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परिवर्तन


बदल जाता है रूप 
बदल जाता है रंग 
बदल जाते हैं शौक़
बदल जाती हैं आदतें 
बदल जाती है नियति
बदल जाती है नीयत 
बदल जाता है भाग्य 
पर बदलता नहीं रंग 
रक्त का, जो होता है लाल 
बदलता नहीं
आत्मा का स्वरूप—
उसका दिव्य ज्योति रूप 
बदलती ना कभी गूँज 
अनहद नाद की, 
शून्य तो शून्य में 
जा मिलेगा 
माटी को माटी में 
समाना ही होगा 
परिवर्तन 
गति क्रम 
समझाता है, परिवर्तन 
हर युग में प्रति पल 
होता है 
फिर ऐ मन! 
यह कैसा हाहाकार है 
यह कैसा स्वत्व–राग है 
जो बाँध रहा है
तुम्हें–हमें 
अहं-मोह जाल में 
जो डोल रहे सब
इधर–उधर 
रक्त–पिपासु बने 
उजाड़ रहे धरती को 
छीन रहे ममता की 
कोख को!! 
लगता है 
ख़त्म हो गई है 
क़लम की ताक़त 
सो गई है आवाज़ 
अन्तश्चेतना की, 
देखो तो–गुनो तो 
पूरब से सूरज निकलता 
सारे जग को
रोशन करता है 
जाते–जाते 
पश्चिम दिशा को 
अनुराग रंग दे 
साँझ की झोली में 
ख़ुशियाँ भर जाता है!! 
अस्त को अस्ति बता
आता और जाता है। 
परिवर्तन को 
आवर्तन बता
बिदाई लेता 
लौट-लौट आता है 
यह प्रकृति का 
प्रेम बंधन, उसका 
आपसी रिश्तों से जुड़ाव
जन–जन का 
प्रेरणा-श्रोत बना 
हर मन मुग्ध करता है, 
तो क्यों न हम
मूक प्रकृति की प्रकृति को 
अपने जीवन में ढाल लें 
एक दूसरे के पूरक—
सहायक बन
धरती को स्वर्ग बनाएँ 
आरोपों–प्रत्यारोपों से परे
दूसरों की ग़लतियों से सीख लें 
अपनी ग़लतियाँ सुधार लें।

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