25 जुलाई 2023 को रविन्द्र भवन भोपाल में मध्य प्रदेश साहित्य अकादमी का गजानन माधव मुक्तिबोध पुरस्कार प्राप्त करते हुए डॉ. दिनेश पाठक शशि बाँए से प्रमुख सचिव संस्कृति मंत्रालय श्री शेखर शुक्ला, संस्कृति एवं पर्यटन मंत्री सुश्री उषा ठाकुर, डॉ. दिनेश पाठक ’शशि’, मध्य प्रदेश साहित्य अकादमी के निदेशक डॉ. विकास दवे जी
उ.प्र. के मुख्यमंत्री निवास पर दि. 22.01.18 को डॉ. दिनेश पाठक शशि को श्रीधरपाठक नामित पुरस्कार प्रदान करते उ.प्र. के मुख्यमंत्री माननीय योगी आदित्यनाथ जी, एवं उ.प्र. विधान सभा अध्यक्ष हृदयनारायण दीक्षित जी।
मथुरा के वरिष्ठ बाल साहित्यकार डॉ दिनेश पाठक शशि जी की साहित्यिक यात्रा की कुछ महत्वपूर्ण बातें डॉ अनुराधा प्रियदर्शिनी के साथ
साक्षात्कार | बात-चीत डॉ. अनुराधा प्रियदर्शिनी1 Sep 2025 (अंक: 283, प्रथम, 2025 में प्रकाशित)
डॉ. दिनेश पाठक शशि का नाम हिन्दी साहित्य जगत में किसी परिचय का मोहताज नहीं है। गत 51 वर्ष से हिन्दी साहित्य की विविध विधाओं में आप ने सृजन किया है और 5 कहानी संग्रह 3 ब्रजभाषा कहानी संग्रह, एक कविता संग्रह, एक-एक जीवनी, नाटक, निबन्ध, व्यंग्य तथा लघुकथा की पुस्तक साथ ही 14 बाल कहानी संग्रह, एक-एक बाल उपन्यास, बाल कविता, बाल आलेख और बाल समालोचना के सहित 45 मूल पुस्तके और 19 संपादित कुल 64 पुस्तकें प्रदान कर आपने हिंदी साहित्य में श्रीवृद्धि की है।
आपने श्री छत्रपति शिवाजी महाराज विश्व विद्यालय कानपुर से “हिन्दी भाषा एवं साहित्य के परिप्रेक्ष्य में भारतीय रेल और भारतीय रेल के हिन्दी साहित्यकार” विषय पर पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त की है। आप रेलवे विभाग से विद्युत इंजीनियर के पद से जुलाई 2017 में सेवानिवृत होने के बाद से स्वतंत्र रूप से साहित्य सृजन एवं नए लेखकों को लेखन के प्रति प्रेरित करते हुए उनका उचित मार्ग दर्शन के कार्य में संलग्न हैं।
आपकी तीन बाल कहानियाँ कक्षा 1, 2, 6 के हिन्दी पाठ्यक्रम में तथा एक ब्रजभाषा कहानी बी.ए. के पाठ्यक्रम में पढ़ाई जा रही हैं। आप गृहमंत्रालय के राजभाषा विभाग के राजभाषा सलाहकार समिति के चयनित सदस्य भी रहे हैं। पण्डित हरप्रसाद पाठक-स्मृति, अखिल भारतीय बाल साहित्य पुरस्कार समिति मथुरा के सचिव एवं बाल किरण मासिक पत्रिका बस्ती के संरक्षक भी हैं।
आपको पिट्सबर्ग अमेरिका की पत्रिका सेतु का विशिष्टता सम्मान-2024 तथा भारत सरकार के प्रेमचंद पुरस्कार, लालबहादुर शास्त्री पुरस्कार एवं उत्तर प्रदेश सरकार के अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान, श्रीधर पाठक नामित पुरस्कार तथा बाल साहित्य का सर्वोच्च पुरस्कार, “बाल साहित्य भारती सम्मान” तथा मध्यप्रदेश साहित्य अकादमी भोपाल का “गजानन माधव मुक्तिबोध पुरस्कार” सहित तीन दर्जन से अधिक साहित्यिक संस्थाओं द्वारा सम्मानित, पुरस्कृत किया जा चुका है।
