगा और आपका कुसमीक्षक भाषाई ज्ञान से मंडित होकर सुसमीक्षक बन जाएगा।” 

हमने कहा, “भाड़ में जाये तेरी सुसमीक्षकता, हम जैसे पाठक हैं वैसे पाठक ही भले, हम ऐसी सरल, सुबोध भाषा के हामी हैं जो हमारे ज्ञान का इम्तिहान न ले, ऐसी भाषा नहीं जो हमारे दिमाग़ में काँटे की तरह फँस जाये और पढ़ने की हमारी चाह ख़ुदकुशी कर जाये।” 

वह बोला, “ददाजू, पाठकीय धैर्य, साहस और शौर्य भी कोई चीज़ होते हैं, इन्हें जगाइए, जिसे पढ़कर फेंकने का मन करे उसे गले लगाइए और कड़वी दवाई की तरह आँख बंदकर पढ़ जाइए।”

हम कलप गये, “झल्लन, भाषा झुंझलाती-उबाती नहीं है पाठक को मितलाती-झिलाती नहीं है, भाषा की अपनी लय होती है जो शब्दों की स्थापित छवियों के सहज संप्रेषण से बनती है। अगर किसी का उपन्यासी कुत्ता मिमियाएगा, कछुआ छलाँग लगाएगा, मछली की टाँग दिखाएगा तो शब्द युग्मों की सारी छवियाँ ध्वस्त हो जाएँगी और दिमाग़ में ग़ुस्सा, झूंझल बनकर पेवस्त हो जाएँगी। जिसे पढ़ा न जा सके वह भाषा भाषा नहीं भाषाई बेहूदगी होती है जिसकी वकालत नहीं की जानी चाहिए उल्टे इसे लानत-मलानत दी जानी चाहिए।” 

वह मुस्कुराते हुए बोला, “ददाजू, शब्दों की स्थापित छवियाँ जब टूट-टूटकर आपस में टकराती हैं तो प्रखर समीक्षकों की आत्मा में घुसिया जाती है, उनकी तारीफी आह आह वाह वाह को बाहर खिंचिया लाती है, सो हम आप जैसे कुंद पाठक के लिए अपना भाषाई बहाव नहीं रोकेंगे, अपने बुकरीले पाठकों की ख़ातिर ‘खेत समाधि’ के हर पन्ने पर ऐसी ही भाषा रोपेंगे और दिग्गज समीक्षक साहित्यकारों की अतिसंवेदनशील अतिप्रखर भाषाई समझ पर यही भाषा थोपेंगे और बुकर पर बार-बार अपना दावा ठोकेंगे।”

हमने कहा, “झल्लन, किसी भी रचना की पहली शर्त तो उसकी पठनीयता होती है और जो पठनीय न हो वह रचना रचना नहीं होती है, पठनीयता वह होती है जो पाठक को सहज ही अपनी पकड़ में ले लेती है और उसे अपने प्रवाह में बहा ले जाती है और रचना पाठक के दिल में उतरती चली जाती है।” 

झल्लन बोला, “आप पुरानी बातें कर रहे हैं ददाजू, जिस किताब की दस समीक्षकों से समीक्षा लिखवा ली जाती है और जिसे कोई पुरस्कारीयता प्रदान करवा दी जाती है वह अपने आप पठनीय हो जाती है और पाठकों से ख़ुद को जबरिया पढ़वा ले जाती है। बताइए, आप भी तो समीक्षकों के दबाव में पढ़िया गये सो हम भी समीक्षकों से बमबम समीक्षा करवाएँगे और पाठक दमदम हमारी किताब के पीछे पड़ जाएँगे। सो, हम आपके लिए अपनी भाषा नीति में कोई बदलाव नहीं लाएँगे और ‘रेत समाधि’ की तर्ज़ पर ही अपने ‘खेत समाधि’ की भाषा की भाषीयता गढ़ते जाएँगे।” 

हमने कहा, “हम पढ़ गये सो पढ़ गये पर हम नहीं चाहते कि हमारी तरह कोई धन, ऊर्जा, समय गँवाए और पढ़ ले तो सिर धुने और पछताए। और सवाल भाषीयता को लेकर भी नहीं है, यह भी है कि भाषीयता के बीहड़ में कहानी के नाम पर क्या पिरोया गया है, लगता है जो कपड़ा हज़ार बार धुल चुका है उसे एक बार फिर धोया गया है।” 

