अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

महत्वाकांक्षा का बोझ

“ललित कल रंजन भैया की शादी में आना,” अरुणिमा ने अपने पड़ोसी के सोलह वर्षीय लड़के से कहा। 

“आंटी मैं शादी में कैसे आ सकता हूँ मुझे तो पढ़ना है न?” ललित ने अत्यंत संजीदगी से कहा। 

“ठीक है बेटा।” 

उसके जाने के बाद अरुणिमा बहुत दुखी मन से मुझे बताने लगी, “ललित बहुत ही मेधावी छात्र एवं माँ-बाप का इकलौता लड़का है। कक्षा में हमेशा अव्वल रहता था लेकिन दसवीं की परीक्षा में कुल छियासी प्रतिशत अंक ही आये। वह माता-पिता की महत्वाकांक्षा में खरा न उतर सका इसिलए उन्होंने उसे बहुत ही बुरी तरह डाँटा। लड़का रो-रो कर बिना कुछ खाए सो गया। उसी रात उसे बहुत तेज़ बुखार चढ़ा और वह कँपकँपाते हुए बेहोशी की हालत में बड़बड़ाने लगा, ’मेरे अच्छे नंबर नहीं आये इसिलए मुझसे मम्मी-पापा नाराज़ हैं। मुझे पढ़ाई करनी चाहिए।’ उसकी दादी ने जब यह सुना तो उसके पापा-मम्मी को बताया। छूकर देखा तो उसे बहुत तेज़ बुखार था। तुरंत अस्पताल में एडमिट करवा दिया गया। बच्चा बच तो गया लेकिन मानसिक संतुलन गड़बड़ा गया। डॉक्टर ने बताया इसे किसी बात का गहरा सदमा लगा है। अब वह किसी से बात नहीं करता और हमेशा गुमसुम रहता है। अगर कोई उससे बात करे तो वह यही जवाब देता है ’मुझे तो पढ़ना है न’।” 

उसकी दादी ने बताया कि घर में भी वह बहुत सहमा-सहमा रहता है और कुछ पूछो तो बस यही बोलता है। 

मेरे मुँह से इतना ही निकला, “माँ-बाप को अपनी महत्वाकांक्षा का बोझ बच्चों पर इतना नहीं डालना चाहिए कि उसका मानसिक संतुलन ही बिगड़ जाए।”

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

105 नम्बर
|

‘105’! इस कॉलोनी में सब्ज़ी बेचते…

अँगूठे की छाप
|

सुबह छोटी बहन का फ़ोन आया। परेशान थी। घण्टा-भर…

अँधेरा
|

डॉक्टर की पर्ची दुकानदार को थमा कर भी चच्ची…

अंजुम जी
|

अवसाद कब किसे, क्यों, किस वज़ह से अपना शिकार…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

लघुकथा

कहानी

गीत-नवगीत

कविता

कविता - क्षणिका

कविता - हाइकु

कविता-ताँका

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं