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मैं एक नदी पीड़ा-भरी

 

अनंत आकाश में डूबी एक हलचल
थिरती ही नहीं 
बादलों का फटना जारी है 
तूफ़ानों ने भी रुख़ 
धरा की ओर मोड़ा है 
नदियों ने समन्दर बनने की 
ठान ली है 
पर कब तक 
बादल फटना बंद करेंगे 
उनका क्रोध भी 
शांत हो जाएगा 
फिर नदियों का मौन 
प्रलाप शुरू हो जाएगा 
क्योंकि—
प्रलय के बाद की स्थिति 
को तो हमारे साथ
नदी को भी भुगतना ही है 
अब तो पत्तों से 
बहती हवाओं का संगीत 
रुकने लगा है 
गूँजने लगे हैं शब्द 
करुण–कातर नदी के 
‘दलदल में फँसी हूँ 
कचरे का बोझा ढो रही हूँ 
रेत की नम गहराइयों में 
ख़ून जमने लगा है 
प्राण तिलमिला रहे हैं 
चाँद–तारों से 
आँख मिचौली खेलती 
निरंतर गतिवान 
बनने को आकुल मैं नदी 
हाँ सिर्फ़ नदी भूल गई हूँ 
निर्मल धारा की गतिशील थिरकन 
भूल गई हूँ सूरज की दी गई 
केसरिया ओढ़नी 
तरस रही हूँ, फिर से
देखना चाहती हूँ 
चाँद–तारों का लहरों संग गुम्फन 
लहर–लहर—
चंचल हवाओं की अठखेलियाँ 
किन्तु अफ़सोस मेरी आवाज़
शून्य में खोती जा रही है 
स्पंदन विहीन 
स्थूल बनी मैं मौन
पीड़ाओं का बोझ उठा रही हूँ 
मेरा आँचल सूख रहा है 
कैसे दे सकूँगी तुम्हें 
निर्मल स्वच्छ जल 
कैसे तृप्त कर सकूँगी 
तुम्हारे शुष्क अधर 
कैसे सींच सकूँगी 
तुम्हारा कण-कण 
कैसे सुख देख सकूँगी 
उस हरित क्रान्ति का
खेतों खलिहानों, 
भरे कोठे–कुठलों का 
धरा के अखंड सौभाग्य का, 
मौन ही मेरा द्वंद्व है 
मौन हाँ मौन ही मेरी व्यथा है 
सोचती हुई साँसें ले रही हूँ कि
एक दिन—
मौन की भी तो कोई सुनेगा 
शायद मौन की भी तो कोई 
कोई भाषा होती ही होगी . . .’

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