वह बोला, “देखिए ददाजू, अगर आप कथ्य कहानी की बात कर रहे हैं तो हम इस पर अभी चर्चा नहीं चलाएँगे अभी हमारे सामने हमारी भाषीयता की इज़्ज़त का सवाल है सो हाल फ़िलहाल हम इसी सवाल को दोहराएँगे। हम चाहते हैं कि आप इधर उधर न भटकें, हम भाषीयता पर अटके हैं सो आप भी थोड़ी देर भाषीयता पर ही अटकें।” 

हमने कहा, “जहन्नुम में जाये तू और तेरी भाषीयता, हम तुझे अब और ज़्यादा नहीं सह पाएँगे, तू भी उठ और हम भी उठकर घर जाएँगे।”

नहीं मरेगी हमारी झम्मक छोकरी 

झल्लन आया और हमें मक्खन सा लगाया, दुलराई फुसलाई आवाज़ में बोला, “ददाजू, हम आपको सर नवाते हैं, आप तक अपना विनम्र प्रणाम लाते हैं और आपकी बिना इजाज़त के ही यह बात फिर दोहराते हैं कि आप ‘रेत समाधि’ और ‘खेत समाधि’ की भाषा जैसी मामूली बात पर अटक गये हो और इस चक्कर में बाक़ी मुद्दों से भटक गये हो। यहाँ हम आपको बता रहे हैं कि भाषा के साथ-साथ हम ‘रेत समाधि’ को कहाँ मात दे रहे हैं और अपने ‘खेत समाधि’ के लिए कहाँ बढ़त ले रहे हैं।” 

हमारे चेहरे पर जबरिया मुस्कुराहट फूट आयी, “अच्छा बता, कहाँ मात दे रहा है कहाँ बढ़त ले रहा है?” 

वह अपनी मुस्कुराहट को थोड़ा तिरछाकर बोला, “देखो ददाजू, ‘रेत समाधि’ में सारे हिंदी उर्दू हिंदुस्तानी पाकिस्तानी विभाजकिया सरहदिया लेखकों को लिया गया है और उन्हें हिंदुस्तान पाकिस्तान की सरहद पर बिठा दिया गया है। पर हम रौम्या रोला, जॉर्ज बर्नाड शॉ से लेकर रडयार्ड किपलिंग तक बोरिस पास्तरनाक और ज्यां पॉल सात्र से लेकर कामू और रसल तक नाइपाल से लेकर एनी अर्नाक्स तक दुनिया के बड़े बड़े देशों के बड़े बड़े जो भी नाम हमें याद आएँगे हम सबको पूर्वी पाकिस्तान की सरहद पर ला बिठाएँगे और फिर उन्हीं के मुँह से पार्टीशन पर प्रवचन कराएँगे, अपनी समाधि के खेत पर इनसे हल चलवाएँगे और प्रशस्ति पुरस्कारों की फ़सल उगवाएँगे।” 
हमें ग़ुस्सा आया पर हमने फिर जा दबाया, “तो तुझे क्या लगता है दुनियाभर के बड़े लेखकों को अपनी समाधि के खेत में छोड़ देगा और उनके नाम पर पुरस्कार के पेड़ से बुकर तोड़ लेगा?” 

वह चहकता सा बोला, “देखिए ददाजू, हमारा ‘खेत समाधि’ अपना रंग ज़रूर दिखाएगा और अगर बुकर नहीं ला पाया तो नोबल ज़रूर कबाड़ लाएगा।” 

हमने कहा, “तू सचमुख पगला गया है झल्लन जो बेसिर-पैर की हाँक रहा है, आँखें बंद करके अमावस की अंधिरिया में झाँक रहा है। बड़े नाम जोड़ देने से ही आयं-बायं लिखा हुआ उपन्यास नहीं बन जाता, उपन्यास में कथ्य भी होता है, कहानी भी होती है जो पाठक को बाँधती है, देश समाज में पैठ बनाती है, लोगों की ज़िन्दगी में झाँकती है, उसके अनदेखे पहलुओं को दिखाती है, पाठक की संवेदना का विस्तार करती है, उसमें करुणा जगाती है, उसे क्षुद्रताओं से ऊपर उठाकर अधिक मानवीय बनाती है, अपने आसपास घट रहे को अधिक सहानुभूति के साथ परखना-निरखना सिखाती है, मनुष्य समाज के दिमाग़ी विभाजनों, जहनी सरहदों को दिखाती चलती है जो अमानवीय मनुष्य विरोधी है उसके विरुद्ध चेतना जगाती चलती है, किसी गंभीर समस्या का गहन विवेचनात्मक आकलन प्रस्तुत करती है और पाठक को समझदार बनाती है। अगर उपन्यास विभाजन जैसे किसी गहरे घाव को कुरेद रहा है तो उसे उसका निर्मम शल्य करना चाहिए न कि ‘रेत समाधि’ की तरह उस पर उथली रूमानियत का फूँक फाहा रखकर घाव की गंभीरता को मज़ाक़ बना देना चाहिए।” 