ऐसे व्यक्तित्व से बातचीत की अपनी प्रबल इच्छा को मैंने जुलाई 2024 में फोन पर इनको बताया तो इन्होंने विनम्रता पूर्वक अपनी व्यस्तताओं का उल्लेख करते हुए मुझसे कुछ समय की अनुमति माँगी। कई महीने बाद मेरे द्वारा दूसरी और तीसरी बार पूछने पर भी वही विनम्र उत्तर कि अभी कुछ साहित्यकारों की कृतियों की भूमिका लेखन और कुछ की पांडुलिपियाँ संशोधन हेतु और कुछ कृतियों की समालोचना का कार्य शेष है। यानी अपने कार्य को छोड़कर, अन्य साहित्यकारों के कार्य को इतना महत्त्व देने वाले व्यक्ति से बातचीत की इच्छा और अधिक प्रबल हुई तो मैं धैर्य पूर्वक प्रतीक्षा करती रही।
आख़िर ठीक एक वर्ष बाद यानी जुलाई 2025 में डॉ. दिनेश पाठक शशि का वाट्स अप मैसेज मिला, “आपको इतनी प्रतीक्षा करनी पड़ी, इसके लिए क्षमा प्रार्थी हूँ। आप अन्यथा न लें इसलिए कुछ कार्यों को स्थगित करके, मैं आपको समय देने के लिए तैयार हूँ।”
मैंने धन्यवाद किया और 6 जुलाई 2025 को डॉ. दिनेश पाठक शशि के साथ बातचीत का सिलसिला बना। प्रस्तुत हैं उसी बातचीत के कुछ अंश:
डॉ. अनुराधा प्रियदर्शिनी:
आप रेलवे में विद्युत अभियन्ता के रूप में कार्यरत थे ऐसे में साहित्य में आपकी रुचि कब और कैसे उत्पन्न हुई?
डॉ. दिनेश पाठक शशि:
आदरणीया अनुराधा जी, इसके पीछे जीवन का एक विचित्र संयोग जुड़ा हुआ है। दरअसल मेरा ऐसा मानना है कि मनुष्य कुछ नहीं करता, ईश्वर को जिस मनुष्य से जिस समय, जो कार्य कराना होता है, उसी के अनुसार उसकी परिस्थितियाँ और परिवेश बना देता है। फिर वह मनुष्य, उस समय वही कार्य करता है ठीक एक कठपुतली की तरह। कठपुतली नचाने वाला जिस तरह कठपुतली की डोरी को चलाता है, कठपुतली वैसे-वैसे ही नाचती रहती है। ठीक यही बात प्रत्येक प्राणी पर भी लागू होती है।
तो आपने पूछा कि विद्युत अभियन्ता के रूप में कार्यरत रहते हुए साहित्य में मेरी रुचि कब और कैसे हुई?
हुआ यह कि जब मैं कक्षा 6-7 में पढ़ता था, उस समय मेरे एक सहपाठी श्री नरेन्द्र सिंह के भाई साहब, सस्ता साहित्य मण्डल दिल्ली में सर्विस करते थे। वहाँ से वह अपने छोटे भाई के लिए बहुत ही उत्कृष्ट साहित्यिक पुस्तकें ले आया करते थे। नरेन्द्र सिंह की उन पुस्तकों को पढ़ने में कोई रुचि नहीं थी। परिणाम स्वरूप उन लगभग डेढ़ हज़ार पुस्तकों को मैं एक पुस्तकालय अध्यक्ष की तरह नरेन्द्र सिंह की बैठक में व्यवस्थित तरीक़े से रखता था और वहीं से लेकर एक-एक करके मैंने वह सारी पुस्तकें पढ़ डालीं। रवीन्द्रनाथ टैगोर, शरतचंद्र, बंकिमचंद्र, विमलमित्र, रांगेय राघव, गौरीशंकर राजहंस, यशपाल, जैनेन्द्र जैन, शिवानी, विष्णु प्रभाकर आदि-आदि बड़े से बड़े साहित्यकार के उपन्यास, कहानी तो पढ़े ही कर्नल रंजीत और ओमप्रकाश शर्मा आदि के जासूसी उपन्यास भी बहुत से पढ़ डाले थे। उस 13-14 वर्ष की उम्र में पढ़ी गई उन पुस्तकों ने मेरे हृदय में अति संवेदशीलता एवं भावुकता को जन्म दिया जिसने आगे चलकर लेखन की ओर मुझे प्रवृत्त किया। ईश्वर को मुझसे लेखन कराना था फिर चाहे में अभियन्ता रहते हुए करूँ या कुछ और करते हुए और वैसा ही उसने मेरा परिवेश बना दिया।
डॉ. अनुराधा प्रियदर्शिनी:
आपकी रचनाएँ पत्र-पत्रिकाओं में कब प्रकाशित होने लगीं थीं? तथा प्रारम्भ में किन पत्रिकाओं में प्रकाशित हुईं?
