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अनुभव

 

एकाएक उसे डर लगने लगा। शाम का सूरज अपनी खोह में उतर गया था। लालिमा धीरे-धीरे अँधेरे में डूब रही थी। उसे रात की उतरती स्याही अपने अंदर उतरती हुई महसूस हो रही थी। डर उसे ख़ुद अपने-आपसे लग रहा था। क्या वह वही औरत है जो कभी एक स्वच्छंद चिड़िया की तरह अपनी धवल रूहानी कल्पनाओं के पंखों से आकाश नाप आती थी, ज़िन्दगी को गुनगुनाती थी, उम्र को संगीतबद्ध एक लम्बी कविता की तरह गुज़ार लेना चाहती थी। उसे पता नहीं लगा कब मर गयी उसके भीतर की वह औरत? आज जो औरत उसके भीतर है वह जैसे अपने लंबे पैने दाँतों से उसे ही चीर-फाड़ डालना चाहती है . . . 

उसकी भावनाओं के सारे कोमल तंतु मर गये हैं। शारीरिक, शुचिता, पवित्रता और नैतिकता की सारी ग्रंथियाँ गलकर बह गयी हैं। और आज वह इतने क्रूर अनैतिक षड्यंत्र को अंजाम देने पर आमादा है। बाहर की तरह भीतर भी अंधेरा-सा उतर रहा है। इस अँधेरे की चौखट पर ही वह बची-खुची शालीन औरत की बलि चढ़ाने जा रही है। 

बहादुर अब आता ही होगा . . . आज के बाद बहादुर का क्या होगा? इस सवाल ने उसे थोड़ी देर के लिए बेचैन किया, पर जल्दी ही उसने इसे दिमाग़ से झटक भी दिया। बहादुर का चाहे जो हो, बहादुर की चिंता वह क्यों करे? उसे तो अपनी बदले की आग ठंडी करनी थी . . . 

“शुचि, ऐ शुचि . . . ” उसकी जेठानी बुला रही थी। 

अपने हर ख़्याल को विराम लगाकर वह कमरे से बाहर निकल आयी, “जी भाभी जी।” उसने भरसक स्वाभाविक होने की कोशिश की। 

जेठानी ने उसे तीखी जाँचती नज़रों से घूरा, “क्या हुआ री, तेरा चेहरा क्यों बिगड़ रहा है? तबीयत तो ठीक है।”

लगा, जैसे उसकी चोरी पकड़ ली गयी हो। वह ख़ुद को पूरी तरह सँभाल कर बोली, “मेरी तबीयत को क्या हुआ? मैं तो बिल्कुल ठीक हूँ। कोई काम था क्या?” 

जेठानी को जैसे उसकी बात पर भरोसा नहीं हुआ, “काम कुछ नहीं था, चाय पीने का मन था, सोचा तुझे बुला लूँ। आ चल चाय पीते हैं।” 

उसका मन हुआ कि टाल दे। पर इस पल वह अपनी इस जेठानी के मन में संदेह पैदा नहीं करना चाहती थी। अभी उनके साथ चल दे, फिर तुरंत पलट आएगी, बहादुर के आने से पहले। आमतौर पर उसकी जेठानी इस तरफ़ नहीं आतीं पर आज चली आयी थीं। अच्छा हुआ जो अभी चली आयीं बहादुर के आने के बाद आतीं तो उसके शरीर में सिहरन-सी दौड़ गयी। 

“क्या भई,” जेठानी ने चाय का प्याला उसकी और बढ़ाते हुए फिर टहोका दिया, “क्या हुआ है तुझे? इतनी उखड़ी हुई क्यों लग रही है . . . मेरे देवर ने कुछ कह कर दिया क्या?” 

जेठानी की आँखें चमक रही थीं। उसने इन आँखों में हमेशा ही चमक देखी थी। कैसे हर वक़्त मुस्कुरा देती है यह औरत? क्या इसके साथ भी वैसा कुछ हुआ होगा? नहीं, वैसा होता तो यह इस तरह नहीं मुस्कुरा सकती थी। 

“क्या देख रही है?” 

वह फिर हड़बड़ा गयी, “जी, कुछ नहीं!” 

“कुछ है ज़रूर, तू बताती क्यों नहीं?” 

“कुछ नहीं है सिर में थोड़ा-सा दर्द हो रहा था।” उसने बहाना बनाने की कोशिश की। उसके अलावा और बता भी क्या सकती थी? कई बार कोशिश करने के बावजूद जब वह पहले कुछ कहने का साहस नहीं जुटा सकी थी तो अब अपनी इस जेठानी को क्या बताती? वैसे इतने बड़े घर में अकेली यही औरत थी जिसके साथ उसका बात करने का मन होता था . . . पर वे सब बातें . . . वह बहादुर के आने से पहले ही अपने कमरे में पहुँच जाना चाहती थी, सो अपनी चाय ख़त्म करके बोली, “मैं चलती हूँ भाभी, थोड़ा आराम करूँगी।” फिर उसने ज़्यादा प्रतीक्षा नहीं की, वह उठ खड़ी हुई। 

“कोई गोली-वोली दूँ क्या?” 