झल्लन बोला, “ददाजू, हम आपका मर्ज़ समझते हैं आपकी ज़िन्दगी में कभी रूमानियत आयी नहीं सो उसका दर्द भी समझते हैं। आपकी प्रॉब्लम ये है कि आप कभी समझदारों की तरह सीधे नहीं चलते हैं, दूसरों की नहीं सिर्फ़ अपनी ही सुनते हैं।”

हमने कहा, “हमने क्या ठेका ले रखा है कि फ़ालतू चीज़ें पढ़ें, फ़ालतू बातें सुनें और अपने हिसाब से अपने तईं कुछ नहीं चुनें।” 

वह बोला, “कैसी बात करते हो ददाजू, आपके मौलिक अधिकार को कौन चुनौती दे सकता है, पर आप पर हमारा भी कोई अधिकार बनता है कि आपके पास आयें, अपनी महाकृति आपको सुनाएँ और आपकी शाबाशी पायें।” 

हमने कहा, “हमारी शाबाशी पानी है तो तुझे कोई अच्छी चीज़ लिखना चाहिए न कि किसी नब्बें साला छोकरी को सरहद पे ले जाना चाहिए।” 

वह बोला, “आप यहीं तो ग़लत हो ददाजू, कभी कभी नब्बे साल की छोकरी के साथ भी सरहद तक चले जाना चाहिए और कभी कभी दूसरों के मन की भी पढ़ लेनी चाहिए और जैसे दूसरे बड़े विराट लेखक समीक्षक करते हैं कि कोई चीज़ अच्छी न लगे तो भी तारीफ़ की ख़ातिर ही थोड़ी तारीफ़ कर देनी चाहिए। आपको यह तो जानना ही चाहिए कि हमने अपने ‘खेत समाधि’ में कैसी ज़मीन गोढ़ी है, लिखकर कैसे क़लम तोड़ी है। 

हमने कहा, “अच्छा बता, तेरी डोकरी छोकरी सीमा पार जाकर अपने अशौहर से मिल आएगी तो वहाँ से क्या उखाड़ लाएगी?” 

वह बोला, “वही उखाड़ लाएगी जो ‘रेत समाधि’ की अस्सी साला छोकरी उखाड़ने जाती है पर ये दीगर बात है कि बेमतलब गोली खाकर मर जाती है। हम कुछ भी इधर से उधर कर लेंगे पर अपनी झमक छोकरी को मरने नहीं देंगे।”

दिल तोड़ गयी कूकर की बेवफ़ाई 

पता नहीं झल्लन मुस्कुराया या खिजलाया, वह बोला, “हमने सोचा भी नहीं था कि आप इतने क्रूर निष्ठुर अमानवीय हो जाओगे और रेत-खेत की बज्र बहादुर छोकरियों के दुख पर आँखें गीली करने की बजाय उन्हें इस तरह धतियाओगे। पर हमारी छोकरी आप और आप जैसों की निंदा आलोचना से नहीं डरेगी और अपनी मुहब्बत के लिए सरहद ज़रूर पार करेगी।” 

हमने कहा, “वो तेरी और तेरे ‘खेत समाधि’ की छोकरी है, तू उसे सरहद पार ही क्यों अंतरिक्ष में भी ले जा सकता है और रास्ते में किसी ढाबे पर चाय-पानी पिलाकर झूमते-झुमाते वापस भी ला सकता है। हमारा तो सुझाव होगा कि तू उसे मंगल पर ले जाये और वह वहाँ कोई बस्ती तलाशे जहाँ उसे सौ जन्म पहले का कोई मंगलिया प्रेमी मिल जाये।” 