डॉ. दिनेश पाठक शशि:
इंजीनियरिंग में पढ़ाई करते समय ही मेरी रचनाएँ भारत के अनेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगी थीं। सबसे पहली रचना एक कविता थी जिसका शीर्षक था, ‘कार्बन और भगवान’। यह विद्यालय की पत्रिका ‘टैगमैग’ में सन् 1975 में प्रकाशित हुई थी। उसके बाद किशोर श्रीवास्तव जी के सम्पादन में झाँसी से प्रकाशित होने वाली पत्रिका ‘मृगपाल’ में एक हास्य कहानी प्रकाशित हुई। और भी कई पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित होने लगीं किन्तु पैसा देने वाली पत्रिकाओं में पहली कहानी ‘सजा’ शीर्षक से चंपक पत्रिका के वर्ष-1979 के अप्रैल1 अंक में प्रकाशित हुई थी जिसपर उस समय चालीस रुपये का पारिश्रमिक मिला था। उसके तुरन्त बाद यानी भूभारती के मई-1979 अंक में बड़ों की कहानी, जिसपर उस समय 60 रुपये पारिश्रमिक के रूप में मिले थे।
डॉ. अनुराधा प्रियदर्शिनी:
प्रकाशन के लिए रचनाएँ भेजने की प्रक्रिया आदि के बारे में कुछ बतायें।
डॉ. दिनेश पाठक शशि:
अनुराधा जी आपने यह बहुत ही उत्तम प्रश्न किया है। वह इसलिए कि आज भी बहुत से नव लेखक ही नहीं, वर्षों से लिख रहे और लिख-लिखकर डायरियाँ भर-भर के रखने वाले भी बहुत से साहित्यकारों को नहीं पता होता कि पत्र-पत्रिकाओं को रचना भेजने का सही तरीक़ा क्या होता है। परिणाम स्वरूप रचनाएँ अस्वीकृत होकर लौट आने पर वे निराश हो जाते हैं। वास्तविकता यह है कि रचनाओं के प्रकाशन में सफलता प्राप्त करने के लिए रचनाएँ भेजने का सही तरीक़ा आने पर आधी सफलता मिल जाती है। यह बात मैंने अपने अनुभवों से स्वयं सीखी।
अपनी रचनाओं के प्रकाशन के बारे में बहुत ही दिलचस्प क़िस्सा बताता हूँ। कक्षा ग्यारह में पढ़ते समय मैं किसी बड़े पुस्तकालय में जब पहली बार गया तो उसमें मैंने बहुत सी पत्रिकाएँ जैसे धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, कादम्बिनी, पराग, चंदामामा, लोटपोट, नंदन, चंपक आदि देखीं। उनको पढ़ने पर मुझे लगा कि इस तरह की कहानियाँ तो मैं भी लिख सकता हूँ। और बस, जब भी अवसर मिलता मैं अपनी रफ कॉपी में कुछ न कुछ लिखने लगा। टेढ़ी-मेढ़ी कविता की कुछ लाइनें या कुछ कहानी जैसी सामग्री आदि।
अब मेरे युवामन में प्रश्न यह उठता था कि इन सारी पत्रिकाओं में ये छपती कैसे हैं, किससे पूछा जाय? बहुत से अध्यापकों और मित्रों से भी पूछा पर सही-सही कोई न बता सका तो एक दिन मैंने एक अंतर्देशीय पत्र पर कुछ लिखा और लोटपोट पत्रिका के पते पर भेज दिया।
15 दिन बाद डाक से मुझे एक लिफ़ाफ़ा मिला। खोलकर देखा तो उसमें मेरे द्वारा लोटपोट को भेजा गया वह अंतर्देशीय पत्र था तथा सम्पादक का रचना अस्वीकृति का पत्र भी था। किन्तु उस लिफ़ाफ़े में सम्पादक ने एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण चीज़ भी भेजी थी। लेखकों द्वारा रचनाएँ भेजने के नियम, जैसे फुलस्केप काग़ज़ के एक ओर लिखें, बायीं ओर एक-डेढ़ इंच का तथा सीधी ओर आधा इंच का हाशिया छोड़ें। पहले पृष्ठ पर ऊपर बायें कोंने में रचना की विधा, बीच में शीर्षक तथा दायीं ओर अपना नाम, पता आदि लिखें। रचना के अंत में भी अपना नाम, पता आदि लिखें। (वर्तमान में मोबाइल नम्बर और ईमेल भी लिख देना ठीक रहता है) ये वे नियम हैं जिनको आज भी नवोदित साहित्यकार नहीं जानते हैं। उन नियमों को पढ़कर मुझे जो प्रसन्नता हुई वह अवर्णनीय है।
उन्हीं नियमों का पालन करते हुए मैंने भेजना प्रारम्भ किया और पत्रिकाओं से लगातार स्वीकृति पत्र मिलने लगे।
डॉ. अनुराधा प्रियदर्शिनी:
आपकी साहित्यिक यात्रा में परिवारजनों की क्या भूमिका थी?