“गोली की ज़रूरत नहीं, थोड़ा आराम कर लूँगी तो ठीक हो जायेगा।” उसे लग रहा था कि बहादुर किसी भी क्षण आ सकता है। 

“ठीक है, जा!” जेठानी ने उसे रहस्य-भरी नज़र से देखा, “देवरजी के आने का वक़्त भी तो हो रहा है।”

वह मुस्कुरायी जैसे जेठानी के मज़ाक़ का जवाब इस तरह की मुस्कुराहट से ही दिया जा सकता हो। पर उसे लगा, उसकी इस मुस्कुराहट में उसके भीतर का सारा ज़हर घुला हुआ है। 

उस ने राहत महसूस की कि बहादुर अभी नहीं आया था, फिर बेचैनी भी महसूस की कि उसे अब आ जाना चाहिए। अगर जेठानी फिर आ गयीं तो? नहीं, अब नहीं आयेंगी, क्या कभी उसके जेठ ने भी अपनी औरत के साथ वैसा किया होगा? अपने इस ख़्याल पर वह ख़ुद ही भ्रमित हो गयी। हो सकता है वैसा ही सब हो पर जेठानी अपनी मुस्कान के पीछे छिपा जाती हो, हो सकता है वैसा नहीं हो इसलिए जेठानी हर समय मुस्कुराती रह पाती हैं। ऊपर से कुछ भी पता नहीं लगता कि आदमी के भीतर क्या है? जिस तरह इस घर में बने अलग-अलग कमरे फ़ासला बनाए हुए खड़े हैं। अपारदर्शी दीवारों के भीतर कुछ भी नहीं दिखता उसी तरह अपारदर्शी चेहरों के भीतर भी कुछ नहीं दिखता। कोई उसके कमरे के भीतर का क्या देख पाता है? ख़ुद उसके भीतर का भी कोई क्या देख पाता है? पर यह सब कितना डरावना हो चला है उसके लिए। 

अगर एक साल पहले कोई उससे कहता, शुचि, तू अपने घर के नौकर के ही देह का रिश्ता क़ायम करेगी, तो वह उसका मुँह नोंच लेती, थप्पड़ों से चेहरा भर देती। ऐसा नहीं कर पाती तो घंटों अकेले बैठकर रोती। कहनेवाले की अश्लीलता पर क्षुब्ध होती। रह-रह कर उबलती-उफनती। चाहती कि किसी से शिकायत करे, फिर किसी अनाम भय से चुप हो बैठ रहती। पर ऐसा कभी नहीं सोच सकती थी जैसा कि अब सोच रही थी। वह सब कुछ तोड़-फोड़ देना चाहती थी, तितर-बितर कर देना चाहती थी। जो षड्यंत्र दिमाग़ में पनप रहा था उसकी परिणिति आज ही देख लेना चाहती थी। 

वैसे जो उसने कर दिया था वह भी कम नहीं . . . था, पर उसे कम लग रहा था। वह महसूस कर रही थी कि लड़के के साथ दुर्भाव से बनाया गया रिश्ता उसे तो नीचे ले आया है पर उसके पति को वांछित अहसास नहीं करा सका है। उसे महसूस हो रहा था जैसे वे तीनों ही एक गहरे दलदल में फँस गए हैं—उसका पति पुरुष, वह स्वयं और वह पहाड़ी लड़का। लेकिन दलदल में फँसने का अहसास उसका अपना अहसास था जिसे वह अब अपने आदमी तक पहुँचाने के लिए छटपटा रही थी। 

उसे फिर अपने आपसे डर लगा। क्या सचमुच वह शुचि है? अगर शुचि है तो अपने भीतर की इस विषैली औरत को पहचान क्यों नहीं पायी? कहाँ छिपी थी वह औरत जो अब उसके दबाए नहीं दब रही। नहीं, वह शुचि नहीं है। किसी प्रेत छाया ने ग्रस लिया है उसे। शायद औरतें प्रेतग्रस्त ऐसे ही होती हैं। चुड़ैल का साया उन पर इसी तरह से पड़ता है। पर क्या इस साये को कोई ओझा दूर कर सकता है? उसके अंतर में आ समायी चुड़ैल को कोई तांत्रिक खींचकर निकाल सकता है? 

कुछ दिन पहले तक यह ख़्याल कसमसाता रहा था कि इस नर्क को छोड़कर पीहर लौट जाये—अपनी माँ के पास, अपने पिता के परिवार में, वहाँ पहुँच जाएगी तो उसके भीतर की चुड़ैल अपने आप मर जाएगी। फिर तुरंत यह ख़्याल दीवार की तरह सामने खड़ा हो जाता था कि वहाँ जाकर क्या कहेगी? क्या बताएगी कि वह क्यों लौट आयी है, उन्हें कैसे बता सकेगी कि उसने क्या देखा है और क्या भोगा है? जब पहले नहीं बता सकी थी तो अब कैसे बतायेगी . . . और क्या उन्हें बता सकेगी कि वह ख़ुद घर के नौकर के साथ बलात्कार करती रही है। 

पीहर जाने का ख़्याल आत्महत्या कर गया था। 

तब एक नया संकल्प मन की न जाने किन अँधेरी गुफाओं से निकल कर दैत्याकार होने लगा था। पराजय के इतने बड़े पहाड़ छाती पर लादकर इस घर से नहीं निकलेगी वह। वह सफ़ेद कबूतरों जैसे भोले पवित्र ख़्यालों के साथ इस घर में आयी थी, बुलबुल और मैना की तरह फुदकती मादक कल्पनाएँ साथ लायी थी पति के शयनकक्ष की कल्पनाएँ करती थी तो प्रणय पांखियों के केलि दृश्य आँखों में भर जाते थे। अब वह मरे हुए कबूतरों और पंख नुची मैनाओं और बुलबुलों को लेकर कैसे वापस आये . . . उसे अपने भीतर की क्रूर औरत और अधिक हिंस्र होती हुई प्रतीत हुई। 

 . . . पर बहादुर आया क्यों नहीं अभी तक? 

उसने कमरे से बाहर निकलकर झाँका, घर में सन्नाटा था। जेठानी शायद अपने कमरे में बंद होकर कोई फ़िल्म-विल्म देखने लगी थी। सास और ससुर घर के इस हिस्से में नहीं आते थे। उसने घड़ी देखी, बहादुर को अब से दस मिनट पहले आ जाना चाहिए था। अगर ज़्यादा देर हो गयी तो . . . पर अभी भी वक़्त था। उसके भीतर की प्रेतनी दुष्कर्म पर आमादा थी। सुहागरात से लेकर अब तक की हर घटना का बदला ले लेना चाहती थी वह। 

उसे अपने ऊपर ग्लानि होती थी। अगर पहले दिन ही विद्रोह कर देती तो इतना नरक नहीं पैदा होता। पर पहले दिन तो वह इस घर में नयी-नवेली दुलहन थी, न जाने कैसे-कैसे ख़्यालों से ऊबचूब होती हुई, न जाने किन-किन संस्कारों से जकड़ी हुई, शील संकोच मर्यादाओं से बँधी हुई और आने वाली रात का धड़कता हुआ-सा इंतज़ार करती हुई। किसी भी तरह के विद्रोह की गुंजाइश ही कहाँ थी . . . 

