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कुंकुभ छंद पुष्पा मेहरा–001

 

नियम (16-14 सम चरण में तुकांतता–दो दीर्घ) 
 
1. 
उड़ते पाखी नील गगन में, छू कर आते नभ सारा। 
ये समझते प्यार की भाषा, इसी बात पर मन हारा॥
रच घरौंदा धरा पर मानव, छल-बल की हाट लगाता। 
ज्ञान नीति के चौबारे पर, हिंसा फ़रेब सिखलाता॥
2. 
जीत सदा कोशिश से मिलती, हिम्मत ही काम कराती। 
कुआँ खोद कर ही जल मिलता, कर्म शक्ति प्यास बुझाती। 
सूरज तपता धरती जलती, तभी सुखद बारिश आती। 
हरा घाघरा पादप पहने, कली कली है हरसाती॥
3. 
उमड़े बादल बूँदें बरसीं, माँ वसुंधरा हरसाई। 
काल नटी को रास न आई, रण चंडी बन कर धाई॥
गाँव खेत पशु बहे जा रहे, स्वरूप विकराल धरे है। 
हरहर करती बाँध लाँघतीं, लो विप्लव नाद करे है॥
4. 
कितनी आँधी कितनी बारिश, आ-आ कर मन दहलाती। 
बढ़ते पथ पर काँटे मिलते, पर आशा पग सहलाती॥
हर सुबह लौट कर सूरज भी, जग में लाली बिखराता। 
प्रेम धर्म की ज्योति जले तो, निमिष अँधेरा भग जाता॥

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