डॉ. दिनेश पाठक शशि:
मेरी साहित्यिक यात्रा में परिवारीजनों की बहुत बड़ी सहयोगी भूमिका यह रही कि उन्होंने मुझे इस बात के लिए कभी नहीं टोका कि मैं अपनी पाठ्य-पुस्तकों के अतिरिक्त भी बहुत सी पुस्तकें क्यों पढ़ता रहता हूँ। पिताजी ज्योतिष और कर्मकाण्ड के प्रकाण्ड विद्वान थे। वह वी.पी.पी. से अक्सर ही पुस्तकें मँगाते रहते थे। जिनमें उनकी ज्योतिष सम्बन्धी पुस्तकें अधिक होती थीं। उन सब पुस्तकों को भी पिताजी से पहले ही मैं पढ़ लिया करता था। माँ, धर्मपरायण गृहणी थीं जो अक्सर ही मुझे यह कहती रहती थीं कि कभी-कभी खेलने भी चला जाया कर। पूरे दिन किताबों में ही घुसा रहता है कीड़े की तरह। तीन भाई और तीन बहनों में, मैं पाँचवें नम्बर की संतान हूँ। बचपन में अपने पिताजी के सानिध्य में ही अधिक रहा अतः उनके दिए संस्कारों:
मातृवत् परदारेषु परद्रव्येषु लोष्ठवत्।
आत्मवत् सर्वभूतेषु यः पश्यति सः पण्डितः॥
(दूसरों की पत्नी को अपनी माँ के समान समझना चाहिए। दूसरों के धन को मिट्टी के ढेले के समान तुच्छ समझना चाहिए। सभी जीवों को अपने समान आत्मा वाला समझना चाहिए। जो व्यक्ति इस प्रकार देखता और व्यवहार करता है, वही सच्चा ज्ञानी/पण्डित है।)
और
अयं निजः परो वेति गणना लघुचेतसाम्।
उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्॥
("यह अपना है, वह पराया है"—यह सोच छोटे मन वाले (संकीर्ण विचारों वाले) लोगों की होती है। लेकिन उदार चरित्र वाले लोगों के लिए, पूरी पृथ्वी ही परिवार होती है।)
ने सर्विस और समाज में कभी मार्ग से बिचलित नहीं होने दिया। आज भी उनका पालन करता हूँ।
डॉ. अनुराधा प्रियदर्शिनी:
आप एक प्रतिष्ठित बाल साहित्यिकार हैं जिन्होंने बच्चों के लिए अनेकानेक साहित्य सृजन किया है। जिसमें कहानी कविता नाटक और उपन्यास सम्मिलित हैं। बाल-साहित्य के सृजन के समय शब्दों के चयन का स्तर क्या होना चाहिए?
डॉ. दिनेश पाठक शशि:
अनुराधा जी, मैं आपको बताना चाहूँगा कि लेखन में प्रवृत्त होने के बाद मैंने बाल साहित्य और बड़ों का साहित्य, दोनों का ही लेखन साथ-साथ किया। जिस महीने मेरी बड़ों के लिए लिखी गई कोई रचना कादम्बिनी या नवनीत में प्रकाशित होती थी, संयोग से उसी महीने बाल पत्रिका चंपक या बालक या बालहंस में भी कोई न कोई बाल रचना प्रकाशित हो जाया करती थी। सन् 1975 से 1985 के बीच का दौर ऐसा रहा कि एक-एक महीने में 6-6 पत्रिकाओं में रचनाएँ एक साथ प्रकाशित हो जाती थीं।
बाल साहित्य के सृजन के समय शब्दों के चयन के स्तर का प्रश्न आपने किया है। इस सम्बन्ध में मैं एक उदाहरण देना चाहूँगा।
कथाबिंब के जून-सितम्बर-2024 अंक में उसके सम्पादक प्रबोध कुमार गोविल जी द्वारा अपने साक्षात्कार में भाषाई जटिलता के प्रश्न का उत्तर देते समय कहा गया यह वाक्य कि: “भाषा कभी भी सरल या कठिन नहीं होती। केवल आप उससे परिचित या अपरिचित होते हैं।” बहुत महत्त्वपूर्ण है।
मान लीजिए आप उर्दू नहीं जानते और आपके सामने एक उर्दू की पुस्तक पढ़ने के लिए रख दी जाय। तो, चूँकि आप उस भाषा से अपरिचित हैं इसलिए आपको वह कठिन लगेगी यानी आपको कोई आनन्द नहीं आयेगा। उसी तरह जब आप अपनी कोई रचना बच्चों को ध्यान में रखकर लिख रहे हैं तो निश्चित ही ऐसी भाषा का प्रयोग समीचीन होगा जिससे बच्चे परिचित हों यानी बच्चे उसे प्रसन्नता से पढ़ें और पढ़कर आनन्दित हों और ऐसा आप तभी कर पायेंगे जब आप अपनी वर्तमान उम्र को भूलकर अपने बचपन में विचरण करने लगें।
डॉ. अनुराधा प्रियदर्शिनी:
क्या बाल साहित्य पीढ़ियों के बीच के अंतर को कम करने में सहायक है?
