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मानसिक शान्ति

“प्रणीता तुमने ऐसे आदमी से शादी क्यों कर ली जब तुम्हें शादी से कुछ घंटे पहले ही यह पता चल चुका था कि उसे ‘स्नायु कंपन’ (parkinson’s desease) की लाइलाज बीमारी है?” मैंने अपनी सहकर्मी से पूछा। 

“कुछ विवशताएँ थीं जिसके कारण मैंने यह शादी कर ली,” प्रणीता ने कहा। 

“ऐसी भी क्या विवशता थी कि तुमने जानबूझ कर पूरी ज़िन्दगी भर का दर्द स्वीकार कर लिया,” मैंने पूछा। 

“मैं नर्क से मुक्ति पाना चाहती थी,” प्रणीता ने कहा। 

“कैसा नर्क? तुम तो अपने भैया-भाभी और माँ के साथ रहती थीं और नौकरी भी तो करके अपनी आमदनी घर को देती थीं। सच-सच बताओ ऐसा क्या ग़म था जिसने तुम्हें इतना कठिन निर्णय लेने के मजबूर कर दिया,” मैंने पूछा। 

“पिता जी के गुज़रने के बाद मैं और मेरी माँ भाभी को बोझ लगने लगे थे। वह हर रोज़ कलह करती और हम दोनों को अपशब्द बोल-बोल कर बहुत ही अपमानित करती। दहेज़ देने की सामर्थ्य मेरे भाई में नहीं थी इसलिए मेरी शादी नहीं हो पा रही थी और शादी की उम्र भी निकली जा रही थी। मैं रोज़-रोज़ की कलह से बहुत तंग आ गई थी इसलिए मैंने मानसिक और शारीरिक रूप से अस्वस्थ व्यक्ति से विवाह कर लिया। कम से कम मुझे उस नर्क से तो मुक्ति मिल गई। अब जीवन में शान्ति है क्योंकि पति शारीरिक रूप से असमर्थ अवश्य है लेकिन दिल से अच्छा इंसान है। अब मैं अपने जीवन और अपने घर की स्वयं मालकिन हूँ। ’मानसिक शान्ति’ की उपलब्धि कुछ कम तो नहीं होती?” 

“धन्य हो प्रणीता! कुँवारी पत्नी रहकर भी तुमने जीवन को सोचने-समझने की एक नई दृष्टि प्रदान की,” मैंने कहा। 

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