झल्लन ने आँखें चमकायीं, “देखिए ददाजू, आप भले ही मज़ाक़ कर रहे हो पर आपका सुझाव ज़ोरदार है हम इसे सफल करेंगे और जब अगला उपन्यास ‘मंगल समाधि’ लिखेंगे तो इस पर पक्का अमल करेंगे। पर हाल फ़िलहाल हम अपने ‘खेत समाधि’ को रचा रहे हैं, इसे तारीफ़ और तमगे के लिए जचा रहे हैं। 

हमने मज़ाक़ किया, “चल हम तुझे आशीर्वाद दे रहे हैं कि तेरा ‘खेत समाधि’ पहले बुकर फिर सीधे नोबल लाये और तुझे समीक्षाई प्रशस्ति और पैसाई स्वस्ति दिलवाए।” 

वह बोला, “हम जानते थे कि पहले पहल आप तेवर दिखाओगे फिर चुपचाप हमें आशीर्वाद देने की अपनी पुरानी औक़ात पर उतर आओगे। पर ददाजू, हमारा काम केवल आशीर्वाद से नहीं चलेगा, आपको हमारे लिए कुछ ठोस करना पड़ेगा। आप दो-चार हिंदुस्तानी अँग्रेज़ों को पहचानते हो और थोड़ी बहुत अंग्रेज़ी ख़ुद भी जानते हो। सो हमारे ‘खेत समाधि’ का अंग्रेज़ी में तर्जुमा कर या करा दीजिए और हिंदी के कील काँटे रोध रोड़े बुहारकर इसे बुकरीला बना दीजिए और पुरस्कार का आधा पैसा अपने नाम करा लीजिए।” 

हमें इस बार ईमानदार हँसी आयी और हमारी खुरदरी ज़ुबान पर उतर आयी, “चल तेरी बात पर विचार कर लेंगे और मन हुआ तो तर्जुमा भी कर करा देंगे। पर ये बता, ‘रेत समाधि’ की जवान छोरी ठरकी डोकरी के झाँसे में आकर पश्चिमी पाकिस्तान पहुँच गयी थी पर तेरी बीस साला छोरी अपनी डोकरी छोकरी के साथ पूर्वी पाकिस्तान क्यों जा रही है, उसकी कहानी में क्या जगह है, उसके दिमाग़ में कोई ख़लल है या कोई और वजह है?” 

झल्लन ने सर खुजाया फिर रहस्यमय अंदाज़ में फुसफुसाया, “बीस साला छोरी की बड़ी दुखभरी कहानी है ददाजू, इसे बाली उमर में एक विधर्मी ने पटा लिया था और जैसे ही इसके मन हिरना ने उड़ान कुदान शुरू की उस बेवफ़ा ने इस बेचारी की एक सहेली से ही दिल लगा लिया था। पता चला तो इस पर आसमान टूट पड़ा था और साथ ही भीतर का ग़ुस्सा भी बलबलाकर फूट पड़ा था। उस दिन वो अपने इस मर्द बेवफ़ा को देदनादन चप्पलियाकर आ रही थी साथ में टसुए भी बहा रही थी। उसी दिन एक पिल्ला न जाने कहाँ का मारा दुत्कारा इसके पीछे लग लिया मतलब ये कि हिलग लिया, देखकर छोरी का मूड थोड़ा ढिलियाया थोड़ा प्यार कुनमुनाया उसने पिल्ले को उठाया गले लगाया और फिर ख़ुद ही ख़ुद बुदबुदाया—उस हरामी से तो ये पिल्ला भला सो इस पिल्ले को प्यार दे उस हरामी को बिसार दे। तो वह हरामी को बिसराती रही और पिल्ले को पालती रही। इधर इसका देह मन खिलने लगा था उधर पिल्ला क़द्दावर कूकर में बदलने लगा था। पर मर्द की जात तो मर्द की जात सो कूकर न जाने किस किस के पीछे दौड़ने लगा था, न जाने कहाँ कहाँ मुँह मारने लगा था। एक दिन छोरी ने इसे पड़ोस की कुकरिया के साथ मैथुनी मुद्रा में पकड़ा तो ग़ुस्सा एक बार फिर फूट पड़ा संटी बनकर कूकर पर टूट पड़ा। बेचारा कूकर संटियाई का कोई कारण नहीं समझ पाया पर वह मानी अभिमानी दुबारा छोरी के दरवाज़े पर नहीं आया, जहाँ कुकरिया का घर था वहीं डेरा जा जमाया। कूकर की बेवफ़ाई से हमारी छोरी का दिल टूट गया उसका सुख चैन रूठ गया। इसी वक़्त में ही हमारी नब्बे साला छोकरी का मलमलिया इश्क़ उसे सरहद पार से पुकार रहा था, लंबी यात्रा का इरादा उसके भीतर उतार रहा था, तो जब नब्बे साला छोकरी अपनी दिल जोड़ो यात्रा पर निकल रही थी तो हमारी दिल टूटी छोरी भी साथ निकल पड़ी कि अम्मा के सुख में उसका मन बँट जाएगा और मर्दीली बेवफ़ाई का दुख छँट जाएगा।” 