डॉ. दिनेश पाठक शशि:
आदरणीया, समय परिवर्तनशील है और समय के साथ-साथ सभी कुछ स्वतः ही बदलता रहता है। एक समय हुआ करता था कि बच्चा माता-पिता के सामने कुछ कहने में हिचकिचाता था। पिता तक अपनी कोई बात पहुँचाने के लिए माँ का आश्रय लेता था। बड़ों के सामने बोल नहीं पाता था। वर्तमान में युग का प्रभाव कहिए या शिक्षा का प्रभाव या सामाजिक जाग्रति, आज एक पौत्र भी अपने बाबा-दादी के सामने ऐसे बात करता है जैसे वे बड़े-बुज़ुर्ग न होकर उसके मित्र हों।
लेकिन जिस पीढ़ियों के अन्तर की बात आप कहना चाह रही हैं वह एक अलग बात है। उस ज़माने में माता-पिता से बात करने में डर लगता था। उनके प्रति भावनात्मक लगाव, उनके प्रति हृदय में आदर का भाव, उनके प्रति सेवा भाव होते हुए भी वे दूर-दूर रहते थे। आज नई पीढ़ी के माता-पिता ही नहीं उनकी संतानें भी अपने-अपने कामों में इतने व्यस्त हो गये हैं कि उनके पास अपने बुज़ुर्गों को देने के लिए, उनके हाल-चाल पूछने के लिए समय ही नहीं है। तो जैनेरेशन गैप तो किसी न किसी रूप में हर युग में रहा है।
फिर दूसरी बात, जब संयुक्त परिवार हुआ करते थे, बच्चे सहज रूप से ही अपनी संस्कृति को परम्परानुगत रूप से आत्मसात कर लिया करते थे। सोने से पहले दादी-नानी या बाबा-नाना द्वारा सुनाई गई छोटी-छोटी कहानियाँ या रामचरित मानस की चौपाइयाँ बच्चों में चरित्र निर्माण का कार्य करती थीं। अब तो न चाहते हुए भी नौकरी पेशा व्यक्ति की मजबूरियाँ, संयुक्त परिवारों को एकल परिवारों में बदले दे रही हैं।
अब आती है बात बाल साहित्य की। चूँकि बच्चा ही किसी भी राष्ट्र की नींव का पत्थर और भावी नागरिक होता है। अतः इस बात का ध्यान रखते हुए बाल साहित्य का तो हमेशा से ही उद्देश्य यही रहा है कि बच्चों के सर्वांगीण विकास यानी शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक और सामाजिक विकास की दिशा में उन्हें अग्रसर करना। एक ऐसा नागरिक बनाना जो राष्ट्रप्रेमी भी हो।
इस बारे में बाल-मनोवैज्ञानिकों का ऐसा मानना है कि स्वस्थ बाल-साहित्य पढ़ने से बच्चों का विकास अधिक तीव्रता से होता है क्योंकि पढ़ना केवल भौतिक अनुभव ही नहीं बल्कि उसके द्वारा भावनात्मक अनुभव भी प्राप्त होता है। इसलिए बाल-साहित्य बच्चों की रुचि, उत्सुकता तथा महत्वाकांक्षा को परिष्कृत रूप प्रदान करता है। अच्छा बाल साहित्य उन्हें देश-प्रेम, एकता, त्याग, शौर्य, स्वाभिमान व मानव मूल्यों के प्रति प्रेरित करता है।
लगभग दो हज़ार वर्ष पूर्व जब दक्षिण के राजा अमर शक्ति के तीनों पुत्र बहुशक्ति, उग्रशक्ति, और अनन्तशक्ति उच्छृंखलता की सीमाएँ पार कर रहे थे और राजा ने उनके भविष्य के प्रति घोर चिंता में अपने राज्य में घोषणा तक करा दी थी कि इन तीनों को सुधारने वाले को बहुत सारा इनाम दिया जायेगा तब वह बाल साहित्य ही था जिसका सृजन विष्णुशर्मा ने पंचतंत्र के रूप में किया था जिसने तीनों राजकुमारों को नीति एवं व्यवहार कुशल नागरिक बना दिया था।
घर के बुज़ुर्ग यानी बच्चों के दादा जब अपने पौत्र-पौत्रियों को चिकने काग़ज़ पर छपी रंगीन चित्रों वाली किसी बाल कविता की पुस्तक से कोई कविता या बाल कहानी की पुस्तक से कोई बाल कहानी उनको पास बैठाकर सुनायें तो बच्चों को आननद न आये, ऐसा हो ही नहीं सकता। वे अपने दादाजी के कंधों पर चढ़-चढ़कर भी रचना सुनते हुए आनन्द लेंगे। इसलिए इसमें कोई संदेह नहीं कि बाल साहित्य पीढ़ियों के अन्तर को कम करने में सहायक है।
डॉ. अनुराधा प्रियदर्शिनी:
कुछ साहित्यकारों का मानना है कि बाल साहित्य लिखने वाले समसामयिक विषयों को अनदेखा करने के अभ्यस्त हो जाते हैं?
