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लहू वही है जो वतन के काम आए

वैश्विक स्तर की कोरोना महामारी से जूझ रहे समूचे विश्व के लोगों के समक्ष अपनी और अपनों की जान बचाना सबसे बड़ी चुनौती थी। आये दिन दुर्दांत ख़बरें सुन मानो कलेजा फटा जा रहा था। हर तरफ़ से केवल बुरी ख़बरें कानों को झकझोर रही थीं। ऐसे समय पर इंसान के चेहरे पर मौत को लेकर जो भय व्याप्त था वह सुस्पष्ट देखा जा रहा था। सड़कों पर पसरे सन्नाटे के बीच सायरन बजाती हुई निकलने वाली एंबुलेंस वाहन की आवाज़ सुन कलेजा धक्‌-सा हो उठता था कि कहीं वह एंबुलेंस वाहन हमारे ही किसी आस-पास के व्यक्ति से संबंधित कोई बुरी ख़बर लेकर नहीं आ रही हो! संकट कालीन इस बुरे दौर में कोई यदि दूसरों की सहायता करते नज़र आये तो वह साक्षात्‌ ईश्वर लगने लगता था। हम और आप सबने बचपन से लेकर आज तक बड़े  बुज़ुर्गों से यही सुना कि मारने वाले से बचाने वाला सदैव बड़ा होता है। स्कूलों में पाठ्य पुस्तकों में सूक्ति पढ़ाई गई थी "परहित धरम् सरिस नहि भाई, पर पीड़ा सम नहि अधमाई" आज के इस दौर में भी ऐसे लोग होंगे जो दूसरों की जान बचाने के लिए ख़ुद के जान की परवाह तक नहीं करते होंगे; सुनने में थोड़ा असंभव ज़रूर लगता है। लेकिन यह भी शाश्वत सत्य है कि हाँ, ऐसे भी लोग हैं। जो कोरोना काल के इस संकट के घड़ी में देश, समाज, मानवता के काम आए। हर ओर चीख़-पुकार का शोर, श्मशान घाट लाशों से पटे, अस्पतालों में बिस्तर, ऑक्सीजन आदि की भयानक कमी, रोते-चीख़ते प्रवासी मज़दूर, भूखे प्यासे लोगों की मदद के लिए कुछ लोग आगे बढ़कर आये। 

उनमें से एक नाम मेरे ज़िले रीवा के और मेरे पड़ोस गाँव महमूदपुर के रिया और लवलेश रजक का आता है। जिसमें रिया बैंगलूर के प्रतिष्ठित परिवार की बेटी थीं वहीं लवलेश रजक रीवा के महमूदपुर गाँव के एक सामान्य कृषक परिवार के थे। प्रेम विवाह के बाद से ही इस युगल ने अपनी कर्मभूमि दिल्ली को चुना और वहीं एक मल्टीनेशल कम्पनी में साथ काम करते हुए अपनी ख़ुद की ट्रांसपोर्ट कंपनी "रोस लवलेश लॉजिस्टि्क्स" की स्थापना की। सफलता के पंख लगे और युगल रिया लवलेश ने ट्रांसपोर्ट कंपनी की सहायता से रोस लवलेश लॉजिटिक्स, रोस लवलेश फ़िल्मस, रोस लवलेश फ़ैशन के साथ ही हाल ही में रोस लवलेश कंट्रक्शन नाम की कंपनी की स्थापना की। जो औरों की मदद करता है विधाता उसकी सदैव मदद करता है; यही वाक़या इस युगल के साथ भी हुआ। कोरोना कॉल के दौरान रिया लवलेश ने अपने ट्रांसपोर्ट वाहनों की मदद से लोगों को दिल्ली से बंगाल, तमिलनाडु, कर्नाटक और जहाँ जिन राज्यों में लोगों को मदद की ज़रूरत पड़ी वहाँ तक हर यथा संभव मदद पहुँचाने का पुनीत कार्य इस युगल ने किया। लोगों को भोजन के पैकेट, ठहरने की व्यवस्था, घर वापसी की व्यवस्था, ऑक्सीजन सिलेंडर, चिकित्सा सहायता, आर्थिक मदद करके मिसाल क़ायम कर दी। लोगों की मदद करते हुए ख़ुद कई बार जान पर जोखिम उठा लिया; बिमार पड़े। यह सेवाकार्य ने देखते ही देखते बड़ा रूप ले लिया और इनकी कंपनी के कर्मचारी तक इस काम में अपनी पूरी सहभागिता निभाने लगे। 

मैं लाल गाँव में जिस जगह रहता हूँ, के आसपास के क्षेत्र के सैकड़ों श्रमिक वापस घर आने पर ’रिया लवलेश महमूदपुर वालों’ का ज़िक्र करते हुए बताया करते जिनकी मदद से ही हम अपने गाँव तक पहुँच पाये हैं। तब मैंने इस युगल की खोजबीन शुरू की, जो आदमीयत को ज़िंदा रखने में अपना महत्वपूर्ण योगदान दे रहे थे। वह पूरे मनोयोग से, बिना किसी छल कपट, बिना किसी दिखावे के, बिना किसी प्रचार-प्रसार, बिना किसी निज लाभ के निःस्वार्थ भाव से मानवता की सेवा में जुटे थे। इस युगल को मैं बहुत-बहुत साधुवाद देता हूँ।  मैंने जब पहली बार लवलेश रजक से फोन पर बात की और बताया कि मेरे पड़ोस गाँव के श्रमिक मज़दूर आपकी सहायता से अपने घर सकुशल पहुँचे हैं और आपके लिए ख़ूब सारी दुआएँ कर रहे हैं। लवलेश रजक जी ने एक ही बात कही कि "जिस देश ने इतना कुछ दिया, यदि संकट के समय में उस देश और समाज और दम तोड़ती मानवता के काम न आ सकूँ तो फिर जीवन व्यर्थ है। लहू वही है जो वतन और लोगों के काम आ सके।"

फोन पर बात करने के बाद मेरे ज़ेहन में यह विचार आया कि ऐसे लोग ही समाज और मानव जाति के लिए प्रेरणा पुंज बनते हैं।

रिया लवलेश जैसे सोच वाले लोगों की ही देश को समाज को ज़रूरत है। तब कहीं किसी रचनाकार की चार पंक्ति याद आ गईं–

नये कमरे में चीज़ें पुरानी कौन रखता है। 
परिंदों के लिये पिंजड़े में पानी कौन रखता है।
कुछ लोग हैं जो थाम रखे हैं गिरती दीवारों को,
वरना इतने सलीक़े से बुज़ुर्गों की निशानी कौन रखता है॥

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