सगाई की रस्म पर उसने पहली बार देखा था इस पुरुष को। अंदर एक डर-सा महसूस किया था। हल्का साँवला रंग, बड़ी-बड़ी सुर्ख़ आँखें, स्याह घनी चौड़ी मूछें, पूरा चेहरा एक रूआबदार मर्द का चेहरा था। अगर उसे स्वतंत्र चुनाव की आज़ादी होती तो शायद वह इस चेहरे को पसंद नहीं करती। उसके अपने स्वप्नों में जो चेहरा आता था वह रौबीला नहीं, अपनत्व-भरा होता था, सहज ही जिसके क़रीब जा बैठने को मन चाहे। जिसकी आँखेंं सुर्ख़ नहीं, बल्कि गहरी होती थीं, समुंद्र की तरह गहरी, आकाश की ओर उठती हुई, स्वप्न देखती हुई। जिस चेहरे से पति के रूप में उसका साक्षात्कार हुआ था वह मनचाहा चेहरा नहीं था, पर उसे अपदस्थ करने का कोई कारण भी उसके पास नहीं था। प्रत्यक्ष न सही लेकिन जो भी अप्रत्यक्ष अनुभव थे उनमें यह चेहरा असंगत नहीं ठहरता था। शुरू में पैदा हुआ डर आसक्ति में बदल गया था कि यह रौबीला मर्द उसका अपना मर्द है। 

फिर जब कई-कई रीति-रस्मों की सीढ़ियाँ पार करती हुई उसकी सेज तक पहुँची थी तब तक उसके साथ एक आत्मीय रिश्ता तो बन ही चुका था—आजन्म रहनवाला, ईश्वरीय विधान से निर्मित, अटूट दांपत्यिक रिश्ता। पहले पुरुष स्पर्श के साथ उसके शरीर से पुलक फूटनी शुरू हुई थी तो यह सिर्फ़ उसके शरीर की पुलक नहीं थी, उसमें आत्मीय रिश्ते की पुलक भी घुली हुई थी। इसी पुलक को धीरे-धीरे उफनती तरंगों में बदलना था। उसे अपनी संपूर्ण वस्त्र सज्जा से मुक्त होकर प्राकृतिक देह मात्र रह जाना था। इसी देह में उसे पति पुरुष में समाहित करना था और इसी के साथ उसकी आत्मा के साथ एकाकार हो जाना था। 

यह पूरी प्रक्रिया संपन्न उस पुरुष को ही करनी थी जो उसके पास आकर लेट गया था। उसे तो इसे महसूस भर करना था। स्वयं अपनी देह के वस्त्र तक अलग नहीं करने थे उसे . . . पर यह क्या था? जो भाषा उससे बोली जा रही थी उसमें रस गंध की बात तो दूर, शब्द तक नदारद थे। वह अपेक्षा नहीं करती थी कि यह व्यक्ति प्रसाद, पंत के किसी प्रेमगीत से उसे नवाजेगा, पर लगता था वह किसी फ़िल्म का प्रेम गीत ज़रूर गुनगुनाएगा—चौदहवीं का चाँद हो या आफ़ताब हो . . . पर नहीं, उसने कुछ भी नहीं गुनगुनाया था। उसके हाथ हौले से उसकी देह को पाने के लिए नहीं बल्कि उसे निर्वस्त्र करने के लिए उतावले थे। उसकी अपनी सोच में कहीं भी उन हाथों का विरोध शामिल नहीं था। लेकिन जब वे हाथ सचमुच उसे निर्वस्त्र करने लगे थे तो उसके अपने भीतर का समूचा प्रतिरोध उसके अपने हाथ में आ गया था। उसका अपना हाथ उसे निर्वस्त्र करते हाथों से जा टकराया था, लेकिन असरहीन। वहाँ एक पाशविक शक्ति थी, उसकी देह को रौंदने को आतुर। 

उसके मन को नहीं उसकी मांसलता को टटोला जा रहा था। भाषिक नहीं उससे विशुद्ध दैहिक संवाद बनाया जा रहा था। उसके संकोच को नहीं, शरीर को तोड़ा जा रहा था। दोनों के बीच की अपरिचय की परतें नहीं उतारी जा रहीं थीं, सीधे-सीधे उसके वस्त्र उतारे जा रहे थे . . . 

उन पुरुष हाथों की गति जैसे ऐसा करने के किसी विशेष अभ्यास से बँधी हुई थी। एकाएक उसे लगा यह पुरुष हाथ जो कर रहें है, ये पुरुष देह उसके साथ जिस तरह सक्रिय हो रही है, वह पहली बार नहीं है। 

अपनी नीम बेहोशी में उसने अपने पति पुरुष का स्वर सुना “मज़ा आया सुहागरात का?” 

उसे अपनी देह के कई हिस्सों में मरोड़-सी उठती हुई महसूस हुई। उसका जी बुरी तरह मितलाने लगा था। वह जैसे थी वैसी ही उठकर बाथरूम की ओर भागी थी। उल्टियाँ करने के बाद उसकी हिम्मत नहीं हो रही थी कि उस पलंग तक जाये, पर पुरुष हाथ ने पकड़कर उसे फिर खींच लिया था। 

अगली सुबह जेठानी ने मज़ाक़ किया था, “सो पायी या नहीं?” 