डॉ. दिनेश पाठक शशि:
जो साहित्यकार ऐसा मानते हैं वे या तो स्वयं ही साहित्यकार नहीं हैं या फिर उनके अध्ययन में कमी है। आज का बच्चा इतना जिज्ञासु है, इतना ज्ञान-वान और तीव्रबुद्धि का है कि उसे बातों से बहलाया नहीं जा सकता। उसे समसामयिक विषयों की जानकारी आज बड़ों से कहीं अधिक है।
तो जो साहित्यकार यदि समय के साथ अपने लेखन में परिवर्तन कर पाने में असमर्थ है यानी समसामयिक विषयों को अनदेखा करके सृजन कर रहा है तो उसके सृजन को बच्चा सिरे से नकार देगा। इसलिए साहित्यकारों के सामने भी आज यह बहुत बड़ी चुनौती आप कह सकती हो।
पहले केवल राजा-रानी, और परी कथाएँ लिख, कहकर काम चल जाता था किन्तु आज ‘एआई’ का युग है। हम पुरानी पीढ़ीं की कल्पना से परे का युग चल रहा है। लेकिन बच्चे उसे सहज में स्वीकार कर रहे हैं। उसके साथ साथ चल रहे हैं।
डॉ. अनुराधा प्रियदर्शिनी:
क्या आप भी ऐसा महसूस करते हैं, कविता लेखन में मात्रा भार ठीक करते समय कई बार लोग अशुद्ध-शब्दों का प्रयोग कर देते हैं, यह कहाँ तक उचित है?
डॉ. दिनेश पाठक शशि:
अनुराधा जी मैंने शुरू-शुरू में एक बात कही थी कि ईश्वर को जिस मनुष्य से जिस समय, जो कार्य कराना होता है, वह मनुष्य, उस समय वही कार्य करता है ठीक एक कठपुतली की तरह। कहने का आशय यह है कि कोई भी रचना सायास नहीं लिखी जा सकती। कविता तो बिलकुल ही नहीं। कविता पूर्णतः हृदय की चीज़ है। अगर कविता लिखकर मात्राएँ गिनने की आवश्यकता पड़ रही है तो समझिये कि वह काव्य रचना हृदय से उत्पन्न रचना नहीं है। काव्य रचना के लिए तो जब माँ सरस्वती कृपा करती हैं तो हृदय के भाव नदी की भाँति कल-कल करते हुए स्वतः ही प्रवाहमान हो उठते हैं। उसके लिए मात्राएँ गिनने की आवश्यकता नहीं होती। संत शिरोमणि तुलसीदास जी ने इतना बड़ा महाकाव्य श्री रामचरित मानस, मात्राएँ गिन-गिन कर नहीं लिखा था। फिर भी आप कोई भी दोहा उठाकर देख लीजिए। नपी-तुली 13-11, 13-11 मात्राएँ ही मिलेंगी।
डॉ. अनुराधा प्रियदर्शिनी:
लिखने के साथ ही आप विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में संपादक और संरक्षक हैं। एक संपादक को किन किन चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है?