हमने पूछा, “तो उसका मन बँटा, दुख छँटा?” वह बोला, “सच कहें ददाजू, ये तो पक्का हमें भी नहीं पता कि क्या बँटा क्या छँटा पर हम इस मुद्दे पर छोरी से बतियाएँगे और जो वह हमें बताएगी वो हम आपको बताएँगे।” 

हमने कहा, “मतलब यह कि तेरा यह छोरियाई पात्र तेरे क़ाबू से बाहर जा रहा है, तुझे पतिया नहीं रहा है।” 
वह बोला, “हाँ ददाजू, कभी-कभी ये पात्र मनमानी पर उतर आते हैं, हमारे हाथ से फिसल जाते हैं पर हम इन्हें नथियाकर रहेंगे और जहाँ जिस खूँटे से चाहेंगे उस खूँटे से बंधियाकर रहेंगे।”

संहार

झल्लन हमारे पास आकर बैठ गया और उसके भीतर का एक अधकचरा लेखक उसके परिकल्पित गर्व से सीना फुलाए एक पुरस्कारपायी महान विकट बड़े लेखक की तरह ऐंठ गया। हमने उसके चेहरे पर दमक महसूस की और आँखों में चमक महसूस की सो हमने पूछा, “क्या बात है झल्लन, तेरे पाँव के जूते बदले हुए हैं, तेरे सीने के बटन खुले हुए हैं और तेरे चेहरे के साथ-साथ तेरे बाल भी कुछ धुले हुए हैं, कहीं तेरी कोई लॉटरी तो नहीं निकल आयी है जो हमें हमारी हिस्सेदारी देने तुझे हमारे पास खींच लायी है?” 
वह बोला, “ददाजू, कभी-कभी आप सचमुच उजबकिया जाते हो, जाना कहीं होता है और चले कहीं और जाते हो। आपको मालूम हैं कि इतने दिनों से हम अपनी महान कृति की रचना में लगे हुए थे और अपने कृतित्व के काल में दिन तो दिन रात में भी जगे हुए थे। समझ लो हमारा महानुष्ठान पूरा हो गया है और हमारे मन में विराट रचनाशीलता का जो बवंडर उठ रहा था वह सो गया है।” 

हमने कहा, “हमें तो लग रहा है कि तेरे दिमाग़ का कोई पेंच इधर से उधर हो गया है और तू अपना दिली संतुलन खो गया है। जो कथाकार यह नहीं जानता कि अपने किन पात्रों को कहाँ ले जाये, उन्हें स्थितियों, परिस्थितियों और घटनाओं के बीच कैसे सँभाला जाये, किसे दुत्कारा जाये, किसे पाला जाये और कैसे उनको इधर-उधर उड़ाने के बजाय सही समय पर सही जगह उतारा जाये, किस पात्र को तार्किक तरीक़े से किस परिणति तक पहुँचाया जाये और अपनी कृति को हवा हवाई न बनाकर कैसे पचनीय और विश्वसनीय बनाया जाये और कैसे पाठक के साथ आत्मीय रिश्ता बनाया जाये तो वह लेखक कितना भी प्रकांड क़लम कारीगर हो सकता हो पर हमारी समझ से अच्छा लेखक नहीं हो सकता है, किसी से भी कितनी भी प्रशस्ति पा ले पर हमारा प्रिय नहीं हो सकता है।” 

झल्लन बोला, “ददाजू, लगता है आप कुछ ज़्यादा ही बोल रहे हो और जितना मुँह नहीं खोलना चाहिए उससे बहुत ज़्यादा खोल रहे हो। आपकी ये बातें अठारहवीं शताब्दी में चलती होगी इक्कीसवीं शताब्दी में नहीं चलती, यह नया जमाना है इसमें आप जैसों की दाले नहीं गलतीं। यह बाज़ार का युग है, बाज़ार से ढलता है इसमें आप जैसों का कोई पोंगा पंथ नहीं चलता है।”

हमने कहा, “हमारी बात छोड़, तू अपनी ही बात ले। जब तू अपने ही पात्रों को उनके सही परिप्रेक्ष्य में नहीं उतार पा रहा है, उन्हें उनकी सही जगह नहीं बिठा पा रहा है, दुविधाओं और शंकाओं से घिरा जा रहा है तो फिर हम पर शंका क्यों किये जा रहा है?” 