और वह सकते ही हालत में जेठानी का मुँह ताक ने लगी थी। 

उसी दोपहर मम्मी ने फोन पर हालचाल पूछे थे कि वह कैसी है, लोग कैसे हैं, उसे कैसा लग रहा है? उसे अपने उत्तर अभी तक याद थे, “ठीक हूँ, सभी लोग अच्छे हैं, अच्छा ही लग रहा है।”

पहले दिन ही विद्रोह कर उठने जैसा कोई ख़्याल तक कहीं पैदा नहीं हुआ था। 

जिस रात विरोध करना था उस रात भी विरोध करने के बावजूद, कहाँ विरोध कर पायी थी वह। पिछले दिनों की तरह उस रात भी अपने साथ एक जबरिया दैहिक पुनरावृत्ति की प्रत्याशा में ही थी। पहली रात जो कुछ हुआ था अगली रातों में भी वैसा ही हुआ था और वह वैसा होने देने के लिए तैयार रहने लगी थी . . . पर उस क्षण संज्ञा शून्य ही हो गयी थी, जब उसे एक बेजान जिन्स की तरह पलट दिया गया था और उसे अहसास हुआ था कि उसके साथ एक अप्राकृतिक अशोभन चेष्टा की जा रही है, उसका समूचा विवेक जड़ होकर रह गया था। उसके प्रतिकार को तोड़ने वाली एक हिंस्र पाशविकता उस पुरुष पर हावी हो रही थी। उसका शरीर और सोच गहरी तकलीफ़ से गुज़रने लगे थे . . . थोड़ी देर बाद ही वह पुरुष विजय दर्प से मुस्कुरा रहा था। पर उसके मन और उसकी आत्मा के कितने ही कोने छिलकर रिसने लगे थे। 

इस छिलन को उसने उस डरावनी रात की सुबह ही पूरी शिद्दत से महसूस किया था, रात की पुनर्स्मृति के साथ। 

उसके बाद टकराव और कशमकश का एक सिलसिला शुरू हुआ था। रात में उसका मन टूटता था और दिन में शरीर। उसके अंदर नफ़रत भरने लगी थी। जिस पाशविक ताक़त से उसके शरीर पर क़ाबू किया जा रहा था उसे वह दाँतों से काट खरोंच देना चाहने लगी थी। अजीब कशमकश थी उसकी। जो शालीन संस्कार उसके अंदर नफ़रत भर रहा था, वही शालीन संस्कार उसकी नफ़रत को आक्रमक नहीं होने दे रहा था। फिर भी एक रात उसने मुखर प्रतिवाद किया था, “मुझे तकलीफ़ होती है . . . घिनौना लगता है यह।”

“नहीं लगेगा, ज़्यादा दिन बुरा नहीं लगेगा . . . फिर मुझे तो अच्छा लगता है, मेरी ख़ुशी के लिए ही सही,” उसका पति बेशर्मी से मुस्कुराता रहा था। 

वह तब दो हिस्सों में बँट गयी थी—एक वह निरीह औरत जो पशु शक्ति के आगे लाचार थी और दूसरी वह औरत जो नफ़रत और ग़ुस्से से फट पड़ना चाहती थी। उस क्षण उसे एक तीसरी औरत भी दिखायी दी थी, कोमल-कमनीय-सी औरत जिसे कोई प्यार और अपनत्व से फुसला ले फिर भले ही उसे सूली चढ़ा दे। कष्ट के अहसास के साथ किसी को कुछ दे पाने का अहसास जुड़ा हो, जिसे दिया जा रहा हो उसके कृतज्ञ होने का भाव वापस आ रहा हो तो कष्ट में भी सुख की बूँदें पायी जा सकती हैं। उसके भीतर की तीसरी औरत सुख की इन बूँदों से भी संतुष्ट हो सकती थी, पर इस औरत को तो जैसे हर छोर से नंगा किया जा रहा था . . . वह प्रतिवाद पर नहीं सीधे विरोध पर उतर आयी थी। 

उसे डर नहीं लगा कि उसकी चीख कमरे के बाहर तक गूँज जायेगी। इस बात की चिंता नहीं थी कि घर के लोग घबराकर कमरे के दरवाज़े पर दस्तक दे डालेंगे। उसने ऊँची आवाज़ में कहा था, “आपको यह नहीं करने दूँगी।” उसका स्वर कमरे के पार पहुँच रहा था। 

तब वह वज़नी पुरुष हाथ उसके मुँह पर कस गया था। उसकी आवाज़ घुट गयी थी, मगर वह उसके विरोध को अपनी पशुता से दबा नहीं सका था . . . फिर भी उस रात वह प्राकृतिक बलात्कार से नहीं बच पायी थी। 

सुबह उसका शरीर बुरी तरह टूट रहा था। 

उसका पति बिस्तर छोड़ कर चला गया था, पर उसका मन बिस्तर से उठने का नहीं हुआ। और दिन इस समय तक सास-ससुर के पैर छूकर वह आशीर्वाद ले लेती थी। जेठानी के साथ घर के काम-काज में हिस्सा बाँट लेती थी। सुबह की चाय भी जेठानी के साथ ही पीती थी। सोचा कि उठकर दैनिक चर्या को पूरा करे पर शरीर और मन में अथाह टूटन भर गयी थी। 

जेठानी ही अंदर चली आयीं, “क्या हुआ, आज उठना नहीं है क्या?” फिर एकदम उसके कानों के पास अपने ओंठ लाकर फुसफुसाई, “देवरजी ने बहुत ज़्यादा मेहनत करा दी क्या!”

उसके भीतर तड़प-सी उठी कि इस देवर के प्रति अपना सारा ग़ुस्सा गाली बनाकर जेठानी के आगे उगल दे। पर फिर उसका शालीन संस्कार उसे पीछे खींचने लगा। 

वह उल्टी करते-करते रुक गयी थी जैसे उसने बदबू के भभूके को बाहर आने से रोक दिया हो। 

जेठानी प्यार से उसके माथे पर हाथ फेर रही थीं, “तेरी तबीयत ठीक नहीं लगती। तेरे लिए चाय यहीं भिजवाती हूँ। तू आज आराम कर।”

इस स्नेह स्पर्श ने उसे एक बार फिर उकसाया कि अपने मन के छिले कोने दिखाकर थोड़ी-सी मरहम पा ले पर कुछ भी कहने का साहस नहीं जुटा सकी। जब जेठानी से ही कुछ नहीं कह सकी थी तो सास से कहती भी क्या! 

