पापा और शहर
काव्य साहित्य | कविता दीपक1 Feb 2023 (अंक: 222, प्रथम, 2023 में प्रकाशित)
मैं गाँव के साथ-साथ बहुत दूर से आया हूँ
इस शहर में लोगों के साथ गंगा माँ को देखा
सूर्य किरण के साथ उसको रोकते बड़ी-बड़ी मंज़िलों को देखा
बड़ी-बड़ी गाड़ियाँ के बीच मैं और पापा रोज़ गुज़रते
मैं कभी यह जान नहीं पाया कि
उनका हाथ मैंने पकड़ा है कि उन्होंने मेरा
दिन से कब रात होती यह मुझे कभी पता न चला
मैं बिल्कुल ही दुबला पतला-सा एकदम
पर, पापा मुझे हमेशा बाबू कहते
मुझे पता है, पापा मेरे अलावा एक और जन को बाबू कहते हैं
वह है उनका अफ़सर
वह भी यही चाहते हैं कि मैं एक अफ़सर बनूँ
और लोगों की मदद करूँ
मैं हमेशा अपने पापा की तरह बना
ईमानदार, निःस्वार्थ और मददगार
आज भी पापा मुझे बाबू कहते है
पर, मैं शायद ईमानदार, निःस्वार्थ और मददगार नहीं रहा!!
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