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पिता ‘एक अभेद्य चट्टान’ 


 
वेदना पारावार की तरह विकराल 
चेहरे पर शिकन तक नहींं दिखता जैसे आनंद है 
 
क्षीणकाय होता जा रहा चिंताओं से घिरा 
प्रतीत करा रहा मित्रों को ये बढ़ती उम्र का असर है 
 
निज सुत-सुता, भार्या रहे व्यथा से कोसों दूर 
आए दिन करता रहता व्रत और उपवास कई हज़ार है 
 
पर-पीड़ा में करता रहा सदा तत्पर सहयोग
स्व-संताप में रहता एकाकी, नहीं चाहता अपने रहे व्याकुल है 
 
जाता है भगवान के दर बार-बार 
ख़ुद के लिए कभी नहींं परिवार-सुख हेतु प्रार्थना में रखता भार है
 
आत्मीय को विपदा में देख उसका दिल करता चीत्कार
हे! भगवान उसके सारे दुःख मुझे दे-दे ये उसका हृदय-उद्गार है 
 
‘कांता’ को तो सब ख़बर पर संतान रहे बेख़बर 
जननी की टीस, सब्र और संताप देख अनुमान लगाती संतान है 
  
सयानी होती औलाद सोचती ये कैसी चट्टान? 
अब तो करने जनक-स्वप्न पूरे नहीं तो हम सब पर धिक्कार है 
 
देखना संतान को उनके ऊँचे मुक़ाम पर 
एक बाप का जीवन तो शायद तभी साकार है॥

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