यह उसके पीहर लौट जाने का दिन था। बेसब्री से इस दिन का इंतज़ार कर रही थी वह। लिवा ले जाने के लिए बड़े भैया आये थे। उन्होंने पूछा था, “कैसी है तू?” 

“ठीक हूँ।” उसके मुँह से बेतहाशा निकल पड़ा था। उसे स्वयं अपनी आवाज़ पर ही आश्चर्य हुआ था। शायद वह ठीक होने का अभिनय भी कर रही थी। क्यों किया था उसने ऐसा? ख़ुद उसे अपने इस सवाल का जवाब नहीं मिल रहा था। 

क्या इसलिए कि अपनी तकलीफ़ बताकर वह भैया को कष्ट नहीं देना चाहती थी या इसलिए कि भैया ने पूछ लिया, “क्या तकलीफ़ है तुझे, तो क्या बताएगी?” 

इसी दिन उस पति-पुरुष ने पूछा था, “कब आओगी लौटकर?” 

उसने तल्ख़ जवाब दिया था, “कभी नहीं।”

यह जवाब सुनकर वह ढिठाई से मुस्कुराने लगा था। तब उसने मन-ही-मन संकल्प लिया था कि वह सचमुच यहाँ वापस नहीं लौटेगी। अपने घर वालों को इस पुरुष के दुर्व्यवहार के बारे में बता देगी। फिर वे स्वयं ही उसे यहाँ नहीं भेजेंगे। पर पहले ही झटके में उसके संकल्प में दरार आ गयी थी। अपने भाई से इतना तक नहीं कह सकी कि कुछ ही दिनों में उसके मन और शरीर दोनों आहत हो गये हैं। 

 . . . घड़ी की सूई दो-तीन मिनट और आगे खिसक गयी। बहादुर नहीं आया पर ऐसा नहीं हो सकता कि वह नहीं आये। वह लड़का उसके साथ होने के किसी भी मौक़े को हाथ से नहीं जाने देता था फिर आज तो उसने इस लड़के को भरोसा दिलाया है—आज कोई नहीं होगा जो उनके खेल में रुकावट डाले। 

अपने और बहादुर के बारे में क्या किसी से भी कुछ कह सकती है वह? जब पहली बार माँ के पास गयी थी तभी कुछ नहीं बोल पायी थी तो अब क्या कहती। 

भैया उसे लेकर घर पहुँचे थे तो वह दौड़कर माँ से चिपक गयी थी। रोकते-रोकते भी आँखें छलछला आयी थीं। 

“तू ठीक तो है न शुचि।” माँ ने उसे छाती से लगाये-लगाये ही पूछा। 

“ठीक हूँ।” उसके शब्दों के साथ एक पूरा सोच घुमड़ आया था कि ससुराल की यातनाएँ उसकी अपनी हैं। माँ को वह सब बता कर दुखी क्यों करे? 

“दमाद बाबू कैसे हैं? ठीक हैं न?” 

“ठीक हैं।” 

“तुझे प्यार करते हैं, अच्छी तरह रखते हैं न?” 

“अच्छी तरह ही रखते हैं।” 

“तेरे सास-ससुर, जेठ-जेठानी?”

“वे सब तो बहुत भले हैं,” उसने बेलौस कहा था। 

माँ थोड़ा चौंकी थी और उन्होंने अपना सवाल दोहरा दिया था, “दमाद बाबू अच्छे आदमी तो है न?” 

“अच्छे हैं।” उसे लगा था इस पल माँ को आश्वस्त नहीं किया तो उनकी शंकाएँ बहुत बड़ी हो जाएँगी। और वह जो कहने-सुनने का मन ससुराल से बना कर आयी थी, उसके विपरीत जाकर बोली थी, “हाँ, अच्छे आदमी हैं।” कहते समय उसे लगा था कि अगर वह जो कहना चाहती थी वह कह देगी तो स्वयं अपना ही कोई घिनौना पक्ष खोल रही होगी। सास-ननद से तो फिर भी फ़ासला था, अपनी सगी माँ के आगे भी वह ज़ुबान खोलने का साहस नहीं जुटा सकी थी। 

थोड़ा बहुत खुल कर बोल पायी थी तो कॉलेज के दिनों की अपनी मुँहफट दोस्त मधुरिमा से। बहुत-सी बातें जिन्हें सोचने तक में उसे दुविधा होती थी मधुरिमा धड़ल्ले से बोल जाती थी। उसे लगा कि अपने साथ घटे अशोभन-गोपन की राज़दारी मधुरिमा के साथ कर सकती है। 

उसने झेंपते-हिचकते अपने समूचे शालीन संस्कार के विरुद्ध आधे-अधूरे शब्दों और संकेतों से अपने तिक्त अनुभाव को मधुरिमा तक पहुँचाया था तो वह पहले तो उसे आश्चर्य से घूरती रही थी फिर खिलखिलाकर हँसने लगी थी। 

उसकी चाही अपेक्षा के विरुद्ध थी यह हँसी। 

विपरीत आश्चर्य से वह मधुरिमा को घूरे जा रही थी। और जब हँसी थमी तो स्वयं उसे नहीं सूझ रहा था कि अब क्या पूछे? इतना तो लग ही रहा था कि मधुरिमा की हँसी उसे बचकाना और बेवुक़ूफ़ सिद्ध कर रही है। 

मधुरिमा उसके कान के पास मुँह ले जाकर फुसफुसाई थी, “सुन, सारे के सारे मर्द हरामी होते हैं। इनका बस चले तो नाक-कान तक नहीं छोड़ें!”