डॉ. दिनेश पाठक शशि:
अनुराधा जी, मेरे अपने विचार से सम्पादक का कार्य एक बहुत ही ज़िम्मेदारी का कार्य होता है साथ ही बहुत ही समय साध्य और श्रमसाध्य भी। कुशल सम्पादक वही कहला सकता है जिसका हर क्षेत्र में विशद् अनुभव हो, और अनुभव प्राप्त होता है विशद अध्ययन से। लेखक द्वारा भेजी गई रचना वास्तव में मौलिक, अप्रकाशित है या नहीं, जिस लेखक ने भेजी है उसी की है या चोरी की है? किसी प्रकार के विवाद को उत्पन्न करने वाली तो नहीं है? पत्रिका के स्तर के अनुरूप है या नहीं? और भी अनेक बहुत सी बातें होती हैं जो केवल गहन अध्ययन, अध्यवसाय के फलस्वरूप ही प्राप्त होती हैं। लेकिन वर्तमान में सम्पादन कार्य से जुड़े कुछ लोगों में भी शिथिलता या अनुभवहीनता परिलक्षित होने लगी है जैसे कि कुछ पाठ्य पुस्तकों में सम्पादनकर्ताओं ने किसी रचनाकार की रचना को किसी अन्य की रचना बता कर शामिल कर दिया। इस बारे में 11 अगस्त 2024 को आपने ही मेरे पास सी बी एस ई बोर्ड की कक्षा पाँच की पाठ्यपुस्तक का वह पेज भेजा था जिसमें सम्पादक द्वै ने कवि वृन्द के दोहे को रहीमदास जी का दोहा लिखकर समाहित किया हुआ था, अनुभवहीनता का इससे अधिक भयंकर उदाहरण और क्या होगा?
डॉ. अनुराधा प्रियदर्शिनी:
नए रचनाकारों को आप क्या सन्देश देना चाहेंगे?
डॉ. दिनेश पाठक शशि:
अनुराधा जी, मैं तो स्वयं ही अभी अपने आप को साहित्य का एक विद्यार्थी ही मानता हूँ तो फिर किसी को सन्देश देने का अहंकार क्योंकर पालूँ? हाँ इतना ज़रूर निवेदन करूँगा कि साहित्य में रातों-रात प्रसिद्धि पा लेने की जो होड़ वर्तमान में दिखाई दे रही है वह सब तरह से साहित्य का बहुत अहित कर रही है। कच्चा-पक्का कुछ भी लिखा और फ़ेसबुक, वाट्सअप पर परोस दिया। उस परोसे हुए का एक भी शब्द न पढ़ने के बावजूद वाह-वाह करने वालों की भीड़ भी कम नहीं है। विशेषकर लेखिकाओं की रचनाओं पर। ऐसे में प्रकाशकों को पैसा देकर अपनी एक-दो पुस्तक छपवा लेने के बाद वह लेखक या लेखिका अपने आप को सर्वश्रेष्ठ घोषित करने में विलम्ब नहीं करता।
इसलिए मेरा तो यही निवेदन है कि साहित्य लेखन एक साधना है और उसे साधना के रूप में ही लिया जाना चाहिए। इसके लिए आवश्यक है कि प्रख्यात् साहित्यकारों के उत्कृष्ट साहित्य का अधिक से अधिक अध्ययन किया जाये। प्रत्येक साहित्यकार की अपनी अलग भाषा-शैली होती है जिसके निरन्तर अध्ययन से नवोदितों को बहुत कुछ सीखने को मिलता है।
डॉ. अनुराधा प्रियदर्शिनी:
आपने बच्चों के साथ-साथ बड़ों के लिए भी हिन्दी साहित्य की विविध विधाओं में लिखा है। जिनमें से एक विधा लघुकथा भी है। आप अपनी काई लघुकथा सुनाना चाहेंगे?
डॉ. दिनेश पाठक शशि:
जी, अवश्य।
एक लघुकथा सुनिए।
लघुकथा का शीर्षक है—साया
इस लघुकथा का उद्देश्य, घर के बुज़ुर्गों की उपस्थिति के महत्त्व को दर्शाना है।
साया
दादीजी की अस्वस्थता जितनी अधिक होती जा रही थी उससे भी अधिक इस स्थिति में बात-बात पर उनका चिड़चिड़ापन पूरे परिवार को असहनीय होता जा रहा था।
उनके इस व्यवहार से तंग आकर घर के लोग ही नहीं पास-पड़ोस के लोग भी ऊबने लगे थे। “लगता है अमृत पीकर आई है बुढ़िया, एक सौ पाँच साल की हो गई फिर भी . . .”—आस-पड़ोस की महिलाएँ अपने विचार व्यक्त किए बिना न रहतीं।
किसी चीज़ की ज़रूरत पड़ने पर दादी बार-बार एक ही बात को दुहराने लगतीं तो तंग आकर छुटका बोल पड़ता, “ओफ्फो दादीजी आप तो बेमतलब का शोर मचाने लगती हो थोड़ी सी तसल्ली भी रखा करो।”
दादीजी पूरी रात आवाज़ लगा-लगाकर सबकी नींद में ख़लल डालती रहतीं मगर ऐसी हालत में भी पापा पूरी तरह शान्त बने रहकर दादीजी की सेवा में तत्पर थे। उन्हें न तो दादीजी द्वारा बार-बार पुकारे जाने पर ग़ुस्सा आता और न दादीजी द्वारा रात भर जगाये जाने पर और न बच्चों जैसी ज़िद करने पर ही।
इसके बावजूद आख़िर एक दिन दादीजी चल बसीं। पापा एकदम से गुमसुम हो गये। आख़िर जब उनकी चुप्पी मुझसे बरदाश्त नहीं हुई तो मैंने टोक ही दिया, “क्या बात है पापा, दादीजी के गुज़र जाने के बाद से आप कुछ ज़्यादा ही गुमसुम से हो गये हैं। आख़िर एक सौ पाँच साल की थीं दादी। उन्हें तो जाना ही था। ऐसी स्थिति में भी आपने उनकी जितनी सेवा की उतनी हर कोई नहीं कर सकता। फिर भी आप . . .”