झल्लन बोला, “सुनिए ददाजू, कहानी की ऊँच–नीच अगाई–पिछाई को लेकर हमारे मन में जो दुविधाएँ शंकाएँ पैठ गयी थीं हमने उनका सकुशल समाधान कर लिया है, पात्रों को उनका सही ठौर बता दिया है और अपने ‘खेत समाधि’ का संहार कर दिया है। 

“हमारा चिमगादड़ जो ऊपर ऊपर उड़ता पुड़ता गया था वह ऊपर ऊपर उड़ता पुड़ता छोकरी के साथ ही वापस आ जाता है, यात्रा के अपने एडवेंचर अपने लट्ठ को सुनाता है और वापस लट्ठ में घुस जाता है। 

“हमारी बीस साला छोकरी की देहमना समझदारी थोड़ी खुल जाती है वह मर्द औरत के बीच की लगालगी को थोड़ा बेहतर समझ जाती है। समझ जाती है कि किसी के जुड़ाव खिंचाव में पड़ो, किसी से हिलगो या किसी को हिलगाओ, कोई आपके पीछे चकरियाए या आप किसी के पीछे चकरिया जाओ तो कब्जेदारी से नहीं मिल बाँटकर रिश्ता आगे बढ़ाओ सो उसने बेवफ़ा कूकर को माफ़ कर दिया है, उधर कूकर भी अपनी संटियाई बिसराकर अपने पालक ठिये पर लौट आया है, पालक छोकरी से फिर से लाड़ लड़ा रहा है, छोकरी ने उसे गले लगा लिया है, कूकर जिस कुकरिया को साथ ले आया है उसके सर पर भी हाथ फिरा दिया है मतलब कि बीस साला छोकरी का सारा रंज शोक मर गया है और उसके भीतर किसी नये प्यार के लिए नया जोश उल्लास भर गया है। 

“हमारी नब्बे साला छोकरी भी बिना रोये बिना छलछलाए अपने अशौहर से उछंग मुलाक़ात कर लौट आयी है, मलमल के कुर्ते को जस का तस सहेज लायी है, अशौहर से जल्दी ही फिर मिलने का वादा कर आयी है, कह आयी है कि दस या बीस साल बाद वह जब भी आएगी इसी मलमल के कुर्ते में आएगी और अपनी समाधि उसी के हाथों उसी के खेत में बनवाएगी।” 

भरोसा उम्मीद

“और आख़िरी बात ये ददाजू कि हमें पाठकों पर पूरा भरोसा है कि वे साहस और शौर्य का परिचय देंगे, रोक रुकावटों के बावजूद ‘खेत समाधि’ को पूरी निष्ठा मेहनत और समर्पणभाव से पढ़ लेंगे। बड़े समीक्षकों पर हमारी पूरी आस्था है कि वे अनसमझाया हुआ भी समझ लेंगे जो नहीं गढ़ा गया है उसे भी गढ़ लेंगे, जिस झाड़ पर उन्हें नहीं चढ़ाया गया है उस पर भी चढ़ लेंगे और फुलटुस प्यार मोहब्बत से हमारे हित हिसाब से इसकी समीक्षा कर देंगे।”

“बुकरवालों से उम्मीद है कि वे हिंदी पाठ पर आँख बंद कर लेंगे, अंग्रेज़ी के सुघड़ सुथरे प्रारूप पर ही विचार करेंगे और अगले बुकर के लिए हमारा ही नाम दर्ज करेंगे। 

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टिप्पणियाँ

मधु शर्मा 2023/12/24 07:46 PM

झल्लन के 'खेत समाधि' पर की गई गुटरगँ ने जो गुल खिलाकर हँसी का माहौल बनाया है, उससे ज़्यादा 'रेत समाधि' पर छोड़ी गई शब्दों की बमबारी ने अब इसे पढ़ने के लिए हमें भी उकसाया है। आभार विभांशु जी।

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