वह हैरत से मधुरिमा को देख रही थी। उसे अपने दिमाग़ की नसें लकवाग्रस्त होती लग रही थीं। मधुरिमा के मुँह से यह सुनने के लिए वह कहीं से भी तैयार नहीं थी। उसके बाद मधुरिमा ने क्या कहा-सुना था, वह कुछ भी समझ समेट नहीं पायी थी। उसने जैसे आँखें बंद कर रखी हों और सामने परदे पर किसी फ़िल्म के चलने का आभास मात्र हो रहा हो। 

क्या सच कह रही थी मधुरिमा? आदमी औरत के बीच क्या इसी तरह का सम्बन्ध होता है। उसके भीतर फिर घुमड़़ उठने लगी थी। 

जब दोबारा ससुराल लौट कर आयी थी तो उसके अपने वुजूद का एक बहुत ही ख़ूबसूरत-सा लगने वाला हिस्सा छिटककर अलग हो चुका था। उसने अपने पति पुरुष के चेहरे पर विजय और गर्व की मुस्कान देखी थी, जैसे पूछ रहा हो, क्या हुआ न लौटकर आने की क़सम का। और वह पति की उस नुकीली मुस्कुराहट का सामना नहीं कर सकी थी। 

वह एक पराजय बोध के साथ ही नहीं लौटी थी बल्कि एक नयी समझ के साथ भी लौटी थी। अपनी माँ के घर में रहकर उसने न केवल अपने अनेक अनुभवों के दूसरे अर्थ सहेजे थे बल्कि दूसरों के अनुभवों के भी नये अर्थ सहेजे थे। और तब उसे लगा था कि आदमी और औरत के बीच देह का रिश्ता ऊपर से चाहे जितना समरस और जितना सहज दिखे, वस्तुतः वह वैसा नहीं होता। 

वह न जाने कितने औरत-मर्दों को अपनी नयी नज़र से, नये सिरे से देख-परख रही थी। पड़ोस घर की बिमला जिज्जी को उनका दूल्हा विवाह के दो महीने बाद ही घर छोड़ गया था। तब उसने सिर्फ़ इतना सुना था कि दोनों के बीच पटरी नहीं बैठती। पटरी न बैठने की जड़ में अब उसे लगता है कुछ ऐसा-वैसा ही रहा होगा। उसे अपने मौसेरे भाई और भाभी के बीच में भी कुछ ऐसा-वैसा ही नज़र आ रहा था . . . भैया इतने शांत और सरल, भाभी भी वैसी ही मिठबोली और विनम्र। वह अलग-अलग बात करती तो आश्चर्य होता था कि इतने अच्छे औरत-मर्द आपस में कुत्ते-बिल्ली की तरह कैसे लड़ते-झगड़ते हैं। बात-बात पर ताने, बात-बात पर कटाक्ष। तो क्या वे भी किसी न कहने-सुनने जैसी चीज़ से लड़ रहे थे . . . 

उसका अनुभव नये सिरे से पक रहा था। किसी आदमी और औरत के बीच उनका असली रिश्ता क्या है। यह सतह पर नहीं दिखता। ऊपर से सब कुछ ठीक-ठाक दिख रहा हो, तब भी यह मतलब क़तई नहीं होता कि सब कुछ वाक़ई ठीक-ठाक चल रहा है। शायद हर औरत को किसी-न-किसी विकृति के साथ ही जीना होता है। जिससे मन सहज ही स्वीकार न करें और जिसे शरीर अपना सहज भोग न माने, ऐसी किसी-न-किसी दुष्प्रवृत्ति के साथ ही चलता है औरत-आदमी के बीच का देह व्यापार। तो क्या वह अपने भीतर से पैदा हुई जुगुप्सा को नष्ट कर दे? अपने पति के उस व्यवहार को सहज-सामान्य मानकर स्वीकार कर ले? . . . और सचमुच वह उस सब का अभ्यस्त होने का प्रयास करने लगी थी . . . 

 . . . पर बहादुर ने सब तहस-नहस कर दिया। बहादुर को इस घर में नहीं होना चाहिए था। उस तरह नहीं होना चाहिए था जिस तरह वह है। पर चाहने मात्र से ही चीज़ें मनमाफ़िक नहीं बदलतीं। बहादुर था और इस तरह था कि वह बेचैनी से उसका इंतज़ार कर रही थी। 

वैसे उसे अटपटा तो तभी लगा था जब उसने एक दोपहर बाहर से लौटकर बहादुर को अपने बिस्तर पर सोते हुए पाया था। न तो वह कभी अमानवीय रही और न कभी उसे बड़प्पन के अहंकार ने घेरा। उसे यह बुरा नहीं लगा था कि एक नौकर अपनी मालकिन के बिस्तर पर सो गया है। आश्चर्य ज़रूर हुआ था कि एक नौकर इस तरह का साहस आख़िर कैसे कर सका है? फिर यह सोच कर कि शायद नींद के वशीभूत वह अनजाने सो गया होगा, उसने उसे धीरे से जगा दिया था, “बहादुर, बहादुर!”