“तू ठीक कह रहा है बेटा,” पापा ने अपनी चुप्पी तोड़ी, “लेकिन तेरी दादी जैसी भी थीं, जब तक ज़िन्दा रहीं मुझे अपने ऊपर उनका ‘साया’ प्रतीत होता था और मैं उनके सामने अपने आपको बहुत छोटा बच्चा समझता रहता था। लेकिन अब उनका साया अपने ऊपर से उठ जाने से, अब मैं ही घर का सबसे बुज़ुर्ग मुखिया बन गया हूँ।
“बुज़ुर्ग का साया जब तक अपने ऊपर रहता है कितना सुकून मिलता है, ये बात तुम मेरे चले जाने के बाद समझोगे बेटे।”
डॉ. अनुराधा प्रियदर्शिनी:
बाल साहित्य में भी आपने बाल कहानी, बाल कविता, बाल समालोचना एवं बाल काव्य भी रचा है। चलते-चलते क्या आप अपनी एक बाल कविता भी सुनाना चाहेंगे?
डॉ. दिनेश पाठक शशि:
जी, अवश्य। नये सन्दर्भों में चंदा मामा के ऊपर लिखी गई बाल कविता सुनिए। इसमें एक बच्ची अपने छोटे भाई के प्रश्नों को सुन सुनकर चंदा मामा से ही प्रश्न कर बैठती है:
चन्दा मामा
चन्दा मामा, चन्दा मामा मुझको बहुत सताते हो।
तकती रहती राह तुम्हारी नहीं समय पर आते हो॥
इतने बड़े हो गये फिर भी शरम नहीं तुमको आती।
आते हो तुम रोज़ देर से राह देख मैं सो जाती॥
तारों की इस महासभा के तुम प्रधान बन जाते हो॥
भैया मुझसे रोज़ पूछता चाँद कहाँ पर रहता है।
क्या खाता है, क्या पीता है शीत-घाम क्यों सहता है?
कभी चाँद के गाल फूलकर कुप्पा से हो जाते हैं।
कभी पिचक कर रोटी के टुकड़े जैसे रह जाते हैं॥
भैया की इस अबूझ पहेली, में, क्यों हमें फँसाते हो?
क्या तुमने भी नेताओं की तरह घोटाले कर डाले।
इसीलिए क्या लगा रखे हैं अपने होंठों पर ताले?
क्या तुमने भी स्विसबैंक में अपना खाता खोला है?
कहाँ छुपा रक्खा है मामा टॉफ़ी वाला झोला है?
छुपे-छुपे क्यों घूम रहे हो, क्यों इतना घबराते हो?
नहीं किया घोटाला मैंने नहीं कहीं खाता खोला
दूर हो गया हूँ मैं तुमसे जब से मनुज मुझ पर डोला
मुझको जब से मानव ने कंकड़-पत्थर का बतलाया।
बच्चों मैंने उस दिन से ही नहीं अभी तक कुछ खाया॥
तुमको मैं अच्छा लगता हूँ। मुझको भी तुम भाते हो॥
डॉ. अनुराधा प्रियदर्शिनी:
आदरणीय पाठक जी आपने अपनी व्यस्तता के बावजूद समय निकालकर हमारे साथ जुड़े और अपने अनुभवों को हमारे बीच साझा किया उसके लिए मैं समस्त पाठकों की ओर से कृतज्ञता प्रकट करती हूँ। आप यूँ ही निरंतर साहित्य साधना करते रहें और आपके स्वस्थ जीवन की मंगलकामना करती हूँ।
मथुरा के वरिष्ठ बाल साहित्यकार डॉ. दिनेश पाठक शशि जी की साहित्यिक यात्रा की कुछ महत्वपूर्ण बातें डॉ अनुराधा प्रियदर्शिनी के साथ
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