ज़िंदगी
हास्य-व्यंग्य | हास्य-व्यंग्य कविता आशीष तिवारी निर्मल1 Oct 2022 (अंक: 214, प्रथम, 2022 में प्रकाशित)
आपाधापी, भागादौड़ी, रेलमपेल हो गयी
ज़िंदगी मैट्रो शहर की कोई रेल हो गई।
दो पाटों के बीच में पिस रहा हर कोई ऐसे
ज़िंदगी डालडा कभी सरसों का तेल हो गई।
बाबाजी के प्रवचन सुनके घर को लौटा हूँ मैं
ख़बर चल रही है टीवी में, उनको जेल हो गई।
हुस्न के कारागृह में चक्की चला रहे कितने ही
मुझ निरापराधी की चंद दिनों में बेल हो गई।
टिकते कहाँ है मोबाइल युग के रिश्ते ऐ ‘निर्मल’
क़्स्में, वादे और मोहब्बत जैसे कोई सेल हो गई।
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