बहादुर हड़बड़ा कर उठ बैठा था। उसने जल्दी-जल्दी बिस्तर पर नज़र डाली थी और फिर उठ खड़ा हुआ था। 

बहादुर का यह व्यवहार उसे सामान्य नहीं लगा था। पर इसका कोई अर्थ भी क्या लगाती वह? अर्थ खुला था तो वह भूकंप के झटकों से घिर गयी थी। यह भूकंप उसके नये-पुराने अनुभवों को तहस-नहस कर गया था . . . उस दिन वह अपनी जेठानी के साथ बाज़ार के लिए निकली थी तो शाम तक लौटने का कार्यक्रम बनाकर निकली थी। रास्ते में ही जी मिचलाने लगा था और वह लौट ली थी। वह अपने पलंग पर आराम करना चाहती थी। कमरा अंदर से बंद था। मन आशंकित हो उठा। कहीं कुछ ग़लत होने का अहसास इतना उग्र था कि वह पूरा बरामदा घूमकर कमरे की बाहर की ओर खुलनेवाली खिड़की तक जा पहुँची थी। जो उसकी आँखें देख रही थीं वह अकल्पनीय था। उसके दिमाग़ की सारी नसें चटचटा गयीं थी। वापस लौट कर उसने कमरे का दरवाज़ा भड़भड़ा डाला था। थोड़ी देर बाद दरवाज़ा खुला तो पति के चेहरे पर हैरानी ज़रूर थी लेकिन शर्मिंदगी क़तई नहीं। बहादुर के चेहरे पर हवाइयाँ उड़ रही थीं। उसने हड़बड़ी में उल्टी निकर पहन ली थी। और वह बहादुर से ही बोली थी, “निकर तो सीधी पहन ले!”

वह घबराकर दोबारा निकर खोलने लगा था कि उसके पति ने टोक दिया था, “जा बाहर तू।” फिर उससे बोला था, “फ़ालतू तमाशा मत बनाना। न कुछ सोचना, न किसी से कुछ कहना।”

वह ग़ुस्से से तिलमिला उठी थी। पर शब्द जैसे उसका साथ छोड़ गये थे। यह हद थी। उसे लगा था, जितना वह सह रही थी, वही बहुत ज़्यादा था। इस नये उजागर कुकृत्य को पचाना उसे आसान नहीं लग रहा था। उसके दिमाग़ की आग उग्र से उग्र होती जा रही थी और उस पुरुष पर जैसे उसकी इस मारक यातना का कोई असर तक नहीं हो रहा था। और इसे वह किसी भी तरह सहजता से नहीं ले पा रही थी। 

“आपको शर्म नहीं आती अपने इस काम पर!” 

“तुम औरत हो औरत की तरह रहो।” 

“मैं भी यही चाहती हूँ कि आप भी आदमी की तरह रहें।” 

“मैं आदमी की तरह ही रह रहा हूँ।” 

“कोई तुम्हारे इन कर्मों के बारे में जानेगा तो क्या सोचेगा?” 

“कौन जानेगा . . . मुझे मालूम है तुम किसी को नहीं बताओगी . . . बताओगी क्या?” 

वह इस आदमी की ढिठाई पर एक बार फिर हैरत में पड़ गयी थी। वह सचमुच किसी को नहीं बता पायी थी। जेठानी ने उसके चेहरे की रेखाएँ पढ़कर पूछा भी था कि कहीं कोई गड़बड़ तो नहीं, किन्तु वह कोई उत्तर नहीं दे सकी थी। इस पर जेठानी ने ख़ुद ही कहा था, “देवरजी की आदतें थोड़ी बिगड़ी हुई हैं, तुझे सँभालनी पड़ेंगी और न सँभले तो तेरा क्या . . . अपने काम से काम रख।”

जेठानी उसे गुरुमंत्र देकर मुक्त हो गयी थीं, पर वह अपने अंदर की चिंगारियाँ को दबा नहीं पा रही थी . . . 

उधर उस पति पुरुष ने शेष मर्यादा को भी धो-पोंछ डाला था . . . उसी का पलंग, उसी की आँखें और वह लड़का . . . चुपचाप देखते रहने की उसकी कातर विवशता। 

इस विवशता के भीतर वह ख़ुद को बदलता हुआ देखने लगी थी। बीच में पति पुरुष के इस समूचे व्यक्तित्व को देखने-परखने का जो तटस्थ भाव पैदा हो गया था, वह तेज़ी से चटक रहा था। वह जैसे इस समूची वीभत्सता के साथ ख़ुद को भी भस्म कर डालना चाहती थी। और तब उसने वह कर डाला था, जिसकी अपेक्षा वह ख़ुद से नहीं करती थी . . . 

उसका पति उस लड़के को उसी के बिस्तर पर छोड़कर चला गया था। उसने करवट बदल कर अपने हाथ उस लड़के की देह पर वैसे ही फैला दिये थे जैसा कि उसका पति फैलाता था। तब उसे लगा था कि वह लड़का सिर्फ़ बच्चा नहीं था। उसकी मसें भीग रही थीं . . . और उसने लड़के को एक बार फिर नंगा कर दिया था। 

उन तीनों के बीच एक गोपन खेल शुरू हो गया था। इस खेल में सबसे ख़तरनाक मोड़ ख़ुद उस ने पैदा किया था। वह खेल अब उसे ही पराजित किये जा रहा था। वह अपमान का अहसास कराना चाहती थी, पति-पुरुष को, और अपमानित ख़ुद महसूस कर रही थी। जिस तरह से बाहर का कोई व्यक्ति उसके पति के कर्म को नहीं जानता था, उसी तरह बाहर का कोई व्यक्ति उसके कर्म को भी नहीं जानता था। परोक्ष रूप से जिस पति से बदला ले रही थी। वह भी नहीं . . . और इधर पहाड़ी लड़के को लेकर अंदर जो अपराध भाव दिनोदिन तल्ख़ हो रहा था, वह उससे मुक्ति के लिए छटपटा रही थी। उसे लगता था, लड़के की जिस आर्थिक मजबूरी का फ़ायदा उसका पति उठा रहा था, उसी का फ़ायदा वह भी उठा रही है। यही ग्रंथि ऑक्टोपस की तरह उसके दिल-दिमाग़ पर झपट रही थी। वह इस ग्रंथि से मुक्त होना चाहती थी और अपने भीतर की सारी ग़लीज़ कड़वाहट अपने पति पुरुष की झोली में भर देना चाहती थी। वह बदला लेना चाहती थी . . . अपने भीतर की आग को बाहर उलीचना चाहती थी। 

जेठानी ने टोका था, “शुचि तेरी तबीयत ठीक नहीं है क्या? कई दिन से तू बीमार नज़र आ रही है।”

