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धन लक्ष्मी

ना पीने का पानी काफ़ी था 
ना ही रोशनी का समंदर था 
पर दिलों में प्यार और
मोहब्बत का बसेरा था 
थाह शक्तियों के चिराग़
हर घर में जल रहे थे 
कच्चे-अधपक्के 
घरों की महफ़िलों में 
मधुर गीतों के ग़लीचे बिछे थे। 
 
हर दिल सब के दिलों के
संग धड़कता था 
सुख-दुःख में सभी
एक दूसरे के साथी थे
आज सूने हुए गाँव क्यों 
कहाँ जा बसे 
मेहमान क्यों हो गए 
घरवाले अपने ही घरों में! 
 
बसंत आया और 
चला गया 
फाल्गुनी हवाएँ बहने लगीं 
भाँति-भाँति के
रंग भरे फूल डाल–डाल
ख़ुश हो झूमने लगे 
बीबी और बच्चे 
आँखों में 
आशा का जल लिए 
मन में विश्वास का रंग घोल 
घर की चौखट पर बैठे 
सूनी राह देखते रहे . . . 
 
पर देखो तो 
ये रंग ही तो हैं 
हवा में फैल जाते हैं 
फूल विवर्ण हो झड़ जाते हैं 
आशा की लौ 
बहती हवाओं के झोंकों से 
बुझ ही जाती है 
कुछ पाने की चाह में 
रंगीन सपनों की आँधी 
तिनके सामान 
जन-जन को दूर उड़ा ले जाती है 
और तभी देखते–देखते 
मायावी इंद्रधनुष की चाह में 
अपना घर-बार छोड़ 
प्रिय आत्मजन की याद लिए 
उड़े चले जाते हैं
चमकते-दमकते महानगरों में 
धनलक्ष्मी की बौछार लूटने 
एक-दूसरे से कटते-कटाते 
सुखदायक अलौकिक भभूति लेने 
भभूति जिसमें विश्वास है, 
सम्मोहन है, 
जीवनोत्थान का लक्ष्य है 
जिसके आगे 
उन्हें निश्चित वेतनमान की भी 
परवाह नहीं। 
पूरा ना सही, आधा-चौथाई ही सही 
पेट की आग तो बुझानी है उन्हें 
सुख-सुविधा भी जुटानी है 
अपने नौनिहालों का 
जीवन स्तर भी उठाना है। 
वह तो उद्देश्य की किरण ले 
रौशनी के खम्भे गाड़ता
पानी के कुँए खोदता 
ऊँचे-ऊँचे भवन और 
सड़कें बनाता है। 
 
उसके कर्मठ हाथों में 
कुदाल है फावड़ा है 
सर पर बोझ भरा झाबा है 
और आँखों में हैं 
सपनों के जगमगाते द्वीप 
जिसमें फैलीं हैं 
अनंत प्रकाश वर्तिकाएँ 
और उसके आवृत में बिखरी है 
वह चमत्कारिक भभूति 
जिसे पाकर उसे 
अपने सपनों को साकार करने की 
तमन्ना है। 

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टिप्पणियाँ

pushpa mehra 2022/05/16 10:28 AM

सम्माननीय मेरी कविता को अपनी पत्रिका में स्थान देने के लिये आपका हार्दिक आभार पुष्पा मेहरा

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