“नहीं तो, ठीक हूँ” उसने उत्तर दिया था। पर वह सचमुच बीमार महसूस कर रही थी। उसके दिमाग़ में एक भयावह बीमारी के विज्ञापन कौंधने लगे थे। ऐसे ही दैहिक रिश्तों से होती है यह लाइलाज बीमारी। भले ही उस बीमारी की चपेट में उसका शरीर नहीं आया था पर दिल-दिमाग़ आ गये थे . . . उसे लगता था किसी भी दिन यह बीमारी दिमाग़ से उतर कर उसके शरीर को भी चपेट में ले लेगी . . . वह तिल-तिल कर नहीं मरना चाहती थी। वह स्वस्थ होना चाहती थी। 

 . . . बहादुर आ गया था। 

बहादुर घर में भी रहता था। उसके पति के साथ दफ़्तर भी जाता था। पति के साथ कभी घर लौटता था, कभी सीधे अपने कमरे पर चला जाता था। कभी-कभी फ़ैक्ट्री भी जाता था। जब फ़ैक्ट्री जाता था, तो वहीं से अपने कमरे पर चला जाता था। 

आज सुबह जब उसके पति ने बहादुर को फ़ैक्ट्री जाने के लिए कहा था तो उसने चुपके से बहादुर के कान में फूँक दिया था, “फ़ैक्ट्री से सीधे घर आना। सात बजे। बाबूजी आज बाहर जायेंगे।”

वह जानती थी कि उसका पति पुरुष आठ बजे घर लौटेगा। 

ठीक वैसा ही हुआ जैसा उसने सोचा था। 

मालिक के बाहर होने की जानकारी के कारण बहादुर पूरी तरह भय मुक्त था . . . और जब उसके कमरे का दरवाज़ा खुला तब उसके साथ पूरी तरह निर्वस्त्र। 

बहादुर का चेहरा सफ़ेद पड़ गया था, लेकिन वह और उसका पति-पुरुष आमने-सामने थे . . . उसका ग़ुस्सा उसके समूचे शरीर से फूट रहा था, “तू हरामज़ादी कुलटा, रंडी . . .!”

“और तुम क्या हो?” वह इस तरह शांत खड़ी थी जैसे कुछ हुआ ही न हो। 

“हरामज़ादे . . . ” वह बहादुर की ओर लपका। वह बीच में आ गयी, “धीमे बोलो, बाहर बहुत से लोग हैं, यहाँ चले आये तो क्या कहोगे!”

“तू हरामज़ादी! तू कुत्तिया!” 

“तुम्हारी मादा जो हूँ, यही हो सकती हूँ।”

“तेरा गला घोट दूँगा मैं। जानती है तू!”

“जानती हूँ। गला घोंटने की ताक़त तुम्हारे हाथों में है, मैं अच्छी तरह जानती हूँ। पर अपनी माँ को, अपने भाई-भाभी को क्या जवाब दोगे कि किसलिए मेरा गला घोंटा है।”

वह साँप की तरह फुफकारा, “हरामज़ादी!”

“यह शब्द तुम कई बार बोल चुके हो, “उसने अपनी आँखें सीधे उस पशु पुरुष की आँखों में डाल दीं, फिर ठंडी-ठहरी आवाज़ में बोली, “वैसे तुम्हारे इस ग़ुस्से की वजह मेरी समझ में नहीं आती। तुम इस लड़के का इस्तेमाल कर सकते हो तो मैं क्यों नहीं कर सकती . . . जब तुम्हें यह सब करते शर्म नहीं आती तो मुझे क्यों आएगी . . . हाँ तुम्हारे लिए एक मौक़ा है। तुम अच्छी तरह सोच लो तुम्हें क्या चाहिए, यह लड़का या मैं? लड़का चाहिए तो मैं यहाँ से चली जाऊँगी। सबको बता कर जाऊँगी कि क्यों जा रही हूँ . . .”

“बताकर जाएगी, क्या बता कर जाएगी?” 

वह आदमी अब बड़ी-बड़ी आँखों से उसे घूर रहा था। 

“जो तुमने किया है वह भी, जो मैंने किया है वह भी।” उसे लग रहा था, वह नहीं, उसके भीतर बैठी कोई प्रेतनी बोल रही है, “अगर मेरी ज़रूरत हो तो इस लड़के को छोड़ दो . . . पर याद रखना इस लड़के की तरह इस्तेमाल नहीं होऊँगी मैं . . . मेरे शरीर के छेद बेजान नहीं है कि तुम जैसे चाहो बींध लो। समझे, क्या कह रही हूँ मैं?” 

अब वह सचमुच मुक्त महसूस कर रही थी जैसे अपने भीतर की सारी आग उसने अपने पति के भीतर उतार दी हो। उसे लग रहा था कि उसने एक भयावह बीमारी को दरवाज़े पर ही रोक दिया है। उसके पति के चेहरे पर वैसी ही रेखाएँ उभर रही थीं जैसे भीतर किसी तीखी मरोड़ के उठने से उभर आती हैं। उसका मन हुआ कि ज़ोर-ज़ोर से हँसे, पर हँसी नहीं। उसने सचमुच उस पुरुष को एक मौक़ा दिया था . . . वैसे वह इस घर से विदा लेने का मन भी बना चुकी थी, और अपनी माँ से साफ़-साफ़ बात करने का भी। 

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टिप्पणियाँ

डॉ.शैलजा सक्सेना 2023/10/06 01:05 AM

भय की तहों में छिपी निर्भीक कहानी, हदों से निकल कर बेहद होती कहानी....! पत्नी ने जो किया वह उसका निजी निर्णय था पर उस तक पहुँचने की यात्रा को द्वंद्व और संवेदना के साथ आपने लिखा! स्त्री-पुरुष संबंधों के बीच पुरुष का गर्व और उसे तोड़ने वाली स्त्री की स्थिति का मनोवैज्ञानिक वर्णन ! बहुत बधाई!

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